इस बार के इंडिया टुडे का शीर्षक है यह। पत्रिका ने धीरज खोते हुए लिख दिया है कि इंडिया नपुंसक है। लेकिन शीर्षक व्यापक बहस की मांग करती है। आतंकवाद को खुल कर मज़हबी नाम देते हुए कहा गया है कि भारत में इस्लामिक आतंकवाद से निबटने के लिए राजनीतिक इच्छाशक्ति नहीं है। पत्रिका के लेख में एक किस्म की बेचैनी दिखती है जो कई लोगों की भी हो सकती है। खासकर ऐसे वक्त में जब हर धमाका हमारे आपके बीच से किसी अज़ीज़ को अपाहिज़ बना देता है,मार देता है। लेकिन एक भी धमाका ऐसा नहीं गुज़रा जो इस्लाम के नाम पर हुए इस आतंकवाद के खिलाफ जनता में हिंदू और मुसलमान के हिसाब से फर्क कर दे। हर धमाके का दर्द दोनों समुदायों ने बराबरी से भुगता है और मिलकर एक दूसरे की मदद की है। संवेदनशील कहे जाने वाराणसी से लेकर मालेगांव और आर्थिक प्रगतिशील कहे जाने वाले हैदराबाद से लेकर बंगलूरु तक में धमाके के बाद कहीं हिंदू मुस्लिम की बात नहीं हुई।
इस्लाम के नाम पर आतंकवाद और इस्लामी आतंकवाद में क्या फर्क है बहस करने वाले तय करेंगे। लेकिन एक ऐसे वक्त में नपुंसकता का एलान करना कहां तक ठीक है। जब देश का हर मुस्लिम नेता या मौलाना यह कह रहा हो कि इस्माल का संबंध आतंकवाद से नहीं है। देवबंद से लेकर अहमदाबाद और दिल्ली तक में रैलियां निकाल कर इसका एलान किया गया कि इस्लाम के नाम पर आतंक फैलाने वालों की इस्लाम में क्या दुनिया में कोई जगह नहीं है। जयपुर धमाके बाद जब ईमेल आया तो उसमें कुछ मौलानाओं को भी निशाना बनाने की बात कही गई जो आतंकवाद का विरोध करते हैं। साफ है मुस्लिम समाज खुल कर इसकी निंदा कर रहा है। पहले भी शामिल नहीं था लेकिन सार्वजनिक निंदा इसलिए कर रहा है ताकि याद रहे कि मुसलमानों ने इसकी निंदा की है। याद रहे कि अहमदाबाद के धमाके के बाद लखनऊ में आतंकवादियों के लिए बददुआ पढी गई। ज़ाहिर है कोई व्यक्ति या छोटा सा समूह किसी के इशारे पर चलने पर कामयाब हो रहा है। मगर यह कहना कि इसके पीछे मुसलमान हैं या इस्लाम हैं इसकी ठीक से पड़ताल होनी चाहिए।
रही बात इंडिया के नपुंसकता की तो नपुंसक कौन है। क्या भारत के लोग नपुंसक हैं। या फिर सरकार नपुंसक है या फिर वो जनता नपुंसक है जो ऐसी सरकार चुनती है या फिर नपुंसक जनता ने तो मोदी की सरकार भी चुना। जो एलान करते रहे कि गुजरात से आंतकवाद का नामोनिशान मिटा दिया। आतंकवाद के नाम पर खास समुदाय को आतंकवाद समर्थक बता कर ज़लील करते रहे। और जब दुखद घटना हुई तो वहीं के अखबारों ने लिखना शुरु कर दिया कि बम निरोधक दस्ते से लेकर खुफिया एजेंसियों तक में लोग नहीं हैं। न अफसर न जासूस। तो फिर मोदी किस तैयारी के दम पर कह रहे थे कि उन्होंने आतंकवाद को मिटा दिया। अब