एम्बेडेड जर्नलिज़्म की चर्चा तब हुई थी जब इराक युद्ध में अमीरीकी टैंकों में टीवी रिपोर्टर ढूंस दिये गए थे। टैंक के बिल से गिरते गोलों की धमक को कैद करने के लिए। शर्त मामूली थी। जो टैंक वाला कहेगा वैसा ही लिखना है। वाह क्या गोले हैं। वाह इस गोले ने तो कमाल ही कर दिया। मार दिया पचास साठ लोगों को। जल्दी से टैंक को रोको। शाट्स को अपलिंक करो।
शांतिप्रिय मुल्क भारत में एम्बेडेड जर्नलिज़्म का अंदाज़ दूसरा है। इसका एक स्वरुप आप राजनीतिक पत्रकारिता में देखते हैं। खासकर अधिवेशन, महाअधिवेशनों के वक्त। दिल्ली से भर कर पत्रकार ले जाये जाते हैं। इस तरह के एम्बेडेड प्रयोजन का लाभ ज़्यादा दिल्ली के ही पत्रकारों को मिलता है। क्योंकि वो तो कहीं जाते नहीं हैं इसलिए ले जाए जाते हैं। पंचमढ़ी हो या कानपुर में आडवाणी की रैली। अब इतना तो चलता ही है कि लौटती ट्रेन में अच्छी शराब हो। अब तो यह इतना चलने लगा है कि कोई पर बात नहीं करना चाहता। इसलिए नहीं करना चाहता क्योंकि उसका विकल्प नज़र नहीं आता। इस मजबूरी के बहाने राजनीतिक पत्रकारिता किसी जेटली, किसी जैन और किसी तिवारी के भरोसे हो गई है। सौ पत्रकार हैं और पूरी पार्टी का एक ही सूत्र। होता यह है कि यह इकलौता सूत्र सौ पत्रकारों को नचा रहा है। वे नाच भी रहे हैं।
इन सबके बावजूद राजनीतिक पत्रकारिता में इतना तो बचा ही है कि रिपोर्टर किसी नेता की खिंचाई कर देता है। उसकी पार्टी को लताड़ देता है। कुछ घोटाला फोड़ देता है। वह दबाव से निकलने के अपने अंतिम रास्ते को बंद कर ट्रेन में सवार नहीं होता। कानपुर की रैली के लिए।
लेकिन फिल्म पत्रकारिता तो अब जूते चाटने की नौबत तक पहुंच गई है। टीवी में फिल्म पत्रकारिता अब प्रमोशन है। इंटरव्यू से पहले तय होता है सवाल कैसे होंगे, पर्सनल से नहीं होंगे, फिल्म के बारे में होंगे। हकीकत तो यह है कि रीलीज़ होने से पहले ऐसी कोई सुविधा भी नहीं कि एंकर फिल्म देख ले। तिस पर से चाहत ऐसी कि एंकर फिल्म के बारे में ही बात करे। और जब एंकर सवाल पूछ भी देती है तो जवाब जो मिलता है उससे पता चलता है कि दर्शकों का कितना बड़ा वर्ग मूर्ख है। एंकर पूछती है फिल्म की कहानी क्या है। निर्देशक बकता है बिल्कुल नई है। हा..हा...हा..।
और तो और फिल्म कंपनियों के पी आर एजेंट कुछ क्लिप बांटते हैं। मुफ्त। नेताओं की शराब की तरह। उस क्लिप में झांकिये और फिल्म को समझ लीजिए। आप ही बताइये कि कोई कैसे फिल्म के बारे में बात कर सकता है। लेकिन करना पड़ता है।
बात यहीं तक खत्म नहीं होती। ये पीआर एजेंट अब तो यह भी डील करने लगे हैं कि स्टार के स्टुडियो आने का किराया भी दीजिए। हर स्टुडियो में जाते हैं और कहते हैं हम आपको एक्सक्लूसिव इंटरव्यू दे रहे हैं। इंटरव्यू में होता है कूड़ा। बिपाशा आपको सलमान के साथ कैसा लगा? सलमान आपको कैसा लगा? निर्देशक से भी यही सवाल आपको कैसा लगा? बीच बीच में बिपाशा अपने बचे खुचे कपड़ों को तानती रहती है कि तन ढंका रहे। सलमान अपने बालों को झटकते रहता है। बात शुरू नहीं हुई कि फिल्म का क्लिप आ जाता है।
