
दक्षिण पश्चिम दिल्ली में योजना स्वरूप पैदा किया गया एक नगर है द्वारका। उसी के साउथ दिल्ली हाउसिंग सोसायटी में इस आइसक्रीम कार्ट पर नज़र पड़ गई। अपने आप में संपूर्ण किराने की दुकान। बल्कि आप इसे किराने की दुकान का एक्सटेंशन भी कह सकते हैं। इस दुकान में सब कुछ है। शेविंग क्रीम, टूथपेस्ट, मंजन, सॉस, शैम्पू,रेज़र,कोल्ड ड्रींक,मैगी,साबुन,सर्फ, मच्छर मारने वाला हिट,माचिस आदि आदि। चावल आदि के छोटे पैकेट। ज्यादा बड़ा ऑर्डर करना है तो फोन कर दीजिए शाम तक सामान आ जाएगा। महत्वपूर्ण बात यह है कि यह ठेला-दुकान सोसायटी के अंदर खड़ी है। यानी सोसायटी की कमेटी ने इसकी अनुमति दी होगी। दरबान ने बताया कि मेरा भाई भी एक ठो दुकान खोला है। हिमालट सोसायटी में। सब कुछ मिलता है उसमें।
इस प्रवृत्ति पर ग़ौर करना चाहिए। हम दुकानों से घिरे बिना नहीं रह सकते। आप चाहें जितना मर्जी सेक्टर काट लें, हर सेक्टर में मार्केट दे दें मगर हम आदतन दुकान को अपने पड़ोस में ही देखना चाहते हैं। द्वारका के कई सेक्टरों में मार्केट है। फिर भी हर सोसायटी से मार्केट की दूरी अधिक है। कम से कम सौ दो मीटर तो होगी ही। अब आप इसे वक्त की कमी कह लें या फिर आलस्य की अधिकता,आदमी करे तो क्या करे। कितना फोन करे और कितना होम डिलीवरी करवाये। होम डिलीवरी से अच्छा है डोर डिलीवरी का ही जुगाड़ खोज लिया भाई लोगों ने। सोसायटी के भीतर ही दुकान खुलवा दी। दरबान के आस-पास के स्पेस का दुकान के लिए इस्तमाल। हम किराने और टीवी की दुकान में फर्क करने वाले लोग हैं। खुदरा-खुदरी के लिए हमारे ज़हन में अलग सा स्पेस बना हुआ है।
इससे एक हद तक यह भी ज़ाहिर होता है कि हमारे भीतर से मोहल्ला सिस्टम वाला सुकून अभी गया नहीं है। आजकल की सोसायटी लुक पर आधारित है। ताकि देखने में हैवन सिटी लगें हैवान सिटी नहीं। इसलिए दुकानों के प्रति असहनशीलता पैदा करने की नकली कोशिश की जा रही है। कई लोग मुझसे आकर कहते हैं कि इस पर रिपोर्ट बनाइये। आप अमेरिका तो गए होंगे वहां देखा है कभी। यहां तो कोई अनुशासन ही नहीं है। गेट पर ही दुकानें खुल गई हैं। पार्किंग में प्रॉब्लम होती है। सबकुछ पार्किंग तो नहीं तय करेगी न। मेरा उन्हें यही जवाब होता है कि भाई साहब हम हिन्दी के पत्रकार हैं। मुज़फ्फरनगर और हरिद्वार का ही भ्रमण-विश्लेषण करते रहते हैं। इसलिए न्यूयार्क की ठेलागीरी के बारे में ज़्यादा पता नहीं है।
