जनसत्ता- मोहब्बत एक अख़बार से

जब भी जनसत्ता को देखता हूं अख़बार की तरह हो जाता हूं। चुपचाप हर दिन आता हुआ एक अख़बार। बिना शोर किये पच्चीस साल से यह अख़बार मुझे हर दिन सादा कर देता है। तमाम तरह के आडंबरों से सादा। ख़बरें किसी सपाट सतह पर सुस्ताती आपको बताती रहती हैं कि जानने के अधिकार का यह मतलब नहीं कि खबर पढते ही उछलने लगे। इसीलिए मैं अखबार की तरह कई तहों में बंटने लगता हूं। अंगड़ाई लेते लेते दुनिया मेरे आगे की तस्वीरों में खो जाता हूं। सब कुछ बदल जाने के इस तुरंता दौर में जनसत्ता स्थायीत्व का बोध कराता है। प्रभाष जोशी के दो हज़ार शब्दों से कारे होते कागद और उनके बगल में पड़ी दो किताबों की समीक्षा। सोचता हूं क्या किसी अख़बार को लेकर रोमांटिक हुआ जा सकता है। रोमांटिक होता हूं तो जनसत्ता ही याद आता है।

इसके पच्चीस साल में मेरा भी पच्चीस साल है। पटना के सिन्हा लाइब्रेरी के सामने एक पान की गुमटी में दमकिपा के एक कार्यकर्ता के हाथ में दिखा था यह अख़बार। अख़बार पढ़ने की उम्र हो चुकी थी। बासी था जनसत्ता। एक दिन बाद दिल्ली से आया था। उसके सफेद चकचक पन्ने और नेता जी के कुर्ते। लगता था इसे ही पढूंगा। दलित मज़दूर किसान पार्टी दमकिपा बनी थी। बाद में लोकदल और राष्ट्रीय लोकदल। इतना बदलाव हो गया लेकिन जनसत्ता नहीं बदला। पिता जी की सफेद धोती की तरह माड़ से कड़कड़ सा फहराता लगता है। जैसा कि मैने कहा कि जनसत्ता के पूरे पच्चीस साल में मेरे भी पच्चीस साल हैं। वरना जब दमकिपा के नेता जी वोट क्लब की रैली में भाग लेने के लिए दिल्ली चले जाते तो मुझे सायकिल से रेलवे स्टेशन जाना पड़ता था। जनसत्ता के लिए।

दिल्ली आया तो मंगलेश डबराल जी ने जनसत्ता में ही लिखने के लिए कह दिया। आईटीओ चौराहे से प्रगति मैदान की तरफ चलने पर एक पार्क आता है। शायद शिवाजी की प्रतिमा लगी है। चंद कागज के दुकड़े पकड़ा दिये और कहा कि लिख लाना। उत्साह इतना चढ़ गया कि भूल गया कि तेज गर्मी है। उसी पार्क के बेंच पर बैठ कर लिख दिया। मैं जनसत्ता होने जा रहा था। उसमें छपने जा रहा था जिसके लिए सायकिल से रेलवे स्टेशन जाना पड़ता था। पंद्रह साल पहले की बात है। मेरे भीतर जनसत्ता और गहरा हो गया। इंडियन एक्सप्रेस बिल्डिंग में घुसते ही अख़बार की स्याही की खुश्बू । आज भी याद है। रिपोर्टरों से घिरे सुशील कुमार सिंह के अदाज़। कुमार संजोया सिंह की ख़बरों की कतरनें। आज भी मेरे बक्से में कहीं पड़े हैं। शम्स ताहिर खां की रिपोर्टिंग और वो कमरा जिसमें से झांकते ही प्रभाष जोशी दिख जाते थे। उसी सफेद कुर्ते और धोती में। मेरे पिता जी जैसी सफेद धोती और धोती जैसा जनसत्ता। किताबों से भरा मंगलेश जी का कमरा। आयोवा से लौटे थे या जाने वाले थे। ठीक ठीक याद नहीं लेकिन नए पत्रकारों से बात करने की तमीज़ खत्म होने से बहुत पहले की बात है। कम बोलने वाले और शांति से बोलने वाले मंगलेश जी ने लिखना सिखा दिया।