अब तो बकायदा हर फिल्म के हिसाब से मीडिया पार्टनर तय किये जाते हैं। सोच कर देखिये कल कोई राजनीतिक दल किसी न्यूज़ चैनल को अपना पार्टनर बना लें। कुछ चैनल तो हैं जिन्हें राजनीतिक दल ही चला रहे हैं। लेकिन फिल्म कंपनियों ने अपना कोई चैनल नहीं बनाया। वो दूसरे चैनलों को बता रहे हैं कि आप लालू यादव को गरिया सकते हैं, मायावती को गरिया सकते हैं लेकिन रणवीर को नहीं गरिया सकते। सैफ अली से तो आप वही सवाल पूछिये जिससे सैफ को गुदगुदी हो।
अब तो हिंदी के कई ब्लॉग बालीवुड पर लिख रहे हैं। अच्छा होता कि वहां इस पर बहस चलती। चवन्नी छाप हो या इंडियन बायस्कोप। ज़रूरी है कि इस तरह के एम्बेडड यानी गुलाम पत्रकारिता के बारे में लिखा जाए। जो पत्रकारिता कम है, रणनीति ज़्यादा।
13 comments:
फ़िल्मों में पत्रकारिता कहाँ है.. किसी रिव्यू पर भी भरोसा करना मुश्किल है.. सब कुछ न कुछ साध रहे होते हैं..
Netaon ki sharab,film ke clips,... wah Raveesh jee wah,bebak aur sateek,ab lagne laga hai kuch log hain jo train par sawaar nahi ho rahe.badhai aapko patrakaron ko sochne par mazboor karne ke liye ki gayi behtareen koshish ki
आपने अपने स्टूडियो में देखा लिख दिया.... उसका क्या जो दिखा ही नही.... फिल्मी पत्रकारों की एक लाबी है वो काम पहले तो अपने कम्पनी के लिए करते हैं लेकिन लिखते हमेशा ऐक्टर की मर्जी से हैं.... इसको बड़े फ्रेम में देखे.... एडलैब्स अनिल अम्बानी की कामनी है जिसका टीवी टुडे नेटवर्क और टीवी १८ में कुछ परसेंट stake है.... क्या होगा अगर कोई एडलैब्स की फ़िल्म पिट जायेगी..... ये चैनल सच बोल पाएंगे.... सोचिये
Ravishji
NCERT ki saatwi class ki social studies ke liye nirdharit pustak men media ki nispakshta par ek paath hai.us paath men media ki nispakshta aur objetivtity ke mulyankan ke liye kuchh maanak bataye gayen hain.Paath bachhon ko media se sambhandhit kuchh buniyaadi sawal puchhana sikhati hai.CBSE aur NCERT ki bahut saarthak pahal hai.media ki nispakshta aur objectivity ke baare men darshak kaise faisala karen , yah sikhne aur sikhane ki jarurat hai. asali baat sahi prashnon ko puchhne ki hai.
rahi baat , embedded jouralism aur uske desi sanskaranon ki , to aub patrkarita apne purn nagnata ki aor agrasar hai. saare pretensions ko tyag kar , bharatiya samaj ke creamy layer ki kahaniyon, andhvishwason aur vikritiyon ko sarwbhaumikata ka rup de kar bharatwarsh ke brihat samj ko stabdh kar rahi hai.