क्या जवाब है उनके पास। पोटा नहीं है तो पुलिस तो है। और जनाब ने तो उस पुलिस का भी बंटाधार कर रखा है। क्या हर चीज़ को मर्दानगी और नपुंसकता के पैमाने पर देखा जा सकता है। क्या मोदी की मर्दानगी काम आई या फिर ऐसा मर्द चुनने में किसका कसूर था जिसने अपने शानदार कार्यकाल में कोई सशक्त एजेंसी तैयार नहीं की जो ऐसे आतंकवादी मंसूबों को कामयाब ही न होने दे। क्या पोटा के रहते जसवंत सिंह अज़हर मसूद को लेकर कंधार नहीं गए। क्या पोटा के रहते संसद सुरक्षित रह सकी। क्या किया गुजरात की सरकार ने। उनके मंत्री के इस बयान के अलावा कि आतंकवादी हमेशा एक कदम आगे सोचते हैं।
आतंकवाद का मसला है तो राजनीति होगी। अमेरिका में भी राजनीति होती है इंडिया में भी होगी। इस्लामी आतंकवाद होता तो मालेगांव की मस्जिद से लेकर हैदराबाद की मक्का मस्जिद तक में धमाके क्यों होते? क्या अजमेर शरीफ में धमाका होता? कट्टर इस्लाम मस्जिदों को पाक साफ करने की हिदायत देता रहता उन्हें मिटा देने की साहस उसमें भी नहीं है। वो कितना भी कट्टर क्यों न हो जिस दिन अल्लाह के ख़िलाफ हो जाएगा,उसकी इबादत की जगह के खिलाफ हो जाएगा,इस्लाम के नाम पर मरने वाले दो चार लोग भी न मिलेंगे। फिर ऐसा क्यों हुआ कि सभी आतंकवादी हमलों में हिंदू मुसलमान दोनों मारे गए।
आखिर नपुंसक कौन है। अगर इंडिया को नपुंसकता मिटानी है तो क्यों न वो दूसरी चीजों में भी मिटाये। भ्रष्ट नेता संसद की देहरी तक आ जाते हैं,भ्रष्ट नेता पार्टी के अध्यक्ष पद पर रहते हुए पैसा ले लेते हैं,बीजेपी को अपने आठ आठ सांसदों को बिक जाने के आरोप में निकालना पड़ता है,कांग्रेस को चुप रहना पड़ता है कि उसने पैसे दिये या नहीं दिये। मनमोहन सिंह इस दाग पर चुप्पी साध जाते हैं। क्या भारत की जनता नपुंसक इस बात के लिए नहीं है कि वह हर दिन टूटी सड़क देखती है लेकिन राम के नाम पर या पगड़ी के नाम पर या जाति के नाम पर उसी विधायक को वोट दे देती है जो घूस खाने के लिए सड़क को खराब हाल में छोड़ देता है। क्या पूरे भारत को नपुंसक कहना ठीक है। सरकार नपुंसक हो सकती है, पुलिस हो सकती है,कोई नेता हो सकता है लेकिन पुरा इंडिया। कहीं भड़काने का तो खेल नहीं चल रहा।
सवाल यह नहीं कि हम नामर्द हैं। सवाल यह है कि हम क्या कर रहे हैं। और कैसे तय करें कि कौन ठीक कर रहा है इसके लिए तो लोकतांत्रिक प्रक्रिया से बेहतर रास्ता क्या हो सकता है। सुषमा स्वराज अपना बयान वापस ले लेती हैं कि यूपीए के घूस कांड से ध्यान बंटाने के लिए अहमदाबाद में धमाके हुए। जब निंदा हुई तो व्यक्तिगत विचार कह कर उस बयान पर बनी रहती हैं। बदलाव इतना आया है कि यह बयान अब बीजेपी का नहीं है लेकिन सुष्मा स्वराज का है जो बीजेपी की हैं।
