हिंदी न्यूज़ चैनलों के स्क्रीन एक जैसे लगने लगे हैं। भीमकाय फोंट वाले शब्दों से हमला करते हुए नज़र आते हैं। तस्वीरों के इस माध्यम में लिखे जाने वाले शब्द,बोले जाने वाले शब्दों से ज़्यादा महत्वपूर्ण हो गए हैं। मोटे मोटे अक्षरों के वाक्य मोतियाबिंद के मरीज़ों से लेकर पढ़े लिखे दर्शकों पर हमला करते हैं। कहते हैं कि देखो मत,पढ़ो। हर सूचना लिख कर आती है।
टीवी की भाषा में इन्हें सुपर या बैंड कहते हैं। टीवी स्क्रीन के ऊपर भी उलटते-पलटते बैंड होने लगे हैं। नीचे भी एक बैंड होता है। सबसे नीचे स्क्रोल होता है जिस पर प्रादेशिक ख़बरें सरकती रहती हैं। बीबीसी को देखिये तो तस्वीरें ही तस्वीरें होती हैं। लिखे हुए शब्दों की जगह कम है। सीएनएन में भी लिखे हुए शब्दों को नीचे के कोने में धकेला जा चुका है। अपने यहा भी एक अंग्रेज़ी का चैनल है न्यूज एक्स। जिसमें स्क्रीन पर शब्दों की धक्का-मुक्की कम रहती है। लेकिन बाकी अंग्रेज़ी के चैनलों में शब्दों ने तस्वीरों को धकेल दिया है। धमाका करते हुए दो शब्दों के स्टिंग आते हैं। ब्रेकिंग न्यूज़ हमला करता दिखता है। टाइम्स नाउ से लेकर सीएनएन आईबीएन और एनडीटीवी ट्वेंटी फोर सेवन में भी शब्दों से भरे स्टिंग और सुपर महत्वपूर्ण हो गए हैं। तरह-तरह की इन पट्टियों के बीच विज़ुअल के लिए जगह कम रह गई है। विज़ुअल आता भी है तो उसे कई तरह के बक्सों में बांट कर छोटा कर दिया जाता है। विज़ुअल के ऊपर या साथ साथ शब्द चिपका दिये जाते हैं।
यही कारण है कि टीवी अखबार की तरह लगता है। हिंदी न्यूज़ चैनलों के भीमकाय फोंट डराते हैं। अंग्रेज़ी चैनलों में शब्द अभी भी सामान्य फोंट में लिखे जाते हैं। लेकिन वहां भी विज़ुअल को तरह-तरह के बक्सों में खपा दिया जा रहा है। इनसे थोड़े अलग हिंदी चैनलों में अब हर बोला जाने वाला वाक्य लिख कर आता है। सचमुच काफी बड़ा। टाटा का ओके साबुन जैसा। वॉयस ओवर सुनने की चीज़ नहीं रहा। बोलने से पहले लिखे हुए शब्द आते हैं। भीमकाय फोंट के चलते वाक्यों को छोटा किया जा रहा है। तीन शब्दीय वाक्यों की खोज की जा चुकी है। कम लिखो लेकिन मोटा-मोटा लिखो। हर शब्द के नीचे बूम-बाम वाला धमाकेदार संगीत होता है।
यह सब पिछले दो साल में हुआ है। हिंदी न्यूज़ चैनल बहुत तेज़ी से बदलते हैं। शब्दों के फोंट साइज़ को लेकर जो बदलाव आया है उस पर गौर किया जाना चाहिए। जो टीवी के विद्यार्थी हैं उन्हें बताया जाना चाहिए कि ये एक नई प्रक्रिया है। जो कम से कम यह बता रही है कि टीवी अब तस्वीरों पर निर्भर नहीं रहा। वो दौर गया जब कैमरामैन और रिपोर्टर का न्यूज़ रूम में हीरो की तरह इंतज़ार होता था। अब तो इंटरनेट और मोबाइल से तस्वीरे डाउनलोड होती हैं। उन पर भीमकाय शब्दों को चिपका कर विज़ुअल या तस्वीरों की जगह चला दिया जाता है। इससे भी काम न चले तो हर तरह की दुर्घटनाओं की एनिमेटेड तस्वीरें झट से बना दी जाती हैं। रेल दुर्घटना से लेकर हेलिकाप्टर दुर्घटना की एनिमेटेड तस्वीरें बनी हुई हैं। बताती हैं कि टीवी ने तस्वीरें बटोरने के महंगे उपायों का आसरा देखना बंद कर दिया है या कम कर दिया है।
