दिल्ली की लड़कियां- 5

दरवाज़े के दोनों तरफ हल्की घबराहट थी।खुलते ही सोनिया ने अंदर झांका।शक भरी निगाहों ने एक बार भरोसा करना चाहा कि सब ठीक है या नहीं।जहां चार लड़के एक साथ रहते हों वहां आकर ठीक किया या नहीं।रास्ते भर की उलझन उसके चेहरे पर दिख गई।चारों लड़कों ने भी हसरत भरी निगाहों से देखा। लड़की आई है।दोस्त है तो क्या हुआ लड़की भी तो है।सोचते सोचते दीपक ने कहा अरे भई हम ही चार है।जिनके साथ आप दिन के चार घंटे कालेज में गुज़ारती हैं। घर में इतने अजनबी हो सकते हैं? अरे नहीं..कहते हुए सोनिया थोड़ा सा अंदर आ चुकी थी।दरवाज़ा पूरा खुला छोड़ दिया गया समाज को अपनी तरफ से सफाई देने के लिए।

सर्दी के दिनों की गर्माहट बिन धूप के इस कमरे में सोनिया के साथ आ चुकी थी। सबके हाव भाव पहले से बेहतर हो चुके थे या पहले जैसे नहीं रहे। बोलने का तरीका भी बदला। मगर बोलने में वक्त लग गया।

सब चुप क्यों हैं? पहले सोनिया ने बोला। हकीकत को कल्पना की तरह देखने में मगन प्रमोद जी घबरा गए।बोल उठे कहां चुप हैं।लेकिन राकेश जानता था सोनिया ने ठीक कहा। दरअसल सब मन ही मन बातें कर रहे थे। इसलिए किसी को चुप्पी का अहसास भी नहीं हुआ।राकेश चाय ले आया।थैंक यू। बिहारी राकेश ने थैंक यू का कोई प्रत्यूत्तर नहीं दिया।दीपक ने कहा कि देख लो हम इन्हीं काल कोठरी में सपने देखते हैं।हवा नहीं आ सकती।धूप कहीं कहीं से आती है।बारिश का पता नहीं चलता। कमरे का अहसास बाहर खुलने वाले दरवाज़े से ही होता है।सोनिया ने कहा तुम लोग तो पागल हो जाओगे।डेढ़ कमरे में चार। इंपौसिबिल। त्याग है- राकेश ने कहा। हिंदुस्तान की नौकरशाही ऐसे ही नौजवान सपनों के त्याग से बनती है। बनने तक का त्याग।अफसर बनने के बाद उसकी काहिलपने का कौन नहीं कायल। समझना मुश्किल हो जाता है कि इतनी मेहनत से आईएएस बनने वाले अफसर क्यों दहेज से लेकर रिश्वत तक के चक्करों में फंस जाते हैं।देश की गति धीमी करने में उनका खासा योगदान रहा है। सोनिया ने कहा भाई तुम्हारी बातों का मतलब समझ में नहीं आया।तुम कवि टाइप क्यों हों।शुक्र है तुमने कम्युनिस्ट टाइप नहीं कहा। जवाब देते हुए राकेश चुप हो गया।

प्रमोद जी ने कहा व्यवस्था को लेकर फ्रस्टेटेड है। दीपक ने कहा नोट्स देख लेते हैं।गनीमत है कि कालेज के इम्तहान में इस व्यवस्था के पतन पर कोई सवाल नहीं होगा।गुप्ता काल के पतन पर सवाल होता है।सोनिया हंसने लगी।तुम लोग झगड़ते हुए भी दोस्त हो या दोस्त होते हुए भी दुश्मन।शायद सच कह दिया उसने। नोट्स के पन्नों में दीपक और सोनिया मशगूल क्या हुए बाकी बचे दूसरे कमरे में इशारेबाज़ी करने लगे।इम्प्रैस कर रहा होगा। गोला दे रहा होगा। हमसे कोई लड़की क्यों नहीं बात करती। प्रमोद जी इस सवाल को अभी तक समझ नहीं सके। बस दिलासा देकर पसर गए कि एक बार आईएएस बन जाने दो देखते हैं कौन लड़की बात नहीं करती।