दुकान हमारे लिए सेक्टर नहीं है। बल्कि घर का हिस्सा है। इसीलिए आप देखेंगे कि जहां भी सोसायटी खुलती है उसी के गेट पर सबसे पहले कपड़े प्रेस करने वाले का स्वागत किया जाता है। सोसायटी की दीवार से झोंपड़ी की छत टिकाकर काम चालू कर देता है। धीरे-धीरे गेट के आस-पास आइसक्रीम की ठेलागाड़ी खड़ी होने लगती है। फिर ठेले पर सब्ज़ी,आम और अमरूद लेकर खड़ा हो जाता है। कई बार सोसायटी के बाहर ठेले पर कालीन वाले लादकर आ जाते हैं। इंतज़ार करते रहते हैं। साइकिल पर झाड़ू,पोछा वाला सामान ले आता है। हर सोसायटी के खंभे में कई दुकानों के नंबर ठोक दिए गए हैं। सोसायटी के बाहर का स्पेस अस्थायी बाज़ार से भर जाता है। इसकी कुछ दुकानें हर दिन बदलती भी रहती हैं। एक दिन कूकर बनाने वाला आया तो एक दिन कंबल बेचने वाला आएगा। कुछ स्थायी होते हैं। जैसे दर्जी, धोबी। सोसायटियों में हर पखवाड़े एक पत्रिका आती है जिसमें सभी दुकानों के नाम,नंबर और तस्वीरें होती हैं। डॉक्टर साहब अपनी क्लिनिक का भी विज्ञापन दे देते हैं। पहले अच्छे डॉक्टर को पूरा इलाका जानता था अब पड़ोसी को ही नहीं मालूम है उनकी खासियत।
इस तरह से देंखे तो रिटेल का भी रिटेलीकरण होने लगा है। हम बड़े-बड़े मॉल से घिर गए हैं। फिर भी लघुतम दुकानों की महिमा अपरंपार बनी हुई है। अच्छा होता अगर हर सोसायटी में कपड़ा प्रेस करने वाले के लिए एक सुंदर सी जगह बना दी जाती। एक छोटी सी दुकान दे दी जाती है। जहां से चाय और साबुन शैम्पू की ज़रूरतें पूरी हो जातीं। आखिर सोसायटी की दरबानी में लगी फौज को भी दैनंदिन मार्केट चाहिए। चाय और चमचम बिस्कुट हेतु। मगर इसकी जगह हो यह रहा है कि कई सोसायटी जहां फ्लैट की संख्या ज्यादा है,अपने सामने के हिस्से को कमर्शियल एरिया में बदल रहे हैं। उनमें बड़ी-बड़ी दुकानें खुल रही हैं। स्पा से लेकर जिम तक। कुछ सोसायटी मिनी मॉल का निर्माण कर रही हैं। शायद इन्होंने भारतीय मानस को कुछ समझा है। कई सोसायटी तो अपनी बाउंड्री लाइन पर एटीएम काउंटर भी खोलने दे रही है। हर सोसायटी में एक मंदिर भी बनने लगा है। पुराना मोहल्ला सिस्टम हाउसिंग सोसायटियों में चुपके-टुपके और चोर दरवाजे से घुसने लगा है। मॉल की अवधारना बिखकर सोसायटी की दीवारों से चिपक रही है।
हाउसिंग सोसायटियों का नियोजन देखें तो एक किस्म का विस्थापन दिखता है। बड़ी-बड़ी सड़कें, अपनी दीवार,अपना गेट। कॉमन के नाम सबकुछ पर्सनल होता जा रहा है। सोसायटी में रहने वाले सिटीजन के अलावा बाकी सबको जबरन ठेल कर दूर किया जाता है। ग़ैर सोसायटी सिटीजन की कार अंदर नहीं आएगी। सोसायटी सिटीज़न की कार के लिए अलग से स्ट्रिकर होता है। आगंतुक के लिए कई नियम बना दिये गए हैं। आने से पहले रजिस्टर पर साइन करो, फिर फोन करो। इससे कुछ सुविधा तो है मगर अजनबीयत का भाव और गहरा कर जाता है। दरबान इस दबाव से मुक्त रहता है कि आने जाने वाले