आडवाणी जी मनमोहन जी को ललकार ही नहीं बल्कि दुत्कारने भी लगे हैं। मनमोहन हैं कि दुत्कार प्रुफ होकर घूम रहे हैं।
मनमोहन टीवी पर बहस करने से मना कर देते हैं। आडवाणी अड़ जाते हैं। मनमोहन सिंह कहते हैं कि वे आडवाणी की तरह नहीं बोल सकते। बोलने को लेकर आडवाणी का यह आत्मविश्वास समझ में नहीं आता। इसी आत्मविश्वास के कारण जिन्ना विवाद में अपनी पार्टी के अध्यक्ष पद से हटा दिये गए थे। माफी मूफी मांगने के बाद वापस इन वेटिंग के पद पर लाए गए। आडवाणी खुद कह चुके हैं कि वे अटल जी जैसे अच्छे वक्ता तो नहीं है लेकिन मैं अच्छा भाषण देने की कोशिश करूंगा। सीख रहा हूं। इस टाइप से वे कई बार बोल चुके हैं। लेकिन अपने बोलने के कारण अपनी ही पार्टी में राजनीतिक दुर्घटना का शिकार सिर्फ आडवाणी ही हुए हैं। जब आप अटल जी टाइप तो बोल नहीं सकते,कहीं ऐसा तो नहीं मृदुभाषी मनमोहन की कमजोरी से प्वाइंट स्कोर करना चाहते हैं?
क्या बोलना चाहते हैं लाल कृष्ण आ़डवाणी मनमोहन सिंह से। क्या वाकई आडवाणी को लगता है कि दिल्ली विश्वविद्यालय के बेहतरीन संस्थानों में एक दिल्ली स्कूल ऑफ इकोनोमिक्स के क्लास रूम में मनमोहन बिना बोले पढ़ाते होंगे। सोनिया जी से पूछ कर अर्थशास्त्र की व्याख्या करते होंगे। इसी मनमोहन से पूछ कर नरसिंह राव ने नई आर्थिक नीति लागू की। इसी मनमोहन की बनाई आर्थिक नीति पर बीजेपी चलती रही। लाल कृष्ण आड़वाणी तब क्यों नहीं बोले जब जिन्ना पर बोलने के बाद संघ की डांट से कुर्सी छोड़ गए। बोलती बंद होने की मिसाल बन गए। मनमोहन तो बोलते ही नहीं हैं। कुछ प्रोफेसरों की आदत होती है।
और रही बात मनमोहन ने मना ही कर दिया तो कौन सी आफत आ गई। अमेरिका की इतनी नकल के लिए क्यों बेचैन हैं? अटल बिहारी वाजपेयी वक्ता थे। उन्होंने कभी नहीं कहा कि आओ मेरे साथ बोलने को लेकर मुकाबला कर लो। जबकि अटल जी के वक्त एक से एक वक्ता राजनीति में थे। आडवाणी जी क्या मनमोहन को कमज़ोर समझ कर दांव चला रहे हैं। यकीन दिला रहे हैं कि वही बोल सकते हैं, बाकी नहीं। क्या बोलना चाहते हैं? कांग्रेस के खिलाफ जो बोलना चाहते हैं, वो बोले न अपने मंच से। मनमोहन की किस आर्थिक नीति से अलग बोलना चाहते हैं,वो बोले न अपने मंच से। एऩडीए के समय स्वदेशी जागरण मंच की हालत देखी थी मैंने।
हमें बोल कर राजनीति में दबदबा बनाने वालों से सावधान रहना चाहिए। लालू प्रसाद यादव के मामले में धोखा खा चुके हैं। लालू अपने समय के बोलने वाले नेताओं में सबसे कारगर रहे हैं। लेकिन उनकी उपलब्धि भी यही रही कि वे बोलते ही रहे। काम नहीं कर पाये। टीवी की बाइट ने बीजेपी के कई नेताओं को इस भ्रम में डाल दिया कि वे ही कारगर बोलते हैं। अपने अपने इलाकों में धारधार भाषण देने वाले नेताओं की राष्ट्रीय स्तर पर चर्चा बंद हो गई। कांग्रेस ने भी बोलने के लिए दो वकील रख लिये हैं। वे भी बोलते हैं। चीख चीख कर बोलना राजनीति का अंग है। लेकिन बोलने से ही राजनीति का मकसद पूरा नहीं हो जाता। एनडीए के संयोजक जार्ज फर्नांडिस को पैदल कर