हिंसा। हम सबकी इच्छा है। सिर्फ स्वीकार नहीं करते। अहिंसा एक अभियान है। हिंसा स्वभाव। गजनी की लोकप्रियता क्या यही कहती है? इतनी मारपीट। नाम से ही समझ जाना चाहिए था कि इस फिल्म का टारगेट ही विलेन है। मेरी नसे फटने लगी थीं। आंखें तरेर चुकी थीं। बाहर निकलने के लिए बेताब। धौंकनी बढ़ने लगी थी। लोहे की छड़। पतली गलियां। भीतर से खोद खोद कर हिंसा के तार निकालने लगी। आमिर के पीछे पीछे मेरी सांसे भी भागने लगीं। दो दो बार कॉफी पी। कुछ गरम भीतर जाए तो होश आए और लगे कि नायक के पीछे पीछे हिंसक होने की ज़रूरत नहीं।
बदला लेना हिंदी फिल्मों या किसी भी सिनेमाई कहानी की नियति है। बदला लेने के क्रम में ही नायक उभरता है। उसकी भुजाएं फड़कती हैं। चीखने का मौका मिलता है। पसीने टपकते हैं। हिंदुस्तान अखबार में संजय अभिज्ञान ने लिखा है कि शोले से आगे का प्लॉट नहीं है। हमारे हीरो सब भूल सकते हैं मगर विलेन का नाम नहीं। वही याद रह जाता है क्योंकि यही किसी भी फिल्म का मकसद होता है।
गजनी की कामयाबी क्या कहती है। मुझे इसमें दिलचस्पी नहीं। आमिर का देह किसी को सेक्सी लग सकता है। मुझे उसका देह स्लेट लग रहा था। लिखने मिटाने का खेल चला उसके पुष्ट शरीर पर। छाती का उभार और ऊबड़-खाबड़ पेट,मर्द होने की नई मानसिकता हैं। कसरती बदन और नंगा सर। विषुवत रेखा मानिंद कोई लाइन। अचानक कहीं से ताकत आ गई लगती है जो संभाले नहीं संभलती। आमिर दौड़ने लगता है। दौड़ते दौड़ते हांफता भी नहीं। लग रहा था कि शरीर नहीं किसी ट्रक की बॉडी सड़क पर दौड़ रही है। हीरो ऐसे मारता है जैसे वीडियो गेम चल रहा हो। अच्छा किया गेम भी बना दिया बेचने के लिए।
गांधी आदर्श हैं। भगत सिंह और सुभाष चंद्र बोस और लक्ष्मीबाई हीरो। क्यों? समझने का मन नहीं करता। एक फिल्म से किसी मुल्क की मानसिकता क्यों समझें। और भी तो फिल्में हैं जिनमें हिंसा नहीं। हम एक मुल्क के रूप में कभी नहीं लड़ पाए। अहिंसा संस्कार में हैं या अभियान में है? दावे के साथ नहीं कह सकता। बिना लड़े अंग्रेजो को भगा दिया तो उससे पहले हूणों,अबदालियों और मुगलों से न लड़ पाने की कुंठा में मस्जिदों को गिराने लगे।
घर बैठ कर एसएमएस के ज़रिये सरकार पर दबाव बना देते हैं कि पाकिस्तान के खिलाफ युद्ध हो जाए। दावे के साथ कह सकता हूं। युद्ध होगा तो पूरा देश टीवी पर न्यूज़ देखेगा। हज़ार सैनिक मोर्चे पर होंगे। कोई लता मंगेशकर गा रही होगी। कोई मनोज कुमार फिल्म बना रहा होगा। हम सब पर्दे पर हिंसा देखना चाहते हैं। ट्रैफिक से लेकर पेशेवर प्रतिस्पर्धा में हम सब हिंसक हैं। हम बीमार लोग हैं।
गजनी की कामयाबी क्या यही कहना चाहती है? मेरी नसें फट रही हैं। एक फटीचर फिल्म देखने के अफसोस के साथ लिख रहा हूं। अखाड़ों में पलते हमारे पुरुषार्थ। पुरुषों की भुजायें। उनके चेहरे को फाड़ कर निकलती चीख। जो थोड़ा बहुत सुखद अहसास हुआ वो कल्पना की अदाओं से था और आमिर के भोलेपन से। लेकिन जैसे ही उसका भोलापन उसकी भुजाओं में उतरा,फिल्म असहनीय हो गई। फिल्म देखकर इतना सीरीयस नहीं होते। मैं क्यों हो रहा हूं। गजनी जाए भाड़ में। आमिर ख़ान अजय देवगन और सुनील शेट्टी की तरह बौराया हुआ लग रहा था।
24 comments:
सही कहते हैं जी आप, के हिंसा हिंसा सिर्फ़ हिंसा. यही रह गया है हमारे समाज का आइना. मैं तो गजनी का अर्थ भी नहीं समझ पाया के कनेक्शन क्या है आख़िर.