जनसत्ता आज भी आता है। क्यों आता है पता नहीं। क्यों बचा हुआ है पता नहीं। अलका सरावगी या सुधीर चंद्र के लेखों को हर रविवार लाने के लिए या फिर याद दिलाने के लिए कि अगर जनसत्ता ही नहीं बचा तो बचेगा क्या। एक अख़बार ही तो है जो हर दिन आता है। बिना हंगामें के, बिना अपनी रणनीति से बाज़ार में दूसरे अख़बारों को मार कर। जनसत्ता किसी अख़बार को धक्का देकर मेरे घर नहीं आता। जनसत्ता अहिंसक अख़बार है। इसलिए जनसत्ता देखते ही अख़बार की तरह होने लगता हूं। बहुत सारी ख़बरें मगर बहुत सारी विनम्रता भी। जनसत्ता होना मुश्किल है। बहुत मुश्किल। लेकिन उन तमाम आशिकों में से मैं भी एक हूं जो जनसत्ता के मारे हैं। यही दुआ करता हूं कि मेरे पचास साल के होने पर भी आएगा यह अखबार। तब मुझे रुला जाएगा, याद दिलाते हुए कि पत्रकार ही बनने आए थे तो बने क्यों नहीं। देखों मैं जनसत्ता, तब भी बना हुआ था, आज भी बना हुआ हूं।

34 comments:

Rajesh Roshan said...

जनसत्ता... अभी साल भर पहले ही तो रंगीन चित्रों को छापना शुरू किया है... कंपनियों के तिमाही बैलेंस शीट भी तो आती है.... क्षमा शर्मा से लेकर राजकिशोर जी तक वही सपाट लेखन लेकिन पढने के बाद एक उत्साह दिखता है.... यह जन सत्ता है यही कामना है की जनसत्ता चलती रहे

sanjay patel said...

सुबह सूरज के निकलने के पहले
ताज़ा मसाला परोसते आते हैं मेरे शहर के अख़बार
दूसरा आता है दूर दिल्ली से...एक दिन बाद
विवशता है....ये जनसत्ता है

इसकी विवशता देती है मुझे कई सलाहियतें
ज़ुबान की तहज़ीब और मुझमें समो देती है तृप्ति
तृप्ति इस बात की कि थोड़े में ख़ुश रह लो
बहोत रंगीन मत बनाओ अपने आप को
रंग तो कहीं भीतर तक उतरना चाहिये
सफ़े पर उघड़े हुए तो क्या हुए

ये भी बताता है मुझे कि पच्चीस साल
महज़ एक पायदान है
जश्न में मत बौराओ
इश्तेहार लाकर जश्न मनाओ
जैसे अपनी बेटी का ब्याह
मोहल्ले वालों से करवाओ
पायदानें मंज़िल नहीं हुआ करतीं
बस चढ़ते रहो, उतरते रहो

जनसत्ता एक शाहकार बन कर
उतरता है मेरी ज़िन्दगी
कुहासे और सीलन को मिटाता सा
धूप बन कर निखर जाता सा

मैं नज़र नहीं आता इस अख़बार में
ये अख़बार उतर आता है मुझमें
ख़बरदार करता सा
आत्म-मुग्ध होने से बचाता सा
ये भी नसीहत देता सा कि ज़माने की
हवा में बहने की ज़रूरत नहीं क़ामयाब होने के लिये
अपनी तरह से चलते रहो ये ही बड़ा क़ामयाबी है

जनसत्ता वाक़ई घर का बुज़ुर्ग बन कर आता है
वाचालता को ख़ामोश करता सा
उन बातों को शब्द देता सा जिन्हें दरकार है उसकी

जनसता...एक रजत कण
सारी जगमगाहट में
घर के कंदील सा
विश्वसनीय

डॉ .अनुराग said...

जी हाँ हमें भी मोहब्बत है इस अखबार से ....ओर अब भी यद् करते है वो दिन जब कोई मैच जीतने पर प्रभाष जोशी पहले पन्ने पर कोई भावुक लेख लिख देते थे....

azdak said...

इतना भावुक होने की ज़रूरत है? वैसे में जब मंच बनियावी गजर-मजर से लदर-बदर हो रहा हो? यहां यह याद करना याद नहीं रहा कि इसी जनसत्‍ता से किन स्थितियों में मंगलेश को बाहर जाना पड़ा था? सचमुच ऐसा अहिंसक अख़बार है? बेवजह आत्‍मलीन, आत्‍ममुग्‍ध नहीं?

