पी चिदंबरम उदास हैं। दंतेवाड़ा में हुए हमले के बाद उनकी जो भी तस्वीरें छप रही हैं,उनमें एक किस्म की उदासी है। घटना की नैतिक ज़िम्मेदारी की भंगिमा समझ नहीं आई। चिदंबरम ने क्या सोचा था? युद्ध भी करेंगे और जान भी नहीं जाएगी। जान तो दोनों तरफ से जानी है। यही तो कहा जा रहा था कि अपने लोगों पर गोली कैसे चलायेंगे। खून चाहे इधर बहे या उधर बहे, अपना ही है। नक्सल समस्या को सामाजिक आर्थिक बताते बताते कांग्रेस अचानक चिदंबरम के नेतृत्व में नक्सलियों को आतंकवादी बताने लगी। मीडिया का इस्तमाल होने लगा। एक भाषाई मीडिया के ज़रिये चिदंबरम अपनी बात को आखिरी उपाय की तरह पेश करने लगे। चिदंबरम को जानना चाहिए कि इंग्लिश मीडिया का असर उनके सत्ता प्रतिष्ठानों के गलियारे में है। जनता में नहीं है। अपने बगल की ताकतवर इंग्लिश मीडिया के ज़रिये एक माहौल बना रहे थे कि नक्सलवाद से लड़ना है। इस दौरान चिदंबरम ने एक बार भी यह समझने की कोशिश नहीं की कि समस्या का आधार क्या है। क्या हिंसा ही आखिरी रास्ता है। बातचीत और हिंसा छोड़ने की एकाध पेशकशों को छोड़ दें तो यही लगता रहा कि गृहमंत्री युद्ध के रास्ते पर ही चलेंगे। बीच में लगे कि यह रास्ता ठीक नहीं तो पुनर्विचार करने में भी हर्ज़ नहीं है। बीजेपी के बहकावे में न आएं कि हम पूरी तरह से साथ हैं। यह पार्टी खनिज माफिया रेड्डी बंधुओं को मंत्री बनाती है।
एक राज्य की मुसीबत यह है कि वह किस संविधान के तहत किसी सैन्य आन्दोलन को मान्यता दे। इस लिहाज़ से चिदंबरम ठीक हो सकते हैं लेकिन राज्य को बताना तो पड़ेगा कि समस्या क्यों हैं। युद्ध ही आखिरी रास्ता क्यों है। साठ साल में राज्य स्थानीय परंपराओं के अनुसार विकास का मॉडल बनाने में नाकाम रहा। आदिवासियों की ज़मीन और जंगल पर उनके अधिकार पर ठीक से बात नहीं की। दो तीन साल पहले अपनी बात सुनाने के लिए आदिवासी पैदल चलकर दिल्ली आए। नक्सलवाद आज तो नहीं पनपा। नक्सलबाड़ी का उदाहरण सामने है। किसी को तो बताना पड़ेगा कि नक्सलवाद को जनसमर्थन किस बूते हासिल है। कोई लेवी देकर नक्सलवाद का समर्थन नहीं बन सकता। नक्सलवादी होने का मतलब ही है राज्य से हिंसक टकराव। इस जोखिम काम के लिए कोई लेवी देकर अपनी जान नहीं देगा। विचारधारा को आधार कैसे मिल रहा है। क्या सरकार दिल पर हाथ रख कर कह सकती है कि उसकी तरफ से या उसकी शह पर उद्योगपतियों की तरफ से आदिवासियों का शोषण नहीं हो रहा है।
एक जटिल समस्या का सरल समाधान बंदूक नहीं है। अमेरिका बंदूक और बम के दम पर कहीं भी आतंकवाद को खतम नहीं कर पाया। बल्कि बढ़ गया। लिहाज़ा ओबामा को मुसलमानों का विश्वास हासिल करने के लिए नौटंकी करनी पड़ रही है। मुस्लिम सलाहकार रखे जा रहे हैं, अमेरिकी दूतावास की तरफ से इफ्तार तक दिये जा रहे हैं। चिदंबरम से ज्यादा मीडिया अमेरिका के पास है। फिर भी बुश को पब्लिक की नाराज़गी झेलनी पड़ी। मीडिया का असर सीमित समय के लिए ही होता है। इसके ज़रिये जनमत बनाने वाले हमेशा धोखा खाते रहे हैं। चिदंबरम भी जाल में फंस गए। उन्हें लगा कि कुछ संपादकों और मीडिया के ज़रिये वो जनमत बना लेंगे लेकिन जंगलों में तो कोई टीवी का चैट शो नहीं देखता न। उन लोगों से संवाद तो करना ही होगा जिन्हें आप नक्सलियों के चंगुल से मुक्त कराना चाहते हैं। सलवा जुडूम नाम का मज़ाक हुआ। सुप्रीम कोर्ट तक ने आलोचना की। सरकारों ने आदिवासियों के भीतर के अंतर्विरोध का नाकाम फायदा उठाने की कोशिश की। फेल हो गया। तो अब किस उम्मीद,रणनीति और फैसले से ग्रीन हंट का आगाज़ कर दिया गया।