चलिए आप भी गजनी इफेक्ट से बच नही पाये| फ़िल्म में जरुर कोई बात रही होगी| आप भी क्या लेकर बैठ गए, इतना असर होता है फिल्मों का समाज पर? शायद आमिर का होता है, मोमबत्ती जलाने की अदा रंग दे बसंती ने ही सिखाई थी| शायद इसीलिए ये डर है कि कहीं लोग हाथ में लोहा लेकर न घुमने लगें|
पर रवीशजी
आपने शायद गजनी की लव स्टोरी पर गौर नहीं किया। मारधाड से ज्यादा तो उसकी लव स्टोरी अच्छी थी। असीन का जादू था, उसकी अदा में नयापन था। थोडा वही देखकर टाइमपास कर लेते।
खैर
सभी को एक चीज पसंद नहीं आती, यही वजह है कि कई बार शायद बेकार फिल्में भी हिट हो जाती हैं।
सच कह रहे हो रवीश जी।
एक तो मैं ऐसी फिल्मों से वैसे ही चिढ जाता हूँ जो मिडिया हाईप लिये हों....बार-बार यह बताना कि उनकी मुस्कान के क्या कहने....जब वह रैम्प पर आई तो बस देखते ही बनता था...उफ्फ कैसे झेलते है लोग इस तरह के न्यूज क्लिप्स.....उपर से प्रायोजित मिडिया कवरेज जिसमें एक शेंपेन की बोतल ही काफी है खबर के नाम पर फिल्म के चर्चा करने के लिये तो लगता है कोढ में खाज हो गई है।
गजनी को मैं 10 में से 3 नंबर देना चाहूँगा...ज्यादा नहीं।
गजनी की हिंसा तुम्हें कचोट गई, अच्छा है, भावूक और सवेंदनशील हो इसलिए। लेकिन मूल में क्या है, उसके आसपास भी नहीं फटक रहें हो। ये हिंसा नहीं बाजारवाद है। हिंसा एक माध्यम भर है। कल को सैक्स से भरपूर कोई फिल्म परोसी जाएगी तो क्या सैक्स का बाजा बजाउगें। जो बाजार मांग रहा है वो दिया जा रहा है। और इस मीडिया की तो ऐसी की तैसी....दुम उठाये गजनी को प्रमोट कर रहा था, वो क्या था। भई जो बाजार कह रहा हैं वो किया जा रहा है। अब चाहें मीडिया का दुम हिलाना हो या गजनी की हिंसा। अब सूनो अन्दर की बात...खुद आमिर चाहतें की वो कोई सुपर एक्शन फिल्म करें क्योंकि वो दूसरे स्टारों को बताना चाहते थे, कि वह सिर्फ एक चाकलेटी स्टार ही नहीं बल्कि एक बॉडी बिल्डर की तरह विलेन को धूल भी चटा सकते है। इसलिए इतनी हिंसा हो गई। तुम दिल पर ना लो।
इस फिल्म में सबको एक प्रेम कहानी दिखाई दी, हिंसा को सभी ने नज़रअंदाज़ कर दिया। कितनी अच्छी प्रेम कहानी है ये। पवित्र प्रेम की एक मिसाल। इस पूरी फिल्म में आपको हिंसा ज्यादा नज़र आई। जिसके मन में जैसे भाव होते हैं उसे वैसा ही दिखाई देता है, एक कथा सुनिए। कहा जाता है कि जहां भी राम कथा का पाठ किया जाता है वहां हनुमान जी अवश्य आते हैं। इसी तरह एक जगह पर राम कथा का पाठ चल रहा था। वहां हनुमान जी भी वेश बदलकर पहुंचे। वाचक ने कथा सुनाते हुए हनुमान के मृत संजीवनी बूटी