Kath Pingal said...

प्रमोद सिंह जी, मंगलेश को जिन परिस्थितियों में जनसत्ता से अलग होना पड़ा, उसकी सूचना आप तक जितनी भी नाटकीयता के साथ पहुंचायी गयी होगी - लेकिन सच ये है कि कैरियर की अति महत्‍वाकांक्षा और इफरात पैसा-लोभ के आकर्षण में आकर वे जनसत्ता से अलग हुए। सहारा श्री की गोद में खेलने लगे। वहां से धक्‍के देकर निकाला गया। वक्‍त बहुत बदल गया है बंधु। ऐसे वक्‍त में कभी-कभी सतही तरीक़े से भी भावुक हो जाना चाहिए। आपकी तरह ओरहान पामुक बनने में अभी लोगों को वक्‍त लगेगा।

सुबोध said...

रवीश जी अपने गुजरे को याद करने की भावुकता जमीन से जुड़े होने की निशानी ही है... मुझे पत्रकारिता में ज्यादा दिन नहीं बीते.. लेकिन पत्रकारिता जनसत्ता के संपादकीय पढ़ पढ़कर सिखी... लखनऊ के हजरतगंज में दोपहर में रोज दिल्ली के बहुत सारे अखबार पहुंचते हैं... उनमें जनसत्ता भी एक है... मैं उन दिनों दोपहर में जाकर जनसत्ता लेकर आता था...पढ़ता था और सोचता था कि ये अख़बार इतना सादा क्यों हैं...लेकिन अब समझ में आता है खबर को बाजार से बचा लाना कितनी दिलेरी का काम है... और ये काम प्रभाष जी और जनसत्ता ने बखूबी किया है...

sushant jha said...

वाकई...जनसत्ता पर ये आपका लेख दिल चुरा गया। आपने इसमें कुछ ऐसी बातों का जिक्र किया है जिससे मेरा निजी बास्ता है। मसलन, दमकिपा और लोकदल...मेरे पिताजी..उन चंद लोगों में थे जो इन पार्टियों के गठन में शरीक थे। वे बहुगुना जी के काफी करीबी थे। आज दमकिपा और लोकदल का नाम सुनकर नोस्टेलजिक हो गया। पापा कहते थे कि सारे एमपी और सियासी लोग जनसत्ता पढ़कर ही अपना राय बनाते थे..उसमें छपी चिट्ठी को भी लोग गंभीरता से लेते थे। वो परंपरा अभी भी कुछ-कुछ जिंदा है। हाल में एक एमपी साहब के यहां गया था तो वो भी जनसत्ता को अपने बच्चे सा चिपकाए टहल रहे थे। उनका कहना था कि नभाटा बगैरह तो कार्यकर्ताओं के लिए है। लेकिन दुख की बात ये है कि जनसत्ता का सर्कुलेशन गिर रहा है। शायद हम एक अच्छे अखबार को धीरे-धीरे मौत की तरफ जाते देख रहे हैं।

विजयशंकर चतुर्वेदी said...

जनसत्ता ने पत्रकारिता को एक अपूर्व भाषा दी थी. मैं उसे तीखे तेवर वाली या कोई और भाषा कहकर किसी श्रेणी में नहीं रख सकता. प्रभाष जी और उस समय की उनकी कोर टीम ने वह भाषा बड़े जतन से लंबे समय तक पाली-पोसी.

मुंबई जनसत्ता में मैं उप-सम्पादक था. वर्ष १९९१ से १९९६ तक. उस समय डेस्क पर राजनीति, भाषा, समाज और विचार को लेकर जीवंत बहसें चला करती थीं. मजे की बात यह है कि इन बहसों में कई बार महानगर के बुद्धिजीवी बेरोकटोक शामिल हो जाया करते थे. बहस तीखी होने लगती और काम प्रभावित होने लगता तो लोग उसी फ्लोर पर स्थित शेखर की कैंटीन में चले जाया करते थे. मैं दावे के साथ कह सकता हूँ कि जितना लोकतांत्रिक माहौल उस समय जनसत्ता के डेस्क पर होता था उतना किसी राष्ट्रीय दैनिक के डेस्क पर दुर्लभ था. सीनियर-जूनियर का फ़र्क ढूंढे से भी नहीं मिलता था. सब एक दूसरे की क्षमताओं और उम्र का एहतराम करते थे.

