अस्सी का दशक। पटना की दुपहरी। रिक्शे से मां बेटी उतरी थीं। खरीदारी कर आईं थीं। मोहल्लों की दुनिया में हर खरीदी हुई चीज़ की पड़ोसियों के बीच नुमाइश होती है। सबको पहले से पता होता है कि कौन क्या खरीदने जा रहा है। कोई कटोरा गिलास भी खरीदता था तो नुमाइश होती थी। कई बार तो खरीदार सारा सामान लेकर पड़ोसी के घर में ही आ जाता था। इस बार खास चीज़ थी। नाईटी। कुछ औरतें इसे मैक्सी बुला रही थीं। कुछ ने गाउन कहा। कुछ औरतें हंस रही थीं और कह रही थीं कि कहां पहनियेगा। पटना में ई नहीं चलेगा। इ सब तक बांबे में चलता होगा। तब दिल्ली का नाम सहसा ज़ुबान पर नहीं आता था। और हां नाईटी खरीदी गई है इसे कुछ दिन तक के लिए घर के कर्ता पुरुष से गुप्त रखा गया था। उन्हें धीरे धीरे बताया गया था। पहले उनके आफिस जाने पर पहना गया फिर धीरे धीरे आने के बाद भी।
खरीदार चाची ने कहा था बढ़िया है।घर में पहनने के लिए। दरअसल तब औऱतें बाहर ही कहां जाती थीं। उन्हें घर में ही कुछ बदलाव चाहिए होता था। खैर उनकी बेटी ने वो गाउन या नाईटी पहनना शुरू कर दिया। जिन पड़ोसनों ने नुमाइश देखी थी कहने लगीं कि कैसी लगती है। बताइये अभी से अपनी बेटी को नाईटी पहना रही हैं। मुझे नहीं मालूम कि क्या मतलब होता होगा। बस बातें याद हैं। सो लिख रहा हूं। एक सांस्कृतिक बहस तो छिड़ ही गई थी। वो लड़की अब ख़राब नज़रों से देखी जाने लगी। वजह उसकी नाईटी। जब भी पहन कर कटोरे में चीनी या दूध देने लेने के लिए किसी पड़ोसी के घर आती, एक मिनट के रास्ते में चंद नज़रे हज़ार बार देख लेतीं थीं। लड़के और खासकर लड़कियों की नज़रें। धीरे धीरे नाईटी कुछ और लड़कियों ने पहनना शुरू कर दिया। बुजुर्गों की मंडली में बहस तेज हो गई कि ये कोई पहनने की चीज़ हैं। मांओं को ताना देने लगे कि सभी अपनी बेटी को बंदर बना रही हैं। हाई फाई सोसायटी का नकल करने से कोई फायदा है। जहां इन सबकी शादी होगी वहां कौन नाईटी पहनाएगा। कई बार बुज़ुर्ग हताश होकर गुस्सा हो जाते और कह देते कि ससुराल में पहनेगी तो ननदें बाल नोच लेंगी और सास लात मारेगी। जब भी किसी को नाईटी पहने देखता हूं, सारी बातें याद आ जाती हैं। मैक्सी की तरह मिडी को लेकर भी गाहे बगाहे बवाल हो जाता था। तब तो और हो गया जब पड़ोसी लड़की नाईटी पहनकर किसी के घर जा रही थी। लेकिन पास से तेजी से गुज़रते हुए सायकिल सवार ने उसे स्वीटी कह कर सीटी बजा दी। मोहल्ले के सारे वीर किस्म के लड़के मारने के लिए दौड़ पड़े। लड़की घबराहट में चिल्लाने लगी थी। वो तो फरार हो गया मगर मैक्सी या नाइटी को दोषी ठहरा दिया गया। सब कहने लगे कि बोलिये ये पहनने की चीज़ है।
दिल्ली आया तो कुछ लड़कियों ने मुझसे कहा था कि जीन्स खरीदना है। वो अकेले नहीं गईं। मुझे कहा कि तुम साथ चलो। दुकानदार से कहा कि इन्हें जीन्स खरीदनी है। उसने साइज़ पूछ दिया। लड़कियों को कहा कि जवाब दीजिए तो मुझे ठीक ठीक याद है उन्होंने बहुत धीरे से कुछ कहा था। खैर उन दोनों ने जीन्स की पैंट खरीदी। बाद में मेरे बिना ही खरीदने लगीं होंगी। क्योंकि उसके बाद फिर नहीं कहा। लेकिन मुझे साथ ले जाने का क्या मतलब होगा। क्या उनके मन में द्वंद चल रहा था कि पता नहीं अकेले जीन्स खरीदने जाएं तो दुकानदार क्या समझेगा। यह १९९४ की एक दुपहर की बात है। या यह लगता होगा कि यह कोई असामाजिक पहनावा है जिसे खरीदने के लिए किसी का साथ चाहिए। ताकि लगे कि जो खरीद रहे हैं वो सही है। याद है मेरे पिताजी ने भी कहा था जिन्स का पैंट लोफर लड़का पहनता है। दिल्ली में कई लड़के एक साथ रहते थे। सबने जीन्स की पैंट इसी तरह से खरीदी। उनके मां बाप बिगड़ने लगे कि जीन्स पहनने लगा है। हीरो बन गया है। दिल्ली जाकर पढ़ता लिखता नहीं होगा। वो भी अजीब किस्म की दलील देते थे। मां, जीन्स इसलिए पहनता हूं कि बार बार धोना नहीं पड़े। दिल्ली में पानी नहीं है। इतना पैंट कौन धोएगा। और समय कितना बचेगा। टाइम बचेगा तो पढ़ने में ही लगेगा न। लड़के और लड़कियों के लिए जीन्स की पैंट के सामाजिक मायने अलग अलग थे।