भीमकाय फोंट से बने शब्द कम से कम एक बार में और एक वाक्य में आ जायें, इसके लिए ग्राफिक्स डिज़ायनर और आउटपुट एडिटर में काफी मोलभाव होता है। एक शब्द की गुज़ाइश हो जाए तो बड़ी कृपा होगी। आउटपुट एडिटर शब्दों के बीच अक्षरों को स्पेस बार से ठेलते रहता है। जगह बनाते रहता है। हमारी शुरूआती ट्रेनिंग थी कि विज़ुअल के साथ जो ओरिजनल साउंड है उससे कोई छेड़छाड़ नहीं होनी चाहिए। अब तो विज़ुअल पर संगीत थोपा जाता है। नहीं थोपेंगे तो बोरिंग लगता है। दर्शक पसंद नहीं करते। या फिर ऐसा करना आसान है। मौके की आवाज़ को शूट करना एक मुश्किल और समय लगने वाला काम है। इतना वक्त किसी के पास नहीं है।
इसीलिए हर जानकारी जो पहले बोली जाती थी अब बोले जाने के साथ लिखी हुई आती है। दर्शक को समझाने और उसे आकर्षित करने का जुगाड़ है। अब तो दृश्यों को भी लाल डोरे से घेर और तीर मार मार कर बताते हैं कि पूरे स्क्रीन पर देखने की ज़रूरत नहीं,सिर्फ यही कोना देखो,जहां लाल वाला तीर ज़ोर मार रहा है। टीवी नहीं दिखता,बाकी सब दिखता है। इसका नुकसान कैमरामैन को उठाना पड़ा है। सन दो हज़ार में जब रिपोर्टिंग शुरू की थी तब कैमरामैन के सामने खड़े होने के हिम्मत नहीं होती थी। वो एक एक शाट ध्यान से लेते थे। सीक्वेंस के साथ। कैमरा टिल्ट अप होता था,टिल्ट डाउन होता था,पैन होता था,क्लोज़ अप के साथ शिफ्ट फोकस। शिफ्ट फोकस में तस्वीरें पहले धुंधली लगती थीं,धीरे धीरे साफ होती थीं। नए कैमरे के आने से न्यूज़ रिपोर्टिंग में शिफ्ट फोकस हमेशा के लिए ख़त्म हो गया। अनुभवी कैमरामैन की ज़रूरत कम रह गई। मिस्त्री का काम हो गया है। अब तो कोई ट्राइपॉड पर शूट नहीं करता। तस्वीरें हिलती डुलती अच्छी लगती हैं। एक्शन चाहिए। पहले ट्राइपॉड के साथ एक लाइट किट जाती थी। अब तो लाइट किट कार की डिक्की में ही पड़ी रह जाती है। सब फ्लैश से काम चलाते हैं। वो ज़माना गया जब एडिटिंग टेबल पर सफाई देनी पड़ती थी कि लाइट किट का इस्तमाल क्यों नहीं किया। अब तो जो है लाओ दो उसे बूम-बाम करो और शब्दों के नीचे दबा कर स्क्रीन पर लटका दो।
मंदी के दौर में यह तरीका कागगर साबित हो रहा है। तस्वीरें बटोरने का काम काफी महंगा है। मौके पर जाने के लिए पैसा खर्च होगा। इसलीए भीमकाय शब्दों और ग्राफिक्स एनिमेशन का सहारा लिया जा रहा है। टीवी एक महंगा माध्यम है। पत्रकार महंगे हैं। दोनों के बिना काम नहीं चलेगा। इसलिए बिना विज़ुअल के काम चलाने का तरीका खोज निकाला गया है। ये इसलिए भी हुआ क्योंकि अच्छे अच्छे रिपोर्टर ने विज़ुअल पर मेहनत नहीं की। अशोक रोड पर बीजेपी और अकबर रोड पर कांग्रेस के दफ्तर से निकले और टेप पटक कर खुश हो जाते थे। खबर ब्रेक करने की गिनती रखते थे। सीना चौड़ा करके घूमते रहे। लेकिन इस बात पर मेहनत नहीं कि हिंदी टीवी पत्रकारिता को खबर ब्रेक करने वाले पत्रकारों के साथ साथ खबरों को बेहतर बनाने वाले विज़ुअल सेंस की भी ज़रूरत है। इस मामले में ज़्यादातर रिपोर्टर नाकाम साबित हुए। माध्यम का काम तो चलना ही था तो बस डेस्क पर बैठे कल्पनाशील आउटपुट एडिटरों ने रास्ता निकाल लिया। आइडिया सोचना वाले एडिटर की पूछ बढ़ गई। खबर लाने वाले पत्रकार पीछे रह गए। पत्रकारों ने टीवी की ज़रूरत के हिसाब से अपनी रिपोर्टिंग शैली को विकसित की होती तो आज ये हालत नहीं आती।
