जाति को हम सिर्फ एक चश्मे से देख रहे हैं।

ब्रिटिश हुकूमत से दो सौ साल पहले राजस्थान के मारवाड़ में जनगणना हुई थी। इस जनगणना में जाति के हिसाब से घरों की गिनती हुई थी। 1658 से 1664 के बीच मारवाड़ राजशाही के महाराजा जसवंत सिंह राठौर के गृहमंत्री मुहता नैणसी कराया था। इतिहासकार नॉर्बेट पेबॉडी ने अपने इस अध्ययन से साबित करने की कोशिश की है कि जनगणना औपनिवेशिक दिमाग की उपज नहीं थी। इससे पहले कि हम यह कहें कि औपनिवेशिक हथियार के रूप में जनगणना का इस्तमाल हुआ तो हमें मारवाड़ के देसी प्रयास को भी ध्यान में रखना होगा। सब कुछ बाहर से थोपा नहीं जा रहा था। हमारे देश में जनगणना चल रही है। केंद्रीय कैबिनेट को फैसला करना है कि जाति की गणना हो या नहीं। यह बहस पुरानी है कि जाति की गिनती से समाज बंट गया। उससे पहले हम जाति के आधार पर नहीं बंटे थे। इतिहासकारों ने यह भी साबित किया है कि ब्रिटिश हुकूमत की जनगणना से कई जातिगत सामाजिक ढांचे खड़े हो गए। कई नई जातियां बन गईं। नई जातियों ने जनेऊ पहनने का एलान किया तो कई जातियों ने अपने टाइटल बदल लिए। जातियों के बीच पहचान की दीवारें मजबूत हो गईं। इतिहासकार रश्मि पन्त ने लिखा है कि जाति की पहचान का ठोस रूप बन गया।

नैन्सी ने जाति के हिसाब से जोधपुर और आस-पास के ज़िलों में घरों की गिनती कराई थी। इस तरह की व्यवस्था दूसरे इलाकों में थी जिसे तब खानाशुमारी के नाम से जाना जाता था। नैन्सी के टाइम में खास जाति के घरों को गिना गया था। यह भी हो सकता है कि कई जातियों के पास घर ही न हो। कई राजस्थानी रजवाड़ों के पास गांवों में जाति के हिसाब से घरों की गिनती होती थी। इस तरह की गिनती राजस्व वसूली की सुविधा के लिए शुरू हुई थी। मारवाड़ में अलग अलग जाति के लोगों पर अलग अलग कर थे। इसीलिए नैन्सी की गिनती में आबादी की कुल संख्या का पता नहीं चलता है क्योंकि व्यक्ति की गिनती नहीं हुई थी।

इस बात के भी प्रमाण मिलते हैं कि कई ब्रिटिश प्रशासकों को जाति की संख्या के की उपयोगिता और प्रमाणिकता पर शक था। फिर भी यह कार्यक्रम चलता रहा। जिसे १९३१ के बाद से बंद कर दिया गया। तब तक भारत की राजनीति में अंबेडकर एक हस्ती के रूप में उभरने लगे थे। जाति पर बहस तेज हो चुकी थी। जाति सुधार से लेकर जाति तोड़ों जैसे आंदोलन चलने लगे थे। हाल ही में पेंग्विन से आई विक्रम सेठ की मां लीला सेठ की आत्मकथा में लिखा है कि तीस के दशक में उत्तर प्रदेश के रहने वाले उनके नाना ने जातिसूचक मेहरा शब्द हटा दिया था। अगर जाति जनगणना से सिर्फ जातिगत पहचान मजबूत ही हुई तो फिर टूटने की बात कहां से निकली। कहीं ऐसा तो नहीं हम सिर्फ एक चश्मे से देख रहे हैं।

यह सही है कि जातिगत जनगणना के बाद जातिगत संगठन बने। जाति के हिसाब से समाज में ऊंच-नीच था। जाति को चुनौती देने के लिए संख्या सबसे कारगर हथियार बन गई। जातिगत ढांचे को कमज़ोर करने में संख्या की राजनीति के योगदान को हमेशा नज़रअंदाज़ किया जाता है। संख्या की राजनीति न होती तो मायावती ब्राह्मणों के सामाजिक राजनीतिक संबंध कायम न करतीं। उन्हें बहुमत नहीं मिलता। जबकि बीएसपी की शुरूआत ही इस नारे से हुई थी कि जिसकी जितनी संख्या भारी,उसकी उतनी हिस्सेदारी।

