सौ फ़ीसदी नरेंद्र मोदी ही जीतेंगे। गुजरात के शहरी इलाकों में लोगों की नरेंद्र भक्त लाजवाब है। पिछली बार शहरी इलाकों का ही चक्कर मार कर लौटा था।लगा कि सभी वाइब्रैंट गुजरात में पतंग उड़ा रहे हैं। दूसरी यात्रा में कई पतंग कटे बिखरे पड़े मिले। जिनकी डोर लटाई से छूट चुकी थी।
दलित- २००२ के हिंदुत्व की आग में दलितों ने भाजप के सवर्ण हिंदू का खूब साथ दिया। इसके अपना कारण थे। किसी भी आम शहरी बसावट की तरह अहमदाबाद में भी दलित और मुसलमान एक साथ और बाहर बसे हुए थे। धीरे धीरे शहर के विस्तार के साथ इनके चारों और बसावट बनती गई। दंगों के वक्त दलितों ने असुरक्षित करने लगे और सवर्ण हिंदू के झांसे में तुरंत आ गए कि मुसलमान कभी भी कुछ भी कर सकते थे। इससे पहले दलितों ने १९९५ से कांग्रेस का साथ छोड़ना शुरू कर दिया था। लेकिन अचानक आए हिंदुत्व के ज्वार में वो भी फंस गए। और दंगों में कथित रुप से बढ़ चढ़ कर हिस्सा लिया। कहते हैं दंगों में मारे गए हिंदू लोगों में से दलित ही ज़्यादा था।
लेकिन पांच साल की शांति में जातिवाद उभर कर सामने आ गया। जिसके साथ दलित शांति से रह रहे थे उनसे झगड़ा मोल ले चुके थे। अब बारी थी कि उनके घर बेच कर कहीं और जाने की। लेकिन कानून के अनुसार अहमदाबाद में हिंदू मुसलमान आपस में संपत्ति तभी बेच सकते हैं जब कलेक्टर की अनुमति हो। अनुमति की प्रक्रिया लंबी होने के कारण दलितों ने मुस्लिमों के हाथ अपने मकान आधे दाम पर बेच दिए। इसे खरीदा दूसरे इलाके में रहने वाले मुसलमानों ने। खतरे के माहौल में अपने लोगों के साथ रहने का चलन बढ़ा। बाद में दलितों को अहमदाबाद के चांदखेड़ा इलाके में फ्लैट खरीदना पड़ा। इसे अब दलित विस्तार कहा जाता है। इसके आस पास पटेलों के मकान हैं। जो दलितों से घुलते मिलते नहीं हैं। अब दलितों के लिए नज़दीकी दुश्मन जातिवादी पटेल हो चुके हैं। मुसलमानों से उनकी तथाकथित असुरक्षा खत्म हो चुकी थी क्योंकि वो हिंदू इलाके में रहने के लिए आ गए थे। मगर यहां जातिवादी भेदभाव होने के कारण भगवा हिंदुत्व का मुलम्मा उतर चुका है। ये वो दलित मतदाता है जो पिछली बार भाजप के साथ थे इस बार पूरी तरह से नहीं हैं।
यही हाल गांवों का भी है। पांच साल के हिंदुत्व उभार में जातिवादी अपमान नहीं बदला। दलितों ने देखा कि कैसे प्रभावशाली पटेल या कोली या कोई भी अन्य जातियां सत्ता का लाभ हासिल कर रही हैं। और हिंदुत्व का झंडा बुलंद करने में कोई लाभ नहीं। बनासकांठा के एक गांव में पचीस साल से पानी की टंकी से पटेलों के घर में पाइपलाइन बिछी है। मगर दलितों के लिए पाइपलाइन नहीं बिछी। क्योंकि इससे पटेलों का पानी अछूत हो जाता। नतीजे में दलितों की बस्ती में चापाकल यानी हैंडपम्प लगा दिया गया है। इसलिए ऐसी सामाजिक स्थिति में दलित नरेंद्र मोदी के साथ नहीं है। दलित मतदाता में दरार पड़ गई है। हिंदुत्व के चक्कर में बेवकूफ बन गए हैं।