पूर्वोत्तर की चिट्ठियाँ छपती थीं, क्षेत्रीय भाषाओं में. इनके लिए हफ्ते में दिन तय थे. स्थानीय जनजीवन और सामाजिक हलचल को समग्रता से उभारने के लिए 'सबरंग' पत्रिका निकली, जिसकी कमी आज भी मुम्बई के हिन्दीभाषी महसूस करते हैं. जनसत्ता के संस्करण बंद होने से जो नुकसान हुआ है वह अनिर्वचनीय है.

दिल्ली संस्करण देखे कई दिन हुए!

सुशील छौक्कर said...

रवीश जी क्या कहूँ कि इस पेपर के बारें में। जिस दिन नही आता। लगता है कि कुछ छुट गया आज के दिन। पेपर वाले से लडाई शुरु। क्या हुआ आज क्यो नही लाया। आज हमारे सेंटर पर नही आया। कोई दुसरा ले लो। पूछता है हर बार भईया क्या है उसमें ऐसा? क्या कहूँ रवीश उससे। फिर छोटे भाई को भेजो कि जा यार ये ले चाबी बाईक की। जहाँ मिले ले कर आ । वो भी तंग आ गया है पर क्या करे छोटा भाई बडे भाई की डयूटी बजानी है। कई बार पापा से कहता है पापा मै तंग आ गया उसके पेपर लाते लाते। कोई दुसरा क्यों नही पढ लेता सब पेपर में एक सी खबरें होती है। क्या बताऊं रवीश उसे। आप ही बताओ । किसी दिन एक स्टोरी ही बना डालो। फिर दोनो को कहूँगा कि देखो इसे ।

Manish Kumar said...

अब तो इसे पढ़े ज़माना हो गया। पार आपकी पोस्ट ने इसकी गुणवत्ता की याद दिला दी..शुक्रिया !

अनूप शुक्ल said...

सुन्दर् लेख। ये कठपिंगल् चोरी-छुपे काहे टिपियाते हैं?

सुशील राघव said...

रवीश जी नमस्कार

जनसत्ता पर लिखा यह लेख बताता है की खबरों के लिए आडम्बरों की कोई जरूरत नहीं होती।

anil yadav said...

आज की ब्रेकिंग न्यूज अभी तक हुए सभी सर्वेक्षणों के अनुसार विजय खान चतुर्वेदी को ....महाफोकटिया....की पदवी प्रदान की जाती है ....भाई हर ब्लॉग पर बेगानी शादी में अब्दुल्ला दीवाना की तर्ज पर टिप्पणी देते दिख जाते हैं....औऱ ऐसे लोग हर दावत में पेट सोहराते ही दाखिल होते है कि आज तो.... क्या चतुर्वेदी जी कैसे -कैसे शब्द इस्तेमाल करते हो यहाँ भी .....एहतराम आदि सब ठीक तो है....

anil yadav said...

भाई लोगो ने हद कर दी चाटुकारिता की ....100 मी. की चाटुकरिता की रेस में सब एक दूसरे से आगे निकलने में लगे हैं....रवीश जी आप एक बार किसी ट्रिपल एक्स मैंगजीन की झूठी तारीफ लिख कर देखो ....ये भाई लोग उसकी भी सौ-सौ बलाएं लेंगे....और उसकी सादगी ,कंटेंट और समाजिक योगदान में उसकी हिस्सेदारी पर कलमतोड़ टिप्पणी लिखेंगे....

Unknown said...

