गोत्र का स्रोत

करनाल में समगोत्री विवाह को लेकर हत्या हुई है। इससे पहले हरियाणा के ही झज्जर के असांदा गांव में यही कांड हुआ था। एक ही गोत्र में शादी के कारण बिरादरी वाले आ गए। फरमान सुनाया कि शादी खारिज की जाती है और दंपति अब से भाई बहन होंगे। पंचायत ने उनके बच्चे के बारे में क्या कहा नहीं मालूम। लेकिन इस फैसले के खिलाफ मानवाधिकार आयोग में शिकायत की गई थी। कुछ हुआ या नहीं वही जानते होंगे। इसी से पंचायतों के फरमान सुनाने की परंपरा और अधिकार का सवाल भी जुड़ा है। सरकार भी इस सवाल को जानती है मगर करती नहीं। हर बार पंचायतें बैठती हैं, फैसला होता है और फिर हत्या कर दी जाती है या शादी का जोड़ा फरार होने पर मजबूर हो जाता है।

सवाल बड़ा है? गोत्र का सवाल। क्या गोत्र के भीतर शादी हो सकती है? होनी चाहिए? गोत्र के भीतर के सब स्त्री पुरुष एक ही रिश्ते से बंधे होते हैं भाई और बहन। कैसे?


गोत्र क्या है? इतिहासकार डी एन झा लिखते हैं कि जब आर्य भारत आए तो वो घुमंतू भी थे और पशुचारण भी कर रहे थे। पशुचारण और खेती उनकी आर्थिक गतिविधियां थीं। सबसे अहम गतिविधि थी गाय पालन। गायों की संख्या से हैसियत तय होती थी। गाय पर आधिपत्य को लेकर लड़ाई भी होती थी। इसका मतलब यह नहीं कि हम गाय नहीं खाते थे। गाय और बैल के मांस खाने के प्रमाण हैं। ब्राह्मण ही खाते थे। धीरे धीरे कम हो गई। आज भी कई हिंदू परिवार गौ मांस खाते हैं। शौक से। लेकिन वो स्वीकार नहीं करते। विरोध के डर से।

बहरहाल इस बवाल को छोड़ते हुए कि खाते थे या नहीं खाते थे आगे बढ़ते हैं। गोत्र पर। गाय पालन आर्यों के सामाजिक जीवन का अहम हिस्सा होता जा रहा था। धीरे धीरे गायों के आस पास सामाजिक ढांचा बनने लगा। गोत्र का संबंध उस बाड़े से हो गया जहां एक समूह विशेष की गायें बांधी जाती थीं। वह समूह वंश में बदलता गया। चूंकि एक गोत्र और दूसरे गोत्र के बीच गायों को लेकर युद्ध होता था इसलिए अलायंस यानी सैन्य गठबंधन बनने की प्रक्रिया शुरू हुई। शायद इसी ज़रूरत की वजह से एक गोत्र के भीतर विवाह को निषेध किया गया। दूसरे गोत्र यानी बाड़े के समूह के किसी परिवार की संतान से शादी करने पर एक गठबंधन बन जाता था। इसलिए अगर आपके गोत्र का कोई दूसरा गांव होगा वहां आपका कोई रिश्तेदार नहीं मिलेगा। गोत्रों की परंपरा वर्ण या जाति व्यवस्था के साथ साथ मज़बूत होती गई। हर जाति के लोग गोत्र नियम मानते हैं। एक गोत्र के लोग एक ऋषि के संतान कहे जाते हैं। गोत्र ब्राह्मणों ने शुरू किया मगर हर जाति ने अपनाया। कुछ ऋषियों के संतानों ने अपना अलग गोत्र चलाने का प्रयास किया। मध्यकाल में क्षत्रियों ने गोत्र परंपरा को और मजबूत किया होगा। युद्ध के वक्त नए घरानों की ज़रूरत होती होगी। इसलिए शादी अपने गोत्र से बाहर कर एक और एक राजपरिवार आपस में रिश्तेदार हो जाते थे। उनके बीच युद्ध नहीं होता था। या इसकी संभावना कम हो जाती होगी।

फिर औरतों का क्या गोत्र होता है? शुरू में प्रमाण मिलते हैं कि विवाह के बाद बहू का गोत्र वही होता है जो उसके पिता का हुआ करता था। बाद में पितृसत्तात्मक मूल्यों के मज़बूत होने से बहू के नाम और गोत्र भी पति से तय होने लगे। पुरुष का गोत्र नहीं बदलता मगर स्त्री का बदलता है।

