राजनीति एक छोटी फिल्म है। छोटी इसलिए क्योंकि अच्छी फिल्म होने के बाद भी दिलचस्प और बेजोड़ की सीमा से आगे नहीं जा पाती। कोई धारणा नहीं तोड़ती न बनाती है। अभिनय और संवाद और बेहतरीन निर्देशन ने इस फिल्म को कामयाब बनाया है। कहानी राजनीति के बारे में नई समझ पैदा नहीं करती। नए यथार्थ को सामने नहीं लाती। लेकिन इतनी मुश्किल कहानी और किरदारों को सजा कर ही प्रकाश झा ने बाज़ी मारी है और एक अच्छी फिल्म दी है। मैं बस इसे एक अच्छी फिल्म मानता हूं। यादगार नहीं। जो कि हो सकती थी।
मनोज बाजपेयी और रणबीर कपूर के अभिनय में एक किस्म का रेस दिखता है। पुराना और नया टकराते हैं। अपने-अपने छोर पर दोनों का अभिनय ग़ज़ब का है। मनोज की संवाद अदायगी काफी बेहतरीन है। अभिनय से अपने किरदार में जान डाल दी है। गुस्सा और लाचारी और महत्वकांझा का मिक्स है। रणबीर के अभिनय का भाव अच्छा है। एक अच्छा मगर शातिर लड़का।
महाभारत का दर्शन एक खानदान के भीतरघातों की कहानियों में ऐसे फंसता है कि सबकी जान चली जाती है। कोई अर्जुन नहीं,कोई दुर्योधन नहीं और कोई युधिष्ठिर नहीं है। सब बिसात पर मोहरों को मारने वाले हत्यारे हैं। किसी की नैतिकता महान नहीं है। सब पतित हैं। इस पारिवारिक युद्ध का कथानक बेहद निजी प्रसंगों में कैद होकर रह जाता है। सब कुछ सिर्फ चाल है।
इतनी रोचक फिल्म महान होते होते रह गई,बस इसलिए क्योंकि तमाम हिंसा के बीच विचारधारा को ओट बनाने की कोशिश नहीं की गई है। कम से कम विचारधाराओं की नीलामी ही कसौटी पर रखते। वही चालबाज़ियां हैं जिन्हें हम जानते हैं और जिनके कई रुपों को अभिनय के ज़रिये दोबारा देखते हैं। लेकिन हिन्दुस्तान की राजनीति विचारधारा की कमीज़ पहन कर घूमा करती है। उस ढोंग का पर्दाफाश नहीं दिखता जो खोखली और असली विचारधारा के बीच की जंग में पारिवारिक चालबाज़ियां छुप कर की जाती हैं। फिल्म में पूरी राजनीति प्रोपर्टी का झगड़ा बन कर रह जाती है। किसी का किरदार राजनेता का यादगार चरित्र नहीं बनाता। सब के सब मामूली मोहरे। हत्या और झगड़ा।
सूरज का किरदार ही है जो महाभारत से मिलता जुलता है। लेकिन नाम भर का। आज की दलित राजनीति के बाद भी यह दलित किरदार नाजायज़ निकला,मुझे काफी हैरानी हुई। बहुत उम्मीद थी कि सूरज बीच में आकर पारिवारिक खेल को बिगाड़ देगा लेकिन वो तो हिस्सा बन जाता है। आखिर तक पहुंचते पहुंचते दलित राजपूत का ख़ून निकल आता है। कुंती का नाजायज़ गर्भ दलित के घर में जाकर एक ऐसा लाचार कर्ण बनता है जो बाद में अपने राजपूती ख़ून को बचाने के लिए दोस्त दुर्योधन को ही दांव पर लगा देता है। ये वो वादागर कर्ण नहीं है जो सब कुछ त्याग देता है। फिल्म के आखिरी सीन में अजय देवगन समर प्रताप सिंह के रोल में रणबीर कपूर पर गोली नहीं चलाता। वीरेंद्र प्रताप सिंह मारा जाता है। कर्ण की दुविधा वीरेंद्र प्रताप सिंह के लिए जानलेवा बन जाती है। अगर सूरज समर पर गोली चला देता तो कहानी पलट जाती। लेकिन निर्देशक ने उसकी भी मौत तय कर रखी थी। समर प्रताप के ही हाथ। जिसे सूरज अपना खून समझ कर छोड़ देता है उसे समर प्रताप एक नाजायज़ ख़ून समझ कर मार देता है। बाद में फ्लाइट पकड़ कर अमेरिका चला जाता है पीएचडी जमा करने।