छोटे किसान- आणंद, खेड़ा के कई छोटे किसानों से मिला। उनका कहना था कि खुशहाली बड़े किसानों के यहां आई है। मैंने कहा कि बड़े किसान कितने हैं। जवाब मिला संख्या में हम उनसे कई गुना है। फिर वो कारण बताने लगे। एक किसान ने कहा कि छोटे किसानों की ज़मीन अक्सर अंदर या पीछे होती है। बड़े किसानों की ज़मीन सड़क के पास। नतीजे में बिजली विभाग वाले सर्वे के लिए नहीं आते। खंभा और तार बिछाने का खर्चा और डिपोज़िट भी हम भरते हैं। हमने कहा यही कम है कि आठ घंटे बिजली मिल रही है। छोटे किसान का जवाब था कि २४ घंटे भी मिलती है जो हमारी बस्ती में आती है। हम घर में २४ घंटे बिजली लेकर क्या करेंगे। टीवी देखना है क्या? खेत में आठ घंटे वो भी महंगी बिजली। साथ ही पानी के लिए भी बड़े किसानों पर मेहरबान हैं। ट्यूबवेल लगाने के लिए सरकार से अनुमति चाहिए। छोटे किसानों को अनुमति मिलने में लंबा वक्त लगता है। लिहाज़ा हम पानी के लिए पटेलों या बघेलों पर निर्भर हैं। अहमदाबाद बड़ौदा एक्सप्रैस वे के कारण हमारे खेतों में बरसात के बाद लंबे अर्से तक पानी जमा रहता है। जिससे फसल बर्बाद होती है और खेत खराब होते हैं।
सरकारी कर्मचारी- पांच लाख सरकारी कर्मचारी पूरी तरह से खुश नहीं हैं। कई बार नरेंद्र मोदी की महिला रैलियों के लिए औरतों को जुटाने का जिम्मा इनके हवाले किया गया। अनाप शनाप आदेश मानने के लिए बाध्य होना पड़ा। अच्छे प्रशासन का लाभ इन्हें नहीं मिला। जबकि नरेंद्र मोदी की नीतियों को लागू करने के लिए इनकी मेहनत का कोई नतीजा नहीं निकला। सरकारी कर्मचारी नाराज़ हैं।
ग्रामीण मध्यमवर्ग और शहरी गरीब-गुजरात की अमीरी का इतना गुणगाण हो रहा है कि इस तबके को लगता है कि उसके साथ मज़ाक हो रहा है। यह वो तबका है जिसे लगता है कि उसकी हालत तो वैसी ही है। बदला क्या है? अच्छी सड़क या बिजली ही विकास नहीं है। रोज़गार में हिस्सेदारी और स्वास्थ्य और शिक्षा का हाल भी देखना होगा। आणंद ज़िले की ही सरकारी वेबसाइट कहती है ज़िले के ढाई सौ सरकारी प्राथमिक स्कूलों में से डेढ़ सौ में एक या दो टीचर हैं। गरीब और मध्यमवर्ग के बच्चे यहां पढ़ते हैं। उनका कहना है कि यह स्वर्ण नहीं बल्कि सवर्ण गुजरात है।
विकास और भ्रष्टाचार- नरेंद्र मोदी देवघर बारिया की एक सभा में चिल्लाते हैं। मुझ पर हिटलर, तानाशाह और मौत का सौदागर होने का आरोप लगा। लेकिन भ्रष्टाचार का एक भी नहीं। मगर भीड़ दमदार ताली नहीं बजाती। रैली के बाद एक दुकानदार जहां हम नाश्ता कर रहे थे, कहता है भाजप के साथ अब सब नहीं हैं। क्यों? कहते हैं सड़क बनी तो ठेका सिर्फ भाजप और उसमें भी नरेंद्र मोदी के समर्थकों को मिला। वही लोगों ने बनाया वही लोगों ने खाया। जो लोग सायकिल से आते थे अब इनोवा से आते हैं। दुकानदार ने कहा कि आपने गौर नहीं किया। नरेंद्र मोदी कहते हैं मुझ पर आरोप नहीं लगा। लेकिन पार्टी के बारे में नहीं बोलते। नहीं कहते कि पार्टी का कोई भी एक कार्यकर्ता भ्रष्टाचार के आरोप में जेल नहीं गया। जबकि हकीकत यह है कि एक पूर्व सांसद, विधायक भ्रष्टाचार के आरोप में जेल में हैं।आणंद के विधायक दीपक पटेल का टिकट इसलिए काटा कि उन्होंने अस्सी करोड़ रुपये का कोपरेटिव घोटाला किया है। आणंद में गुजरात की गद्दी कार्यक्रम की रिकार्डिंग के बाद बीजेपी के ज़िला स्तर के प्रभारी मंत्री कहते हैं आप अहमदाबाद जा रहे हैं तो शहर से पहले ही मेरा वॉटर पार्क और रिज़ार्ट है। वहां रुक कर एन्ज्वाय कर सकते हैं। मैंने कहा जी शुक्रिया। ये बीजेपी के ज़िला स्तरीय छुटभैया नेता की तरफ से मीडिया को की गई नाकाम पेशकश थी।