की पहचान करनी है। वो बस रजिस्टर पर आगंतुक के आधू-अधूरे पते और गिचमिच से दस्तखत को देखकर खुश हो लेता है। इन रजिस्टरों का अध्ययन करेंगे तो पायेंगे कि एक किस्म के विरोध और झुंझलाहट में दस्तखत किये गए हैं। बहुत कम लोग हैं जो हर कॉलम में सही या पूरी जानकारी भरते हैं। कई बार तो दरबान से झगड़ा भी करते हैं। अब दरबान तो कोई नहीं कहता। गार्ड ही हो गए हैं दरबान साहब। मेरे बड़े भाई मिलने आए, गेट पर ही झगड़ बैठे। उन्हें अपमान लगा। सोसायटी भले ही उनके और मेरे बीच फर्क करे मगर भाई साहब के लिए तो मेरा घर भी उन्हीं का है और वो अपने घर में आने के लिए पहचान क्यों साबित करें।
यह भी उचित है कि सोसायटी भयंकर असुरक्षा भावों का समुच्य है। सुरक्षा के नियम तो सबके लिए एक से ही बनेंगे। लेकिन रोज़ाना होने वाले झगड़े बताते हैं कि ज्यादतर लोगों को यह व्यवस्था स्वीकार करने में दिक्कत आती है। अब कौन कार से उतरे और रिजस्टर पर साइन करे। गेट पर पहुंच कर लगता है कि दरवाज़ा खुले और लिफ्ट में। दरबानों से पूछिये उन्हें किस तरह से डांट खानी पड़ती है। रजिस्टर सिस्टम बेकार साबित हो रहे हैं। फिर भी लोग इनकी समीक्षा करने से कतराते हैं। इसके बाद भी सोसायटी से माल गायब हो रहे हैं। आखिर सुरक्षा का इंतज़ाम निजी स्तर पर नहीं हो सकता। हमें एक न एक दिन राज्य से पूछना होगा कि आप हमारी सुरक्षा के लिए क्या कर रहे हैं? प्राइवेट पुलिस से खास लाभ नहीं हो रहा है। फ्लैट में चोरियां हो रही हैं। जब तक इन दरबानों के अधिकार स्पष्ट नहीं किये जायेंगे,इनका होना या न होना बराबर है। सुरक्षा चांस की बात है।
इसी ज़रूरत ने सोसायटी के भीतर इंटर कॉम का बाज़ार पैदा कर दिया है। वीडियो इंटरकॉम से लेकर वॉयस इंटरकॉम तक का बाज़ार। हर सोसायटी का अपना परिचय पत्र सिस्टम है जो वहां आने वाली कामवालियों,ड्राइवरों को दिखाना होता है। आप किसी भी सोसायटी में जाए तो रजिस्टर के बगल में ढेरों आई कार्ड दिख जाएगा। कमला,आशा और सुनीता का। कुछ दिनों बाद कामवाली आई कार्ड फेंक कर चली जाती हैं। दरबान देखता भी नहीं। यानी वही पुराना सिस्टम। जब वह पहचानने लगता है तब वह बिना कार्ड की चेकिंग के अंदर आने देता है। मगर हम सारा विकल्प बाज़ार में ढूंढ रहे हैं। समाज में नहीं। जल्दी ही सोसायटी में डिजीटल सिग्नेचर बोर्ड लगने लगेंगे।