मैंने जो लिखा है वो गोत्र पर संक्षिप्त ऐतिहासिक जानकारी है। लेकिन बहस समकालीन होनी चाहिए। क्या गोत्र संभव है? कुछ लोग डीएनए के ज़रिये इसे साबित करने की कोशिश कर रहे हैं? फिर भी इसका जैविक आधार क्या है?
महानगरों में या एनआरआई जगत में जब अंतर्जातीय विवाह होता होगा तो गोत्र की परवाह करते होंगे? क्या अंतर्जातीय विवाह की भी शर्त गोत्र है? एक वक्त की ज़रूरत में बने इस व्यवस्था को आज इतनी सख्ती से लागू किया जा सकता है कि किसी जोड़े को मार दिया जाए। क्या कानून में विवाह की शर्तों में गोत्र को जोड़ा गया है? क्या गोत्र स्थायी है? अपरिवर्तनशील है? एक ही ऋषि के संतान अलग अलग जाति वाले कैसे हो सकते हैं? यह कैसे हो सकता कि एक ही गोत्र के ब्राह्मण, कायस्थ और क्षत्रिय हो सकते हैं? क्या ऋषियों ने हर जाति के संतान पैदा किये? बहस शुरू होती है अब।

9 comments:

pawan lalchand said...

ravish ji muddda apne samsamyik or prasangik hi udhaya hai, lekin mujhe lgta hai ki ye sargarbhit nahi ho ska or iski vajah hai apka bhi muddo ki talchhat me hath na mar kar satah pr faili shaval se hi apne kam ki batein nikal lena.
dada sahi hai ki in panchayto ke talibani farmano ke ek loktantrik samaj me kayam hone pr . lekin dada isia hindustan me kahin nahi hota ki shadi ke badh patni ka gotra bhi pati vala hi ho jata HAI.

Anonymous said...

रवीश जी स्त्रोत नही स्रोत होता है। यहाँ भी देखें

पाणिनि आनंद said...

गोत्र की जेनेटिक शुद्धता वहीं ख़त्म हो जाती है जहाँ एक गोत्र का पुरुष दूसरे गोत्र की महिला से विवाह करता है. फिर गोत्र के आधार पर व्यंजना-लक्षणा और गोत्रवाद की लड़ाई बेमतलब हो जाती है. यह और बात है कि बेमतलब का यह वर्गीकरण समाज के लिए आज भी बड़ा मतलब रखता है. जो समाज गोत्र से उपर नहीं उठ पा रहा, वो जाति, संप्रदाय को क्या ख़ाक किनारे रख पाएगा. रवीश जी, गंगा की गंगोत्री तो सूख रही है, गोत्र की गोत्री भी धीरे-धीरे सूख जाएगी.

सफ़र said...

पता नहीं ये जाहिल कब सुधरेंगे। जातीय पंचायत के वजूद को समाप्‍त किये बिना ये रोज-ब-रोज की विभत्‍स घटनायें ख़त्‍म नहीं होने वाली। कुछ 'पढे-लिखे' लोग तो न जाने कब से मात्रा सुधारने में लगे हैं। लगे भी रहेंगे… क्‍या फ़र्‌क़ पड़ता है!

Arun Arora said...

इसका एक वैज्ञानिक आधार भी है प्रभो उस्को भी पढिये,वैज्ञानिक दॄष्टीकोण से अगर अगली पीढी मेआपको अपनी पीढी के दुर्गुण या बीमारी वगैरा से बचाव करना है तो आप अपनी पुर्वजो के संबंधो मे संबंध ना करे और इसी को प्रतिपादित करने के लिये गोत्र बनाये गये थे,आजकल ये रुढीवाद हो गया है बस,कहानी इतनी सी है,मुझे उम्म्मीद है आप इसके वैज्ञानिक आधार पर भी रोशनी डालने की कृपा करेगे :)

इष्ट देव सांकृत्यायन said...

