हिंदू अख़बार में पॉल क्रुगमन का कॉलम आता है। १७ जुलाई वाले कॉलम में उन्होंने एक ख़तरनाक विषय पर लिखा है। जिसके बारे में हम ब्लागरों को जागरूकता फैलानी चाहिए। जानकारी हासिल करनी चाहिए।
क्रुगमन लिखते हैं कि अमरीका में इमरजेंसी के वक्त डॉक्टर तुरंत ध्यान नहीं देते हैं। इस मामले में अमरीका दुनिया का सबसे खराब देश है। यानी पायदानों में नीचे। लेखक कहते हैं कि कई बार इंश्योरेंस कंपनियों की साज़िश की वजह से देरी होती है। उन्होंने एक अमरीकी प्रोफेसर का हवाला दिया है। उन्हें कैंसर था। और तुरंत मेडिकल ईलाज की ज़रूरत थी। मगर डॉक्टरों ने जानबूझ कर देरी की। इंश्योरेंस कंपनी ने जानबूझ कर क्लियरेंस देने में देरी की। ताकि उनके महंगे ईलाज के ख़र्चे से बचा जाए। प्रोफेसर साहब गुज़र गए। मगर गुज़रने से पहले ब्लाग पर लिख गए कि ऐसा कई लोगों के साथ हुआ होगा। इसीलिए अमरीका की इंश्योरेंस कंपनियां जल्दी क्लियरेंस के नाम पर टायर टू पालिसी चलाती हैं जिसका प्रीमीयम आम तौर पर बहुत अधिक होता है। यानी देरी के नाम पर कमाई तो कर लेती हैं मगर देरी इसलिए भी करती हैं कि मरीज़ को महंगा ईलाज न कराना पड़े। जो उसके प्रीमीयम से कई गुना हो। यानी उसका मरना इंश्योरेंस कंपनी के हित में हैं।
मुझे लगता है कि ऐसी जानकारी हमें आस पास से जमा करनी चाहिए। हर पाठक को पता लगाना चाहिए। पत्रकार कर सकते हैं मगर दुनिया में सारे काम या बदलाव पत्रकारों की सूचना के आधार पर नहीं होते। अगर कोई इंश्योरेंस कंपनी में काम करने वाला ब्लागर पाठक है तो वो नाम बदल कर ज़्यादा रौशनी डाल सकता
9 comments:
sahi padha hai aap ne.. mera ek communist dost jo NY me rahta hai usane is pareshani ke baare me mujhse zikra kiya tha... bima kampaniyaan waha par teeen deen tak hasptaal me rahne par rakam chukati hai.. ;ekin amm taur par pvt. haspataloon ki milibhagat se wo mareez ko teen din se pahle hi hasptal se niklwa dete hai taki unhe bime ki rakam na chukani padee... jabki log bime ke taur par apni jeb se moti rakam chukate hain.... ye gorakhdhnda saloon se chal raha hai wahan.....
आपने सही चेताया.मैने भी इस बारे में सिर्फ सुना है...और जानना चाहुंगा.यदि इस तरह का नैक्सस है तो हम सब को इसके खिलाफ आवाज उठानी चाहिये.
बिल्कुल रवीश जी। अपने देश में हालात और ख़राब है और जो नहीं हैं तो जल्द हो जाएगें। अभी दो दिन भी नहीं हुए दिल्ली के एक अस्पताल के एडमिशन काउंटर पर कई मरीज़ों और कई मरीज़ों के रिश्तेदारों को इंश्योरेंस कंपनी की क्लियरेंस के लिए परेशान होते देखा। कुकरमुत्ते की तरह मेडिकल इंश्योरेंस कंपनिया खुल गई है। लोगों को झांसा देकर ये पालिसी दे देते हैं। ज़रुरत के वक्त या तो रेस्पाॅड ही नहीं करते और करते हैं तो पच्चीस तरह की शर्तों का हवाला देते हुए इश्योरेंस का फायदा देने से मना कर देते हैं।
ऐसे विषय को विस्तार देना चाहिए
बिल्कुल सही कहा -ब्लॉगिंग के जरिए इस तरह के मामलों की सच्चाई का पता चल सकता है ! कमसे कम यह वह जगह है जहां संरचनागत दबावों के खौफ के बिना सच बयान किया जा सकता है..