दिया गया तब आडवाणी नहीं बोले। ममता चलीं गईं,तब आडवाणी नहीं बोले। नवीन पटनायक चले गए तब खुल कर नहीं बोले। अब भी यही बोलते हैं कि गलती हुई लेकिन संबंध इतने भी खराब नहीं हुए हैं। क्यों बोलते हैं बीच बचाव टाइप। बोलने वालों की श्रेणी में आना चाहते हैं तो आप भी अपनी मजबूरियों से निकल कर बोलिये न। अरुण जेटली बोलते हैं कि पार्टी में सुधांशु मित्तल टाइप लोग आ गए हैं। उन्हें हटाओ और पार्टी को दलालो से बचाओ। भैरों सिंह शेखावत बोल रह हैं कि पार्टी में दलाल आ गए हैं। इस पर तो आप बोल नहीं रहे। दूसरे के घर से किसी को बुलाकर बोलने की आदत छोड़िये। आप सिर्फ एक नेता हैं। पोलिटिकल बॉस नहीं हैं।
मनमोहन भी अपनी मजबूरियों के शिकार हैं। जैसे आप हैं। जैसे आप थे। जिन्ना के वक्त। कोई भी पार्टी लाइन से हट कर नहीं बोलता। बोल लेते न आडवाणी जी, एनडीए की मजबूरियों से हट कर कि हटो तुम,हम मंदिर बनाने जा रहे हैं। एनडीए के नाम पर क्यों बोली बदलते रहे? मनमोहन को भी यही बोला गया होगा कि पार्टी लाइन से हटकर नहीं बोलना है। आडवाणी जी एक बार बोल कर मिस्टेक कर चुके हैं तुम मत करना ऐसा। इसमें कमज़ोरी की बात कहां से आती है। हर नेता पार्टी लाइन पर बोलता है।
देश भर में ऐसे लाखों लोग हैं जो बिना बोले अपना काम करते हैं। उनकी यही शिकायत रहती है कि वे मेहनत करने के बाद भी आगे इसलिए नहीं जा सके क्योंकि उन्हें बोलना नहीं आता। फलां आगे निकल गया कि काम धेले का नहीं करता मगर बॉस को देखते ही बोलने लगता है। इम्प्रैस कर लेता है। ऐसे लोग ज़रूर आडवाणी से कुढ़ते होंगे। आडवाणी जी पब्लिक को इम्प्रैस करना चाहते हैं।
एक और बात है अमेरिका में सिर्फ एक या कोई दो बार ही ओबामा और मैक्केन आमने सामने हुए। उस भाषण से कुछ भी तय नहीं हुआ। अपने प्रचार के निन्यानबे फीसदी हिस्से में ओबामा ने अपने ही मंच से प्रचार किया। वो अपनी बात रख रहे थे और मैक्केन अपनी। लेकिन आडवाणी जी झांसा दे रहे हैं। जो आडवाणी की पार्टी की दलील है, उस पर कांग्रेस के छुटभैये बोल रहे हैं। जो कांग्रेस की दलील है, उस पर बीजेपी के छुटभैये बोल रहे हैं। कोई एकाध प्वाइंट बचाकर रखी हो आडवाणी जी ने तो अलग बात है। ये अलग बात है कि रैलियों में कष्ट हो रहा हो तो टीवी पर एक ही बहस कर चुनाव प्रचार निपटा देने का आइडिया बुरा नहीं। फालतू गांव गांव घूमने से क्या फायदा। भाषण तभी सुना और समझा जाएगा जब जनता बारी बारी से सबको सुनेगी। सोचेगी। अखाड़ा बूझे हैं का कि लंगोट कस के आडवाणी जी मनमोहन को बुला रहे हैं। हद हो गई है भाई।
20 comments:
रवीश जी