सत्ताधारियों को मेरी सलाह है। मीडिया के ज़रिये जनमत बनाने पर पांच पैसा खर्च न करें। प्रोपेगैण्डा सरकार कर सकती है तो नक्सली भी कर सकते हैं। क्या आपने एक भी आदिवासी सांसद की बाइट सुनी? जिनके इलाके में युद्ध होगा उन सांसदों को किसी प्रेस कांफ्रेंस या टीवी चैट शो में बुलाया नहीं गया। नक्सल प्रभावित इलाकों के विधायकों, पार्षदों से बात नहीं की गई। ऊपर से थोपे गए युद्ध का यही हश्र होता है और उनके बीच से लोगों को फो़ड़ने के बहाने हुए सलवा जुडूम का हाल तो आप देख ही चुके हैं। सख्ती के नाम पर विनायक सेन जैसों के घर छापे डालकर जेल में बंद कर आप कुछ हासिल नहीं कर सकते।
सरकार और नक्सली के बीच सत्ता संघर्ष चल रहा है। एक स्टेट को बचाना चाहता है तो दूसरा स्टेट बनना चाहता है। राष्ट्रीय विचारकों का एक ग्रुप है जो नक्सलवाद के खिलाफ सैन्य अभियान का विरोध करता है। एक ग्रुप समर्थन करता है। एक ग्रुप सरकार के इस अभियान का विरोध करते हुए नक्सलवाद का समर्थक नहीं होना चाहता। एक ग्रुप नक्सलवाद के समर्थन में है। नक्सलियों ने अपनी तरफ से पेशकश नहीं कि वे सत्तासंघर्ष और सत्ता छोड़ने के लिए क्या चाहते हैं। उन्होंने ग्रीन हंट का जवाब तो दे दिया लेकिन इस समस्या का जवाब कैसे देंगे। क्या आदिवासियों की समस्या का नक्सलवाद ही एकमात्र समाधान है? स्थायी समाधान है? इस बात पर बहस तो करनी ही होगी। कोई ऐसा भरोसेमंद रास्ता क्यों नहीं निकल सकता? भरोसा नहीं है तो उसके बनने का इंतज़ार क्यों नहीं हो सकता।
सीआरपीएफ के जवानों की शहादत का सम्मान किया जाना चाहिए। इन जवानों के लिए कोई कैंडिल लाइट नहीं करेगा। स्क्रोल में नाम चलेंगे। फिर भी मीडिया ने इनकी तरफ से बात तो की ही है। इनकी समस्याओं को दिखाया है। असर हुआ या नहीं ये तो सीआरपीएफ के लोग जानते होंगे। बिना प्रशिक्षण के युद्ध में झोंक दिये गए। गोलियों से ज्यादा मच्छरों से मर जाते हैं। बस एक टुकड़ी को उठाकर यहां भेजा,वहां भेजा। अजीब अजीब किस्म की नैतिकता से टकराते रहे। अपने लोगों के खिलाफ सेना नहीं लगा सकते। अर्ध सैनिक लगा सकते हैं लेकिन सेना नक्सलियों से लड़ने के लिए अर्ध सैनिक बलों को ट्रेनिंग दे दे। नाक इधर से नहीं पीछे से घुमा के पकड़ ली। भाई सेना ही क्यों नहीं लड़ सकती है। सीआरपीएफ की बहादुरी पर कोई शक नहीं है। वे जाबांज़ हैं। लेकिन ये क्या नैतिकता है कि सेना अपने लोगों के खिलाफ नहीं लड़ सकती,अर्धसैनिक बल लड़ सकते हैं? वे क्या भारतीय नहीं है। सीआरपीएफ के सभी शहीदों को सलाम। वो कायरात में नहीं मारे गए। बहादुरी से लड़े। बस किसी और की जल्दबाजी का शिकार हो गए।
कैसे हुआ कि अस्सी जवानों को मार कर नक्सली तीस किमी पैदल चल कर जाते हैं और लापता हो जाते हैं। विश्वरंजन साहब ज्ञान दे रहे हैं कि इंटेलिजेंस जासूसी किताबों से पढ़कर नहीं आता। एक पूरी कंपनी खतम हो गई और आप अब भी कहते हैं कि बिना चूक के यह सब हो गया। नक्सलियों के तीन सौ लोग मोर्चे पर थे। पांच मिनट में तो कार्रवाई खतम नहीं हुई होगी। जब कोई घायल सिपाही यूपी के मुज़फ्फरनगर फोन कर सकता है तो किसी सेंट्रल कमांड तक बात कैसे नहीं पहुंची होगी। तब सीआरपीएफ ने क्या एक्शन लिया। कितने हेलिकाप्टर आसमान में उड़ाए गए नक्सलियों की तलाश में। यह तो बताना होगा न। जबकि हमला तो सुबह हुआ था।