उमाशंकर जी की बात भी बिल्कुल सही है. अगर आप उपभोक्ता न्यायालयों के कुछ रेकार्ड्स जुटा लें तो ऐसे कई मामले आपको दिल्ली में ही मिल जाएँगे. क्लेम और मेच्योरिटी दोनों ही मामलों में हीला-हवाली बीमा कंपनियों के लिए आम बात है. ब्लोगिन्ग में तो इस पर काम होना ही चाहिए, मीडिया की मुख्य धारा के लिए भी यह बड़ी खबर है और इस तरह उन पर दबाव भी बनाया जा सकता है.
सटीक!!
कोशिश की जाएगी स्थानीय स्तर पर मालूमात हासिल करने की!
मेरा एक परिचित है. श्रीराम स्कूल में भैया काम करते हैं. स्कूलवालों ने हेल्थ की चिंता करते हुए एक हेल्थ इंश्योरेश का कार्ड बनवा दिया है. एक बार इलाज कराने गया तो अस्पतालवालों ने लंबा-चौड़ा बिल बना दिया. इसने कहा कि इतना बिल क्यों बनाते हो, यह तो बहुत ज्यादा है. अस्पताल कर्मियों ने बड़े भोलेपन से कहा तुम क्यों चिंता करते हो, तुम्हें अपनी जेब से देना पड़ रहा है क्या?
वैसे भी एलोपैथी चिकित्सा से ज्यादा व्यवसाय के रूप में स्थापित हुई है. डाक्टर इसलिए जांच लिखता है क्योंकि उनको लैब से कमीशन मिलता है. दवा के साथ-साथ दुकान भी प्रैसक्राईब करते हैं. और अब बड़े अस्पतालों का नया शगल है हेल्थ टूरिज्म. आजकल जिस हेल्थ टूरिज्म की बल्ले-बल्ले है वह हेल्थ इंश्योरेंश कंपनियों की महिमा है.
सरल जीवन के जटिल स्वास्थ्यवाले कंपनीराज में आपका स्वागत है.
भारत में आमतौर पर बहुत बड़ा मेडिक्लेम नहीं कराया जाता। अधिकतर लोग एक लाख या दो लाख तक का ही मेडिक्लेम करवाते हैं वैसे अभी इतनी जागरुकता भी नहीं है।
अगर आपने एक लाख तक का मेडिक्लेम करवाया है तो होस्पीटल वाले पहले से खर्चे का अंदाज न बता कर केवल जितना इंश्योरेंस होता है उसकी सीमा जान लेतेहैं। मेरा काम इंश्योरेंस का है इसलिये बता सकता हूं कि हमारे यहां उल्टा य्ह होता है कि इलाज में अगर पचास हजार का खर्च आता है तो होस्पीटल वाले अस्सीहजार का क्लेम लेलेते हैं।
हमारे यहां IRDA इंश्योरेंस की नियामक संस्था है और अगर किसी को शिकायत हो तो वहां जा सकता है। IRDA के बनने और निजी करण के बाद प्रतिस्पर्धा बढ़ने से इंश्योरेंस कंपनियों के कामों में काफी पारदर्शिता आ रही है।
वास्तव में हमारे देश में लोगों को इस बारे में जागरूक करने की ज्यादा आवश्यकता है कि सभी लोग इस तरह की विपत्तियों का सामना करने के लिये इंश्योरेंस लें। इस ओर पढ़े लिखे लोग भी ध्यान नहीं देते हैं जहां लोग हर वर्ष आपनी कार का बीमा करवाने के लिये दस बारह हजार रु दे देते हैं अपनी जान की परवाह तक नहीं करते।
ravishji samanya mamlo me to beema kampaniya deri karti hi thi lekin aapka blog padhkar pata lga ki beema hi mout ka karn ban rka hai. or ye america mein hai halat hai.
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