दीपक और सोनिया के हंसने की आवाज़। अंदर तक सब हंसते हैं जैसे सोनिया के साथ दीपक नहीं अलग अलग वे भी हंस रहे हैं। राकेश ने नज़रे बचा कर खुद को आईने में देख लिया था। तेजी से हाथ फेर कर बालों को ऊपर की तरफ बाउंस करा दिया। प्रमोद जी बार बार अपनी टी शर्ट को देख रहे थे। लग रहा था कि जंच ही नहीं रहा। सोनिया सबको हल्के हल्के संवार रही थी। लड़कों को स्पेशल होने का अहसास होने लगा था। सब अंग्रेजी के शब्द ढूंढ रहे थे। दिल्ली की लड़की हिंदी में इम्प्रैस नहीं होती। इसलिए जार्ज माइकल के गाने पर चर्चा होने लगी।मडोना पर भी। संतोष साउथ एक्स के आर्चीज़ की दुकान से मडोना के गाने की किताब ले आया था। वो लूज़ टाक नहीं करता। सिर्फ सीरीयस टॉक करता था। खैर गाने की किताब को पहले पढ़ता फिर गाने को सुन कर समझता। फिर सुनता। बुश का टू इन वन था उसके पास। उसने जब बोलना शुरू किया तो सोनिया हल्का हल्का हंसी थी। तीनों को लगा था कि कहीं बाज़ी तो नही मार गया। उसे तीन चार गाने का अभ्यास हो गया था। मगर माइकल जैक्सन को बिना सुने समझे लफंगा घोषित कर दिया गया है।उसकी किताब आर्चीज़ में आउट आफ सेल हो चुकी थी। इसलिए जैक्सन को नकार दिया।संतोष को पढ़ने में कम बनने में ज़्यादा मन लगता था। दिल्ली टाइप बनने में। वो लड़कियों को देखकर सामान्य दिखने की कोशिश करता। मगर लोगों को लग जाता था कि शहर में हालात सामान्य नहीं हैं।

राहत की बात यह थी कि आज किसी की ज़बान से गाली नहीं छलक रही थी। बेगूसराय और सहरसा के स्वाभाविक संबोधन गुम हो गए। सोनिया के लिए। चार लड़कों के कमरे में एक लड़की उन्हें बदल रही थी। वो भी बदलना चाहते थे। देखना चाहते थे अपने लिए किसी की नज़रों में कौतूहल। मगर अपनी नज़रों को खुद से चुरा रहे थे। बिहार की ख़राब आर्थिक राजनीतिक व्यवस्था ने प्रेम से पहले के इन खूबसूरत लम्हों से भी वंचित कर दिया था।

ये खाओ। ये क्या है सोनिया ने पूछा। ठेकुआ। सोनिया हंस देती है।ठेकुआ। ठे....।अरे खाओ भई।ये बिहारी स्पेशल है।स्नैक्स समझो।ठेकुआ नश्वर नहीं होता।बहुत दिनों तक चलता है।सारे बिहारी मगध एक्सप्रेस से उतरते हैं तो सफेद चमचमाते बोरे में चावल के साथ पोलिथिन बैग में ठेकुआ भी लाते हैं।
सोनिया ठेकुआ शब्द और शक्ल से हैरान थी।ये तो काफी सख्त है।तो हम भी तो सख्त हैं।प्रमोद जी बोल उठे।न जाने कितने लड़कों ने दिल्ली की लड़कियों को ठेकुआ पुराण बताकर इम्प्रैस करने की कोशिश की होगी।वही जानते होंगे। सोनिया ने खाना शुरू कर दिया।प्रमोद जी ने बताना शुरू कर दिया।ऐसे बता रहे थे कि जैसे सोनिया के सामने ठेकुआ बनने लगा हो।इस बातचीत से दीपक थोड़ी देर के लिए आउट हो चुका था।सब को मौका मिलना चाहिए न। राकेश ने दीपक को कहा।दीपक ने कहा साला चिपक ही जाता है।हसरतें दीवार लांघती हैं। दीवार बनाती हैं। दीवार में दरार पैदा करती हैं। दिल्ली की लड़की ने सबके मन में हसरतें पैदा कर दी।
क्रमश...........

