बातें बदल जाती हैं तुमसे मिलके

बहुत बातें अनकहीं रह गईं
दफ्तर से घर लौटते हुए
कहने का करते रहे अभ्यास
घर पहुंच कर बातें बदल गईं
उन बातों पर रोज़मर्रा एक चादर
चढ़ती चली गई, परतें मोटी हो गईं
कोई हवा आएगी एक दिन जब
उड़ा ले जाएगी उन चादरों को
बहुत सी बातें वहीं दबीं मिलेंगी
तब तुम पढ़ लेना, तफ्सील से
बहुत कुछ कहने की चाहत में
क्यों मैं हर दिन तरसता हुआ...
बातें बदलता रहता हूं तुमसे
बात चौदह फ़रवरी की नहीं है
बात है साल के उन हर दिनों की
कुछ कहने का अभ्यास करता हुआ
दफ्तर से जब भी घर आता हूं
बातें बदल जाती हैं तुमसे मिलके।

14 comments:

Kaushal Kishore , Kharbhaia , Patna : कौशल किशोर ; खरभैया , तोप , पटना said...

रविश जी
बात अंजाम तक याद रहे ,अभ्यास की मांग करता है.या वहाँ तक पहुंचते हीं रोजमर्रा की चादर में छिप जाना अनिवार्य परिणति है ?
शब्द आपके भावनाएं हम सब की .
बात याद रह जाय ,इसका कोई नुख्सा मालूम हो जाय तो शेयर किया जाय.
सादर

कुमार आलोक said...

बातें आप कहना चाहते है लेकिन उसे यूंही छुपा रहने दें तो बेहतर होगा। लेकिन आपके मन के अंदर एक ज्वालामुखी है जो घर के बाहर तो फूटने के लिये तैयार रहता है लेकिन दफ्तर से घर पहुंचते ही वह ज्वालामुखी बेदम और बेअसर हो जाता है ।सच्चे प्रेमी के लिये यह कतइ आवश्यकता नही कि वह फरवरी की १४ तारीख को ही अपने प्रेम की ऐनीवरसरी मनायें उसके लिये तो हर दिन और हर पल ही १४ फरवरी है । बडी प्रतीकात्मक कविता थी लेकिन आपकी मन की भावनाऐं छुपाये छुप नही पायी।

इरशाद अली said...

वाह जी वाह! वेलेंटाइन कलर में दिख रहे हो आज तो। आपको खूब याद रहा कि अपने ब्लाग पर वेलेंटाइन डे की रस्म निभानी है सो निभा ही दी। पक्तियां दिल से उतरी लगती है। एक मेल भेजा था आज सुबह।
इरशाद

azdak said...

जो भी जैसा भी है.. है ग़लत बात! ऐसी बातों का होते रहने का मतलब है? पड़ोस में हो तब भी ठीक है, खुद अपने घर में?

रश्मि प्रभा... said...

बात चौदह फ़रवरी की नहीं है
बात है साल के उन हर दिनों की ....
bahut sundar....

vandana gupta said...

bahut hi satik kavita . zindgi ki haqeeqat bayan karti .
yahi zindagi ka asli swaroop hai.waqt ki chadar mein dhanka hua.
har bhavna ka asli swaroop kahna chahkar bhi ja kah na payein.waah.

अविनाश वाचस्पति said...

सिर्फ बातें ही नहीं
घातें भी बदल जाती हैं
और रातें भी सुबह हो जाती हैं
सच तुमसे मिलके।

Satish Chandra Satyarthi said...

शब्द अभिव्यक्ति के अनेक माध्यमों में से 'एक' माध्यम है.
कई बार अन्य माध्यम ज्यादा प्रभावकारी और विश्वसनीय होते हैं बजाए शब्दों के.
खासकर जो हमारे अपने होते हैं उनके लिए .
लेकिन कभी कभी इन अनकही अभिव्यक्तियों को शब्दों में ढाल कर बयान कर देना रिश्तों की मिठास को और बढ़ा देता है.

मेरे ब्लॉगस पर भी पधारें
साहित्य की चौपाल - http://lti1.wordpress.com/
जेएनयू - http://www.jnuindia.blogspot.com/
हिन्दी माध्यम से कोरियन सीखें - http://www.koreanacademy.blogspot.com/

Unknown said...

याद आई अपनी एक पुरानी कविता.....

हर बात
मुझ तक आते आते
कुछ बदल सी जाती है
कभी हवा से
थोड़ी खुशबू
कभी नमी ले आती है

हर आवाज़
की आवृत्ति
कुछ अलग हो जाती है
कभी वो
फुसफुसाहट
कभी गूँज
बन जाती है

संदर्भ भूल कर
बातें अपना
सही अर्थ
खो आती हैं
शब्दकोष के शब्दों जैसे
पंक्ति में खो जाती हैं

दृष्टि का ही
दोष ये होगा
दृष्य बदल सा जाता है
आँसू के चश्मे से देखो
सब कुछ
धुँधला सा जाता है

आशा प्रत्याशा के
बीच में खिंच कर
आकार कहीं खो आती है
आते आते बात हमेशा
अपेक्षाओं मे ढ़ल जाती है

संगीता पुरी said...

बहुत सुंदर लिखा है आपने....

तरूश्री शर्मा said...

प्रेम छिटकता ही ना हो,
सूखा सा हो मन,
और जिंदगी...
किसी मुलम्मे की भेंट चढ़ जाए।
हम रोज मिलें पर
कुछ कह ना पाएं...
कहने की कई रस्में सिर्फ निभाएं,
और अगली बार मिलने पर..
बोझिलता दूर करने के उपायों पर-
गौर करने को पलटें
कुछ किताबों के पन्ने,
तो मन करता है,
एक बार वेलेंटाइन डे आ जाए।
साल भर के रोजमर्रे से अलग-
कुछ हो जो,हमेशा के लिए
इस रोजमर्रे को तोड़ जाए।

सुशील राघव said...

sir namskaar
main aapki pahli baat se sahamt nahin hu ki mahilayen/ladkiyan ugr bhasha ka paryog nahin karti. sir aap shubdhra kumari chauhan ko kaise bhol sakte hain jinohne 'khob ladi mardani vo to jhansi wali rani thi' likhi. yaani agar ladkiyan chahe to esa likh sakti hain. aur jahan tak mujhe yaad aata hai prem ke adhiktaar geet purushon (man)ne hi likhen hai.
aapki doosri baat se main poori tarah se sahamat hon ki purush patrkar preesur me kaam karten hain. shayad isliye vo itni ugr bhasha ka prayoog karte hain.

अरविंद चतुर्वेदी said...

प्रेम में आग्रह है समर्पण है। समर्पण के आगे बात सही में दब के रह जाती है। एक गुब्बार अन्दर ही अन्दर पलता है बड़ा होता है और दब के रह जाता है। कविता की सहजता छा गयी है।

सुशील छौक्कर said...

बहुत खूब लिखा है आपने।
बात चौदह फ़रवरी की नहीं है
बात है साल के उन हर दिनों की
कुछ कहने का अभ्यास करता हुआ
दफ्तर से जब भी घर आता हूं
बातें बदल जाती हैं तुमसे मिलके।

वाह जी वाह।