अब सत्तू की भी शेखी देख लीजिए..
दक्षिण दिल्ली के अंबेडकरनगर में टहल रहा था। एक साथ इतने शेखों को देखकर नज़र ठहरनी ही थी। मैंगो और बनाना शेक के एकछत्र राज में सत्तू और जौ ने सेंध मार दी है। हि्न्दी के व्याकरणाचार्यों की बिना इजाज़त के दवाइयां की जगह दवाईयां लिखने वाली दिल्ली ने शेक को शेख कर दिया है। आखिर गर्मी में इन्हीं शेकों की तो शेखी होती है। पपीता भी अब शेख कहलाने की ख्वाहिश रखता है। तरबूज ने भी लाइन में जगह बना ली है।
ग्वालियर से आए दुकानदार ने कहा कि मैंगो शेक बनाते बनाते लगा कि क्यों न सत्तू को भी ट्राइ किया जाए। बस उसने मिक्सी में दही डाला। थोड़ी देर मथने के बाद चार-पांच चम्मच जौ के सत्तू डाले। घूं-घां किया और फिर काजू बादाम पिस्ता के साथ करौंदे डाल दिये। जौ साहब शेख बनकर ग्लास में आए तो ऊपर से तरावट के लिए रूह-आफ़ज़ा ने रंग सुर्ख़ कर दिया। जब पीया तो लगा कि वाकई अंबेडकरनगर ने कुछ यूनिक काम किया है। हो सकता है दिल्ली के दूसरे इलाकों में भी सत्तू के शेख मिलते हों लेकिन एक ग्लास पानी में चार चम्मच सत्तू,नमक और नींबू डालकर पीने का अनुभव एक झटके में बदल डाला भाई ने। आवश्यकता आविष्कार की जननी है ग़लत साबित करते हुए। सत्तू शेख की खोज किसी बोरियत भरे क्षण में की गई थी। हां सत्तू का शेख पीकर बहुत मज़ा आया।
बहुत दिनों से सत्तू को स्टेटस की तलाश थी। कब्ज़ और गैस से मुक्ति दिलाने की गारंटी के कारण स्वास्थ्य कारणों से थोड़ी जगह तो मिली लेकिन क्लास नहीं बन पाया। पूरी उम्मीद है कि शेख के इस अवतार में जौ और सत्तू दोनों ऊपर वाले क्लास में भी सराहे जायेंगे। प्रवासी फू़ड है जौ और सत्तू। मज़दूरों के साथ भारत के कई हिस्सों में गया। मज़दूर मालिक बने तो सत्तू ने भी अपना स्टेटस हाई फाई कर लिया है। संगम विहार की कई दुकानों पर शेक साहब शेख साहब बन कर बिक रहे थे। ग्वालियर वाले दुकानदार ने झूठा वायदा कर दिया कि ये खोज उसकी है लेकिन जब दूसरी दुकानों पर नज़र गई तो लगा कि मामला विवादास्पद है। ख़बर की गुज़ाइश है।
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27 comments:
क्या कारण है कि दिल्ली की इन्ही गलियों से जब हम गुजरते हैं तो वो देख नहीं पाते जो आपकी नज़रें तलाश लेती हैं....ये आपका अनुभव है या फिर ऊपर वाले की नियामत पता नहीं....लेकिन आाइडिया जेनरेशन से लेकर उसे एक्जि़क्यूट करनें में आपको इतनी महारत कैसे हासिल है...ज़रा बताइए सर...?
यूपी, बिहार आदि क्षेत्रों का आजतक का 'सत्व' अथवा 'सत्य' की खोज में सबसे बड़ा आविष्कार शायद सत्तू रहा होगा???