मैं आपके लेख के संबंध में कुछ सकारात्मक बातें उड़ेलना चाहता हूं। आडवाणी जी का ज़िक्र हुआ है, तो मैं जैसा समझता हूं- लालकृष्ण आडवाणी जिन संघी और अतिवादी संस्कारों की उपज हैं, वहां अतिरेक और बड़बोलेपन की हदें तय नहीं हैं। ये आत्ममुग्ध हैं, समझते हैं कि जो मैं कह रहा हूं वही ब्रह्म सत्य। विचारों में एकाधिकार की मुग्धता इन जैसे नेताओं को मंद मुस्काने पर मजबूर किये हुए है। इन्हें लगता है कि जो ये बोल रहे हैं, वही दुनिया सच समझेगी और उसे ही एनसीईआरटी के सिलेबस में शामिल कर लेना चाहिए, क्योंकि मैंने जो कहा है, उससे अच्छा, पवित्र और सर्वज्ञ क्या हो सकता है। न आदि, न अनादि। सर्वत्र मैं ही मैं हूं। मैं देश का इतना बड़ा नेता। जिस देश में मेजोरिटी एक खास धर्म की है, कभी मैंने उस धर्म के लोगों को एक साथ अपना कायल किया है। भले ही वह कृत्य राष्ट्रद्रोह के दायरे में आता हो, उससे क्या। अंततः नेता और वह भी मेरे जैसे दिव्य ज्ञानी तो राष्ट्र की संपत्ति हैं, धरोहर हैं। भला कौन मुझसे सकेगा। मैं जो हूं, वो कौन है। किसमें इतनी सलाहियत है कि मेरे जैसे आदमी के सामने खड़े होकर कुछ बोल सके।
आदरणीय आडवाणी जी, ज़रा आत्म मुग्धता से बाहर आइये। आप तो इतने जिगर वाले भी नहीं कि लिब्राहन आयोग के सामने खखस कर बोल सकें कि हां, हिन्दुओं की राजनीति करता हूं और मंदिर बनाने के लिए बाबरी मस्जिद को गिरवाया था। मैं खड़े होकर वहां मस्जिद गिरवा रहा था और इसका मुझे गर्व है। मैं दावा कर सकता हूं कि आडवाणी जी की धोती-पतलून गीली हो जायेगी, इस सच्चाई को स्वीकार करने में। वास्तव में संघी विचारधारा वाले लोग खुद को भगवान तो मान लेने के आदि होते हैं, लेकिन एक अच्छे भक्त जैसा आचरण भी अपने लिए तय नहीं कर पाते। इन्होंने मनमोहन सिंह को न्योता दिया, तो मुझे हंसी आ गयी। ईमानदारी से आज आप पृथ्वी के 10 सबसे ज्ञानी लोगों को चुनेंगे, तो उनमें मनमोहन सिंह भी एक ज़रूर होंगे। आडवाणी की एक मात्र उपलब्धि देश का साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण रही है। इसके लिए उन्हें देश की जनता साधुवाद देती है। जय हो, ओ सॉरी भय हो!!!
रांचीहल्ला
हमारे अंचल में एक कहावत है। पैरवी के लिए दस वकीलों का सामना करना हो तो आप वकील की जगह एक मुंहजोर लुगाई कर लो।...अब साहब मुंहजोरों की चर्चा ही क्या करनी। ..सरदार मनमोहन सिंह ने कहा भी है कि न तो तेज बोलने से या धारा प्रवाह बोलने से बात का वजन नहीं बढ़ जाता।
ndtv india ke muqabala me to pata chal hi gaya ki page no.435 me aadwani ji ne kya likha tha ....
बोलने के चककर में ही पाकिस्तान में कुफ्र बोलकर आये थें और फिर बोलती ही बंद हो गई थी....अब फिर से बोलने और बहस करने का दौरा पड़ा है.....आडवाणी को
NAMASKAR,
AAJ AAPAK BLOG DEKHA BAHUT BADHIYA LAGAA.
AAPNE SAHI LIKHA HAI KI ISE AAPKE KAAM SE JOD KAR NA DEKHA JAAYE.
AAPKE PROGRAAM KA TO HAR KOI PRASHANSAK HO SAKTA HAI. HAM TO HAIN HI.
SHEHS AB YAHAA AANA LAGAA RAHEGA.
ravish jee,
saadar abhivaadan. sach kaha hai aapne, jante hain mujhe bhaarat aur amreekaa ke loktantra mein yahee sabse bada fark najar aataa hai ki wahan bahas kaa vishay niji nahin balki vishwa kaa koi mudda aur usmein amreekaa hotaa hai, yahan ek doosre kee taang khichaayee se hee koi fursat nahin hotee.aapne hameshaa kee tarah saarthak lekh likhaa hai.