औरतों के कपड़ों को लेकर हमारा समाज बहुत कुछ कहता रहा है। आज उसी पटना और बिहार के समाज में जब लड़कियों को गांवों तक में देखता हूं तो हैरान रह जाता हूं। जिन्स और टाप। बिहार की कई लड़कियों को अपने ससुराल में जिन्स टाप पहने देखता हूं। उनकी सास और मांएं किसी गुज़रे ज़माने की तरह नज़र झुकाए कमरे में इधर से उधर आती जाती रहती हैं। कोई कुछ नहीं कहता। तब तो स्लीवलेस ब्लाउज़ पर ही बवाल हो जाता था। लेकिन अस्सी के दशक तक सारी औरतें नहीं पहनती थीं। बड़े अफसरों की बीबीयों की पहचान हुआ करता था। वो ही स्लीवलेस ब्लाउज़ पहना करती थीं। धीरे धीरे दूसरे दर्जे के अफसरों की बीबीयों ने भी नकल करना शुरू कर दिया। क्योंकि उन्हें तीसरे दर्जे के कर्मचारियों की बीबीयों से अलग दिखना था। अब तो गांव में खेतों में काम करने वाली महिलाएं भी स्लीवलेस ब्लाउज़ पहने दिख जाती हैं। ज़माना इसी तरह से बदलता है क्या। जब ऊपर वालों की कोई चीज़ लुढ़कती हुई नीचे तक आ जाती है और इस तरह से स्वीकार कर लिया जाता हो जैसे यह हमारे पहनावे का हिस्सा ही था।
19 comments:
great..apko padhna bhut acha laga..
सही कहा।
इस तरह के बहुतै ही बवाल हुआ करते थे। सबसे ज्यादा बवेला तो हमने देखा था मिडी को लेकर, गाउन या नाइटी तो बेचारे घुटनों के नीचे तक हुआ करती थी, मिडी से बवाल शुरु हुआ था, फिर तो ये स्कर्ट, मिनी और माइक्रो से होते हुए ऐसे उठती चली गयी जैसे सेन्सेक्स।
यही हाल ब्लाउज का भी हुआ, फुल स्लीव ब्लाउज, हाफ़ स्लीव, कट स्लीव,चोली और अब तो सिर्फ़ पेंटिंग करके भी काम चलाया जा रहा है।
फैशन भी क्या क्या रंग दिखाता है। है ना रवीश बाबू?
शानदार..न्यूज़ सेंस गजब है आपका रवीश जी..ऐसा ही कुछ मैंने भी उस वक्त महसूस किया था जब मेरा बचपन आजमगढ़ और बनारस में बीत रहा था. लेकिन अब दुनिया बड़ी तेजी से बदल रहीं हैं..
सटीक नज़र डाली आपने!!
हमारा समाज हर बदलती चीज़ को बुरा ही क्यो मानता है। लड़कियों के पहनावे बदल गये हैं, लेकिन संस्कार तो वही हैं। आपको क्या लगता है पहनावे से संस्कार की पहचान होती है। थोड़ी नज़र और घूमाइये, इस समाज में भारतीय परिधान पहने भी कई ऐसे मिल जायेगे जिनका संस्कारों से कोई नाता नहीं। किसी के कपड़ों से उसे जज करना मुझे गलत लगा।
दीप्ति।
nows a days ur blogs standard deterioating u sud rite only on social issu nt nity
रवीश बाबू
मैं मुंबई के लोवर परेल में रहता हूं। सब्जी मंडी में दुकानों पर थोक के भाव में नाइटी, मैक्सी, गाउन पहने महिलाएं खरीदारी करती दिख जाती है। हां, इलाहाबाद में अभी भी सार्वजनिक नाइटी दर्शन तो नहीं होते।
रवीश जी, अभी दस मिनट पहले ही एक लेख लिखा है एकदम इसी बारे में, फ़िर घूमते घूमते आपके लेख पर आगया. मुझे आपकी उमर नहीं पता, पर विचारों में इतना अन्तर मुझे अन्दर तक सोचने पर मजबूर कर गया. पता नहीं कब पता चलेगा कि परिपक्वता कि परिभाषा क्या है.. क्या पता, जब तक ये पता चले, उसके पहले ही उम्र मुझे परिपक्व बना दे.
http://punitomar.blogspot.com/2007/11/blog-post_23.html
भाई रवीश,
सटीक लिखा है....मैं भी जब पटना से दिल्ली पढ़ने आया तो माँ-बहनों की फरमाईश नाइटी ही रहता था। बल्कि नाइटी स्टेटस सिंबल हुआ करता था। अब तो यह बड़ी सामान्य सी बात हो गई है।
सरजी जीन्स पहनने पर तो मेरे बाबूजी ने कहा था कि लेडिस होता तो कोठे पर भी बैठने से बाज नहीं आता और मां के सामने मैं ठहाके लगाता कि देख तेरे घर एक जेंट्स गुलाबीबाई हुआ है
dipti,
nahi maine kaprohon se sanskaar ko judge nahi kiya hai. bulki meree koshish yah bataane ki thee ki logon ne in pahnaavon ko kaise dekha..bilkul kaprhon se koi andaza nahi lagaya ja sakta.