लाने की घटना को सुनाना शुरु किया। वाचक ने कहा, " बूटी को तलाशते हुए हनुमान हिमालय पहुंचे... फूलों से अटी पहाड़ियां, हवा में सुगंध और सुंदर सरोवर में श्वेत कमल खिले हुए थे" इतना सुनना था कि हनुमान उठ खड़े हुए और बोले " सरोवर में सफेद नहीं, लाल रंग के कमल खिले थे" , वाचक ने कहा नहीं, फूल तो सफेद ही थे, लेकिन क्रोध की वजह से हनुमान की आंखें लाल थीं, इसी वजह से उन्हें लाल दिखे होंगे". वास्तविक प्रसंग क्या है मुझे पता नहीं लेकिन ठीक इसी तरह से आपके साथ भी हुआ है। मानव हिंसा से भरा हुआ है, जैसा उसका मनोभाव, वैसा ही दृष्टिकोण, अवश्य किसी से विवाद होने के बाद ही आप सिनेमा हॉल में फिल्म देखने गए थे।
Raveesh ji,
Is film ke bare men jitna halla hua ..usaka ek parsent bhee dam ismen naheen hai..lekin fir bhee ek tabke ne use pasand kiya.Kyonke vah tabka aj film,T.v. kee screen,akhbar har jagah hinsa hee dekhna chahta hai.
Mujhe to film dekhne ke bad vishvas naheen ho raha tha ki Amir Khan ne hee Tare Jameen Par banayee hai.
ismen do rai naheen ki subject is film ka bhee bahut hee achchha tha.
Short term mamory apne ap men bahut challanging subject hai.Par saval ye hai ki aap us film kee kathanak ko treatment kya dete hain.Aur isi treatment ke lable par Amir chook gaye lagte hain.
Hemant Kumar
Ek tabka?? Aji film ne 200 crore ki business ki 2 weeks me....1 mahine wait kijiye shayad no. 1 ho jaaye, aap ise ek tabke ki pasand kahenge??
Aap ye generalise na karen ki samaaj hinsa dekhna chaah raha hai....Sashakt prem, Aamir effect, Sashakt script ko najarandaaj na karen.
Ek baat aur, isi hinsa ne Amitabh ko Big B banaya...unki har film me Dhishum Dhishum jarur milta hai!!!! :)
बाज़ारवाद हो या या समाज का आईना.
आपने जो महसूस किया वो लिखा है.
सिर्फ़ यह कह भर देने से कि जो जैसा होता है उसे वैसा ही दिखाई देता है, कोई तुक नहीं है.
फ़िल्म के बारे में सही लिखा है. मीडिया की भूमिका के बारे में भी लिखते तो अच्छा होता.
Ravish ji,
Bhagat Singh ki soch krantikaari thi hinsatmak nahin.
रविश जी ,
आप ने जिस तरह गजनी फ़िल्म का समीक्षा किया है वो इशी तरह है , जैसे आप का ndtv खबरे तो अच्छी दिखाता है , लेकिन कभी भी trp की दौड़ में नम्बर एक नही रहा .दुसरे न्यूज़ चैनल गजनी के तरह अपना न्यूज़ दिखाते है और शायद यही इ वजह है की trp के दौड़ में वो आप से आगे है .