(जहाँ तक लिखाई की भिन्नता है, वो अंग्रेजों ने कहा "जो घोष लिखता है उसे बोस समझ जाता है", यानी मतलब सत्य समझने से है :)
ओह रविश भाई आपने अच्छा याद दिला दिया । आजकल बाबूजी आए हुए हैं , गांव में उनके लिए जाने कितने बरसों से सुबह सत्तू का ग्लास एक अनिवार्य नियम सा बना हुआ था । इसलिए आते समय दो किलो बांध लाया । अब जब वो खत्म हो गया है तो बस फ़िर रहे हैं मारे मारे । कई दुकानें बडी बडी छान लीं कोई कहता है , सर बिकता नहीं इसलिए नहीं लाते कोई कहता है सर यहां कहां सत्तो मिलेगा ? बस सत्तू भाई सत्तू भाए कहां मिलोगे , जप रहे हैं ।
हां शेक के शेख बनने की कहानी गजब रही ।
अजय कुमार झा
सत्तू पुराण तो गज़ब रहा।
बढ़िया।
अरे ग्वालियर का दुकान वाला क्या बना पाएगा जो मेरे गाँव के लोग बना लेते हैं ....,सत्तू का साथ तो बहुत पुराना है । लेकिन बाजार ने किसी को नही बख्शा है ।
namaskaar!
sattuu ka ek naam barsagra tonic bhii hai.
bar for barly
sa for salt
gra for gram
kuchh nayaa prayog aur kuchh puraani chiijoo kii nayii packing up bihaar ke dish ko bhii international banaa denge.
namaskaar.
नमस्कार सर , हमारी खाने के संस्कृति मे चना का प्रयोग बहुत होता था ॥ जैसे अनकुरित चना,सतु ,सतु से बनी लिटि,शाम के समय भुजा आदि ॥ लेकिन समय के साथ् लोगो ने इस परम्परा को तोडा था॥फिर समय बदला और लोगो को अपनी गलती का पता चला, की सेहत के लिये क्या सही है ? धन्यबाद
आदरणीय सुशीला जी, ग्वालियर में सत्तू की कोई परंपरा नही है। वहां गर्मियों में गन्ने का रस,लस्सी, नीबू-पानी चलता है या मिट्टी के दीये में बर्फ घिसकर उसके उपर मीठे रंगीन शरबत की परत या पतली रबड़ी डालकर चुस्कियां लेने की पंरपरा है। या फिर घड़े वाली बर्फ, सराफे वाली। वैसे भी ग्वालियर की मोतीझील का पानी जब तिघरा के जरिये लोगों के घरों के नलों में पहुंचता है तो उसकी केवड़े जैसी महक और स्वाद में किसी को और खास चीज़ों की ज़रुरत कम ही पड़ती है। इसीलिये बेशक ग्वालियर वाला वो सत्तू नहीं बना पाएगा जो वेस्टर्न यूपी या बिहार में बनता है। लेकिन उसकी हिम्मत की दाद दीजिये कि उसने इतने बड़े-बड़े शेखों के बाजार में हिम्मत तो की, सत्तू शेख को लाने की, बाकी लोग तो आह सत्तू और वाह सत्तू करके ही रह गये। वैसे सच बताऊं, सत्तू मुझे भी बड़ा पसंद है पहली बार बुलंदशहर में पीया था।
क्या कारण है कि दिल्ली की इन्ही गलियों से जब हम गुजरते हैं तो वो देख नहीं पाते जो आपकी नज़रें तलाश लेती हैं..pashyanti ji ka kiya sawaal..mera bhi :)
शेक का शेख होना अच्छा ही लग रहा है।
सत्तू के शेख बनाने की यह विधि रोचक और नयी है ...:):)
Chaliye kam se kam hamara Sattu , Sekha to ban gaya.
Ravish ji ko saadar parnaam....bhai ji aap to samjh hi rahe hai aakhir majburi bhi to hai...sattu to becharaa paidaashi gareeb hai..kam se kam yahan to shekhi baghaarne dijiye....
तभी अरब अमीरात हो रहा है मौसम भी......