Namaskar Ravish Ji, I just translated your column to English for The Sunday Indian. It was a delight as always. As you would have noticed, I regularly follow your blog. Although,I primarily cover International affairs, dalit and muslim emancipation are issues that are closer to my heart. Anil Pandey would have told you about me.
We all love your stories and its delivery. In fact, its kind of a mini-curfew at my home whenever your story beams on NDTV. Its a matter of pride for me to be attached to a profession that has people like you.
Aapse protsahan ki umeed rakhta hun. My mail id is alyshahi@gmail.com.
PS: Devnagri mein na likhne ke liye kshma-prarthi hun. Hindi typing nahi aati.
ravish ji yahaan m.p. main cm ke damphar ka mudda chaaya hai aaj vidhaan sabha bhi khatm kardi gai.
vidhaan sabha ka pahla din vipaksh ke damphar par savaar hokar pahunchne aur phir.....damphar numa khilono ko vidhaan sabha main adhyksh ke saamne naare lagaaakar dikhae aur vidhaan sabhaa ki karvaai main baaadhaa daal kar aakhir kaar rukvaa dia .....aur shor sharaabe ke alaavaa dikahaavaa bhi khub tha ..........
vidhan sabhaa kaa dusaraa din vhi ho halla main gujrgaya.......aur sthagit ..kardiya gaya......teesre din paksh shayad soch kar aaya tha jis main adhyaksh ki bhi rajamandi bhi thi ..........karvaai shru hote hi adhyaksh ...haan naa haan ki jeet hui ..........is prakar kahte gaye ......is veech vipaksh ka shor sharavaa jaari tha fir bhi adhyaksh haan naa haan ki jeet kahkar kai prastaav parit karvaate rahe ..........vipaksh vhee virodh se jayaadaa midia ke saamne dikhaavaa kar rahaa thaa ...........sabaal ye hai ki ek vidhaan sabhaa satra ke dauraan kitne hi vidheyakon par vinaa charcha ke hi paas kardiye gaye ......yahaa sarkar aur ke khilaaf damphar kaamudda to uthaana theek hai par vipaksh ka kaam ......charcha ....karna bhi hai ........joshaayad usne nahin kiyaaaaaaaa..........ravish ji main aapke vichaar jaaan na chaah taa hoon is vishay par .....yadi uchit samjhen to......sahyoog karen.
Ab to ladkiyan 10 sal ki hui ,mummy use nighty pahna deti hai... aunty!asmaya hi use jawan kyon kar rahi ho.....? mere gaun me aise kai ghar hai jaha 10 sal ki bacchio ko asamaya hi jawan banaya ja raha hai, uska nirdosh bachpan chhina jaa raha hai.
carry on ravish....
Ravish Ji
itne purane article par comment likh rahi hoo, pata nahin aap padhenge ki nahin, magar mai bhi aisa hi ek anubjav aapse kehna chahungi. Mai kaafi chhoti thi, dhhundhali si yaaden hain. Mere papa Delhi ya shayad culcutta se meri badi behan ke liye nighty khareedkar laaye the. Meri behan use pehankar ghar se nikal gayi, tabhi mere padosh ke ghar ka ek ladka chillakar apni apni maa ko bolta hai, Mai ge dourkar ani aao, dekhi na chano Ba k poti bakku penhne chai.....sach me uss waqt nighty ek ajeebogareeb dress mana jata tha.
रविश जी क्या आपने "बातों बातों मे" फिल्म नही देखी उसमे आमोल पालेकर को देखिए और टीना को देखिए ये फिल्म शायद 1980 के दसक मे बनी थी
मुझे आज भी समज नहीं आरहा है की हमारे देश की महिलाए क्यों नहीं समज आता की नाइटी रात को सोने के समय पहनने की चीज है , अगर वो पहन के दिन में घर में या बाहर घुमो गे तो टिपण्णी मिलने का आज भी चांस रहेगा ,अगर मोर्डन या एडवान्स दिखने की बात है तो हमारे ट्रेडिशनल पहेनावे नाइटी से कही ज्यादा अच्छे है ,
हा एक बात और है सब के पहनने के और देखने के नज़रिए और सोच अलग अलग होती है.
sochta hu jo bhi hua acha hua phanave ke sath vicharo mme bhi khulappan aaya h tab ke aaj ki bhihar me to dwand chalta rahega asha h waqt ke vicharo ki aandhi tegi se badte rahe
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