बहुत सुंदर लिखे हैं रविश जी. यही भावनाएं मेरी भी हैं इंडियन एक्सप्रेस के लिए. सन ९६ में जब Standard 6 में था तब पहली बार मेरे पेपर वाले ने टेलीग्राफ के जगह गलती से फ़ेंक दिया था. वो दिन और आज का दिन, उसी में रच बस गया हूँ. दिल्ली आया तो The Times of India और Hindustan Times ने बहुत लालच दिया. डीपीएस के हॉस्टल में फ्री फ़ेंक जाते थे. आज भी वही जारी है. पर मनन को मसोस कर मैं एक्सप्रेस के लिए ९० रुपये महिना देता रहा. कभी लगता था की इतने में तो रोज़ २ समोसे आ जायेंगे पर फिर आत्मग्लानी से भर जाता था. उसी को पढ़ के लगा की पत्रकार बनना चाहिए. बन भी गया. एक्सप्रेस आज भी आता है. हाँ सिनेमा की timings हमेशा ही ग़लत लिखा होता है सो थोडी तकलीफ होती है. पड़ोसी से मांग के Times of India लाना पड़ता है. बीवी गुस्सा होती है. छोटा भाई कुढ़ता रहता है. पर एक्सप्रेस प्रेम कहाँ छूटना है

सौरभ कुमार शाही

Ranjan said...

मुझे भी याद है सन १९८४ में पहली दफा पटना के कंकड़बाग के एक गुमटी से "जनसता" मिला था ! दिल्ली से आता था - हवाई जहाज से ! शाम को घर ले जा कर पढता था ! अब दिल्ली में हूँ फ़िर भी जनसता नही पढ़ पाता हूँ !

आपको समाचार पढ़ते देखा ! अछ्छा लगा ! पर , आप या कमाल खान साहब जैसे लोग स्पेसल रिपोर्टिंग में ज्यादा अच्छे लगते हैं !

सच्चे पत्रकार को "संतुस्थी" अखबार की सुगंध से ही मिलेगी ! पर बाज़ार में रहने के लिए "नाचना" भी तो जरुरी है !

किसी ने ठीक हो कहा - बाज़ार में नाचने कूद हो गए फ़िर घूँघट से कैसा परहेज ?

Ranjan said...

मुझे भी याद है सन १९८४ में पहली दफा पटना के कंकड़बाग के एक गुमटी से "जनसता" मिला था ! दिल्ली से आता था - हवाई जहाज से ! शाम को घर ले जा कर पढता था ! अब दिल्ली में हूँ फ़िर भी जनसता नही पढ़ पाता हूँ !

आपको समाचार पढ़ते देखा ! अछ्छा लगा ! पर , आप या कमाल खान साहब जैसे लोग स्पेसल रिपोर्टिंग में ज्यादा अच्छे लगते हैं !

सच्चे पत्रकार को "संतुस्थी" अखबार की सुगंध से ही मिलेगी ! पर बाज़ार में रहने के लिए "नाचना" भी तो जरुरी है !

किसी ने ठीक हो कहा - बाज़ार में नाचने कूद हो गए फ़िर घूँघट से कैसा परहेज ?

पोटलीवाला बाबा said...

ब्लॉग का मतलब ही है कि जो अच्छा / बुरा लग रहा है उसे लिख डालो...अब लिख दिया और आपके पास कोई अच्छा expression उसी बलन का तो आप टिप्पणी लिख दीजिये..ये क्या हुआ कि किसी की feeling पर आप एकदम बेरहम हुए जाते हैं जनसत्ता से जिसे शिकायत है वह अलग से उस पर एक नया सुर छेड़े...कोई रोक रहा है क्या. दिन भर ज़हर से भरी है जिन्दगी , कहीं कोई सौजन्य-सदभाव प्रकटीकरण हो रहा है तो शामिल हो जाइये और नहीं तो खामोश हो जाइये.रवीश को जैसे जनसत्ता भाया है हो सकता आप को कोई और लुभाता हो.ठीक कहा न ?

Anonymous said...

janstta aati hai kyon ki isse Ravish kumar , Ravish kumar hue hain.
yahan mere shehr(jamshedpur) men bhi aati hai janstta, subh-shubh nahi dopehar men kolkata se chal kar aur apne sat kabhi "Ragdarbari" lati hain to kbhi "mudda".
Bin bulay nahi aati boht israr karne par aati hai.kabhi gadi der ho jay to fir pahri dopahri men gol-chakkar ke chakkar lagwati hai.
lekin jesi bhi hai "badi pyari hai meri mehbuba" janssta janssta

pawan lalchand said...

ravisji, panch-chhah saal se m bhi Jansatta niymit roop se padh raha tha. pichhale dedh mah se na jane kyon khichh kar bandh krvadiyatha.lekin ab rulai aa rahi hai.. jatakharid kar le jaungakal se akhbar wale ko bol kar shuroo karvaunga.. dhanyavad..