कैटरीना कैफ सोनिया गांधी की तरह लगती होगी लेकिन इसका किरदार सोनिया जैसा नहीं है। सारे किरदारों के कपड़े लाजवाब हैं। मनोज का कास्ट्यूम सबसे अच्छा है। चश्मा भी बेजोड़ है। लगता है प्रकाश झा बेतिया स्टेशन से खरीद कर लाये थे। कैरेक्टर को दुष्ट लुक देने के लिए चश्मा गज़ब रोल अदा करता है। अर्जुन रामपाल का अभिनय भी अच्छा है। धोती कुर्ता में नाना पाटेकर भी जंचते हैं। आरोप-प्रत्यारोपों की हकीकत सामने लाने के लिए महिला यूथ विंग की नेता का अच्छा इस्तमाल है। दलित बस्ती में मर्सेडिज़ की सवारी शानदार है। सबाल्टर्न का मामूली प्रतिरोध। नसीरूद्दीन शाह का किरदार कुछ खास नहीं है। कम्युनिस्ट नेता एक रात की ग़लती का प्रायश्चित लेकर कहीं खो जाता है। ये किरदार वैसा ही है जैसा जेएनयू जाएंगे तो सड़क छाप लड़के कहा करते हैं कि लड़की पटानी हो तो लेफ्ट में भर्ती हो जाया कीजिए। नसीर होते तो विचारधाराएं टकरातीं। विचारधाराओं की बिसात पर शह-मात के खेल होते तो कहानी यादगार बनती। लेकिन भाई ही लड़ते रह गए।
प्रकाश झा का कमाल यही है कि जो भी कहानी सामने थी उसके साथ पूरा न्याय किया है। भाइयों के बीच के झगड़े को बड़ा कैनवस दिया है। उसकी बारीकियों को खूबी से सामने लाया है। भीड़ की अच्छी शूटिंग की है। सहायक निर्देशकों ने भी खूब मेहनत की है। पहले हिस्से में फिल्म अच्छी लगती है लेकिन जब चाल चलने की संभावना खत्म हो जाती है और कहानी नतीजे की तरफ बढ़ती है तब निर्देशक सारे किरदारों को खत्म करने का ठेका ले लेता है। काश अगर इन्हीं दावेदारों में से कोई विजेता बन कर उभरता तो आखिर में ताली बजाने का मौका मिलता। एक सहानुभूति पैदा होती है। सिनेमा हाल से कुछ लेकर निकलते। फिर भी फिल्म देखते वक्त नहीं लगा कि टाइम खराब कर रहे हैं। यह फिल्म इसलिए भी अच्छी है क्योंकि सबने अच्छा काम किया है। कमजोरी कहानी की कल्पना में रह गई है। वर्ना दूसरा हिस्सा फालतू की मारामारी में बर्बाद नहीं होता। आप देख कर आइयेगा। मैं स्टारबाज़ी नहीं करता। इस फिल्म को देखना ही चाहिए।
34 comments:
भैया, पता नहीं चल रहा कि फिल्म की बुराई हो रही है या तारीफ़ ! पर इतना समझ में आ रहा है कि हरेक को अपनी राय खुद ही बनानी होगी और फिल्म कम से कम इस लायक तो है कि राय बनाने के लिए ही देख डाली जाये ! अभी देखने जा रहे हैं ! लौट के अपनी राय लिखेंगे ! बेतिया के चश्मे मैंने देखे हैं ! हा हा हा !!