आदिवासी- पंचमहल का भीतरी इलाका। सड़क बहुत अच्छी है। मगर एक आटो वाला कहता है कि आदिवासी लोगों के पास पैसा नहीं होता। बहुत गरीब हैं। पांच रुपये का किराया भी नहीं दे पाते।इसलिए दो रुपये में छत पर बैठ कर जाते हैं। सरकारी बस का किराया आटो के किराये से सिर्फ एक रुपया महंगा है। फिर भी वो आटो में चलते हैं। इनकी गरीबी में कोई सुधार नहीं आया है। एक आदिवासी ने कहा गरीबी तो नहीं बदली साहब। सड़क अच्छी हो गई है। समझ में नहीं आता इस अच्छी सड़क का क्या करें।
वीएचपी- मेरे कार्यक्रम में आए बीजेपी के एक कार्यकर्ता कहते हैं मोदी जी का जवाब नहीं है। मैंने पूछा कि फिर विश्व हिंदू परिषद क्यों अलग है? अगर हिंदुत्व का इतना ही भला हो गया तो वो नराज क्यों हैं? वो मुझे अपनी होंडा सिटी कार में आणंद के कैफे कॉफी होम में ले गया। हॉट ब्राउनी का आर्डर दिया और बोला कि वीएचपी वाले ज़मीन मांग रहे थे। कहीं आश्रम बनाना था तो कहीं दफ्तर बनाना था। सरकार ने नहीं दिया। इसलिए नराज़ हैं। बड़ौदा के वीएचपी के अध्यक्ष अतुल जोशी से हमारी बातचीत होने लगी। मेरा सवाल था-
क्या नरेंद्र मोदी हिंदुत्व के नेता हैं?
अतुल जोशी- आपको बेहतर पता होगा।
क्या नरेंद्र मोदी ने हिंदुत्व के लिए काम किया है?
अतुल जोशी- आपको पता होगा।
हिंदुत्व के हज़ार नेता हैं। क्या नरेंद्र मोदी एक हज़ार में एक नेता हैं?
अतुल जोशी- आप मालूम कर लो।
इस जवाब से मैं सकते में आ गया। अभी तक बातचीत कैमरे पर हो रही थी। मैंने कैमरा बंद कर दिया। बोला ऑफ द रिकार्ड बोलिये। जोशी जी कहते हैं नरेंद्र मोदी हिंदुत्व का झंडा लिये घूमते हैं लेकिन दंगों में नाम किसका आता है। हमारे लोगों का। कोई भी पकड़ा जाता है उसके आगे वीएचपी लिख दिया जाता है। और सत्ता नरेंद्र मोदी भोग रहे हैं। हिंदुत्व के इन पटीदारों, गोतियों का हाल देख समझ में आने लगा कि हिंदुत्व कुछ नहीं है। मोदीत्व तो और भी
कुछ नहीं है। सिर्फ मीडिया की जुगाली है।
इन्हीं सब असंतोष के छोटे छोटे कारणों से दो चार होते हुए लगने लगा कि गुजरात वाइब्रैंट नहीं है। नरेंद्र मोदी का एक छत्र करिश्मा नहीं है। इसीलिए लोग अब कहने लगे हैं कि नरेंद्र मोदी का जीतना फिफ्टी फिफ्टी है। किसी भी ज़िले में बात करता हूं सब कहते हैं फिफ्टी फिफ्टी है। नरेंद्र मोदी की जीत एकतरफा नहीं है। अगर जीत रहे हैं
17 comments:
क्या बढ़िया लिखा है और क्या बढ़िया पत्रकारिता।
शानदार
देखते हैं... दस दिन और। मोदी या तो उनचास में होंगे या एक्यावन में।
रवीश जी, आपका लेख पढ़ा। बहुत अच्छे ढंग से लिखा गया है । हो सकता है बहुत कुछ सत्य ही हो । हम आम जनता तो केवल जो देखते हैं उस ही को सत्य मान लेते हैं । हम लोगों से पूछ नहीं सकते कि तुम किसे मत दोगे, या क्या सरकार से तुम संतुष्ट हो आदि । आपके लेख की निम्न लिखित बातें मुझे थोड़ी सी अजीब लगीं ....