Rajesh said...

रवीश जी,
सालों पहले जनसत्ता पढ़ी थी। अब तो हिन्दुस्तान (हिन्दी दैनिक) का पाठक हूँ। बुधवार को प्रकाशित "ब्लॉग वार्ता" मुझे बेहद पसंद है। आशा है कि आप अपना बेहतरीन काम जारी रखेंगे।

Unknown said...

शान्तं पापम्! शिव-शिव!!! अनिल जी अपने ब्लोगों पर जिस तरह की भाषा प्रयोग कर रहे हैं उसे पढ़ कर कोई 'वह' क्रिया संपन्न भी नहीं करने वहाँ नहीं जाता जो वह रवीश जी के ब्लॉग पर 'कर' गए हैं. रवीश जी की पिछली पोस्टों पर टिप्पणियाँ देख कर कोई भी बता सकता है कि कोई उनकी चमचागिरी नहीं कर रहा है. वरना हर पोस्ट पर इतनी ही टिप्पणियाँ हुआ करतीं. अनिल जी को जल्द ही सद्बुद्धि आ जाए तो वसंत, वरना पतझड़ ही पतझड़ है. और विजय जी को वह खान कहकर क्या सिद्ध करना चाहते हैं? शायद कुंठा की पराकाष्ठा पर हैं अनिल जी. विजय जी ने जनसत्ता में अपने काम करने वाले दिनों को याद किया है. अनिल जी ने घृणा के वशीभूत होकर उस ओर भी ध्यान नहीं दिया. क्रोध और पाप रौरव नरक में धकेल देता है बच्चा. क्यों वहाँ की कुर्सी आरक्षित कराना चाहते हो बच्चा अनिल. ज़रा अपनी माताजी से मष्तिष्क ठंडा रखने की शिक्षा लो, और यह खान नाम के प्रेम में पड़ जाने का रहस्य उनसे पता करो. शान्तं पापम्! शान्तं पापम्! शिव-शिव!!!

एक पंक्ति said...

ज़्यादा आलोचना,तल्खी,कटुता,गंदी भाषा का उपयोग करने वाले नोट कर लें:

-ऐसी टिप्पणियों का पाठक उन टिप्पणी लिखने वालों जैसा ही है.

-रवीश,क़स्बा,और जनसत्ता से मुहब्बत करने वालों की कमी नहीं.

-कुछ अच्छा करोगे तो ’कुछ तो लोग कहेंगे’...

-अभद्र टिप्पणियाँ वही करते हैं जिन्हें स्वयं मौलिक लिखने का शऊर ही नहीं

और आख़िर में एक बात रवीशकुमार से:
कड़वा लिखने वाले कस्बा के स्टार प्रचारक हैं
more कडवाहट more पाठक

अमरीश शुक्ल said...

bat sirf akhbar aut tv main chapne aur dikhaye jane wale content se ki nahee hai. ek puranee kahavat hai, filmain samaj ka aina hoti hain. kahen ka tatparya hai ki print aur electronik media jo dikhata hai aur chapta hai aaj kal usko dekhne aur read karne walon ki sankhya adhik hai. aap hee bataiye ki aise kitne log hain jo gambheer kisma ki samagree padhna chahte hain. ab log halki fulkee samgree hee naheen pacha pate hain.
aaj kitnain log khas taur par aaj ka yuva varg hai jise samajik sarokaron aur rastriya aur antarrastriya muddon par chintan aur mana karne ki phursat hai. aaj ka yuva utna hee jannna chahta hai jitne se uskee motee kamayee ho sake.

Suhaib Ahmad Farooqui said...

Ravish Saheb
Gala rundha jata hai Jansatta ke baare mein parhkar.. Patrakarita ki kari mein Jansatta hi ke haath mein parcham hai warna baqi sab media ki dukaane hain....
Mukhlis!!!
Suhaib Farooqui

anurag vats said...

main bahut der se padh saka...jansatta ka main bhi mara hun...patne se daakghar ke samne ki footpath se lata tha...wh poori ki poori paathshala hai...aapne jitni shiddt se use yaad kiya hai usmen hm apna hona bhi mahsooste hain...

एक पंक्ति said...

