प्रिंट मीडिया में इन दिनों टीवी पर खूब बहस होती है। अच्छा लगता है। होनी भी चाहिए। हर अख़बार में सारे चैनलों की धुनाई हो रही है।लेकिन प्रिंट मीडिया में जो हो रहा है उसे सर्वमान्य मान लिया जा रहा है। अति करने में प्रिंट का भी जवाब नहीं। दिल्ली विश्वविद्यालय में दाखिले की दौड़ शुरू हुई तो सारे लेंसमैन लड़कियों की ही तस्वीरें उतारते रहें। कोई उनके कपड़े के बहाने तस्वीरों को सेक्सी बना रहा था तो कोई चश्मे के क्लोज़ अप से सेक्सी बना रहा था। मानो इतने बड़े विश्वविद्यालय में कोई लड़का दाखिले के लिए आया ही न हो। हर तस्वीर सावधानी से सेक्स एंड सेलेबल आइटम के तौर पर उतारी गई। हंसते हुई भी लड़कियां,रोते हुए भी लड़कियां,लड़कियों के फैशन पर भी एक तस्वीर आदि आदि। इतना ही नहीं ये सारी सेक्सी लड़कियां एक खास रंग की ही थीं। ताकि तस्वीर खूबसूरत और रंगीन दिखे।
कुछ दिन पहले मैंने लिखा था कि क्या बारिश में सिर्फ लड़कियां ही भींगती हैं। बल्कि लड़कियों की जगह हिंदी में युवतियों को इस्तमाल होता है। इस पर किसी समीक्षक की नज़र नहीं पड़ती। समीक्षक स्वागत योग्य हैं लेकिन कहीं इस उद्देश्य से तो अवतरित नहीं हुए हैं कि मीडिया स्कूल की हेडमास्टरी प्रिंट के पास है। तो फिर प्रिंट के ये साप्ताहिक समीक्षक दूसरे अखबारों में छपने वाली नामुराद चीज़ों पर क्यों नहीं भड़कते। ठीक है कि उनसे टीवी पर ही लिखने के लिए कहा गया है। आज कल एक ही अखबार में गर्भवती महिला से लेकर कामकाज़ी महिलाओं के लिए अलग अलग राशिफल आता है। बल्कि पूरा पेज ही आता है। अब तो विद्यार्थियों के लिए अलग से कैरियर बताने वाला राशिफल आता है जो एजुकेशन के सप्लिमेंट में छपता है। टैरो कार्ड और फेंगशुई जैसे आयातित अंधविश्वास अंग्रेजी के ही प्रिंट अख़बारों के ज़रिये देश में पहुंचे हैं। रविवार के अंग्रेज़ी के अखबार देख लें कितने तरह साधु ज्योतिष भविष्यवाणी करते हैं। राशिफल को आकर्षक बनाया जा चुका है। आज कोई अख़बार राशिफल न छापने की हिम्मत नहीं कर सकता लेकिन टीवी को धमकाता रहता है कि अबे तू क्यों कर रहा है। बहस टीवी बनाम अखबार का नहीं है बल्कि बहस यह होनी चाहिए कि ये सब किसी के लिए ठीक नहीं हैं। इसका मतलब यह भी नहीं कि मैं टीवी पर दिखाये जाने वाले ज्योतिष कार्यक्रमों का समर्थन करता हूं। मैं तो सिर्फ मंचों को लेकर होने वाले भेदभाव की तरफ इशारा कर रहा हूं।
टीवी पर जैसे ही ज्योतिष शो आता है, उनका न्यूज़ धर्म याद दिलाया जाने लगता है। टीवी अंधविश्वास फैलाता है लेकिन अखबार नहीं। अख़बार के ज्योतिष तो भविष्यवाणी करते हैं। टीवी पर जिस तरह से इन दिनों तीज त्योहारों की ग्राफिक्स विधि बताई जा रही है उसी तरह अखबारों में भी बताई जाती है। बल्कि नवरात्री पर तो बकायदा एक अखबार ने दुर्गा के मंत्रोच्चारण की किताब ही बंटवा दिया। मैं यह नहीं कहना चाहता कि टीवी में होने वाला गलत इसलिए गलत नहीं है क्योंकि अख़बार में भी यही गलत हो रहा है। आखिर जिस मंच पर टीवी को लेकर बहस हो रही है उसे यह तो देख ही लेना चाहिए कि यही मुद्दे उसके पन्नों से भी उठ सकते हैं।