शेख बन कर शेक को थोड़ा अमीरी का अहसास हो रहा होगा :)
सत्तू को शेख बनाया अंबेडकर(नगर) ने,
और चुस्की ली आप ने।
उच्चारण और लेखनी भी स्टैंडर्ड की मोहताज हो गई आज! कुछ लोग बी.के को "भी.के" कहते भी है और अपनें साईन बोर्डों पर भी लिखते हैं। अगर आप उस दुकानदार से पूछते की आपनें शेक को शेख क्यों लिखा है? तो आपको सीधा जवाब ये आएगा कि "यहां कौन इतना पढ़ा-लिखा है साहब"।
पॉश कॉलोनियों में तो अंग्रेजी में साईन बोर्ड और रेट लिस्ट या मैन्यू होते हैं। गलती की गुंजाइश कम होती है, शायद!
मैं अक्सर हिंदुस्तान दैनिक में आपके ब्लॉग के बारे में पढ़ता हूँ | मेरा नाम अमर दयाल है |मैं इस समय व्हील चेयर पर हूँ ,पिछले चार -पांच सालों से |क्योंकि मुझे बेकार मस्कुलर डिस्ट्रोफी है |मैंने रामजस कॉलेज से आज से उन्नीस साल पहले हिंदी से स्नातक किया और बाद में वहीँ से हिंदी में ही स्नातकोत्तर किया |इस समय मैं गुमनामी जिंदगी में साहित्य के अध्ययन से जुदा हूँ |मैं वैसे तो बिहार से हूँ लेकिन फिलहाल बनारस में रहता हूँ |मैं इस समय भारतीय ज्योतिष के वज्ञानिक पहलू का अध्ययन भी कर रहा हूँ .इस क्रम एक काफी अच्छा ज्योतिषी भी बन चूका हूँ .और कई मित्रों कि परेशानियाँ भी ज्योतिष के माध्यम से दूर कर चूका हूँ |
रवीश जी क्या मैं आपसे मेल के द्वारा विचारों का आदान -प्रदान कर सकता हूँ ?मेरा इ-मेल है - asamardayal12@gmail.com
रवीश जी, आज से अगर सात-आठ साल पहले मेरी रगों को खंगाला जाता तो उसमें से सत्तू ही निकलता। ग्रुप पता नहीं क्या होता, सत्तू ए पॉजिटिव या ओ नेगेटिव..लेकिन निकलता सत्तू ही। आज भले ही रगों से चाय-कॉफी निकल ले। लेकिन सत्तू स्तुति में बिहार के स हॉर्लिक्स का रोचक वर्णन है..भारतीय खान-पान में सत्तू को दलित तबके का माना जाना चाहिए और इसे खान-पान की आठवी अनुसूची में दर्ज किया जाना चाहिए।
वैसे, हमारे यहां देसी साहबों की परंपरा है तो सत्तू साहब अगर शेक से शेख हो लिए तो हैरत क्या..। बकौल डॉ अनुराग मौसम तो वैसे ही अरब अमीरात हो लिया है.
मेरेविचार से तो सत्तू साहब नारायण की तरह गरीबनेवाज़ हैं..। गरीब चूड़ा के साथ सान कर खा ले, लिट्टी बनाकर थोड़ा मज़ा मार ले. छात्र गण सुबह सुबह पढ़ने से पहले गिलास में घोलकर गले में उड़ेल लें..उसमें गोल मिर्च पाउडर वगैरह को आरक्षण दें दें तो फिर कहना ही क्या..फुटानी करनी हो तो लिट्टी को घी में डुबों कर गीला होने दे लें..या फिर दिल्ली हाट जाकर लिट्टी चाभें.।
सब भाषाओँ की माता संस्कृत में शिखर/ शिखा आदि, यानी पहाड़ की जैसे 'चोटी' को अधिक महत्व दिया गया प्रतीत होता है,,,और क्षीरसागर के मंथन से दूध के अन्दर छिपी मक्खन- मलाई के ऊपर चढ़ने की ओर भी आम आदमी का ध्यान भी आकर्षित करने का प्रयास किया 'चोटी-धारी पंडितों' ने,,,और नवरात्री में पूज्य कन्याएं तो चोटी रखती ही थीं :) अंग्रेजी में 'शेक' भी उसी सागर मंथन समान प्रक्रिया की ओर इशारा करता सा लगता है, और अरबी में 'शेख' भी 'चोटी पर पहुंचे हुए' अमीर की ओर!