Nange ki nangai par bebaki se likhane ke liye sadhuwaad.aap ki lekhani sahi sawaal karti rahe, patrkarita aur samaj ka bhala hota rahega.
raveesh jee uss roj ke aap ke anchoring dekhe the jiss din aap ke studio mein bachna aae haseeno ke actors aae the lagta hai yeh aap ne uss din mehsus kiya.baat yeh hai ki unhein promotion chahiye hit hone ke liye aur
channel ko masala TRP ke liye.aur ha sawalo dayara isse liye tae hota hai taki "ths is strictly for promotion " yeh mess jae.
ravish ji, baat to khari hai, lakin kadvi hai.eak waqt aisa hoga jub log media ko police ki thrah samaje gae(bhrast). us din aap jaise seniour ko lagega ki hum kyo muk darshak bane rahe, jub media ka patan ho raha tha.us din shyad aap ko yae "करार के लिए बेकरार फिल्म पत्रकारिता" blog shanti dega ki aap nae koshis ki thi.
शायद इसीलिए किसी ने इम्बेडेड जर्नलिज्म का हिन्दी ट्रांसलेशन किया है-हमबिस्तर प्रत्रकारिता!
dear ravish ji,
ek baar phir pa kathin patrakarita per sateek tippadi, apno per likna jada kathin hota jo aap hi kar saktey hi boss
yah patrakarita nahin yah peet patrakarita bhi nahin . yah ek kism ki dallagiri he jisme dono paksh shamil hein .saharsh. aapko bhi takleef hui.ek darshak ke nate hame bhi hoti he . takleef ko shabd dene ke liye shukriya.
waah keya hkub kaha dost ab to mujhe aisi patrkarita karte karte ghutan si mahsus ho rahi hai main kuch aur karne ki sochne laga hun,kabhi waqt ho to batayiega milke kuch naya karne ki sochen ge.haris
वाह रविश जी, अपने मन की कुंठा या हीनभावना को किस तरह से महान पत्रकार और इंसानियत के लिए चिंतित व्यक्ति का लिबास ओढ कर निकाला है। क्या हुआ, लगता है इस बार आपके यहां फिल्मी पत्रकारों का अच्छा इंक्रीमेंट हो गया और आप इस बात पर चिढे हुए हैं। अरे, भई फिल्म स्टार के पीछे भागना किसी भी फिल्मी रिपोर्टर को अच्छा नहीं लगता। लेकिन क्या करे, बार बार आप ही लोग (दिल्ली में बैठे आप जैसे बड़े लोग) उन्हें भेजते है, कभी बधाई संदेश लाने तो कभी रात बाकी के नाम पर...और जब आप ही जैसे बड़े लोग फिल्मी पत्रकारों को नौकरी देते हैं, तो उस वक्त आपको एक हसीना एक नीलम परी टाइप लोग चाहिए। ना कि गंभीर किस्म की पत्रकारिता करने वाले फिल्म जर्नलिस्ट..ऐसे में रोना क्यों है रविश बाबू...जैसे बोएंगे, वैसा ही काटेंगे। अगर हालात बिगड़े हैं तो उसके लिए आप जैसे बड़े लोग ही जिम्मेदार हैं...
वाह रविश जी, अपने मन की कुंठा या हीनभावना को किस तरह से महान पत्रकार और इंसानियत के लिए चिंतित व्यक्ति का लिबास ओढ कर निकाला है। क्या हुआ, लगता है इस बार आपके यहां फिल्मी पत्रकारों का अच्छा इंक्रीमेंट हो गया और आप इस बात पर चिढे हुए हैं। अरे, भई फिल्म स्टार के पीछे भागना किसी भी फिल्मी रिपोर्टर को अच्छा नहीं लगता। लेकिन क्या करे, बार बार आप ही लोग (दिल्ली में बैठे आप जैसे बड़े लोग) उन्हें भेजते है, कभी बधाई संदेश लाने तो कभी रात बाकी के नाम पर...और जब आप ही जैसे बड़े लोग फिल्मी पत्रकारों को नौकरी देते हैं, तो उस वक्त आपको एक हसीना एक नीलम परी टाइप लोग चाहिए। ना कि गंभीर किस्म की पत्रकारिता करने वाले फिल्म जर्नलिस्ट..ऐसे में रोना क्यों है रविश बाबू...जैसे बोएंगे, वैसा ही काटेंगे। अगर हालात बिगड़े हैं तो उसके लिए आप जैसे बड़े लोग ही जिम्मेदार हैं...
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