आपकी सबसे अच्छी बात मुझे यही लगती है कि आप कालजयी होने के सभी प्रयासों के त्याग कर साधारणता के छोर पर खड़े होते हैं। लेकिन इस समीक्षा में आपने बार-बार फिल्म के महान/यादगार होने से रह जाने का अफसोस जताया है !
मुझे नहीं लगता कि प्रकाश झा एक महान फिल्म बनाना चाहते होंगे। वो एक कामयाब फिल्म ही बनाना चाहते होंगे। जो कि यह फिल्म होने जा रही है। वैसे आपने फिल्म की अब तक की सबसे संतुलित समीक्षा की है।
"प्रकाश झा एक गलती बार बार और हर बार करतें हैं. वो है गर्भ ठहरने की प्रक्रिया. प्रकाश झा यह गलती आज से नही कर रहे है. मुझे पहली याद मृत्युदंड की है. शबाना और ओमपुरी का एक संसर्ग और परिणाम गर्भ और उसी के इर्द गिर्द सारी कहानी. इसके बाद आई थी- दिल क्या करे? इसमे भी वही भूल-गलती. ट्रेन मे औचक मिलते अजय और काजोल, भावना का वही ज्वार, एक दूसरे के नाम पता भी से अंजान,अगली सुबह काजोल मुगलसराय उतर जाती है और कहानी वही- एक संसर्ग और गर्भ, जिसके इर्द गिर्द सारी फिल्म घूमती रहेगी. राजनीति मे भी वही पर यहाँ एक नही तीन तीन जोडो के बीच यही दृश्य."
आज कल इतने समीक्षक उग आये हैं उसका एक नमूना.. यह साहित्यकारों के ब्लॉग से उठाया है आपके लिये.
फिल्म की अब तक की सबसे संतुलित समीक्षा की है।
मनोज का अभिनय लाजवाब है, फिल्म में जान फूंकता है| राजनीति का मुख्या आकर्षण| अगर मनोज के किरदार को निकाल दें तो फिल्म की कहानी ढहती हुई दिखती है| कटरीना कई देसी बालाओं से अच्छा काम कर दिखातीं हैं| नाना पुरे रंग में नहीं दिखे| कहानी कहीं कहीं लचर दिखती है|
hamane abtak dekhi nahin hai dekhkar kuvhh kahenge
मनोज का अभिनय लाजवाब है, फिल्म में जान फूंकता है| राजनीति का मुख्या आकर्षण| अगर मनोज के किरदार को निकाल दें तो फिल्म की कहानी ढहती हुई दिखती है| कटरीना कई देसी बालाओं से अच्छा काम कर दिखातीं हैं| नाना पुरे रंग में नहीं दिखे| कहानी कहीं कहीं लचर दिखती है
शाश्वत शेखर aur mrityunjay kumar rai ke vichar kitne milte hain. He He He.
रवीश आपसे बहुत ज्यादा असहमत नहीं हूँ.... पर फिर भी अपना नजरिया रख रहा हूँ कि राजनीति एक ऐसी फिल्म है जिसमे पहली बार मुझे अहसास कराया कि कोई ऐसी फिल्म भी बन सकती है जिसमे कोई भी नायक नहीं बस और बस सभी खलनायक हों. बेशक फिल्म को तीन चर्चित कहानी/ हक़ीक़तों के आधार पर बनाया गया कह सकते हैं पर कोई भी कहानी पूरी तरह से प्रयोग नहीं की गयी इसलिए इसे खिचड़ी कहानी कह सकते हैं..... एक ऐसी कहानी जिसे बुनने में तीन -तीन कहानियों की मदद ली गयी और फिर गच्च-पच्च करके ऐसी पटकथा बनाया गया जिसका अंत बहुत हद तक देखने वाले की समझ में आप ही आ जायेगा.. और आधी या उससे कम फिल्म देखने के बाद जहाँ फिल्म का अंत पता चलने लगे उसे मैं फिल्मकार की असफलता ही मानता हूँ.