ललित नारायण मिथिला यूनिवर्सिटी के राजनीतिशास्त्री जितेंद्र नारायण ने अपने शोध में लिखा है कि 1934 में बिहार कांग्रेस वर्किंग कमेटी में कायस्थों का प्रतिशत 53 था। 1935 की वर्किंग कमेटी में राजपूतों और भूमिहारों ने मिलकर चुनौती दी और कायस्थों का वर्चस्व घटकर 28 प्रतिशत रह गया। संख्या के आधार पर सत्ता संघर्ष का नतीजा ही था कि 1967 में बिहार में पहली बार 71 बैकवर्ड विधायक जीत कर आए। कायस्थ ने पिछड़ों से हाथ मिलाकर भूमिहार और राजपूतों के गठजोड़ को मात दी। कायस्थ मुख्यमंत्री महामाया प्रसाद ने पिछड़ों के नेता रामलखन सिंह यादव को मंत्री बना दिया। जातिगत प्रतिस्पर्धा का ही नतीजा था कि रामलखन सिंह यादव पिछड़ों के नेता के रूप में उभर गए।

संख्या की लड़ाई में सब जातियों ने सुविधा के हिसाब से कभी हाथ मिलाया तो कभी तोड़ा। इसका नतीजा यह निकला कि राजनीति में कोई भी जाति किसी के लिए अछूत नहीं रही। जातिगत अहंकार टूट गया। यह भी सही है कि जातिगत चेतना का प्रसार हुआ। स्वाभाविक था जब जाति की सीढी का इस्तमाल सत्ता की प्राप्ति के लिए होगा तो कायस्थ महासभा और ब्राह्मण महासभा का गठन हुआ। जातिगत पत्रिकाएं निकलीं। हर जाति सामाजिक दायरे में अपनी श्रेष्ठता का दावा करने लगीं। नए-नए टाइटल निकाले गए और ब्राह्मणों से बाहर की जातियां जनेऊ करने लगीं।

आजादी के बाद से जाति जनगणना नहीं हुई तो क्या सत्ता संघर्ष या समाज से जाति गायब हो गई। अमेरिका में रहने वाले प्रवासियों का संगठन जाति के आधार पर है। यहां तक कि ब्लॉग जगत में भी जातिगत ब्लॉग हैं। जाति का टूटना एक अलग प्रक्रिया है जो चल रहा है। अंबेडकर ने कहा था कि जाति को तोड़ों। हम किस जनगणना का इंतजार कर रहे हैं। जिन लोगों ने अंतर्जातीय विवाहों के ज़रिये जाति तोड़ी है उनकी भी गिनती होनी चाहिए और जाति की जनगणना में वो भी गिने जाएं जो जाति को बचाने में लगे हैं। दोनों के बीच संख्या का सामाजिक संघर्ष का वक्त आ गया है। इसलिए जाति की गणना होनी चाहिए। इससे जाति मजबूत नहीं होगी। नया संघर्ष होगा। होने दीजिए।

29 comments:

फ़िरदौस ख़ान said...

जातिय जनगणना से भारत में जातिगत व्यवस्था पर कोई ख़ास असर पड़ने वाला नहीं है...
हां यह, बात ज़रूर है कि जातिय जनगणना भविष्य में राजनीतिक समीकरण बदलने में सहायक साबित हो सकती है...

वर्षा said...

फिरदौस जी की बात से बिलकुल सहमत हूं। जो नेतागण जातीय जनगणना की वकालत कर रहे हैं वो भी अपना हित साधने की जुगत में है। हालांकि जातिगत जनगणना से स्थिति साफ होगी, ये बात तो समझ में आती है।

रंजन (Ranjan) said...

मुन्हटा = मुहता = मुणोत

मेरे वंशज है जी ... :)

रंजन (Ranjan) said...