नक्सलियों ने प्रेस रीलीज में लिखा है कि उनकी तरफ से आठ कमांडर मारे गए हैं। सबका शहीद की तरह गांव के सैंकड़ों लोगों के बीच अंतिम संस्कार किया गया। क्या सरकार को नहीं मालूम था। अगर वाकई सरकार को पता नहीं चला तो उसे यह अभियान वापस ले लेना चाहिए और विश्वरंजन जी को जासूसी उपन्यास पढ़ने चाहिए। जितनी तैयारी चिदंबरम और उनकी सेना ने प्रेस कांफ्रेस और टीवी स्टुडियो के ज़रिये माहौल बनाने के लिए की,उससे कुछ कम तैयारी में सैनिकों को प्रशिक्षित करने में करते तो इतने जवानों की शहादत नहीं होती। नक्सली राजधानी एक्स्प्रेस की पटरी उड़ा देते हैं, ट्रेन को अगवा कर लेते हैं। सरकार को क्यों नहीं पता चलता है। सरकार को अभी तक कोई बड़ी कामयाबी नहीं मिली है। इसका मतलब है कि यह समस्या जंग से दूर नहीं होगी।
नक्सलवाद के समर्थन और सरकार के विरोध में लाइन ली जा सकती है। ठीक इसके उलट भी लाइन ली जा सकती है। सरकार ने असम समस्या का हल भी तो बातचीत से ही निकाला था। सिख आतंकवाद से लड़ने के लिए किया गया आपरेशन ब्लू स्टार देश पर कितना भारी पड़ा। अंत में बातचीत तो करनी ही पड़ी। मुस्लिम आतंकवाद के नाम पर उन्माद फैलाने की कोशिश ने इस देश को क्या दिया। गोधरा से गुजरात तक के दंगे। कश्मीर में भी संवाद करना पड़ा। आज एकतरफा बातचीत के कारण मोदी गुजरात में ही सीमित रह गए। चिदंबरम भी एकतरफा फैसले के कारण आज खुद को कमज़ोर महसूस कर रहे हैं।
सरकार को बातचीत की मेज़ पर आना ही होगा या फिर यह बताना होगा कि जब बाकी समाज से आप इतनी सहानुभूति रखते हैं तो आदिवासियों से क्यों नहीं रखते। बाकी समाज में तो इतने सारे संगठन और नेता सक्रिय हैं जो मोर्चा संभाल लेते हैं। क्या आप एक भी आदिवासी नेता का नाम बता सकते हैं जो अपने स्वतंत्र विचार से ग्रीन हंट का समर्थन या विरोध करता हो। सुना ही नहीं होगा। संवाद ही आखिरी रास्ता है। संवाद होगा तो आप आदिवासियों के अधिकार की बातें सुनेंगे। यह नहीं कहेंगे कि यह रही गरीबी हटाने की साठ साल की नाकाम योजना। इसे ले लीजिए। पीएम ने बनाया है। जंगलों पर उनके अधिकार की बात दिल्ली से कीजिए। माइनिंग कानून बनाने की बात से पहले आदिवासियों से कीजिए। कर्नाटक के रेड्डी बंधु का उदाहरण बताता है कि खनन के नाम पर चोरी कौन कर रहा है।
सरकार को साफ करना होगा कि मुंबई हमले के बाद जब अमेरिका के दबाव में बातचीत हो सकती है,युद्ध को टाला जा सकता है तो नक्सलियों से क्यों नहीं बातचीत हो सकती है। उन पर युद्ध थोपने का दबाव कहां से आ रहा है। जबकि इस सरकार के अनुसार नक्सल भी आतंकवादी है। एक आतंकवादी के खिलाफ आप युद्ध नहीं करते और दूसरे के खिलाफ करते हैं। नक्सल समर्थकों के नाम पर पत्रकारों और समाजसेवियों को बंद कर देने से काम नहीं चलेगा। मीडिया के ज़रिये दिल्ली के मध्यमवर्ग के बीच नक्सलवाद के विरोध में हवा खड़ा कर इस समस्या का समाधान नहीं हो सकता। मध्यमवर्ग को पार्टी मत बनाइये। नक्सल प्रभावित इलाके के लोगों को पार्टी बनाइये। बात कीजिए। चोर पुलिस का खेल मत खेलिये।