महाभारत की कहानी में कहीं-कहीं नेहरू परिवार और ठाकरे परिवार की कहानी को एक अजब रंगत देने के लिए इस्तेमाल किया गया है. पूरी तरह से महाभारत भी नहीं कह सकते हैं क्योंकि जो कभी शकुनि लगता है वो कभी कृष्ण बन जाता है, जिसे अर्जुन बनाने का प्रयास किया वो कौरव दल भी लगता है.. यहाँ भी सूरज जो महाभारत के कर्ण से मेल खाता है सारथी या ड्राइवर के घर पलता बढ़ता है और दुर्योधन की तरह ही वीरेंदर प्रताप उसे अपने दल में शामिल करता है.. और भी कई समानताएं हैं महाभारत के साथ.. शुरू से अंत तक शकुनि की तरह चालें चलने वाले नाना पाटेकर अंत में कृष्ण का रूप धर लेते हैं और कौरव कभी पांडव लगते हैं तो कभी पांडव कौरव. हर गंदे खेल को यहाँ राजनीति का नाम दे दिया गया है. कहानी को कोई ख़ास अच्छा नहीं कह सकते लेकिन मनोज वाजपेयी के अभिनय की दृष्टि से फिल्म को महत्त्वपूर्ण कहा जा सकता है जो कि हर किरदार पर भारी पड़े हैं.
ये बात भी सही है कि नसीर साहब यदि कहीं से वापस लाये जा सकते तो कहानी और रोमांचक और नयेपन से भर जाती.. वैसे उन्होंने बहुत छोटे से रोल में भी अच्छा अभिनय ही किया है. नाना पाटेकर अपनी एक नयी सी आवाज़ के साथ थोड़ा हटकर लगे.
फिल्म में सन्देश ढूँढने की कोशिश करने वालों को हताशा ही हाथ लगेगी सिवाय इसके कि राजनीति में सब जायज़ है... कहीं थोड़ा सा दुःख ये भी होता है कि फिल्ममेकर भी ये मान बैठे हैं कि भारत में लोकतंत्र सिर्फ नाम का है........ है यहाँ पर अभी भी राजतंत्र ही. जनता और नेता दोनों को सिर्फ और सिर्फ चुनावों के कुछ समय पूर्व ये अहसास होता है कि इस देश में लोकतंत्र चलता है. ये बात और है कि जब भी कोई बड़ा फैसला लेना होता है तो वर्ग-विशेष को ध्यान में रख यहाँ राजनीति पर लोकतंत्र का आवरण चढ़ा कर पेश किया जाता है. फिल्म देखने के बाद राजनीति के लिए मन में एक और नफरत का बीज पड़ जाता है. ये फिल्म एक विश्वास और मजबूत करती है कि आप किसी फिल्म के महज़ कुछ दृश्य देखकर ये जान सकते हैं कि ये प्रकाश झा ने बनाई है या नहीं..
रविश जी, फिल्म देखने से पहले हम किसी एक ख़ास समाचार पत्र में समीक्षा देखते थे और यदि उसने ४ या पांच सितारे दिए होते थे तभी हम टिकेट खरीदते थे, क्यूंकि अनुभव से हमने पाया था कि हमारी पसंद उससे मेल खाती थी...
आज दिन में हमने इस फिल्म को देखना है,,, उसके बाद ही पता चलेगा हमारा दृष्टिकोण आपसे मिलता है या दीपक 'मशाल' से (दोनों 'प्रकाश' के प्रतिरूप!)
कल गौरव सोलंकी की समीक्षा पढ़ी तो मन हुआ अब पिक्चर नहीं देखेंगे.
http://merasaman.blogspot.com/
आज आपको पढ़ा तो फिर असमंजस में पड़ गया..