हर मुद्दे पर पलायनवादी प्रवृति क्यों अपनाते है.. क्यों हर बात में साजिश नजर आती है.. गणना से भागते है.. जाती से नहीं.. जाती हम सब के गले में बंधी है.. तोडने का प्रयास न किया.. और जिसने किया (अंतरजातीय विवाह से) उसने हमेशा विरोध ही सहा..

सही कहा...

"नया संघर्ष होगा। होने दीजिए"

Priyankar said...

प्रिय रवीश,

जोधपुर के दीवान का नाम ठीक कर लें . सही नाम है मोहता नैणसी या मुहता नैणसी . इनकी लिखी ’नैणसी री ख्यात’ मारवाड़ के इतिहास को जानने का महत्वपूर्ण स्रोत है. आपने शायद यह अंग्रेज़ी की किसी पुस्तक से लिया है इसलिए नाम अटपटा हो गया है. कर्नल टॉड ने भी अपनी पुस्तक में इनके ब्योरों को जगह दी है .

Unknown said...

अभी भी यकीन नहीं होता की हमारा देश जाती के आधार पर जनगणना के बारे में विचार कर रहा है !
क्या यही भारत की सुपर पॉवर की उभरती छवि की एक तस्वीर है ! क्या इसीलिए हम विशेष पहचान कार्ड जारी किये जाने जैसी बहु आयामी बिषयों पर कम कर रहे हैं ! ताकि हर व्यक्ति के हाथों में उसकी जाती का पहचान कार्ड थमा सकें ?

क्या इससे देश में व्याप्त लोगों के बीच की खाई को कम करने में कोई मदद मिलेगी ? समझ में नहीं आता की हमारे बुद्धिजीवी कैसे इस प्रकार की सोच रख सकते हैं !
एक तरफ हम वसुधैव कुटुम्बकम, एवं समभाव की वकालत करते हैं और दूसरी तरफ लोगों की जाती की गिनती करने की योजना बनाते है !

रविश जी ऐसे बिषयों पर तकनीकी जानकारी प्रदान करने के लिए आपको बहुत बहुत धन्यवाद !

शिक्षामित्र said...

विकास का इतिहास बताता है कि अगर आप कुछ एकदम नया करना-कहना चाहते हैं,तो उसके लिए पुरानी शैली को एकदम छोड़ना होता है। मुझे नहीं पता कि जो लोग जातिवार जनगणना के पक्ष-विपक्ष में है,उनका ध्यान उन मुद्दों की तरफ है भी या नहीं जो अभी गर्भ में हैं।

JC said...

हमने अंग्रेजों से जो विरासत में 'आजादी' के बाद पाया हम उसी में थोडा बहुत परिवर्तन कर घसीट रहे हैं,,, और, समय के साथ और अधिक उलझते जा रहे हैं जाती, धर्म आदि में, अपने ही बुने हुए जाल में जो हमारे पूर्वजों ने कभी पहले शायद इससे बेहतर बुना होगा! जबकि प्राचीन ज्ञानी 'सत्य' को समझ पहले ही कह गए कि काल एक सीधी रेखा पर नहीं चलता - यह एक चक्र है जो एक बिंदु से आरंभ कर फिर उसी बिंदु में ही अंततोगत्वा समा जाता है (हिमयुग से आरंभ कर - उलझे ऊन के गोले समान बन - एक और हिमयुग तक,,, फिर से एक नया जाला या स्वेटर 'बुनने और त्यागने' के चक्र को अनंत काल तक चलायमान रखने के लिये :)

जय भारत माता की!

[जवाहर लाल जी हमारे कॉलेज में आ सुनाने लगे कि कैसे गाँव वाले उन्हें मिल बोले "जय भारत माता की!" तो उन्होंने पूछा कि यह भारत माता कौन है? वे एक दूसरे का मुंह देखने लगे तो उन्होंने उनकी, एक एक की ओर, इशारा कर कहा "वो आप हो / आप हो / आप हो!"]

Mrityunjay Kumar Rai said...