१ गरीब किसानों के खेत सड़क से दूर या पीछे होते हैं । क्या सड़क बनाते समय जान बूझकर ऐसा किया जाता होगा ? बिजली विभाग सर्वे के लिये नहीं आता , परन्तु यह भी कहते हैं कि २४ घंटे बिजली मिलती है ।
२ यह भी कि बड़ोदा अहमदाबाद एक्सप्रेसवे के कारण उनके खेत पानी में डूब जाते हैं । पर अभी पॉइन्ट १ में कहा गया था कि उनके खेत सड़क से दूर या पीछे होते हैं । अबकी बार क्या जानबूझकर गरीबों के खेतों को पानी में डुबाया गया ? पिछले पॉइन्ट में मुझे लगा कि वे सड़क पास ना होने से दुखी थे ।
३ बार बार हम यह सुनते आए हैं कि विकास के लिए अच्छी सड़कों आदि जरूरी हैं किन्तु गुजरात में इनका होना बेकार क्यों हो जाता है ? मैंने सैकड़ों बार पढ़ा है कि विभिन्न राज्यों में सड़क ना होने से गाँव वाले व आदिवासियों तक विकास नहीं पहुँच रहा या वे अपने बीमारों को सड़क के अभाव में हस्पताल नहीं ले जा सकते हैं । या वे अपने उत्पादों को बेच नहीं पाते हैं ।
४ मैंने जितना गुजरात देखा है, जो बहुत कम है , उसमें मैंने वह गरीबी नहीं देखी जो अन्य राज्यों में देखी है । उतनी अराजकता नहीं देखी जो अन्य राज्यों में है । आज से ३० साल पहले के बिहार में यदि हमें सोना होता था तो हममें से कुछ को रात भर पहरेदारी करनी होती थी तब शेष लोग सो सकते थे । सप्ताह में दो बार शिफ्ट में यह पहरेदारी देनी होती थी । यहाँ मैं चोरी डाके के लिए इतनी चिन्तित नहीं रहती । आन्ध्रा में नक्सलवादियों का डर बना रहता था । वहाँ एक आम आदमी किसी रेड्डी से आँख मिलाकर बात नहीं कर सकता था । यहाँ हम सोच भी नहीं सकते कि कोई भी जाति किसी अन्य जाति को इतना डरा सहमा के रख सकती है ।
यहाँ मुझे बचा खाना लेने वाला कोई नहीं मिलता । पुराने कपड़े लेने वाला कोई नहीं मिलता । आसानी से कामवाली या नौकर नहीं मिलते । जो मिलते हैं वे भी दयनीय नहीं होते, उनमें आत्मविश्वास व आत्मसम्मान भरा होता है । यह किसी भी समाज में गरीबी और दीनता या उसकी उन्नति का दर्पण होता है ।
मोदी शायद ना जीतें या जीत जाएँ , परन्तु गुजरात सदा जीतेगा । यदि किसी तरह २००२ की गल्तियों का हम पश्चात्ताप कर सकें तो गुजरात जैसा कोई राज्य नहीं है ।
मुझे आशा है कि आप मेरी बातों को उसी भावना से लेंगे जिस भावना में मैंने लिखा है ।
घुघूती बासूती