टीवी को भूत प्रेत औघड़ ओझाओं का पता अख़बारों के भीतर छपने वाली काले रंग के विज्ञापनों से ही मिला। कमाई के लिए अखबार जब बंगाली बाबाओं के विज्ञापन छाप सकते हैं तो कमाई के लिए टीवी क्यों नहीं दिखा सकते हैं। कहने का मतलब है कि इस पूरी बहस में हम सिर्फ टीवी को टागरेट कर रहे हैं। हम इस बात को लेकर नहीं भिड़ रहे कि वैज्ञानिक दृष्टिकोण का पैमाना क्या होना चाहिए। अगर तांत्रिकों को दिखाना टीवी के लिए ग़लत है तो इनका पता छापना अख़बार के लिए ग़लत नहीं है क्या।
इन दिनों अखबारों में जिस तरह सेक्स सर्वे की भरमार है। वो क्या पाठकों की जिज्ञासा के अनुसार नहीं है। वो क्या ख़बर छापने की ब्रीफ से अलग नहीं है। क्या प्रिंट प्रतियोगिता के दबाव में पाठकों की जिज्ञासा को भांपने का सतत अभ्यास नहीं करता। वर्ना दिल्ली विश्वविद्यालय में दाखिले के लिए आए किसी परेशान छोकड़े की भी तस्वीर छपती। उस बेचारे की तस्वीर तब भी नहीं छपती जब छेड़छाड़ की चर्चा होती है। इसमें भी छेड़ी जाने वाली लड़कियों की ही तस्वीर होती है ताकि आइटम सेक्सी लगे। खूबसूरत तस्वीर के साथ।
बहस मुद्दे को लेकर भी होनी चाहिए। सिर्फ माध्यम तक सीमित नहीं रहनी चाहिए।
27 comments:
क्या टीवी क्या अखबार.. सबने अपने अपने हिसाब से अपने अपने फ़ायदे के लिये.. मुद्दों कि ठेकेदारी ले रखी है.. टीवी को गाली इसलिए पड रही है.. अग्रेजी अखबार मे छपने वाली "तीसरे पेज" कि पार्टीया क्या समाचार दे रही है छापने वाला ही जाने.. हाथॊ मे शराब कि ग्लास लिये.. "विचित्र वेश्भुषा" के प्रतिभागी.. अगर टीवी के प्राइम टाईम मे आने लगे तो..?
जैसे टीवी के कार्यक्रमों पर अखबार मे टिप्प्णी कि जाती है.. टीवी भी अखबार के content पर प्रतिक्रिया दे.. आप ९.३० पर "खबरो कि खबर" मे और पंकज जी "हम लोग" मे...
kaha to bilkul sahi hai Raveesh jee,magar iska matlab ye to nahi ho sakta aap bhi wahi karen.kane se mahatwapurna hone ke liye andha hona jaruri to nahi hai na.aapne dilli vishwav idyalaya ka kissa to suna diya,magar orrisa me naxaliyon dwara mare gaye 38 jawaanon ki khabar agar tv par nahi dikhti to dukh hota hai,isliye ki wo sanjay dutta ki jelyatra ko live kar sakta hai,saif-karina ke rishto par bahas kar sakta hai,ramp par model ke sarkate kapdon ko ek nahi hazaar b ar dikha sakta hai,to dukh hota hai.aapne bilkul sahi kaha gandagi se dono acchute nahi hai,lekin suar se ladne ka kya fayda,aap hi gandagi se tar honge use to isme mazza hi aayega
मैंने अंग्रेजी अख़बारों में देखा है की "सेक्स" की अधिकतर चाट-पाटी खबरें "महिला" पत्रकार ही लिखतीं हैं !
ऐसा लगता है की "पुरूष" समाज का कोई द्रिस्तिकों है ही नही है "सेक्स" पर !
आप भी कुछ लिखिए न ! भगवन रजनीश की तरह :)
( मजाक कर रहा था )
आपने मेरी मन की बात को सटीक तरीके से लिख डाला है..
धन्यवाद..