एक बार तो फिल्म देखी जा सकती है... लेकिन इसमें गंगाजल और अपहरण वाली बात नहीं है... अजय देवगन का किरदार ज्यादा साफ नहीं हो पाया... क्लाइमैक्स में भी वो मज़ा नहीं आया जो प्रकाश झा की फिल्मों में आता है... लेकिन किरदारों के अभिनय को देखने के लिए ये फिल्म ज़रूर देखें...
ravish ji aap ka purana blog padha. Kya aap sach much IAS banna chahate the? Kya apko lagata hai ki IAS bankar bhi aap itne swatantra hote jitna ki aaj hai>? kya log aap ko jante ya aap ke itne fan followers hote? Ek aur baat kehna chahati hu, maine "one room set ramance padha" pata chalta hai ki aap kitne romantic hai, to gola sahi gira ya nahi?
फिल्म देखने के बाद थोड़ी निराशा हुई। और बेहतर बनाया जा सकता था। शायद ज्यादा चरित्र को संभालना थोड़ा मुश्किल हो गया। फिर भी आप राजनीति देख सकते हैं। अभिनय सबने बेहतर किया है। लेफ्ट नेता की एक भूल और दलित राजनीति का सच कुछ अलग ही दिखा दिया गया है। लेकिन राजनीति से देश की राजनीति को कोई भी लाभ नहीं होने वाला। इसके लिए बनाई भी नहीं गई है।
मैं यह समीक्षा पढ़ने इसलिए आया कि यह तय कर सकूं कि फिल्म देखी जाए या न देखी जाए। लेकिन इस समीक्षा में फिल्म के कई घटनाक्रमों का खुलासा कर दिया गया जिसे पढ़ लेने के बाद अब फिल्म बेमजा लगेगी। जैसे किसने किसको मारा। मेरे विचार से यह समीक्षा की नैतिकता का घोर उल्लंघन है। अब क्या खाक फिल्म देखूं।
पहली बार आपका कुछ लिखा पढ़ कर इतना गुस्सा आ रहा है।
लगता है...अब यह देखनी ही पड़ेगी...
बड़ा मुश्किल होता है...
अढ़ाई-तीन घंटों को कुर्बान कर पाना...
संतुलित सी बेहतर समीक्षा...
ओ. के. देखकर बताते हैं...
arthheen aur masala filmo ke es daur me shayad average film bhi acchi hi jaan padti hai bas yahi hua hai RAJNITI ke sath bhi cenema hall me paisa fookkar dekhne wali film to lagi par ha CD par ghar me zaroor ek baar dekhi ja sakti hai lekin bhayankar garmi me agr aap AC ki thandi hawa khana chahte hai zroor malplex me ja sakte hai
aapne sabka jikr kiya par nana patekar ka nahi kiya .mujhe inhi ki acting sabse behtar lagi,doosre no. par arjun rampal fir baki sabki!!!!kul milake sabne lajawab acting ki!!ab batae aapko arjun ki acting kaisi lagi????
ranbir ki maa ka abhinay karney wali mahila ki acting sabse kamjor lagi.aap kya samajhte hai?
ravindra tripathi kee sameekshaa padhee jansattaa me.... laga ki bakvaas movie hai kya!! ab aapkee sameekShaa padhee.... sochta hoon kya karoon..?? dekhoon.... na dekhoon? par lagta hai tripathi par ravish kee report bhaaree padegee...
यकीनन सबसे संतुलित और सटीक समीक्षा..फ़िल्म को सही परिपेक्ष्य मे रखती हुई..मगर इस बात से मै भी सहमत हूँ कि किसी नयी फ़िल्म के क्लाइमेक्स को बहुत ज्यादा उजागर नही कर देना चाहिये!
प्रकाश झा की 'राजनीती' देखी...
हिन्दू मान्यतानुसार घोर कलियुग में सर्व-व्याप्त विष के कारण मानव की कार्य क्षमता, और 'भले-बुरे' का ज्ञान लगभग शून्य होता है...