इसमें तो कोई शक नहीं कि गुजरात की सड़के बेहतरीन हैं। लेकिन क्या अच्छी सड़क का होना ही विकास का अंतिम सत्य है। मैं उन छोटी छोटी दरारों को देख रहा था कि जो वाइब्रेंट गुजरात के बाद भी है। इसमें मोदी के खिलाफ कोई पूर्वाग्रह नहीं है।
ज़मीन वितरण का नक्शा देखें तो ज़मींदारों या पटेलों की ज़मीन सड़क के पास होती है। उनकी जोत का आकार बड़ा होता है। यह लगभग हर जगह है। एक्सप्रैस वे के कारण खेतों में जलजमाव होता है। तीन महीना। तब वो परेशान होते हैं।
गुजरात में लड़कियों को घूमने की आज़ादी है। देर रात तक। सिर्फ जन्म लेने की आजादी नहीं है। पंजाब हरियाणा के बाद सबसे अधिक गुजरात में भ्रूण हत्या होती है। इन दिनों सुधार हुआ है। फिर भी औरतों को लेकर गुजरात बाकी राज्यों से अलग नहीं है।
गुजरात के विकास में यह देखना होगा कि वहां के सरकारी अस्पताल कितने बेहतर हुए हैं। यह मैं नहीं देख पाया। हो सकता अच्छे हों।
रही बात गरीबी की तो पंजाब में भी लगता है कि वहां गरीब नहीं है। मगर पंजाब की अमीरी का नशा उतरने लगा है। भगवान करे गुजरात में ऐसा नहीं हो। लेकिन आदिवासी इलाके में बहुत गरीबी है। लोग आज भी मजदूरी ३० रुपये से अधिक नहीं देते हैं।
बिजली २४ घंटे मिल रही है। लेकिन खेती के लिए सिर्फ ८ घंटे। वो भी रात में। वो भी बिजली की दर अधिक है। कोई भी सरकार अधिक बिजली दर के आधार पर चुनाव नहीं जीत सकती। अगर इसके बाद भी जीतती है तो गुजरात एक तरह से कानूनी समाज हो रहा है। यह राजनीति के लिए अच्छा है।
शहरी गुजरात वाकई अमीर है। ग्रामीण गुजरात में वैसी खुशहाली नहीं आई है जिसमें सब भागीदार हो सकें। हां यह भी एक सत्य है कि खेती में फिलहाल संकट नहीं है। फसलें बर्बाद नहीं हुई हैं। मगर खेती की लागत, कमाई आदि मुद्दों को किसी ने ध्यान से नहीं देखा।
गुजरात की बात बिहार से तुलना कर नहीं हो सकती। गुजरात की तुलना गुजरात के संदर्भ में ही होगी। नरेंद्र मोदी ने विकास की बात की है। ऐसे कर रहे हैं जैसे सारा काम कर दिया हो। तब भी एक बात है। चाहे जितना कपड़ा खरीद लें। हर मौसम में कुछ नया खरीदने का मन करता है। विकास के नाम पर वोटर को उपभोक्तावादी बनायेंगे तो इसकी कीमत चुकानी पड़ सकती है।
modi agar jitta hai to phir to wo sava ser ho jayega . is sher ko gujrat ke logo ko ya to nathna hoga ya bhingi billi....