जाति या यु कहे जातिवाद मूलक राजनीती को ज़िंदा रखने के लिए ही जातिवादी जनगणना हो रही है . मै एक अनुमान बता रहा हूँ , जिस दिन इस जाति जनगणना के अंतरिम आकडे आयेंगे , ओ बी सी का प्रतिशत ६० फीसदी के आसपास आयेगा . उसी दिन हिन्दुस्तान में एक नया महाभारत शरू होगा जिसमे कोई पांडव नहीं होगा बल्कि केवल कौरव ही होंगे . ओ बी सी नेता ५० फीसदी की सीमा तोड़ने के लिए आन्दोलन करेंगे , ट्रेने रोकी जायेंगी , बसे फुकी जायेंगी और देस एक अराजकता की तरफ बढ़ जाएगा . अगर आप इस बात से सहमत नहीं है तो अभी हाल का ही उदाहरण ले लिजीये . अभी पिछले साल ही राजस्थान की केवल एक जाति( गुर्जर ) ने आरक्षण के लिए पुरे राजस्थान को बंधक बना लिया था , आशा किजीये जब पूरा ओ बी सी वर्ग ही आन्दोलन में कूद पडेगा तो क्या हश्र होगा . सरकार कोई भी हो , चूले हील जायेंगी .
तो दिल थामकर इस जनगणना के interim data का इन्तेजार कीजिये , असली फिल्म तो तब शुरू होगी , ये तो टेलर था.

और आपने बिलकुल सही कहा

"नया संघर्ष होगा। होने दीजिए"

गिरधारी खंकरियाल said...

jati gat jan ganna karna na to asan hai na hi iska koi auchitya.
jis ganna ke adhar naye sangharsh ki kamna ki ja rahi ho iska kya fayada. iska fayada to sirf rajnetaon ko milega.
jo sandarh aapne prastut kiye us deshkal prashthiti mein itni ashankayen nahi thi.
bhart varsh mein jatiyea aur upjatiyan itni sankhya mein hain ki ganna asphal ho jayegi, kai jagah par ek hi title ke log brhman hain to wahi kisi anya jagh par rajpoot, vashy aadi paye jate hain, itna hi nahi hindu dikhne wali jatiyan musalmano mein bhi payee jati hain. e. i Rana jati uchch koti ke rajpoot mane jate hain, wahin Rana musalmano mei bhi payee jaati hain. ab jaati ganna ke baad dharm ki bhi ganna awshyak hai. sangharsh ki umeed to aap laga hi chuke hain. to kahan tak pariharya hoga. aapko bhi sochna padega, esa na ho chsme ka number hi badal jaye.

prakashmehta said...

sir jee pahle apni jati to batao agar itna hi achha hai why ravish kumar only title kaha gaya

दिनेशराय द्विवेदी said...

जात गिनो या न गिनो क्या फर्क पड़ता है। हाँ लोगों को बाँटने की जरूरत वाले लोगों को इस्तेमाल के लिए एक औजार जरूर मिल जाएगा।

कुलदीप मिश्र said...

आंकड़े जुटाना गलत नहीं, बशर्ते उनका सदुपयोग हो...दुर्भाग्य यह है कि इस अनैतिक राजनीतिक युग में जहां जातियां समस्त राजनीतिक दलों के लिए चुनावी गणित का आधार रही हैं, यह मानने का कोई कारण नहीं कि जातिगत जनगणना से प्राप्त आंकड़ों का दुरूपयोग नहीं होगा...जातियों की संख्या के आंकड़े उपलब्ध होंगे तो चुनावों में जातियों की भूमिका बढ़ेगी...इससे राजनीति में तुष्टिकरण के सिद्धांत को हवा मिलेगी...ज़ाहिर है, लोकतंत्र के लिए यह शुभ नहीं होगा...दूसरे, जाति को अपनी राजनीति चमकाने का मोहरा मानने वाले नेताओं को लड़ाई का नया आधार मिल जाएगा...देश भर में अपनी अपनी जातियों के 'स्वकथित उद्धारक' छुटभैये नेता जन्म लेंगें, जो नए सिरे से अपनी अपनी जाति के लिए आरक्षण की मांग करेंगे...चूंकि यह मांग चारों ओर से आएगी तो आरक्षण की लड़ाई में सामाजिक विद्वेष बढेगा...ऐसे में में गुर्जर-मीणा जैसे संघर्ष आम बात हो जाएं, तो आश्चर्य नहीं होना चाहिए...अतः ऐसे वोटसाधक नेताओं के बीच जातिगत जनगणना करा के हम खुद को वापस उस समय में खींच लेंगें, जहां से हमने शुरुआत की थी...
http://bhaiyajikikalam.blogspot.com/

Parul kanani said...

firdaus ji ki baat mein dam hai....jatiwaad ka ye sangharsh sadiyon se chala aaya hai..malum nahi kiska bhala hua hai!