ऐसा भी नहीं है कि भारत के लोगों ने आतंकवाद का मिल कर सामना नहीं किया है। इस्लाम से पहले इस देश में आतंकवाद सिख धर्म के नाम पर आया। तब इस हिसाब से सिखों को सबक सिखाने के लिए दिल्ली में जो कत्लेआम हुआ क्या उसे ठीक कहा जा सकता है। क्या उसे कहा जा सकता है कि ये रही हमारी मर्दानगी। हम जल्दी भूल जाते हैं। आतंकवाद का मसला व्यवस्था के फेल होने का मसला है। भारत की नपुंसकता का मसला नहीं है। व्यवस्था यूपी से लेकर आंध्र और अब गुजरात में भी फेल हुई है। अच्छा है मिल कर राजनेता कुछ करें। वर्ना सुष्मा स्वराज की तरह व्यक्ति बयानों के दम पर या नपुंसकता या मर्दानगी की हुंकारे भरने से समस्याएं दूर नहीं होती।
22 comments:
ravish bahi theek kaha, aise samay mein jab jammu mein vivad chal, raha hai jagha jagha dhamake ho rahe hain aisa likhna theek nahi hai. magazine ko commercial valur dene ke chakar mein kahni kuch aisa na kar baithe yeh log ke jis ka nuskan hum sab ko bukatna pade
क्या भारत नपुंसक है? इंडिया टुडे को इस प्रकार के लेखन से बचना चाहिये। आखिर वे किसे भड़काना चाहते है? हिन्दू-मुसलमान लड़ने को तैयार नहीं हैं। धार्मिक पार्टियों को एक बात जान लेनी चाहिये कि काठ की हड़िया बार बार नहीं चढती। दंगे फासद का रास्ता छोड़ना होगा तभी जाकर धार्मिक राजनीतिक पार्टियां मुख्य धारा से जुड़ पायेंगी। कट्टरता तो पाकिस्तान में भी नही चली। मुत्ताहिद मजलीसे-अलम जैसी संगठन - जिसमें पाकिस्तान की जामयते इस्लामी सहित 6 धार्मिक पार्टियां हैं और इन्हें पिछले केन्द्रीय चुनाव में सिर्फ 6 सीटे आई है।
भारत में कुछ लोग हैं जो हिन्दू मुसलमान को लड़वाना चाहते हैं पर वे सफल नहीं हो पायेंगे। आजादी के बाद से कई दंगे हो चुके हैं लेकिन दंगे कराने वाले लोग हिन्दू-मुसलामान के बीच दरार पैदा नहीं कर पायेंगे। हां यह जरूर है कि धार्मिक पार्टियां सत्ता में आती है तो सत्ता का दुरूपयोगक कर कत्लेआम करवाती हैं। इससे कैसे निपटा जाये देश वासियों को यह सोचना होगा।
भारत एक रोचक देश है... इसे भारतीय जितनी अच्छी तरीके से समझते हैं अगर उसका १० गुना दम बाहर के लोग लगा दे तब भी नही समझ पाएंगे.... मीडिया का इंडिया को नपुंसक बताना फ़िर इसी मीडिया का ऐसी ही कुछ बात में जज्बा से भरा बताना भी मिल जाएगा.... ये आपने ठीक कहा कि लगता है पत्रिका ने धीरज खो दिया...... भारत के १०० करोड़ लोग.... यहाँ पत्रिका एक वर्ग के सोच को बता सकती है... सभी के बारे में ऐसा कभी और कभी दावा नही कर सकती..... वैसे भी हमारी मीडिया अपरम्पार है... पहले चैनल करते थे... कभी कभी प्रिंट भी ऐसा कर देता है.....