उधर बाज़ार में बने रहने के लिए दर्शकों को अंधेरे में ढूंढा जाने लगा। इस बीच टीवी देखने का व्यावहार भी बदल गया। वैसे भी यह माध्यम हर पल बदलने वाला माध्यम है। लेकिन आप टीआरपी के पैटर्न को देखें तो पता चलेगा कि किसी तय वक्त में समाचार देखने की आदत खत्म हो चुकी है। न्यूज कभी भी उपलब्ध हैं तो कभी भी देख लेते हैं। टीआरपी की रेटिंग के अध्ययन से पता चलता है कि कोई भी दर्शक दिन भर में ज़्यादा से ज़्यादा चार से पांच मिनट ही न्यूज चैनल देखता है। उसमें भी वो ठहर कर नहीं देखता। रिमोट कंट्रोल से चैनल बदलते रहता है। इन भागते भुगते दर्शकों को रोके बिना काम नहीं चलेगा। इन्हें रोकने के लिए ये भीमकाय शब्द होर्डिंग का काम करते हैं। आवाक दर्शक रूक जाता है।
लिखा हुआ शब्द पढ़ने लगता है। तब तक वॉयस ओवर भी आ जाता है। सवाल नंबर एक से लेकर सवाल नंबर बीस तक गिनता हुआ। दुनिया दो साल में खत्म होने वाली है, का एलान करता हुआ। भकुआया दर्शक रूकता है और एक मिनट तक रूक गया तो टीआरपी का काम हो जाता है। उसके बाद सामान्य दर्शक चाहे उस न्यूज़ आइटम को जितनी गाली दे। एक मिनट तक आप रूक गए तो चैनल का मकसद पूरा हो जाता है। यही खेल है। सबको एक मिनट तक के लिए रोको। दर्शकों को बताया जाना चाहिए कि अगर कुछ पसंद नहीं है तो जल्दी बदलो चैनल। भागो वहां से।
लेकिन कोई भाग न पाये इसी कोशिश में शब्दों के ज़रिये स्क्रीन पर जाल बिछाया जाता है। जिसके लिए टीवी अख़बारों से अलग हुआ,अब वही टीवी अख़बार जैसा होने लगा है। विज़ुअल भी अब संपूर्ण नहीं हैं। एक फ्रेम के भीतर कई फ्रेम बना दिये जाते हैं। इसमें कुछ भी गलत नहीं है। इन्हीं सारे गुणों और अधिकारों से लैस होती हैं हमारी एडिटिंग मशीनें। टीवी और फिल्म में एटिडिंग की शैली एक ही है। किसी चीज को पेश करने के लिए इन गुणों का इस्तमाल होना ही चाहिए। ये सवाल अलग है कि इनका इस्तामल माध्यम को कितना विकसित करता है। ख़बरों को कितना प्रभावशाली बनाता है।
इतना ज़रूर है कि टीवी जैसा टीवी लगता नहीं। एंकर के पीछे एक दीवार बना दी जाती है। इन्हें वॉल कहा जाता है। अब इन पर भी भीमकाय शब्दों ने कबज़ा जमा लिया है। दर्शक की खोज में ही न्यूज़ चैनल बदल रहे हैं। बदलना भी चाहिए। अखबार के पन्ने भी बदलते हैं। बस थोड़ा अजीब लगता है कि कैमरामैन का शाट्स अब लगता ही नहीं है। रिपोर्टर की कलाकारी इन्हीं विज़ुअल के माध्यम से निखरती थी। ये मज़ा अब कम हो रहा है। विज़ुअल से पहले शब्द सोचे जाते हैं। पाकिस्तान का पाप या अमेरिका का अहंकार। अनुप्रास का महत्व बढ़ गया है। कभी किसी चैनल में अनुप्रास संपादक की भी भर्ती हो सकती है। जो अ और ब से शुरू होने वाले शब्दों का मिलान करेगा। तुरंत और सबसे बेहतर। न्यूज़ चैनलों में इन भीमकाय शब्दों को लेकर भी खासी प्रतियोगिता मची रहती है।
इस बदलवाल को रोकना मुश्किल है। हिंदी न्यूज़ चैनल अब कभी पीछे की ओर नहीं लौटेंगे। वो बहुत आगे जा चुके हैं। पत्रकारिता को पीछे छोड़ कर। टीवी में रहकर हम सब अख़बार का काम करने लगे हैं। नंबर तो आ जाते हैं लेकिन मज़ा नहीं आता। एक ज़माना था जब अख़बार टीवी जैसा होने लगे थे। अखबारों में बड़ी बड़ी तस्वीरें छपने लगी थीं। उन्हें टीवी से मुकाबला करना था। अब टीवी अखबार जैसा होने लगा है।
18 comments:
जब पहली बार चित्रहार में नीचे गीत के बोल दिए जाते थे, तब मुझे लगा था कि अटपटे शब्द समझाने में यह काफी सहायक है,विदेशी फिल्मों के नीचे भी संवादों को लिख दिया जाता था, उसी क्रम में यह न्यूज चैनलों में भी दिखाया जा रहा है, पर चित्रहार या फिल्मोंवाले भाव यहॉं नहीं है, यह शुद्ध प्रयोग है।
kisi ne kaha ki "mujhe ashchrya hai roz ki kahberin akhbaar main phit kaise aa jati hain?"