सही लिखा है . जब दोनों में से किसी को अपनी गिरेवां में झांकने का टाइम नही है तो दुसरे में ताका झांकी क्यों ? दोनों नंगे नहा रहे हैं .हमलोग हर हर गंगे बोल रहे हैं .विश्वास है नहाने से थक कर कभी न कभी कपडे जरूर पहनेगे दोनों .
ज्योतिष के विरुद्ध लिखने से पहले किसी भी लेखक को अपने गले की ताबीज और अपनी अंगूठी के पत्थर निकाल
लेना चाहिए .ऐसा किसी ज्योतिष ने ही मुझे बताया था.
sir ji, jhan tak jyotish ka swal hai iisse pichha churana shayd is janm men sambhaw nahi jan parta kyon ki hm aaj bhi keh hi dete hai ki "aajkal din achha nahi chal rha".
jhan tak akhbar walon se mudhhon par bat karne ki ummid ki hai aapne to khabhi hmare chote shehron ke sthaniya akhbaron men jhankiye phir apko apni hi bat par hasi aayegi , jab aap padenge ki bijli ke jhatke se bhes ki moot" darasal pura tantra hi bigada hua hai, aur wese bh agar "tv" apni sfai de rha hai to aakhwar walon ke pas bhi apni majburi to hogi aur shayd jaldi hi padne ko bhi mil jay,us waqkt tak ke liye dheyra dharta hun, Filhal ek bar fir khari-khari likhne ke liye dhanyawad
आपने दुरुस्त कहा है. एकदम सहमत हैं हम. मगर एक तर्क थोड़ा अटपटा था, बंगाली बाबा वाला. पेपर में वो ad का हिस्सा बन के आता है, पर टीवी में कंटेंट का हिस्सा बन कर. जो कंटेंट में है उसको एक तरह से चैनल प्रमाणित कर रहा है. कमसकम देखने वाला तो यही समझता है की इसे फलां चैनल ने प्रमाणित किया है. यहाँ तो न्यूज़ हो गया न वह. ad तो अलग है न कंटेंट से.
रविश जी,
कुछ मिडिया वाले मदर टेरेशा का भी मिरेकल टच का भी अफवाह उडा दिए थे. और तो और उसी के अधार पर उन्हे सेन्टहुड कि उपाधी भी मिल गयी. बेचार बेसरा रो रहा है कि वो लोग पहले तो बहुत वादा किये और जब मदर को सेन्टहूड मिल गया तो कोई पुछने भी नहीं आता. वो तो ये भी बोलता है कि उसकी बिबि का कैंसर डाक्टर ने ठिक किया था. ऐसा मैने गुगल मे सर्च मारा तो बहुत निउज पढ कर पता चला. क्या किजियेगा मिरैकल के पीछे दुनिया भागती है.
नोट: इससे मदर द्वारा किये गये समाजिक कार्यों को झुठा नहीं कहा जा सकता है. वो अलग जगह पर है लेकिन मिरैकल वाली बात अलग है.
रवीश जी, आपने जो बात कही वह पूरी तरह सत्य है कि बहस मुददे पर होनी चाहिए न कि माध्यम पर। आज कोई टीवी वाला यह नहीं कह सकता कि हम पत्रकारिता के सारे सिद्धांतों पर चल रहे हैं ऐसे ही कोई प्रिंट वाली भी यह दावा नहीं कर सकता। इसलिए एक दूसरे पर कीचड उछालना गोबर में ढेला मारने जैसा ही होगा। सब आज पैसे के लिए काम कर रहे हैं एड के लिए समाचार छाप रहे हैं। इससे किसी को कोई फर्क नहीं पडता कि क्या भूत और क्या भविष्यवाणी छापी या दिखाई जा रही है। उदाहरण के तौर पर अगर किसी बडी कंपनी जो अखबार या टीवी को एक मोटा विज्ञापन देती है किसी पचडे में उसका नाम आने पर उस कंपनी का सीधा नाम लेने की बजाय अखबार या टीवी एक निजी कंपनी लिखते या बोलते हैं। इसलिए बहस सार्थक और मुददों पर होनी चाहिए न कि माध्यम पर।
जिन दो बड़े अखबारों के पन्नों पर टी वी की ऐसी तैसी होती है, उन्हीं अखबारों का एक भी प्रतिनिधि नहीं था उस विचार गोष्ठी में जहां विज्ञापन की खातिर प्रिंट मीडिया की चूहा दौड़ पर तथाकथित चिंता जताई जा रही थी। अब यही कहा जा सकता है कि "पर उपदेश कुशल बहुतेरे"
जब तक हमारे हाथ में रिमोट है और अख़बार को पढ़ने या न पढ़ने, खरीदने या न खरीदने की स्वतंत्रता है, जिसका जो मन करे लिखे, छापे, दिखाए। हमें राशिफल नहीं सुनना होगा तो बंद कर देंगे टी वी या चैनल बदल लेंगे, नहीं पढ़ना होगा राशिफल तो पन्ना पलट देंगे।
हाँ टी वी भी अख़बारों की खबर क्यों नहीं ले लेता?