भारत सरकार नपुंसक है, फिर चाहे वो किसी भी पार्टी की बने। यह एक कटुसत्य है, फिर चाहे कोई माने या नहीं माने।
सरकार की नपुंसकता धीरे-धीरे आम आदमी तक पहुंच गयी है। अंगरेजों द्वारा भारत को गुलाम बनाये जाने के ५० साल के अंदर-अंदर कई सारे विद्रोह शुरू हो चुके थे। ये तब तक चलते रहे जब तक अंगरेजों को मार नहीं भगाया गया।
लेकिन आज देखिये। भारत वाकई में नपुंसक है। आतंकवाद सिर्फ एक उदाहरण है जो नपुंसकता को दर्शाता है। हम खेल में फिसड्डी, साक्षरता में फिसड्डी, सुरक्षा में फिसड्डी, युद्ध में फिसड्डी, गरीबी में फिसड्डी, और भी न जाने किस-किस में फिसड्डी।
२० सालों से सुन रहा हूं, भारत में बनने वाली हर सरकार ने कहा है कि पाकिस्तान आतंकवाद को समर्थन दे रहा है। फिर किसी ने कुछ क्यों नहीं किया? सबूत ढूंढ-ढूंढ कर हम संयुक्त राष्ट्र ले गये, यह सोचकर कि जो नपुंसक नहीं हैं वो कुछ करेंगे। किसी ने कुछ किया?
सच ये है कि पुरुषार्थ करने में भारत की सभी सरकारें पीछे हैं। कोई नहीं करना चाहता आतंकवाद के खिलाफ कारवाई। निंदा कर दी, कड़ी निंदा भी कर दी। अगले दिन फिर धमाके हुये। ISI का हाथ पाया गया। क्यों नहीं काटा गया ५० साल पुराने इस हाथ को जो बार बार हमारी आंख में किरकिरी डाल रहा है?
मैं तो सिर्फ उस दिन का इंतजार कर रहा हूं जब ISI अमेरिका में आतंकी घटना करेगा। क्योंकि अमेरिकी सरकार नपुंसक नहीं दिखती - अपने लोगों की जान प्यारी है उन्हें। फिर चाहे कितने ही मुल्क बरबाद हों, लेकिन आतंकियों को उनके घरों से निकाल निकाल कर मारा गया है।
भारत कभी ऐसा कर सकता है? नहीं, क्योंकि हमारा देश नपुंसक हो चुका है।
और देखें।
nahin kataee nahin. jab tak humare aur aapke man men antardwandwa hai, antarsancharsh hai purushatwa hai. hum desh aur sthitiyon ko badal sakte hain basharte haath se haath mila len.
car mein kandhar !
Ravishji ye kaise hua
राजीव
मैंने सुधार दिया है। कार में नहीं बल्कि विमान में ले गये थे जसवंत सिंह। शुक्रिया।
राजीव
मैंने सुधार दिया है। कार में नहीं बल्कि विमान में ले गये थे जसवंत सिंह। शुक्रिया।
रबीश जी,
इंडिया टुडे ने इस बार का शीर्षक क्या भारत नपुंसक है किसे ध्यान में रखकर लिखा ये तो वही बेहतर बता सकते हैं लेकिन देश के आवाम के लिए तो ये शीर्षक कतई नहीं हो सकता। सूरत की जनता ने जिस तरह से अठारह बमों की सूचना पुलिस को दी और उन्हें डिफ्यूज कराने में मदद की वो कम से कम इस बात की पुष्टि करता है। जिस तरह से बम की सूचना देने वालों के लिए सरकार ने पुरस्कार की घोषणा की वो ये दर्शाता है कि सरकारें और प्रशासन ही नपुंसक हैं। रिश्वत और घूस कांड के ज़रिए अपने दामन पर लगे दाग धोने के लिए ये नेता जितनी मेहनत करते हैं उतनी आतंकवाद से निपटने के लिए करते तो शायद आज तमाम घरों के चिराग जल रहे होते, तमाम मांओं की गोद सूनी होने से बच जाती। सुहागिनों की मांग न उजड़ती, बच्चे अनाथ न होते। सच, भारत की जनता नहीं यहां का प्रशासन नपुंसक है, सरकार नपुंसक है।
Ravish It was good. But something is missing....
When I read I felt something is lacking..
I m not sure what? But there was..