प्रकाश झा ने शायद इसी सत्य को समझ अपनी फिल्म में भी इस काल में आम आदमी के प्रतिनिधी, 'राजनेता', के शुद्ध स्वार्थी प्रकृति पर प्रकाश डाला है, बिना किसी आवरण के...
han shayad sahi hi bol rahe hai sir aap
intrval ke baad "Rajniti" Rajniti nahi rah jati
pahle jo dimag wali rajniti dikhai gayi hai wo kabile tarif hai shayad yahi thodi der aur chalti to film aur achchhi ho skti thi
manoj vajpai ka dialogue
"JAWAB MILEGA KARARA JAWAB MILEGA"
sabse achchha lga
sir..mujhe bhi bahut bhayi movie..shuru se aakhir tak baandhe rakha..vakai canvas jitna bada tha utna hi khoobsurat bhi...bihari babu ka sikka chal gaya :)
aapne dekh li aur hamne padh kar dkhi maan lee. mujhe lagta hai coments likhne mein aapne samay barbad kiya. pata nahin prakash jha padhenge ki nahi aapki comments ko. we to ticket bikri par safal aur asfal ka nirdhararn karenge. film itni achi nazar nahin aati jitna shor sharaba ho raha hai.
बहुत खूब इस तरह की समीक्षा आप ही कर सकते थे अच्छा लगा पढ़ कर
अपनी ब्लॉग पर भी डाल रहा हु
रवीश सर फिल्म तो देख ली पर कहानी में वो मजा नहीं आया| काफी उम्मीदें थी प्रकाश झा साहब से, पर वो उम्मीदों पर खरा नहीं उतर पाए | फिल्म बस ऐसी है की एक बार देख लो| हम आपकी इस बात से बिलकुल सहमत है की फिल्म और अच्छी बन सकती थी हमे भी मूवी देखने के बाद यही लगा था
रवीश सर फिल्म तो देख ली पर कहानी में वो मजा नहीं आया| काफी उम्मीदें थी प्रकाश झा साहब से, पर वो उम्मीदों पर खरा नहीं उतर पाए | फिल्म बस ऐसी है की एक बार देख लो| हम आपकी इस बात से बिलकुल सहमत है की फिल्म और अच्छी बन सकती थी हमे भी मूवी देखने के बाद यही लगा था
कलाकारों के रोल बारे में ज्यादा कुछ नहीं कहुंगा लेकिन इतना है कि फिल्म राजनीति मे वो सब कुछ है जो असल राजनीति मे होता है....बस नाम अलग है...
rajniti ios quite gud movie bt there isnt any x-factor in dis movie. neways its definetly one time watch bt nt prakash jha's best perfomance
फिल्म औसत लगी...कई किरदारों के साथ न्याय नहीं किया। बाज़ार का प्रभाव लगता है। रणबीर-अर्जुन के लिए काम ज्यादा दिया गया था। कोई वोट ना देनें वाला इंसान भी प्रकाश झा की इस "राजनीति" से वाकिफ़ होगा। कुछ ख़ास नहीं मिला फिल्म से,पैसा कमानें लायक मामला था। शायद ऐतिहासिक फिल्म में रणबीर-अर्जुन रामपाल और कैटरिना जैसों के लिए इतना कुछ ना रहता।
इस बात में शक नहीं कि फिल्म भारतीय राजनीति को स्थूल रुप में दिखाती है । और ये बात भी सही है कि इसे और बेहतर बनाया जा सकता था ,लेकिन अगर लोकतंत्र के चौथे पाये को आईना नहीं तो कम से कम गिरेबान में झांकने के लिए तो कहती है । कुल मिलाकर देखने लायक तो है ही ।
राजनीति , राजनीति को बेहद स्थूल रूप में दिखाती है । बेशक और बेहतर बना सकती थी । लेकिन जो बात मज़ेदार थी वो ये कि लोकतंत्र के चौथे खंभे को अगर आईना नहीं तो कम से कम
गिरेबान में झांकने की नसीहत तो देती ही है ।
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