घुघूती बासूती
ravish ji
yah sab maaya kii maaya hai.
रवीश जी आपने टीवी बनाम अखबार की जो तस््वीर पेश की है...उसमें सच््चाई तो है...अक््सर दोनों माध््यमों के पत््रकार एक दूसरे को ताने देते हैं...टीवी में भी जो पत््रकार अखबारों से आए हैं..उन््हें छोटे पर््दे की इस दुनिया से तालमेल बिठाने में वक््त लगता है...वो खुद को ढाल भी लेते हैं....फिर भी अंदर कहीं एक उम््मीद रहती है...शायद एक दिन आएगा जब वे दोबारा अखबार में लौट सकेंगे..जो आज भी ज््यादा विश््वसनीय और पठनीय है...लेकिन अगर कुछेक अखबारों को छोड़ दें तो ज््यादतर जगहों में सर््कुलेशन...बाजार....जैसी ताकतें पत््रकारिता पर हावी हो चुकी हैं....खुद पत््रकार भी विज्ञापन लाने..पाने की दौड़ में चाहे अनचाहे शामिल हो चुके हैं....ऐसे में क््या वो वक््त आएगा...जब हम सही मायने में पत््रकारिता कर पाएंगे...माध््यम जो भी हो...टीवी या प््रिंट..
Priye Ravish Ji
Namaskar
Akhbaar ko parhte hue aapko yeh azadi hoti ke aap sme se ani abhiruchi ki khabar parhen, ap par koi pabandi nahi hoti ke TV channel par AAp par programme( samachar nahin)thopa jata
Mukhlis
Suhaib Ahmad
रवीश जी,
बात तो आपकी सोलहों आने सच है। एक कहावत है.... चलनी दूषे सूप को....
वैसे "परमाणु की पाठशाला" मुझे पसंद आयी।
सही बात कही आपने , मज़ा आता है आपका ब्लॉग पड़कर..........
सुमित भाटिया , बरेली (उत्तर प्रदेश)
रवीश जी आपके चाटुकारों ने मुझे जी भरकर गालियाँ दी है सिर्फ इसलिए कि मैने आपकी चाटुकारिता नही की है....इन सभी कमेंटस में आप देख लें कि चाटुकारिता हैं कि नही ....जैसे कि आपने मेरे मन की बात लिख दी है....क्या लिखा है ....सोलह आने सच लिखा है ....सही लिखा है आपने...ये चाटुकरिता नही है तो क्या है ....मुझे आपसे कोई मतलब नही है ....मैं आपसे कभी मिला भी नही हूँ ....आपसे मेरी कोई प्रतिद्वन्दिता भी नही है....क्योंकि आप जिस मुकाम पर है वहाँ पर पहुँचना किसी का भी लक्ष्य हो सकता है....लेकिन आपके किसी पोस्ट की तर्क पूर्ण प्रशंसा करने की जगह भाई लोग सिर्फ झूठी चाटुकारिता में विश्वास करते हैं....अब ये अलग बात है भारत की संस्कृति में ही चाटुकारिता रची बसी है....तो ये पुरानी परंपरा इतनी आसानी से कहाँ छूटने वाली तो भाई लोग लगे रहो....जब तक कि रवीश जी का कस्बा आबाद रहे तब तक आप लोग भी परजीवी की तरह चिपके रहो.....