किसी का मितभाषी और साथ ही पुरुषार्थी होना वाकई उत्तम गुणों का संगम है .पर किसी कम बोलने वाले को टीवी का उद्दघोषक या रेडियो जौकि बना दिया जाए तो आपको कैसा लगेगा ?उसी प्रकार कुशल वक्तृता नेता होने के लिए पुर्वाकान्क्षित गुण है .वाक् कला का भी अपना महत्त्व है .प्रधानमंत्री का पद ऐसा है जिसके लिए वाकपटु और वाककुशल उम्मीदवार की आवश्यकता होती है .क्योंकि आपको अपने देश का प्रतिनिधित्व विश्व मंच पर करना होता है और दुसरे देशों के प्रतिनिधियों से बात करते समय दृढ़ता,दूरदर्शिता,हाजिरजवाबी और तीक्ष्ण तर्कबुद्धि के प्रयोग की आवश्यकता पड़ती है . आपलोग माने या न माने इसका कूटनीति पर बड़ा जबरदस्त असर पड़ता है.अब ये सब गुण वाले उमीद्वार न तो कांग्रेस पैदा कर रही है न ही बीजेपी .
हर कोई अपने-अपने क्षेत्र में महारथी हो सकता है .वाक् चातुर्य में मनमोहन सिंह आडवाणी से भले ही हार जाएँ पर बहस यदि अर्थशास्त्र पर निकल पड़े तो मनमोहन सिंह अपनी विद्वता से आडवाणी के दिमाग के दिवालियेपन को साबित कर सकते हैं .
हमलोग विकल्पहीनता के शिकार हैं .मेरे विचार से मनमोहन सिंह विद्वान अर्थशास्त्री हैं पर प्रधानमन्त्री पद का अच्छे से निर्वाह करने के लिए उनमे शशक्त वक्ता का गुण भी होना चाहिए था .राहुल को प्रधानमंत्री बनने के लिए अभी और राजनितिक अनुभव और परिपक्वता की आवश्यकता है .दूसरी तरफ आडवाणी जी बोलते तो हैं पर बेकार बातें ज्यादा .आत्मविस्मृत आडवाणी ,उनकी पार्टी और उनके पीछे की शक्तियों का मानसिक संतुलन देखकर हंसी आती है .उनका आम जनता से जुड़ाव कितना है पता नहीं ,कभी भी आम जनता की बदलती सोच और उसके नज्ब को टटोल ही नहीं पाते .खुद नयूक्लिअर डील जैसे देशहित के मुद्दे पर असहयोग किये . सिर्फ स्विस बैंक में जमा भ्रष्टाचार के काले धन के भूत से कान्ग्रेसिओं को डरा रहे हैं आतंकवाद और असुरक्षा भी तो ज्वलंत मुद्दा है. असल मुद्दों को जोरदार तरीके से न उठाकर और हिंदुत्व की संकीर्णता में रहकर अरचनात्मक राजनीति करने वाला ये गैरजिम्मेदार विपक्ष अपने पैर पर कुल्हाड़ी मारने पर उतारू है .यही हाल रहा तो जल्द ही लुप्त प्राय हो जायेंगे .रोजी रोटी के पीछे भागने वाली बहुसंख्यक जनता की प्राथमिकता अब राम मंदिर नहीं फिर भी अलापते रहते हैं .आज आबादी का ६० प्रतिशत पढ़ा लिखा वर्ग दो दशक पहले वाली अशिक्षित और मूर्ख जनता नहीं है जो सांप्रदायिक ध्रुवीकरण और दंगा का फार्मूला चलेगा .
इस देश को अक्षुणता के लिए धर्मवाद और जातिवाद से मुक्ति चाहिए .धर्म और जाती के नाम पर चुनावी भीख मांगने वालों को देखकर और वैसे पाखंडियों को देखकर मेरा मन दुःख से उद्विग्न हो जाता है जो मन में शैतानियत और देह पर धर्म लिए फिरते हैं चाहे वो किसी भी धर्म के हों .
1)"देश भर में ऐसे लाखों लोग हैं जो बिना बोले अपना काम करते हैं। उनकी यही शिकायत रहती है कि वे मेहनत करने के बाद भी आगे इसलिए नहीं जा सके क्योंकि उन्हें बोलना नहीं आता। फलां आगे निकल गया कि काम धेले का नहीं करता मगर बॉस को देखते ही बोलने लगता है। इम्प्रैस कर लेता है। ऐसे लोग ज़रूर आडवाणी से कुढ़ते होंगे। आडवाणी जी पब्लिक को इम्प्रैस करना चाहते हैं। "
रविश इस परिच्छेद में आपने बड़ी अच्छी शिक्षा दी है .लोग काम से बड़े होते हैं पदवी या बहस से नहीं .मसलन आज भी बहुत सारे सच्चे और उत्कृष्ट पत्रकार ,लेखक ,कवी या सामाजिक कार्यकर्ता सादा जीवन व्यतीत करते है और हवाई चप्पल लगा पैदल झोला लेकर घूमते हैं .ज्वलनशीलता से व्यक्ति का कद छोटा होता है और संतोष से बड़ा .