रवीश भाई
जाती और गोत्र के जिस बहस में आप उलझ रहे हैं, वह एक मूर्खतापूर्ण बहस है. इस बहस में उलझना उससे ज्यादा मूर्खतापूर्ण बात है. लगभग उतनी ही बेवकूफी भरा जितना पंचायत वालों का फैसला. हम थोड़े पढे-लिखे लोग हीन भावना से इस क़दर भर गए हैं कि हमारे पिताजी हमारे पिताजी हैं, यह मानने के लिए भी हम अन्ग्रेज़ी विद्वानों के मत पर आश्रित हो गए हैं. दुर्भाग्य से इस देश के ज़्यादातर इतिहासकार अंग्रेजों के पट्ठे ही हुए. जो नहीं हुए किसी यूनिवर्सिटी में पढ़ाते-पढ़ाते मर गए, लेक्चरर से रीडर नहीं बन पाए. जो हो गए जिन्दगी भर मलाई काटते रहे. भले इतिहास का ई न पता हो, बड़का विद्वान् घोषित हो गए. अंगरेजों के बाद कंगरेसी अंगरेजों से ज्यादा बडे अंगरेज थे. आज भी हैं. प्रतिभा पाटिल और मनमोहन सिंह से बढकर इसका क्या प्रमाण चाहिए. लिहाजा इनके नजरिए से इतिहास और परम्परा को देखना खतरनाक होगा. गोत्र क्या है क्या नहीं इसे दो मिनट में नहीं निपटाया जा सकता और इस तरह के तर्कों से दंगे तो कराए जा सकते हैं लेकिन समाज में कोई सकारात्मक परिवर्तन नहीं लाया जा सकता है. अगर राजनेताओं की तरह आपका इरादा अपना उल्लू सीधा करना हो तो ठीक है. यह बहस चलाइए, लेकिन अगर समाज के लिए कुछ बेहतर चाहते हैं तो पंचायत के फैसले की ही आलोचना कीजिए. वह भी सिर्फ इसलिए कि अब सम्बंधित लड़के-लडकी के घर वालों से गलती हो ही गई तो इसे एक और गलती से न सुधारा जाए. कोई ऎसी व्यवस्था बनाई जाए कि दुबारा ऐसा न हो सके.

Rising Rahul said...

एक थे गुनी जी महाराज। बडे ही ज्ञानी यायावर से उनका अन्तिम नाम मिलता था इसलिये उनसे अपने आप अपेक्षित था कि कुछ न कुछ सही तो वो गुनेंगे ही। लेकिन नेट युग और जेट युग तक पंहुचते पंहुचते उनकी गाडी की हवा निकल जाती थी और सारा गुन सतह पर ही आकर बिखर जाता था।
यह बात बिल्कुल ठीक है कि गोत्र क्या है और उसे मिनटों मे नही निपटाया जा सकता और गोत्र के ऊपर कुछ मिनट अपेक्षित भी नही बल्कि इस पर एक लंबी बहस की जरूरत है। भारतीय जाति व्यवस्था दुनिया की सबसे जटिल व्यवस्था है और इन्ही जटिलताओं के कारण सामंती मानसिकता वाले लोगों को उस तरह की पूरी ख़ुराक मिलती है जो किसी का भी क़त्ल कर देने मे सक्षम होती है। अगर हम धर्म निरपेक्षता की बात करते हैं , पंथ निरपेक्षता की बात करते हैं और साथ ही साथ सामाजिक बुराइयों को ख़त्म करना चाहते हैं तो हमे कही गहरे जाकर उसका इतिहास ही नही इस समय की सारी घटनाओं का भी अध्ययन करना होगा। जाति व्यवस्था हमारे समाज के लिए घटक है लेकिन जातियों के अन्दर जो गोत्र का नाम देकर दूसरी जाति विकसित की गयी है , उसपर भी उतने ही प्रहार करने की जरूरत है जितना कि दूसरी चीजों पर। जिस तरह से जाति मानवता के नाम पर कलंक है उसी तरह से गोत्र भी है। कलंक और एक अमानवीय प्रथा।
गोत्र पर काफी अच्चा लिखा है आपने। बधाई।

debashish said...
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debashish said...

मुझे नहीं पता कि गोत्र निर्धारण कितना वैज्ञानिक है पर गोत्र का मूल सिद्धांत inbreeding वैज्ञानिक आधार पर परखा जा चुका। अरुण ने सही लिखा कि लगातार inbreeding से स्वास्थ्य तथा फर्टीलिटी के कम होने के प्रमाण जानवरों और इंसानों दोनों में देख गये हैं। धर्मों में शायद इस बात पर जोर देने के लिये कुछ मान्यतायें डाल दी गईं और विरोध इसलिये मुखर हो जाता है क्योंकि ये incest के समतुल्य माना जाता है। हालांकि हमें नहीं भूलना चाहिये कि कई संप्रदायों में जैसे कि मलयाली व मुस्लिम समाज में भी, सगोत्र विवाह, जैसे कि मामा या बुआ के बच्चों से विवाह, जायज है। पर समाज में ये चेतना लाना तो शर्तिया ज़रूरी है कि गोत्र, जाति, यौनिक ओरियेंटेशन जैसे मुद्दों पर इंसान को ज़लील करने के रिवाज़ रखना किसी भी आधुनिक समाज को शोभा नहीं देता। समय बदल रहा है और गोत्र तथा गण मिलाने से ज़्यादा ज़रूरी है कि विवाहपूर्व एचआईव्ही का परीक्षण कराने पर जोर दिया जाय।