अच्छी पत्रकारिता
गुजरात पर आपका ये नजरिया कहीं-कहीं मुझे पूर्वाग्राही दिखने लगता है। मैंने कल आपका गुजरात की गद्दी कार्यक्रम देखा था। बहुत अच्छे से किया आपने लेकिन, ये साफ दिख रहा था कि भाजपा के लोगों के सही-सीधी बात बोलने पर भी आप जल्दी से माइक लेकर एक विरोधी टिप्पणी के साथ सीधे कांग्रेस को जवाब की भूमिका के साथ थमा देते थे। मैं खुद आपकी रिपोर्टिंग शैली का कायल हूं। लेकिन, इस तरह से देखने पर कभी-कभी लगता है कि कुछ एक पक्ष हावी तो नहीं हो रहा है। मैं भी अभी गुजरात के सौराष्ट्र इलाके से लौटा हूं। मुझे जैसा गुजरात दिखा आप भी देखिए और समय मिले तो, टिप्पणी जरूर दीजिएगा।
http://batangad.blogspot.com/
हर्ष
मुझे तो बीजेपी के लोगों ने कहा कि मैं बड़ा संतुलित था। सबने मेरे साथ तस्वीर खींचाई और कहा कि पहली बार हमें कोई ऐसा मिला है जिसका अपना कोई पूर्वाग्रह नहीं था। मैं तब भी हंस रहा था। और पूरी ईमानदारी से कहा कि व्यक्तिगत सोच से आपकी राजनीति का विरोधी हूं। और यह मेरा हक है। तब बीजेपी के नेता ने कहा कि लेकिन कार्यक्रम में नहीं लगा। खैर क्या दिखता है क्या लगता है इसे दर्शकों की स्वतंत्रता पर छोड़ देना चाहिए। इसे अतिरिक्त रुप से न देखें कि मैं माइक जल्दी से ले रहा था। कांग्रेस वालों को भी उतनी ही देर के लिए दे रहा था। रही बात मोदी को लेकर पूर्वाग्रह की तो कोई पूर्वाग्रह है ही नहीं। व्यक्तिगत सोच में चाहता हूं कि हारे। पेशेगत काम में इस भाव को लाने से बचता हूं। आप दोनों लेख को देखिये। जब शहरों में घूम कर आया तो लिखा कि सब मोदी की तारीफ करते हैं। जब गांवों से लौटा तो लगा कि तस्वीर कुछ अलग भी है। भले ही पूरे गुजरात में एक ही आदमी मोदी का विरोधी है लेकिन उसकी बात लिखने भर से पूर्वाग्रह साबित नहीं हो जाता है। औऱ यह पूर्वाग्रह नहीं है। मोदी जीत जायेंगे और जीत जायें मुझे कोई फर्क नहीं पड़ता। गुजरात के लोगों की मर्जी जिसे वे नेता चुनना चाहें चुन लें। लेकिन बहुमत की भीड़ में एक या अल्पमत की कहानी कहने से घबराना नहीं चाहिए। सोने की अंगूठी के नीचे भी काई लग जाती है। उसकी सफाई करनी होती है। भले ही आप बहुत दिनों तक अंगूठी की काई नहीं देख पाते लेकिन एक दिन जब भी नजर पड़ती है तो उस काई को हटाते हैं। ऐसा करना हमेशा सोने की चमक के खिलाफ नहीं है। बल्कि सोने के पीछे की हकीकत को भी देखना है।
सौ बार बोल चुका हूं कि गुजरात एक विकसित राज्य है। आप कहीं से भी लौट कर लिखिये। अगर मैं इस अमीरी के जश्न में एक्सप्रेस वे पर पैदल जाते हुए सिर्फ एक आदमी की दास्तां लिखता हूं तो यह उस अमीरी को झुठलाना नहीं है। बल्कि तमाम कहानियों में एक कहानी जो़ड़ना है।
Ravish bhai,Meri apani political gut feeling kehati hai ki is bar modi har jayenge...bharatiya rajaniti ke lagabhag atal niyam yani anti incumbency se modi ke bachane ki sambhavana kam hi dikha rahi hai...
मुझे नहीं पता कि गुजरात का जनादेश क्या होगा। मोदी जीतेंगे, हारेंगे। यह भी अंदाजा है कि गुजरात के चुनाव राष्ट्रीय राजनीति में विचारधारा औऱ व्यक्तित्व की लड़ाई की दिशा तय करेंगे। पर पता नहीं क्यों पिछले कुछ दिनों से आपका चैनल देखने का मन नहीं करता। इसे आप एनडीटीवी परिवार के फीडबैक के रूप में लें, न की अपने। गुजरात चुनाव के दौरान लगता है कि जैसे एनडीटीवी खुद एक पार्टी बन गया है,और एक मात्र एजेंडा है मोदी की हार। हो सकता है यह एजेण्डा सोचा समझा हो या हकिकतन वहां की कहानी ही कुछ एसी ही हो लेकिन हर चुनाव में विकास को मुद्दा बनाने वाला मीडिया यहां समुदाय और जातियता को न केवल मुद्दा बना रहा है ब्लकि उसे हावी