Shweta
http://www.herkhabar.blogspot.com/
"हैदराबाद से लेकर बंगलूरु तक में धमाके के बाद कहीं हिंदू मुस्लिम की बात नहीं हुई। "
यहाँ अहमदाबाद भी जोड़ देते हूजूर. लोग यहाँ भी मरे थे और दंगे नहीं हुए.
ghoghardiharavish bhai
namaskar
aapne india today ke shirshak jikra kiya hai .bandhu ye sach hai ki hamari sarkar nipunsak hai.hamare jis patrakar bhai ne likha hai uske jehan me sarkar hi napunsak hogi.aakhirkar hamare yahan ek ke bad ek djhamake kiyon hote hain.kiyon nahi america me 9/11 ke bad koi ghatna nahi hui.hamare griha mantri her bomb dhamake ke bad ek hi baat karte hain ki hum kisi ko nahi chorenge,janab pakarna to sikhiye.ek afzal ko pakarene ke bad bhi jo saza di gai hai wo nahi de rahen hain.
ravish bahi kabhi kabhi lagta hai ki sahi mayno me hum ,hamari sarkar sab ke sab napunsak ho gaye hai aatankvad ke khilaf.
rajnish jha
हो सकता है पत्रिका को बेचने का सस्ता नुस्खा हो ये शीर्षक ?पर लगता है मीडिया की तरह अब प्रिंट मीडिया भी अपने कर्त्या पर न शर्मिंदा होता है न ही ऐसा करने की कभी सोचता है....पर एक जिम्मेदार पत्रिका को जो पहले अपना खासा रसूख रखती थी (अब हर हफ्ते छप कर अच्छा लेखन मुश्किल है जनाब )ऐसा लेख ...जिससे भावनाए भड़के समझ से परे है....
पत्रिका के मुख्य पृष्ट पर लिखा है, "बेचारा और बेबस भारत". यह नपुंसक कहाँ लिखा है? अन्दर के पन्नो में?
रविशजी, वाक़इ आपके बारे इस लेख के बारे में पढकर कहना चाहुंगी कि मुज़े 2002 कि सच्चाइ बताने वाले राज़दीप सरदेसाइ और बरखादत्त याद आये।मैं आपके ब्लोग पर इस विषय पर कमेन्ट देने वालों की आभारी हुं जो आपकी बात में सच्चाइ को देख़ते हैं। भारत नपुंसक है जैसा सवाल उठाके हम हमारा भाइचारा /हिंदु-मुस्लिम एकता नहिं तोड सकते। क्या भारत में रहनेवालों के उनके देशप्रेमी होने का सबुत देना पडेगा?
मैं आपके माध्यम से ये सवाल आम जनता को पूछना चाहुंगी ।आज आतंकवाद से सारी दुनिया परेशान है। तो सिर्फ हमारा देश को नंपुसक कहकर क्यों बदनाम किया जाता है?मतलब क्या है इन पत्रिकाओं का? क्या उन्हें भारत कि शांति/अमन/भाइचारा पसंद नहिं?