maaf kijiye Ravish ji...lekin aapka vichaar purvagraha se grasit hai...
rajniti samvad ke bina nahi ho sakti...
aur kyun nahi hona chahiye sirsh ke neta logo mein aamne saamne ki bahas.... koi bhi kis baat se jhijhkta hai... public sab jaanti hai...
थोथा चना बाजे घडा मालवा की कहावत है|
नदीम बढ़िया कहता है, और हरि भाई के तो कहने ही क्या हैं। ऐसे दो चार लेख और लिख दिये तो तैयार रहना बड़ी फजीहत करने पर उतारू हो जाएगें लोग। रविश ऐसा है, वैसा है, पूर्वाग्रह से ग्रस्त है, इसको कुछ नही दिखता। तो भाई ऐसा लिखने का मतलब है किराये के लिखने वालो को अपने पीछे लगा लेना। सोच लो!
आख़िर आडवाणी जी ने पीएम सिंह को डिबेट के लिए ललकार ही दिया तो कौन-सी ग़लती कर दी। हां, ये बिल्कुल सही है कि आडवाणी जी ने जब पाकिस्तान में बोला उनकी फजीहत का गई, लेकिन जितना आप लोगो ने किया, उतना उनकी पार्टी ने नहीं, आडवाणी जी कुछ बोले तो गुनाह ना बोले तो गुनाह, जैसा कि आजकल वरूण मामले में हो रहा है। बहुत खूब।
चलिए कोई बात नहीं, दस जनपथ रिमोट से संचालित होने वाले अपनी मर्जी से क्या बोलेंगे, वहां रोबोट का काम है, कम से कम आडवाणी जी कुछ बोलते तो हैं। रही बात आपके उदारीकरण जैसी नीतियों को लागू करने की उसमें उनका कितना बड़प्पन है और उससे देश का कितना भला हो रहा है, ये तो आप भी जानते हैं, अर्जुन सेन गुप्त की रिपोर्ट क्या कहती है।।।।।।।।।।
अब का कहें आडवाणी दद्दा के बारे में ....बस रहने दो अब
रात से टीवी देखा रहा है कि अब पोरफेसर साहब का भी मूड़-मिजाज बदला हुआ है।
excellent. advani ji yeh jante hain ki manmohan pyare kuch bol nahi sakte, isiliye unhe challenge kar rahey hain. humi ke gaon dene jaun aurat janal lisan ki u aurat kam bola liya to okra pura gaali delin san. yehi sthithi advani ji ki hai. aapne sahi kaha hai ki agar unhe bolna hai to munch par aakar bole. unka agenda manmohan agenda se alag hai uspar bole. indian economy system me manmohni agenda se woh kya alag kar rahe hain wo bole. sudhansu mittal ko lekar jo hua uspar to kuch bole nahi. bechare manmohan par pade hain. us manmohan par jo indian economy ka 18 years se saarthi ka kam kar raha hai.
ravish bhaiya, aapan dadan pahalwan, prakash jha aur sadhu yadav par kuch iccha ba padhe ke.
it is always pleasure to read your blog.You inspired me to write below poem.