Ra said...

बात आपकी पोस्ट से तनिक हटकर है पर मूल मसले के करीब है ,,,,जातिवाद के मामले पर एक ...महायुद्द राजस्थान में भी हुआ था ,,,परिणाम ,,आजतक गुर्जर और मीणा समाज के सम्बन्ध ...इस तरह बिंगड़ चुके है ,,की कभी-कभी जरा सी बात पर ...फिर वही अनहोनी होने का डर रहता है ,,,,बसुन्धरा सरकार में हुए इस ..मामले के लिए सरकार को मैं कभी माफ़ नहीं कर सकता ,,,अब उम्मीद नहीं है की भाई-भाई कहलाने वाले ये दोनों समाज कभी एक दुसरे को शत्रु ना समझे

Anoop Aakash Verma said...

रवीश जी को सादर प्रणाम....भाई जी..मुझे समझ नहीं आता कि हमारे समाज मे जो जातिगत व्यवसथा बनी हुई है उसे आंकङए सम्मत करने में हर्ज़ ही क्या है....??उसका दुरुप्अयोग होगा या सदुपयोग ये अभी चर्चा का विषय नही होना चाहिये...जैसाकि हमारे मित्र कुलदीप मिश्र जी कह रहे हैं....

नवीन कुमार 'रणवीर' said...

जाति को जाने( गुडबाए) के लिए कहनें से पहले हमें अपनें नामों से उपनामों
को हटाना होगा। हम अपनें लिए केवल इतना भर नहीं कर सकते और देश की सामजिक
स्थिति को चुनौती देनें की बात करते हैं? कितने लोग है जो ऐसा करनें के
लिए तैयार है? हमारे शादी-ब्याह रीति-रिवाज़ और संस्कृति जिसकी दुहाई देत
हम थकते नहीं है, क्या हम उन्हें छोड़ पाए हैं? जन्म से मृत्यु तक के
सारे धार्मिक आडंबर हम आज भी निभाते है, और वे सभी हर जाति के लिए
अलग-अलग है ये भी जानते हैं। क्या हम उनसे आज तक विमुख हो पाए है?
अख़बारों में शादी के विज्ञापन से लेकर मीडिया की नौकरी तक में जाति अहम
भूमिका निभाती है। लेकिन जब समाज के किसी भी कमज़ोर वर्ग को उपर उठानें
की बात होती है तो देश बटा सा लगता है, सामाजिक समरसता का नया ताना-बाना
बुना जाता है, अख़बारों में बड़े-बड़े पत्रकार आरक्षण के खिलाफ एक मुहिम
छेड़नें लगते है, टेलीविजन के एंकर अपनें
चौरसिया-पचौरी-आजवाणी-दत्त-वाजपेयी उपनामों की जगह कुमार लगानें लगते है
या कि आर्थिक आधार(जिसकी वो सराहना करते है) के उपनाम लगाते है, जैसे
दीपक करोड़पति, पंकज लखपति, किशोर दसलखपति, पुण्य प्रसून हज़ारपति, बरखा
करोड़पति...इत्यादि? आरक्षण की बात आती है तो हम कहते है कि हम जाति के
आधार पर भेद के खिलाफ है, हम जाति के आधार पर किसी भी प्रकार का भेद
(केवल, शिक्षा और नौकरी में) नहीं रखना चाहते। क्यों? बाकि तो जैसे सभी
जगह हम अपनें सभी संबंध बनाते समय केवल किसी की आर्थिक स्थिति को देखकर
ही उससे संबंध बनाते है, हां शायद बनाते है लेकिन वो केवल व्यापारिक होता
है, सामाजिक नहीं। सामजिक संबंध बनाते समय हमारा ध्यान सीधा किसी की जाति
पर जाता है। हम नहीं सोचते की उसकी शिक्षा या आर्थिक स्तर क्या है,
क्योंकि हम जानते हैं कि हम जिस समाज में रह रहे है उसमें जाति सामजिक
संबंध स्थापित करनें का मुख्य आधार रही है और ये स्थिति जस की तस बनीं
हुई है। फिर हम तुर्रा देते है कि ओबीसी को आरक्षण नहीं मिलना चाहिए,
जाति आधारित आरक्षण नहीं होना चाहिए, किस आधार पर आरक्षण हो रहा है,
जनसंख्या का आंकड़ा नहीं है? क्रीमी लेयर को बाहर करो, यूनाईटेड
स्टूडेंट्स, यूथ फॉर इक्वैलिटी पता नहीं क्या-क्या...।
अब जब बात देश में जनसंख्या की जातिगत गणना की बात आई तो किसी संगठन ने
नहीं कहा कि हां ये सही है, हमनें तो ये भी मांग किसी 2005 में। पता तो
चले कि देश की निम्न और कमज़ोर समझे जानें वाली जाति की क्या संख्या और
स्थिति है। हज़ारों सालों से सेवा करवानें वाला वर्ग आज भी किस रूप में
समाज के उसी वर्ग से उसके लोकतांत्रिक अधिकार छीन रहा है। डरते क्यों हो
दोस्तों, बात तो आपकी ही रखी गई है, खुद को डाक्टर बता कर अपनें काम को
ना करनें वाले पहले मरीज़ों की संख्या पर सवाल उठाते थे की कोई बीमार ही
नहीं है तो इलाज किसका करें? अब जब पीड़ितों की गिनती हो रही है तो खुद
की पोल खुलनें का डर लग रहा है...? वाह