लो उन ठेकेदारों को मेरी यह कविता अर्पण है।
दाता तेरे हज़ारों है नाम...(2)
कोइ पुकारे तुज़े कहेकर रहिम,
और कोइ कहे तुज़े राम।...दाता(2)
क़ुदरत पर है तेरा बसेरा,
सारे जग पर तेरा पहेरा,
तेरा ‘राज़’बड़ा ही गहेरा,
तेरे ईशारे होता सवेरा,
तेरे ईशारे हिती शाम।...दाता(2)
ऑंधी में तुं दीप जलाये,
पथ्थर से पानी तुं बहाये,
बिन देखे को राह दिख़ाये,
विष को भी अमृत तु बनाये,
तेरी कृपा हो घनश्याम।...दाता(2)
क़ुदरत के हर-सु में बसा तु,
पत्तों में पौन्धों में बसा तु,
नदीया और सागर में बसा तु,
दीन-दु:ख़ी के घर में बसा तु,
फ़िर क्यों में ढुंढुं चारों धाम।...दाता(2)
ये धरती ये अंबर प्यारे,
चंदा-सुरज और ये तारे,
पतज़ड हो या चाहे बहारें,
दुनिया के सारे ये नज़ारे,
देख़ुं मैं ले के तेरा नाम।...दाता(2)
भाई रवीश,
इंडिया टुडे(भाजपा,संघ परिवार,हिन्दुओं और मुसलमानों की कट्टरपंथी संगठनों,कांग्रेसियों)के लिए मर्दानगी का मतलब है कमजोरों,निहत्थों,निरपराधों पर अत्याचार करना,धोखा, छल,शोषण,घृणा और अमानवीय कृत करना। गुजरात में मोदी और उनकी सरकार मर्द है। इंदिरा गाँधी की हत्या के बाद दिल्ली एवं देश के कई शहरों में सिखों का कत्लेआम मर्दानगी थी। बाबरी मस्जिद या मंदिर का गिराना भाजपाईयों और संघ परिवार का मर्दाना गाथा है। ग्राहम स्टेन्स को उनके बच्चों सहित जिंदा जला देना दारा सिंह की मर्दानगी थी। मुसलमानों के कट्टरपंथी संगठनों द्वारा चुपके से निरपराधों,मासुमों और औरतों को बमों से उड़ा देना मर्दानगी है।खैरलांजी में हरिजन परिवार की बेटी के साथ बलात्कार करने के बाद उसके साथ जो कुछ भी समाज ने किया,वह भी मर्दानगी थी।
इंडिया टुडे सरीखे पत्रिका,अखबार,संगठन या व्यक्ति को मर्दानगी तब याद आती है,जब कोई अदना इन्हें चुनौती देता लगे। जब तक कोई इन्हें चुनौती न दे,इन्हें सब कुछ जायज लगता है। जब तक वे भारी पड़ें,वे मर्द हैं। सिखों का कत्लेआम,गुजरात में मुसलमानों का,ग्राहम स्टेन्स का,हरिजनों का कत्लेआम या उनकी बेटियों के साथ बलात्कार जैसी घटनाएँ इन्हें इनकी मर्दानगी को नहीं ललकारती और न वे भारत को या समाज को नामर्द कहते हैं।
ऐसे लोग जाति और धर्म के आधार पर नफरत पाले रहते हैं। नफरत के इस जहर को फैलाने का वे कोई मौका चुकते नहीं हैं। दंगा हुआ तो हिंदुओं को ललकार देंगे,बम फटा तो भी हिंदुओं को ललकारेंगे कि उठों मलेच्छों को सबक सिखा दो,जैसा मोदी ने गुजरात में किया। गाँवों में दलितों को सबक सिखाने के लिए सारे सवर्ण दलितों के घरों पर हमला कर देते हैं। (हाँ,पुष्पराज जैसे सवर्ण भी है जो मुसहरों के पक्ष में खड़ा होकर अपनी ही जाति से खतरा मोल लेते हैं।)कट्टरपंथी मुसलमानों को अपने समाज के बड़े हिस्से की गरीबी,अशिक्षा और कष्टप्रद जिंदगी पर गुस्सा नहीं आता। हाँ,जहाँ धर्म की झूठी शान की बात चलेगी वहाँ इनका भी मर्दाना जोश जाग जाता है।
इसलिए नफरत की खेती ऐसे लोगों के खून में है। ऐसे लोग क्या कहते हैं उन्हें परखने और उनपर वैचारिक हल्ला बोलने की जरुरत है। उन्हें नंगा करने की जरुरत है। इसके साथ ही आवाम को बताने की जरुरत है कि कहाँ उन्हें मर्दों की तरह जंगे मैदान में उतरने की जरुरत है।
-गिरिजेश्वर,मैथन डैम,धनबाद।