रविश जी दुनिया गजनी के स्टाइल से चल रही है , तभी तो रिलीज़ के २ हफ्ते के बाद फ़िल्म से २०० करोड की कमाई हो चुकी है .
अब आप इसे आज की विडम्बना कहगे या फिर और कुछ ......
लातिकेश शर्मा
मुंबई
रविश जी ,
आप ने जिस तरह गजनी फ़िल्म का समीक्षा किया है वो इशी तरह है , जैसे आप का ndtv खबरे तो अच्छी दिखाता है , लेकिन कभी भी trp की दौड़ में नम्बर एक नही रहा .दुसरे न्यूज़ चैनल गजनी के तरह अपना न्यूज़ दिखाते है और शायद यही इ वजह है की trp के दौड़ में वो आप से आगे है .
रविश जी दुनिया गजनी के स्टाइल से चल रही है , तभी तो रिलीज़ के २ हफ्ते के बाद फ़िल्म से २०० करोड की कमाई हो चुकी है .
अब आप इसे आज की विडम्बना कहगे या फिर और कुछ ......
लातिकेश शर्मा
मुंबई
रविश जी ,
आप ने जिस तरह गजनी फ़िल्म का समीक्षा किया है वो इशी तरह है , जैसे आप का ndtv खबरे तो अच्छी दिखाता है , लेकिन कभी भी trp की दौड़ में नम्बर एक नही रहा .दुसरे न्यूज़ चैनल गजनी के तरह अपना न्यूज़ दिखाते है और शायद यही इ वजह है की trp के दौड़ में वो आप से आगे है .
रविश जी दुनिया गजनी के स्टाइल से चल रही है , तभी तो रिलीज़ के २ हफ्ते के बाद फ़िल्म से २०० करोड की कमाई हो चुकी है .
अब आप इसे आज की विडम्बना कहगे या फिर और कुछ ......
लातिकेश शर्मा
मुंबई
रविश जी ,
आप ने जिस तरह गजनी फ़िल्म का समीक्षा किया है वो इशी तरह है , जैसे आप का ndtv खबरे तो अच्छी दिखाता है , लेकिन कभी भी trp की दौड़ में नम्बर एक नही रहा .दुसरे न्यूज़ चैनल गजनी के तरह अपना न्यूज़ दिखाते है और शायद यही इ वजह है की trp के दौड़ में वो आप से आगे है .
रविश जी दुनिया गजनी के स्टाइल से चल रही है , तभी तो रिलीज़ के २ हफ्ते के बाद फ़िल्म से २०० करोड की कमाई हो चुकी है .
अब आप इसे आज की विडम्बना कहगे या फिर और कुछ ......
लातिकेश शर्मा
मुंबई
लतिकेश जी
शायद आप की ही बात ठीक है। मैं एक अलग दर्शक हूं। मुझसे हिंसा देखी नहीं जाती। बस। लेकिन गजनी की कामयाबी वाकई में भारतीय मानस की तस्वीर है। शोले,गदर,गजनी।
रही बात न्यूज़ चैनलों की रेटिंग की। तो उनकी कामयाबी की कहानी भी गजनी की ही है। हम भी महसूस करते हैं। पर्दे पर कुछ देखने की ट्रेनिंग हमारी इन्हीं फिल्मों से है। रेप का सीन बिना ढैन ढैन म्यूज़िक के नहीं बनता। ढिशूम के बिना फाइट नहीं होती।
रेप का सीन बिना ढैन ढैन म्यूज़िक के नहीं बनता। ढिशूम के बिना फाइट नहीं होती।....