दीवाली और न्यू ईयर पार्टी दो ऐसे मौके हैं जहां सब आकर नाच खा जाते हैं। यह कहते हुए कि कम से कम इसी बहाने मिलना जुलना तो हो गया। सब हां हूं करके सहमति दे देते हैं। लेकिन अगले ही दिन सब एक दूसरे को भूल कर अपने अपने फ्लैट में गुम हो जाते हैं। गौर से देखिये तो सोसायटी में इन आशंकाओं की कीमत हम अपनी गाढ़ी कमाई से चुका रहे हैं। साल में हज़ारों रुपये देकर। अच्छा पहलू यह है कि सोसायटी भी रोज़गार पैदा कर रही है। हर हाउसिंग सोसायटी एक फैक्ट्री की तरह लगता है। जहां काम करने हर दिन सैंकड़ों किस्म के लोग आते हैं। ड्राइवर, दरबान, कामवाली, खाना बनानेवाली, बढ़ई, धोबी, केबल वाला आदि-आदि। इनकी बदौलत कुछ पेड़ पौधों की संख्या भी बढ़ गई है। मेरे कहने का मतलब यह है कि हमें हाउसिंग सोसायटी की कुछ खूबियों और पुराने मोहल्ला सिस्टम की कुछ खूबियों को मिलाकर नए सिरे से प्लानिंग करनी चाहिए।
हम भारतीय लोग इस तरह से रहने के अभ्यस्त नहीं हैं। यह सही है कि सोसायटी के सिटीजन एक दूसरे से कम परिचित होते हैं इसलिए असुरक्षा भाव ज्यादा होता होगा। पुराने मोहल्ला या शहरी सिस्टम में लोग पड़ोसी के रिश्तेदार तक का नाम और गांव जानते थे। अब तो कोई किसी के घर से सामान लेकर जा रहा हो तो फ्लैट वाले पड़ोसी इस लिहाज़ से नहीं टोकेंगे कि किसी को बुरा न लग जाए। पुराने मोहल्लों में दरबान नहीं होते थे। घर से निकलिए कि बाहर बुढ़ापा काट रहे कोई दादा जी टोक देते थे। कहां से ला रहे हो और किसके घर जा रहे हैं। हमने अजनबीयत का जो संस्कार ज़बरन ओढ़ा है उसके लिए खूब कीमत चुका रहे हैं। सोसायटी में हर महीने डेढ़ से तीन हज़ार का मेंटेनेंस कॉस्ट देकर। अजीब-अजीब वर्दियों वाली निरीह सेना खड़ी करके। इनके ख़ून में यह संस्कार अभी तक आया ही नहीं है कि सोसायटी की रक्षा करते हुए कैसे शहीद हुआ जाए। ज़रा सा धमका दीजिए, तीन हज़ार से भी कम पर काम करने वाला गार्ड आपको रास्ता दे देगा। गार्ड भी क्या करे। हर तीन महीने पर उसे भी तो बदल दिया जाता है।
हम चाहें जितनी सोसायटी बना लें और उनके नाम यूरोपीय रख दें। रॉयल कासल,गार्डेनिया या फिर ड्रीम सिटी। हमारी तबीयत में वह नहीं है जो आर्किटेक्ट अपने नक्शे में खींचता है। इसीलिए आप ग्रेटर नोएडा से गुज़रे तो उसकी प्लानिंग पर दिल आ जाए मगर उस जगह से दिली रिश्ता नहीं बनता है। ज़ाहिर है प्लानिंग में सामाजिकता की बड़ी कमी है। उसमें हमारे रहने के तौर तरीके या संस्कार का समायोजन नहीं है। तभी तो सोसायटी के आदेश से दक्षिण दिल्ली हाउसिंग सोसायटी ने ठेलागीरी को अंदर आने की अनुमति दे दी है। कब तक आप ढोंग करेंगे। यह कहानी सिर्फ दिल्ली की नहीं है। भोपाल,जयपुर,मेरठ हर शहर एक जैसे हो रहे हैं। कुछ दिनों में जयपुर और भोपाल में फर्क नहीं रहेगा। वहां भी गार्डेनिया और यहां भी गार्डेनिया। वहां भी ओमेक्स, डीएलएफ यहां भी ओमेक्स,डीएलएफ। शहर बनता है अपने समाजों के संयोजन से न कि इमारतों के रंगरोगन से।