रवीश जी
ये सारे लोग जनसत्ता को स्त्रीलिंगी क्यों संबोधित कर रहे हैं...स्पष्ट कीजिये न इसे.जनसत्ता पढ़ी या पढ़ा ?

Unknown said...

Ravish jee,
aapne bilkul mere muh ki baat likhi hai.jansatta me lambi lambi chitthiya likhi aur thoda sa likhne laga aur ise ki badaulat kam bhi mil gaya.

पूजा प्रसाद said...

अगर जनसत्ता ही नहीं बचा तो बचेगा क्या।...
जनसत्ता को लेकर ऐसी प्लेटोनिक सी मोहब्बत में यकीन मानिए, कुछ और पत्रकार भी शामिल हैं। विशेष तौर पर रविवार को आने वाले जनसत्ता के। एक एक कॉलम अमूल्य...
एक वरिष्ठ पत्रकार ने कहा था कि खबर लिखनी सीखनी हो, इं्रट्रो लिखना सीखना हो, संवदेनाओं को पत्रकारिता में कैसे इमपार्शियल हुए उतारा जाए, यह लिखना सीखना हो तो जनसत्ता पढ़ो। अपनी पहली कुछ लंबी नौकरी के दौरान पहली बार जनसत्ता को `ढंग` से पढ़ा tha।

Unknown said...

'जनसत्ता' को लेकर आपका लगाव महसूस कर सकता हूं। आपने मुझे मेरा बचपन याद दिला दिया। मुझे याद है, मेरे गांव में(जो महाराष्ट्र सीमा पर है)अख़बार का मतलब ही जनसत्ता या लोकमत होता था। पिताजी कहते थे, जा पड़ोस से अपना जनसत्ता ले आ, वरना वो लोग रद्दी में बेच देंगे। आज पिताजी 78 साल के पार हैं, अब गांव में जनसत्ता भी नहीं आता, लेकिन पिताजी की अख़बार की कतरनें संजोने की आदत नहीं छूटी।

राकेश त्रिपाठी said...

डियर रवीश ,

माफ करना .... या तो जनसत्ता तुमने इधर महीने भर से पढ़ा नहीं...या फिर तुम जनसत्ता से खूब प्रेम करते हो। मैं भी करता था-इलाहाबाद की कोई सुबह ऐसी नहीं होती थी कि चाय बिना जनसत्ता के पी ली जाए। नमकीन का काम था उसका। लेकिन अब सच कहूं -देखने का मन नहीं करता। कोई चाव ही नहीं.....आज ही पढ़ा है , लेकिन जैसे लिखने वाले बेमन से लिख दें--शायद इसलिए अब शम्स वहां नहीं हैं...संजॉय भी नहीं ....और प्रभाष जी भी जाने क्या लिख रहे हैं.

jharajnishj said...

dear ravish bhai saheb
aapne jansatta ke bare me jo kuch bhi likha hai wo 100 phisdi sahi hai,mujhe bhi yaad hai jab mai madhubani zila se patna college me namankan karaya tha.patna me ek din late se hi sahi jansatta ko padhne ke liye hamari kai bar apne saathiyon ke saath patna college library me jhagda tak karna parta tha.bandhu ek ajab ehsas paida hota hai jansatta ko padhne ke bad

rajnish jha

Sanjeet Tripathi said...

सलाम आपको रविश जी, क्या लिखा है!
दर-असल ब्लॉगजगत से काफी दिन से दूर हूं।
परसों अंबरीश जी से फोन पर बात हुई और आज भी। उन्होनें ही बताया कि आपने अपने ब्लॉग पर जनसत्ता पर लिखा है।

एक फख्र सा होता है कि मैं भी जनसत्ता परिवार का एक सदस्य रहा हूं।

malvika dhar said...

pata nahi rakesh tripathi koun se jansatta ki bat ker rahe hai.sams tahir vaha stinger the aur crime ki khaber karte the sanjoy jo vaha sanjai the ve jamnapar ki khabre dekhte the dono ki jyadater khabre gaziabad ke aage hi nahi jati thi.jansatta rajnaitik khabro aur lekho ki vajah se tab bhi jana jata tha aaj bhi janajata hai.giravat aai hai aur team bhi pahele jaisi nahi hai.per aaj bhi rajnaitik khabro
me doosro se behter hai.