Unknown said...

sir. main aapki baat se sahmat hu.
jati harame desh ki sabke badi sacchai hai...

aur iska virodh karne walo ko hamesha hi virodh shna padta hai...

hamara samaj aaj tak nahi badla aape hi baccho ki khushiyo aur jivan ka balidan toh le sakte hai liken jati hai chod sakte hai...kaise samaj me rah rahe hai hum..

Unknown said...
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JC said...

रविश जी, एक था शून्य और एक अन्य शून्य, अनंत दूरी पर (उत्तरी और दक्षिणी ध्रुव जैसे)... दोनों ने कहा आओ अपने बीच की दूरी मिटादें, खाली स्थान यानी अनंत शून्य भर दें...

जब उनके द्वारा अनंत शून्य मायावी भौतिक शरीरों द्वारा भर दिया गया तो अनादि ब्रह्म के स्वरुप पृथ्वी (मायावी जगत) पर मानव रूप में मायावी शरीर खाली स्थान में होने के कारण बारी-बारी से, काल-चक्र में फँस, अपने को 'खालिस' या शुद्ध, अथवा खालिस्तानी, समझ आपस में ही झगड़ते रहे हैं,,, और ऐसा लगता है कि निराकार ब्रह्म इस लीला का अनादिकाल से आनंद उठाते आ रहे हैं - उठा-पटक चालू है अस्थायी शरीरों में किसी न किसी बहाने...

Raag said...

मेरे ख्याल से जाती को आजकल की बातचीत में लाना ही मूर्खता है. न तो जाती के आधार पर कोई आरक्षण हो, न जाती की आधार पर गिनती. आरक्षण और गणना आर्थिक आधार पर होनी चाहिए.

लेकिन अब जाती के आधार पर आरक्षण है ही तो गिनती से भागना तो और बड़ी मूर्खता है.

आचार्य उदय said...

आईये जाने .... प्रतिभाएं ही ईश्वर हैं !

आचार्य जी

daddudarshan said...

वो सारीं बातें,'जिन से दमित-लोगों के अधिकार प्रभावित होते हैं,'खासकर उनके अधिकारों का संबर्धन होता है ,
तो समाज में तूफ़ान उठाने की कोशिश की जाती है | ऐसा कहा जाता है कि "यदि ऐसा हुआ तो जलजला आ
जाएगा |" ये एक सोची-समझी रणनीति है | क्यों कि उन्हें पता है कि 'जब से गिनती शुरू हुई है; दमितों ने जब
से जाना है कि हम कितने हैं ,और कितनों ने मिलकर गुलामी हमारे ऊपर थोप दी है | तभी से संघर्ष शुरू हुआ है | उसी अनुपात में उन्मुक्त-वातावरण और अधिकार मिले हैं| जो लोग बात-बात में ये कहते नजर आते हैं ,'कि अमुक काम सेजातिवाद को बढ़ावा मिलेगा',जरा उनके कामों पर गौर करिए ;उनका लगभग हर कम ऐसा होगा, ,जो
जाति-वाद को बढ़ावा दे रहा होगा | daddudarshan.com

Ranjan said...