मंडी है। सब दुकानदार हैं। बिकाऊ माल की तलाश में हैं। ऐसे में टीवी वालों को मुल्जिम बनाना भी किसी बिकाऊ लेख के हिस्से से ज़्यादा कुछ भी नहीं। गुड़ की मंडी में मख्खियां होती ही हैं। सो, दो ही उपाए है या तो इन्हें हाथों से उड़ाया जाए या फिर इसे उस मख्खी की स्वाभाविक शर्त मानकर अपना लिया जाए। मेरे हिसाब से दूसरी बात ज़्यादा सही है।
समाचार मतलब अखबार......
टी वी न्यूज मतलब रंडी का नाच.....
मैं अनिल जी से सहमत हूँ ये चाटूकारों का कस्बा है ,यहाँ सिर्फ चाटूकार बसते है....और जिस तरह किसी कस्बे में अगर कोई नया प्राणी आ जाये तो....कस्बे के सारे कुत्ते उस पर भौंकने लगते है उसी तरह इस कस्बे पर भी किसी ने अगर चाटुकारिता नही की तो यहाँ के भी सारे कुत्ते मिल कर उस पर भौंकने लगते हैं.....
nice memoires
नमस्कार, रविशकुमारजी, आपकी बात से 100%हम सहमत हैं। रिपोर्टेर के रूप में ही हम आपको पहचान गये थे कि "मैं रविशकुमार एन.डी.टी.वी. से, आपकी आवाज़ से ही आपकी सच्चाई जान गये थे.अब आपको पढ भी लिया।भगवान भी हंमेशा सच के ही साथ रहता है।
better criticism of press and its nowadays culture, can u tell me where you got the colorful header of your blog..........a flowerrrrrr
बहुत सही और हकीकत के अन्दर तक जाकर लिखा है आपने. लेकिन इसमें एक और मामला है वह है विज्ञापन का लगभग ९० फीसदी अखबारों से लिंगवर्धक यंत्रों के विज्ञापन जिस बेहूदे तरीके से छपते हैं उनका संदेश उस परिवार तक कैसे जाता होगा समझा जा सकता है. मुझे तो इन दिन एनडी इमेजिन का एक विज्ञापन रामायण वाला सही लगा ... यही हाल टीवी के विज्ञापनों का है...
अब जरूरी हो गया है कि नए सिरे से खबरो व विज्ञापनों दोनों के बारे में सोचा जाए नहीं तो आने वाली पीढ़ियों की बर्बादी का काफी हद तक जिम्मेदार मीडिया ही होगा.
ravishji namskar,
aap ka tv banam akhbar ki baat sahi hai, par mai chata hu ki aap tv channel par chale " India ke sab se badi murder mistri " ke baare me jarur likhiye.. kyo ki muze lagta hai is barr hamare dosto ne kutch haad hi kar di hai.
Harish Gurjar
ETV news
Ahmedabad
रवीश जी, नमस्कार ! मैं काफ़ी समय से आपको टीवी पर देखता रहा हूँ। मेरे पिता भी आपके मित्र हैं। सच कहूं तो आपके ब्लॉग से ही मुझे प्रेरणा मिली है। मैं ख़ुद एक अख़बार में हूँ लेकिन महसूस करता हूँ की जिम्मेदारी से बचने का भाव हर जगह मौजूद है। एस्कोर्ट लड़कियों, खूबसूरत मसाज करने वाली बालाओं के विज्ञापन भी तो इन्ही अख़बारों में छपते हैं। खैर.... । उम्मीद है आपका आशीर्वाद मिलता रहेगा।
ये बात सच है कि अख्बारी पत्रकारिता मिथ्या गर्व बोध से ग्रस्त है,आज अखबार भी व्याव्सायिक घराने चलाते है और वे भी बिक्री के तमाम हथकन्दे आजमाते है. इस नाते उन्हे नैतिक उच्च धरातल पर आसीन होने का अधिकार नही है.
dono akhbar aur tv ekk doosre ke mathe pe aaroop madhne ke bajai agar bajarwaad jhod kar news aur views hi present kare toh kisse discussion ki jarurat nahi hoge.lekin ravish ji aapne yeh baat satik kahi ki dono toh ekk hi khel khel rahe hai phir kyun tv ko khiladi kehte hai.
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