रज़िया राज ने खूब कही है। संजय जी अंग्रेजी के इंडिया टुडे में इम्पोटेंड इंडिया लिखा गया है। आपकी बात सही है। इस बार अहमदाबाद के लोगों ने धमाके के बाद कोई सांप्रदायिक उतावलापन नहीं दिखाया। ये उनकी कामयाबी है कि नेता भी उन्हें भड़काने वाले बयान नहीं दे रहे थे। लिखना भूल गया मगर जब वहां रिपोर्टिंग के लिए गया था कि इस बात को बार बार बोलता
रवीश जी, सीधी बात तो ये है कि दुनिया भर के कुछ इस्लामी तबके राह से भटक गए हैं। उन्हें लगता है कि वे पूरी दुनिया को दारुल-इस्लाम में बदल देगें। लेकिन इसका मतलब ये नहीं कि सारे मुसलमान दंगाई हैं। पत्रिकाओं को -खासकर तब जब आप पर बढिया रीडरशिप का लेबल चस्पां हो- ऐसे सामान्यीकरण से बचना चाहिए। मर्दानगी का मतलब कया दूसरे संप्रदाय का क़त्लेआम है? आतंकवाद अगर देस में सर उठाए है , तो इसके लिए हमारा सुस्त तंत्र ज़िम्मेदार है।
kya bharat napunsak hai..yah sirshak ek mayne me sahi hai ki kahi na kahi hamare bich me hi yah atank palta hai...koi nai sirf hum chah le to fir kaise kisi masoom ka sins chalni hoga ....hamari undekhi ...hamrar andar samuhik uttardaitwa ki jo bhavna marti ja rahi hai wah v kahi na kahi in halaton ke liye jimmedar hai...mera manana hai ki DOOSRON KE LIYE KUCH KARNE KE JAJBE KA MAR JANA V EK PRAKAR KI NAPUNSAKTA HAI...AUR YE SUCH HAI KI YAH BHAVNA TO MARI HAI ...HUM NAHI MAI SARVOPARI HOTA JA RAHA HAI ...desh ...samaj ..nichle paidan par khisakta ja raha hai....yah hamari napunsakta hi to hai...shayad yah shirsak us atmsamman par chot kar sake...sab kr liye sab uth khade ho..dhool chata de un MARDO KO JO HAME RAH RAH KAR NAMARD BANA RAHE HAI
napunsak matlab kya ?mard nahi yahi na .bharat ko mard hona chahiye taki wo aantakwad ki ma bahen kar de.akhir aouraton ka aatank se jata kya hai ki unke bare me socha jaye .aourat ka dhyan hota to kaha jata ki bharat kya banjh hai?ravish INDIA TODAY aksar aouraton ki sexul desires ka bhi servey karne wala ank nikalti hai .aha kya aadhunik patrika hai aourton ko mardo ke barabar rakh sochti hai.per aatankwad are bhai ghambhi masla hai ,isme aourton ka kya kam ki bhasha ki samvedna ke bare me socha jaye .yeh pourush ki lalkar hai purushon uthiye aour khud ko mard sidh kijiye .desh ki baki samsyon ke samadhan me mardangi ka koi kam nahi.
अपना देश नपुंसक नहीं,कायर और यथास्थितिवादी है. जब तक अपना पेट भरा रहे, हमें दूसरों की भ्होख याद नहीं आती और जब तक अपनी बहन-बेटी को न सताया जाए, देश में कानून के प्रति अपनी आस्था बनी रहती है.
इंडिया टुडे की कवर लाइन सनसनी खेज तो है मगर क्या हम तंत्र के ख़िलाफ़ लाचारी में अपने आप से यही सवाल नहीं करते?
रवीश जी, टीवी ने आपकी रचनाधर्मिता को कुंद नहीं किया, आपकी हिम्मत की दाद देनी होगी.
आलोक तोमर
ravish ji, INDIA TODAY ne sahee likha hai ki desh napunsak hai, varna yeh jante huye bhi ki "SEEDHEE SEEDHEE BAAT" karne wala ek Patrkar Hathiyaron ke saudagar Adnan Khasogi ka dalal hai, ye mulk uskee ghatiya aur wahiyat patrika ko kharidta bhi hai aur padhta bhi hai.Kya aapko nahin lagta ki Masood Azhar aur Advani apas men sautele bhai hai.
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