9 comments:

Anonymous said...

रवीश जी,
क्या लड़की ही वह हसरत हैं जो चारों को बदल रही हैं या अपनो के बीच बरसो से ना मिली पहचान?
खैर मानव की अंर्तमनीय रस्साकशी को बेहद उम्दा ढंग से काग़ज पर उतारा है. मै जब कालेज में था तब हमारे एक प्रोफ़ेसर कहते थे "पत्रकार एक बहुआयामी साहित्यकार होता हैं ". आज मानता हूं वे सही थे. आपसे राफ़्ता कायम करने का कोई पता हो तो himan4983@gmail.com पर बताने का कष्‍ट करें या कृपा कर himan4983.blogspot.com पर आयें. आपकी टीप हेतू कुछ भेजना चाहता हूं. आपका मुऱिद हूं और रहूंगा आप आये या ना आये.

सधन्यवाद
हिमांशु

azdak said...

ओह, कतो दारुन! दीवार में एक खिड़की रहती थी? कि सोनिया चली आती थी? मैं टी-शर्ट नहीं पहने हूं फिर भी कुछ जंच नहीं रहा. गाली देने का मन कर रहा है. पंकज उधास का 'दीवारों से लगकर रोना अच्‍छा लगता है' गाने का मन कर रहा है. क्‍यों कर रहा है, रवीश?

Rajesh Roshan said...

दरवाज़ा पूरा खुला छोड़ दिया गया समाज को अपनी तरफ से सफाई देने के लिए।

दरअसल सब मन ही मन बातें कर रहे थे। इसलिए किसी को चुप्पी का अहसास भी नहीं हुआ।

हसरतें दीवार लांघती हैं। दीवार बनाती हैं। दीवार में दरार पैदा करती हैं। दिल्ली की लड़की ने सबके मन में हसरतें पैदा कर दी।

कमाल कि पंक्तिया

Sanjeet Tripathi said...

बहुत खूब!!
लड़की ज़िंदगी मे आए तो बदलाव आता ही है!!

बहुत अच्छी तरह से उकेर रहे है आप यह शब्दचित्र

सुबोध said...

यहां लड़की (सोनिया नहीं) के होने का एहसास है. जो पहले कमरे में मौजूद हर किसी के ज़ेहन में उतरता है और बाद में खुद उस सोनिया के दिमाग में

अनामदास said...

आनंद आनंद, जल्दी जल्दी लिखिए. एक आम बिहारी के रूप में सब अपना देखा-भोगा है, रिफ्रेशर कोर्स करा रहे हैं आप.

इष्ट देव सांकृत्यायन said...

सचमुच रिफ्रेशरे करा रहे हैं जी आप आउर मजा भी ख़ूब आ रहा है. लिखे जाइए.

Anonymous said...

दादा,
आप आयें ,शुक्रीया, आपने लिखा "ब्लागमन व्याकुल करता". मैं समझ नहीं पाया. अपना पता भी नहीं दिया ,खैर आप को एक बात बताना थी कि मैं जहॉ रहता हूं वहा अब अब आपके दर्शन नही हो पाते हैं,हमारे यहा NDTV-INDIA तथा NDTV 24*7 प्रसारित नही हो रहा हैं मैं आप को बोलते देखना चाहता हूं.आप को परेशान करने का हौसला और इरादा दोनो नही है पर आपका पता मिलना मेरे लिये "जींदगी का हासिल" होगा.
सादर प्रणाम
हिमांशु

rashmi said...

रवीश जी,
मन कहां से सोचना शुरु करता है और सोचते हुए जो ख्याल भी उसके मन में उठते है.. उन ख्यालों को शब्दों में पिरोकर आपने कागज पर जिस तरह से उतारा है वो काबिले ताऱीफ है। आपके ब्लाग में लिखी गई बाते बिहारी मन का आईना सी लगती है।