भी करता रहा है। आपका एिग्जट पोल देखा, जातिय तस्वीर के जो स्विंग दीखाए जा रहे थे। माशाअल्लाह। खैर मतदान हो चुका है। परिणाम आ जाएगा। जो भी होगा पर , मीडिया की ताकत दांव पर है। मीडिया कर्मी होने के नाते सोचता हूं कि मीडिया जीते पर दर्शक पाठक के रूप में मेरी प्रार्थना है कि मीडिया की इस निरंकुशता पर कुछ तो अंकुश लगे औऱ मीडिया इतना सक्रिय पार्टनर न बन सके इतनी शक्ति इन वोटिंग मशीनों के परिणाम में हो। हां, रही भाजपा के लोगों की आपको निष्पक्ष कहने की तो यकिन मानिए कि टीवी पर दिखने औऱ कैमरे के सामने वर्जन देने के मोह से बड़े बड़े प्रवक्ता नहीं बच पाते तो वे तो साधारण कार्यकर्ता रहे होंगे, जिनके लिए आप उस समय भगवान थे। आप का कहा हर वाक्य उस समय ब्रह्म वाक्य रहा होगा। यही तो वो ताकत है, नशा है जो मीडिया से मीडिया वालों को मिलती है।
अभिषेक
अभी तक यह कभी भी साबित नहीं हुआ है कि मीडिया राजनीतिक परिणाम को प्रभावित करता है। उत्तर प्रदेश के चुनाव को ले लीजिए। किसी को भनक नहीं थी कि मायावती को संपूर्ण बहुमत मिल रहा है। हर चुनाव में विश्लेषण में जातिवादी चीजे होती हैं। क्योंकि वोट देने का एक बड़ा फैक्टर है। अच्छा है कि कई लोग अब जाति के आधार पर वोट नहीं देते मगर यह एक बदलाव भर है। हकीकत में सियासी नतीजे जातिय नतीजे भी होते हैं। रही बात मोदी के खिलाफ की। तो कम से एक को खिलाफ रहने दीजिए। बाकी सब तो गुण गा ही रहे हैं। मै इसे तारीफ के रूप में लूंगा कि सिर्फ एनडीटीवी का नाम मोदी के खिलाफ सुनता हूं। कोई चैनल होना चाहिए जो धारा के विपरीत कहे। भले वो आपको पसंद न हो या फिर एक दूसरी हकीकत हो जिसके दिखाने से मोदी की जीत पर कोई फर्क नही पडता है। कोई एजेंडा नहीं है। हां एक एजेंडा है। सामाजिक सांप्रदायिक सदभावना से विकास बड़ा नहीं है। तब बड़ा है जब विकास के सहारे सदभावना बन रही हो। अगर नहीं बनती है तो वह विकास बेमतलब
रवीश जी, बात पसंद ना पसंद की नहीं है। धारा के विपरीत बहना ही लक्ष्य है तो आपकी संपादकीय टीम को बधाई। उम्मीद है एनडीटीवी धारा के विपरीत बहने की यह नीति हर औऱ जारी रखेगा। जहां तक मीडिया के चुनाव परिणाम प्रभावित होने की बात है तो अच्छा है कि यह अभी तक संभव नहीं हुआ है। जिस दिन यह संभव हो गया, तय मानिए इस देश के असली कर्णधार मीडिया मुगल कहलाने वाले लोग ही होंगे। औऱ इन मीडिया मुगल्स को सहना मीडियाकर्मियों के बस में भी नहीं होगा। मीडिया को यह ताकत नहीं मिले तब तक ही मीडिया मीडिया रह पाएगा। विकास औऱ साम्प्रदायिक सद्भाव की बात तो अपने अपने तर्क को प्रतिष्ठित करने के लिए बढ़िया है। वैसे भी विकास कभी सद्भभाव का हमराही नहीं रहा। एक पुराना अनुभव शेयर करना चाह रहा हूं, पिछले राज्य विधानसभा चुनाव के दौरान चुनाव कवर करने के दौरान एक बड़े नेता, जो उस क्षेत्र से लगातार छह बार जीते थे, अभी सातवीं बार विधायक हैं, के क्षेत्र में मतदाताओं से बात हुई कि काम नहीं करवाते तो वोट क्यों देते हो, लोग बोले नहीं आदमी बोत बढ़िया है, मुसीबत में काम आवे है। उनके एक सरपंच कहने लगे आप भी कैसी बात करते हो काम करवाने से कहीं वोट मिलते हैं, मैंने कहा कम से कम हैण्डपंप तो लगवाते, जवाब मिला अजी दो हैण्डपम्प लगते, गांव हैं छह, दो में लगते तो चार गांव के लोग नाराज हो जाते, जितने वोट नहीं मिलते उससे ज्यादा कट जाते। अभी सब जगह एक सा मामला है, कोई चक्कर नहीं, कोई राजी नहीं तो कोई बेराजी भी नहीं, बाकी तो वोट उन्हें ही मिलेंगे।,,, उम्मीद है बात ज्यादा लम्बी नहीं हो गई। पर हां, आपको मोदी विरोध मुबारक, अपन तो केवल विरोध के लिए विरोध को थोड़ा कम श्रेयस्कर मानते हैं.....