जो इससे अलग राय रखते हों, उन्हें इस बात की तफसील कर लेनी चाहिए कि क्या वो ऐसी खबरों को वाकई संवेदना के स्तर पर देखते हैं।
रवीश जी की बातों से कुछ हद तक सहमत होने के बावजूद मैं नहीं मानता कि गजनी की हिंसा और फ़िल्म का स्वीकारा जाना समाज में हिंसा का परिचायक है. मैं इसे दूसरे नज़रिए से देख रहा हूँ. कई लोगों को याद होगा अमिताभ की एंग्री यंग मैन की छवि और उस दौर में आई उनकी हिंसा से भरी कई फ़िल्में जो ख़ूब चलीं. दरअसल आपातकाल के बाद खिसियाए समाज को अमिताभ की फ़िल्मों ने सहलाया और पुचकारा. हो सकता है कि मुंबई हमलों के बाद आई गजनी कि हिंसा में लोगों को अपना प्रतिकार दिखा. शायद गजनी की हिंसा ने ग़ुस्साए लोगों को दुलारा और सहलाया हो. मैं दावे के साथ तो नहीं कह सकता लेकिन ऐसा हो सकता है. सिनेमाघरों में चीख-चीख कर लोगों ने अपना भड़ास निकाल लिया हो.
एक फटीचर फिल्म देखने के अफसोस के साथ लिख रहा हूं....
आपसे पूरी तरह असहमत गजनी एक बेहतरीन टाइमपास फिल्म है....
भावना, मनोदिशा,सोच के हिसाब से हम चीजों,स्थितियों,समाज,यहां तक की फिल्मों का आकलन करते हैं..आपके हिसाब से गजनी हिंसक फिल्म हो सकती है..मुझे लगता है कि गजनी चालीस फीसदी अच्छी लव स्टोरी,तीस फीसदी टाइमपास,बीस फीसदी बोर और दस फीसदी हिंसक फिल्म थी...आमिर खान अपनी फिल्म को बेंचना जानते हैं,करोड़ों कमाना जानते हैं...उनकी हर फिल्म संदेश दे,लेक्चर या ज्ञान की बरसात करे ये जरूर तो नहीं...आमिर की तारे जमीं पर,रंग दे बसंती,जिस मकसद से दर्शकों के बीच आयी..उसमें वो कामयाबी रहीं...गजनी को टाइमपास फिल्म मान सकते हैं,हालांकि मुझ जैसे कुछ लोगों को गजनी, बॉडी बनाने के लिये थोड़ा प्रेरित भी कर गयी..लेकिन ऑफिस में फिर हटाये जानेवालों की एक और लिस्ट आने की चर्चा जोरों पर है..इसलिये फिलहाल बॉडी बनाने की जगह,पेट भरने,कमरे का किराया देने और नौकरी जाने की सूरत में दूसरी नौकरी का टेंशन है..वैसे अगर आपने स्लमडॉग मिलिनियर नहीं देखी है तो जरूर देखियेगा..बहुत अच्छी फिल्म है..
Thanks for calling spade a spade. Probably, only you can do that.
सर, गजनी का प्रमोशन इतना तगड़ा था कि आप जैसे लोग भी थियेटर पहुंच गए..इरशाद ने ठीक ही लिखा है कि बाज़ार के मुताबिक दुनिया चलती है..आमिर ने एक मिथ को तोड़ने के लिए दूसरे को गढ़ा..हाल में फिल्मों द्वारा पैसा कमाने के रिकाॆड को देख रहा था तो पता चला कि गजनी दूसरे नंबर पर है पहले नंबर पर आज भी अस्सी के दशक की शोले है...पैसा कमाने और हिंसा में शोले गजनी की तुलना हो सकती है...लेकिन तीस साल पहले जिन दॆशकों ने ठाकुर के जूते से गब्बर के हाथ कुचलने पर तालिया पीटी थी...वही मानसिकता है..वही सोच है...ज्यादा सोच फिल्म देखने का दरवाज़ा बंद कर देती है...मैं जैसे बचपन में कामिक्स पढ़ने की अपनी आदत पर अब हंसता हूं वैसे ही जब तब फिल्मी चैनेलों पर आने वाली फिल्मों को देखकर करता हूं...
रवीश जी कोई शंका हो तो ये पढ़ें
http://baat-pate-ki.blogspot.com/2007/06/blog-post_6381.html
सारे समाधान मिल जाएंगे।
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