हर शाम उसकी याद आती रही। घर लौटते वक्त। डायरी के पन्ने उसकी यादों से भरते जा रहे थे। वो सिर्फ शब्दों में मौजूद रही। उसका चेहरा धीरे धीरे धुंधला होता जा रहा था। तभी उसने चेहरे का स्केच बनाना छोड़ दिया। लिखता था। क्योंकि उसके साथ शब्दों के बीच लंबा वक्त गुज़रा। प्रेम में अक्सर वो दानी उदार और महान हो जाया करता। शब्दों के सहारें ही वह अपनी उंगलियों को उसकी हथेलियों तक ले जाता था। वो मतलब ढूंढती चुप रह जाती और अपनी हथेली उसकी उंगलियों के बीच सौंप देती। काफी लंबे समय तक चलता रहा। दोनों जब भी मिले आंखें बंद कर मिलते रहे। प्रेम के उन विस्तृत लम्हों में एक दूसरे को जी भर कर कभी देखा ही नहीं। सिर्फ कहा। सुना। इसीलिए उसकी डायरी के पन्नों में शब्द ही उतरते रहते हैं याद करने के लिए। चेहरा नहीं उतरता। अहसास ही तो याद बनती है। आंखों का देखा प्रेम को भोगा हुआ नहीं होता। हिंदुस्तान के एक असफल प्रेमी की डायरी के पन्ने शब्दों से भरे जा रहे थे। वो अपनी कहानी खुद पढ़ने के लिए लिख रहा था। जिस कहानी को पूरी ज़िंदगी जी न सका। मगर वो वहां तक कभी नहीं पहुच पाता जहां से दोनों बिछड़े थे। सिर्फ उसके पहले की यादों को जी रहा है। बहुत मुश्किल होता है उबर पाना। आसान होता डायरी लिखना। घटना वक्त और शब्द का चुनाव अपना होता है।
( प्रमोद सिंह की कहानियों से प्रेरित होकर हिंदी के मूर्धन्य साहित्याकर बनने का सुविचारित प्रयास। पसंद आए तो वाह..नहीं तो आह। क्या किया जा सकता है। ब्लागर को रोकना मुश्किल है)
14 comments:
wah-wah..
नापसंद
क्या रवीश.. इस अदा को ज़रा और रवीशीय विस्तार चाहिए था!
रवीश जी क्या कहना चाह रहे है , मृणाल पांडे जी की तरह अपने ही बनाये शब्दों के जाल में पाठकों को मत उलझाइये , कृपया सरल लिखे हम जैसे निपट मूखॻ पॼकार को भी थोड़ा समझ में आ जाये।
kabhi-2 romantic hona sehat ke liye accha hai,confiedence bhi badhata hai.
hindustan mein adhiktar prem-kahanian aisi hi hoti hai.
वाह!
लेकिन यदि असफल प्रेमी की डायरी है तो..
आह!
आह, वाह, ई, ऊ, आउच...सब दूर भगाइए...आयोडेक्स मलिए, प्रमोदई भगाइए और काम पर चलिए.
आप दुनिया के चक्कर में न पड़ें। जारी रहें!
याद तो याद है बस इसको याद ही रखना
ये वो शम्मा है बुझाओगे भड़क जाएगी.
ज़हन में प्यार की ख़ुशबू सी बिखर जाएगी
जाने वाले तेरी यादें नहीं जा पाएगी.
दिल में फिर आरजू़ओं की शमाएँ न जल पड़े
इतना भी मत सताओ की आँसू निकल पडे़
श्रद्धेय रवीज जी इंसान का अतीत से लगाव होना स्वाभाविक है....कम से कम इसमें ना कुछ खोने का डर है और ना उस खोने के डर में किसी से कुछ छीनने की आपाधापी....जो है आपका है और खुबसूरत है...
प्रेमी और याद का तो चोली दामन का साथ हैं।
ज़रा इसे भी पढिये http://www.oldandlost.blogspot.com/
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