रवीश आपकी बात एकदम सही है। मुझे एकदम से ये नहीं लगा। मैंने पूर्वाग्रह सिर्फ कुछ संदर्भों पर देखा था। अब जैसे गुजरात में कन्या भ्रूण हत्या पर ही लीजिए। आप खुद ही बता रहे थे कि इधर ये आंकड़े कम हुए हैं लेकिन, बार-बार ये बता रहे थे कि इस मामले में गुजरात पंजाब और हरियाणा के बाद है। वैसे अच्छा है कि देश का एक राज्य इस स्थिति में पहुंच गया है कि वहां सड़क-पानी-बिजली के आगे कन्या भ्रूण हत्या चुनावी मुद्दे में शामिल हो रहा है।
मैं राजकोट में चुनाव के समय कारोबार की स्टोरी कर रहा था तो, मैंने शहर में मुस्लिम ब्रोकर खोजने की कोशिश की तो, पता चला कि ब्रोकर तो नहीं एक सब ब्रोकर है। बाद में मेरे स्ट्रिंगर महोदय चौंके कि ये तो संभवत: राजकोट का अकेला मुस्लिम सब ब्रोकर है। आपको कहां से मिला। और, मैंने उसकी बाइट इसी बात के साथ लगाई कि मोदी के विकसित गुजरात के राजकोट शहर में मुझे खोजने पर बड़ी मुश्किल से एक मुस्लिम सब ब्रोकर मिला। लेकिन, महबूब नाम के उस सब ब्रोकर ने भी कहा कि गुजरात में सरकार की वजह से तरक्की हो रही है और तरक्की होने पर हमें भी उसमें हिस्सा मिलता है।
हर्ष
नहीं गुजरात में काफी मुस्लिम ब्रोकर है। सैंकड़ों। पार्सोलि कार्पोरेशन से बात कर लेते। नाडियाड आनंद या अहमदाबाद के सर्खेज इलाके में बहुत सारे मुस्लिम नौजवान ट्रेडिंग में आ रहे हैं। अगर मैं ब्रोकर का मतलब ठीक ठीक समझ रहा हूं तो।
इसमें कोई शक नहीं कि गुजरात में विकास हुआ है। शहरों में तो मुझे कोई मिला ही नहीं जो मोदी के विरोध में बोलता हो। तभी मैंने पहले लेख मे लिखा था कि मौदी ही जीतेंगे। मेरी राय मेरी व्यक्तिगत सोच से नहीं बदलती। गांवों में घूमने के बाद जब लोगों ने कुछ औऱ कहा तब जाकर फिफ्टी फिफ्टी लिखा। गुजरात की जनता जिसे चाहे चुन ले। वह स्वतंत्र है उसी तरह मैं भी स्वतंत्र हूं नरेंद्र मोदी के बारे में पेशेगत और व्यक्तिगत राय रखने के लिए। होंगे कहीं के महान। हमें क्या करना। अगर गुजरात को स्वर्ग बना ही दिया है तो अच्छी बात है। फिर तो सबसे पहले बीजेपी के बागियों को मार के निकालना चाहिए। जो अपनी पार्टी के ऐसे रामचंद्र का विरोध करने लगे। और ऐसी बात नहीं कि तमाम मीडिया मोदी का विरोधी है। इस तर्ज पर एक दो ही खरे उतरेंगे। बाकी मोदी के समर्थक ही हैं। इससे तो मोदी जी को संतोष कर लेना चाहिए कि मीडिया का एक बड़ा हिस्सा उनका समर्थक है।
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