रवीश भाई !

जाति एक जबरदस्त पहचान रह चुकी है ! मेरे बचपन की एक दोस्त ने 'अंतरजातीय' विवाह किया ! मुलाकात हुयी तो मैंने पूछा - अब तुम्हारा 'जाति' बदल गया ..क्या य 'जातिविहीन' हो गयी हो ? पलटकर जबाब मिला - "जिस जाति में जनम लिया - मरुंगी भी उसमे ही " ! - इस बात पर अप गौर फरमाईयेगा ! - यह एक सच्ची घटना है ! विशेष आप खुद 'समाजशास्त्र' के ज्ञानी हैं :)

JC said...

रविश जी, 'दृष्टिदोष' कहते हैं जिसे, जो चश्मे से ठीक नहीं होता, वो ही कारण है कि हम, साधारण मानव, देख नहीं पाते कि कैसे साधारण धूलि कणों से सख्त चट्टान बनती है (काल और पंचभूत के मेल-जोल से),,, वैसे ही जैसे जल कि छोटी छोटी बून्दियों से एक बूँद, और कई बूंदों से बादल बनता है, मोतीचूर या बूंदी का लड्डू भी, और ऐसे ही मानव समाज मिली-जुली जातियों से,,, जो सब टूटने या बरसने पर फिर बिखर जाते हैं... फिर से नए युग में एक नया संसार बनाने के लिए...

Unknown said...

namaskaar!

jaati aadhaarit jangananaa honii chaahiye.yadi jaati aadhaarit aarakshan denaa hai.

jaati aadhaarit aarakshan nahiin denaa hai to jaati ki gananaa karane se koi labha nahiin hai.

janagananaa prashaasan kii suvidhaa ke liye hitii hai. jin jin suuchnaaon kaa upyog honaa hai use prapt kar lenaa chaahiye.

raajnaitik laabh to raajnetaa apnii jaruurat aur chaturaaii se kabhii bhii kisii bhii baat se le lete hain.

jo sabase kathin jaankaarii hai vah hai aarthik. jaati kii jaankaari to ho jaayaegii aarthik sthiti kii jaankaarii thiik thiik karanaa mushkil hai.

subidhaaye jaatigat n hokar aarthik honii chaahiye.

namaskaar.

दिनेशराय द्विवेदी said...

रवीश जी,
दंतेवाडा पर आप की रिपोर्ट देख कर आया हूँ, प्रतिक्रिया देने से रुक नहीं पा रहा हूँ।
मैं ने पिछले दो तीन साल में इतनी अच्छी वीडियो रिपोर्ट नहीं देखी। कोई प्रतियोगिता होती हो तो इसे साल की बेहतर डाक्यूमेंट्री का पहला पुरस्कार मिलना चाहिए।

Archana said...

jub iss desh mein jaati ke aadhar par noukari di jaati hai to,to janganna karne mein kya budai hai.Jaativaat ko hathana chahte hain to pehale jaati ke aadhar par jo aarakshan hai use khatam kar use varg ke aadhar par laagu karein, tabhi jaativaad khatm hoga...........

parul said...

soch rahi hun main bhi kisi s.t., s.c. ki category men apna naam likha leti hun...
duniya chaand aur mangal par basne ki soch rahi hai aur ham abhi tak jaati aur aarakshan men bandhe pade hain...
employment ke tarike nikaale nahi jaate aur reservation dekar tushtikaran ki neeti apna rahe hain..
kyu jarurat hai aakhir jatigat jan ganana ki ya aarakshan ki..

do na sabko rozgaar fir na koi reservation ko support karega na koi oppose karega....
samajh nahi aata ki ek sangharsg reservation ko jad se hataane ko kyu nahi hota....
vikaas kar aage jaane ki to chhodo ham to pichhe ki taraf ja rahe hain....