पॉलिटिकल atyachar
देखो देखो हो रहा राजनीति का बलात्कार
मजबूत नेता , निर्णायक सरकार।
पहन लिया लंगोट आडवानी ने
६ पैक्स बना लिए हैं कुरते के अन्दर
रोज दंड पलते हैं और कुश्ती लड़ते हैं
बौर्न्विता, होर्लिक्क्स पी कर हो गए hain तैयार
मजबूत नेता, निर्णायक सरकार
आज कल जहाँ देखो उन्हीं का चर्चा है
हर वेबसाइट पर उन्हीं का पर्चा है
न जाने कितना खर्चा है
आख़िर क्यों कर रहे हैं ओबामा को कॉपी काट
राम जनम भुम्मी जैसे मुद्दे हैं बेकार
बस बंद करो यह पॉलिटिकल अत्याचआर
आडवानी जी प्रधानमंत्री बने या न बने
उनका दूसरा करियर आप्शन है तैयार
कुछ दिनों मैं दिखेगा , उनका शक्तिमान कोमिक्क्स मैं इश्तहार
मजबूत नेता, निर्णायक सरकार
बनाना ही हैं तो खली को प्रधान मंत्री का दावेदार बनाओ
उसको और खिलाओ , और तुम भी १० जनपथ ki taranh पाँच सल् सरकार चलाओ
कम से कम , मजबूत नेता का वादा तो पूरा करो
http://www.erfinderisch.blogspot.com/
इसे कहते हैं मुद्दों का विस्थापन. आडवानी जी ने वही किया है जोइ करने में उनकी पार्टी माहिर है. मैं यह नहीं समझ पा रहा हूं कि यह देश की सरकार चुनने का मामला है या किसी विश्वविद्यालय की डिबेटिंग टीम चुनने का? कोई ज़रूरी है कि चुनाव आपकी तै की गई शर्तों पर लड़ा जाए? और शर्तें भी ऐसी जिनकी कोई तुक न हो? लेकिन बार-बार बयानबाजी करके ये लोग इन्हीं निरर्थक शर्तों को महत्वपूर्ण मनवा देने की चेष्टा में लगे हैं.
मैंने कुछ दिन पहले गोविंदाचार्य का एक इंटरव्यू पढ़ा था, जिसमें
उन्होंने टिप्पणी की थी कि आडवाणी में धैर्य की और अटल में साहस की कमी है।
इसी संदर्भ में आडवाणी प्रधानमंत्री बनने के लिए इतने लालायित हैं कि वे अपना धैर्य
खोते जा रहे हैं और बेतुकी टिप्पणी कर रहे हैं। ज्यादा बातें करना या हाँकना और
जमीनी धरातल पर ठोस काम करने में अंतर है। इस बात को देश में निरक्षर व्यक्ति भी समझने लगा है।
इस सन्दर्भ में एक प्राचीन कहावत याद आ गयी, "अति का भला न बरसना, अति की भली न धुप / अति का भला न बोलना, अति की भली न चुप."
मुग़ल काल में शहंशाह अकबर प्रसिद्ध हुआ अपने नौरत्नों के कारण. 'हिन्दू' भी नवग्रह की पूजा अनादिकाल से करते आये हैं. इन में शनि का कार्य काल १९ वर्ष का माना गया. शायद समय, कलिकाल, के प्रभाव से अब नौरत्न मिलने कठिन हो गए हैं. इस कारण अब एक रतन ही, सर्वशक्तिमान निराकार समान ख्वाब लेता दिख रहा है - शेष शैय्या पर लेटे - लेटे...
इस बोलने के मसले पर तो एक ही गाना याद आता है। कसमें, वादे, प्यार, वफा सब बातें है बातों का क्या।
इससे तो नेताओं को एक बढिया किस्म का तोता पाल लेना चाहिए। उसे उल जूलुल जो चाहें रटवा कर ले जाऐं। पांच साल जी गया तो अगले साल फिर काम आयेगा। नहीं तो कीमा चाहे जनता का बने जा तोते का नेता को तो खाने से मतलब है।
पीएम साहब बोल नहीं पाते शायद इसी वजह से वो पीएम बनाए गए थे!
RAVEESH JEE ,
GHOOM GHOOM KAR APNEE BAT BOLNE AUR TRAFFIC JAM KARNE SE TO ACHCHA HAI KI AAMNE SAMNE BOLEN .
MAIN ADWANEE KA PRASHANSHAK NAHEEN PAR MANMOHAN KA DARZA BHEE KISEE GYANEE KA NAHEEN HAI . VO JO BHEE PADHA RAHE HAI FILHAL VAH LACHAREE AUR NIREEHTA HEE HAI .AUR UNKEE ECONOMICS KA NATEEJA POOREE DUNIYA KE SAMNE HAI .MANMOHAN VAHEE SAWAL AAMNE SAMNE KYON NAHEEN POOCHTE JO NADEEM AKHTAR NE UTHAYE HAIN .
MUDDON PAR AAMNE SAMNE BAHAS HO ISME AAPKO KYA BURAYEE DIKHTEE HAI .
IS SE KAMSE KAM DESH KUCH SAMJHEGA HEE . BIGADANA KYA HAI .
MUJHE TO AAPKE MAN KA KOYEE 'POORVAGRAH HEE DIKHA .
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