भाई हम भाषा विज्ञ तो नहीं हैं, किन्तु सुनने में आता है कि आरंभ में एक ही भाषा रही होगी, किन्तु जैसे जैसे मानव एक द्वीप से दूसरे द्वीप अथवा महाद्वीप में विज्ञान में उन्नति कर बढ़ता चला गया मानव के पहनावे आदि में बदलाव के साथ साथ भाषा की भी उत्पत्ति होती चली गयी - समय और स्थानानुसार (और हिन्दू मान्यानुसार पता नहीं कितने ऐसे उत्थान पतन देख चुकी है यह धरती माता ४ अरब वर्ष से) ,,,और भारत उप महाद्वीप प्राचीनतम सभ्यता को अनादिकाल से संजोये रखे होने के कारण केवल यहाँ एक समय विश्व में बोले जाने वाली सभी भाषाएँ सुनने को मिलती थी,,,अब तो खैर कई और उत्तरी अमेरिका जैसे पश्चिमी देशों में भी खिचड़ी तैयार हो चुकी है,,,और यह तो सर्वविदित है कि अंग्रेजी भाषा भी हर जगह विभिन्न रंग- रूप में सुनने को मिल सकती है... उदाहरणार्थ, कई वर्ष पहले हमारे दोस्त होलैंड में अपनी देसी अंग्रेजी में दुकान में कुछ दाम-वाम पूछे तो उनकी समझ नहीं आया,,,तब उन्होंने पूछा क्या कोई वहां अंग्रेजी जानता था? सेल्स गर्ल बोली कि वो स्वयं अंग्रेज़ थी किन्तु हमारे दोस्त जो भाषा बोल रहे थे वो अंग्रेजी नहीं थी :)
श्री अमर दयाल जी की तकलीफ के बारे में जान दुःख हुआ...उन्होंने ज्योतिष के ज्ञान से लाभ की बात तो की किन्तु अपने कष्ट में कुछ लाभ मिला कि नहीं उसकी चर्चा नहीं की...आमतौर पर रत्नादि से लाभ तो कहीं कहीं देखने को मिलता है,,,किन्तु मूल कारण और उसके निवारण के लिए तह तक, सत्तू तक, पहुँचने के लिए सही जन्म-तिथि और समय का पता होना आवश्यक होता है,,,और उसके अतिरिक्त हस्त-रेखा भी मदद कर सकती हैं,,,
वाकई में मजेदार। यह पढ़कर तो वाकई में बहुत मजा आया कि दिल्ली में व्याकरणचार्यों की बिना इजाजत के शेक की जगह शेख कर दिया गया।
जय माता दी
हमारा लक्ष्य हमारें सामने किसी मछली की आंख की तरह बिलकुल स्पस्ट है ,बस जरुरत है आप जैसे द्रोनाचार्यों की जो हमें आपने लक्ष्य को पाने में पथ प्रदर्शक बनकर हमारा साथ दें और साथ चलें.
मेरा ब्लॉग mukesh-hissariya.blogspot.com
raveesh ji bahut achchi post lagi.....prashant jha apne senior hai ... wah mujhaffarpur se hai ek baar apne ghar se sattu lekar aaye they........ use maine jamkar piya. kya svaad tha........ aapki post padkar unka dhyaan aa gaya....
chuski par ek chutki bhi nahi? sattu ke shkhon ke beech fas gayi lagati hai.
बचपन की चुस्की की जगह 'माइक' ने अब मीडिया वालों के हाथ जगह ले ली है, शायद :)
sattu ke bare me ye jaanakar khushi hui ki use sammaan mil rahaa hai .waise sattu ko anaj me raajaa kaha gaya hai .baadashaah aurangjeb ne kaid me rah rahe apane pitaa se jab ye puchhawaya ki ek anaaj hi tumhe milegaa ,bolo kaun saa anaj chaahiye to unhone kah ki "chanaa".shayad sattu ki mahimaa us samay me hamare desh me rahi hogi .
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