ab yahi haal news chalnnel ka bhi hain ....
wahi khaberin !! 24 ghante aur lagbagh 20-25 news channel (excluding english and international news challel)
ek journalist hone ke bavzood itni thatyaparakh aur bebak post dene ke liye badhai !!
Raveesh i again request u to refrain from generalising things. Indian news channel is just a fragment of the experience called TV. There are matchless channels like Discovery etc and so many foreign news channels for the discerning viewer. Indian news channels collectively create a huge mountain of shit,excreta and buffalo dung and im sure u've shared my opinion in one of ur poems.
(सस्ती नज़्म, मुफ़्त के शेर)
सच कहा आपने टीवी
अब बेकार हो रहा है
धीरे-धीरे बोलने वाला
अखबार हो रहा है।
अखबार में छपने के अगले दिन
आप बाज़ार सजाते हैं
पिक्चर तो होते नहीं
बस गाल बजाते हैं
फर्क इतना है कि अखबार
एक संपादकीय से चलता है
लेकिन टीवी में तो हर खबर
में एडीटोरियल डलता है।
पहले एंकर भगवान बताते हैं
फिर महामहिम रिपोर्टर जताते है
अपनी चलाने में क़ापी एडीटर
कहां पीछे रह पाते हैं।
कई विद्वान मिलकर
जलेबी बनाते हैं
ना खबर ना पिक्स
दर्शक को सताते हैं।
लेकिन दर्शक सबका बाप है
ठेंगा दिखाता है
मिनट-दो मिनट झेला
उसके बाद तो बेटा...कलर्स ही चलाता है।
मुनीश भाई
मैं सिर्फ हिंदी न्यूज़ चैनलों की बात कर रहा हूं। जनरलाइज़ नहीं कर रहा। उसमें लिखा है कि बीबीसी और सीएनएन में ऐसा नहीं होता। सिर्फ लुक पर कमेंट किया है। कोई नैतिक भाषण नहीं है।
बस जो बदलाव आ चुका है उस पर लिखा है।
तो अंदर की वो बात है
जो बाहर सबके साथ है।
सत्य यह है की हर इंसान कुछ ढूँढ रहा है. उसे नहीं मालूम क्या? उसे समाचार पत्र/ टीवी अदि में खोजता है, और नहीं पा कहीं और ढूंढता फिरता है.
लेकिन जिस तेजी से बदलाव आ रहे हैं वे दर्शाते हैं जैसे 'गेंद धरती पर गिरा ही चाहती है' - किसी भी क्षण!
सच कहा आपने....टीवी अखबार जैसा लगने लगा है....स्क्रीन सजने संवरने लगा है...पाठकों ...(दर्शकों) को आकर्षित करने के लिए बुद्धिजीविता ख़त्म हो रही है.....जरुरत ही क्या है....क्योंकि आम आदमी बुद्धिजीवी नहीं होता.....सरल शब्दों का इस्तेमाल करने की कोशिश में हिंग्लिश इस्तेमाल की जाने लगी है....आप हम अगर नहीं करते तो ये हमारी गलती सी लगती है क्योंकि सभी कर रहे हैं...अख़बार भी....जैसे अख़बारों पर खुबसूरत अभिनेत्रियों के फोटो ज्यादा कॉपियों को बेचने के लिए लगाई जाती है उसी तरह टीवी पर भी हमलोग फिल्मों--ग्लैमर की खबरों को लगाने लगे हैं....अश्लीलता अब अश्लील नहीं रही....आधुनिकता बन गई है....क्या करें....टीवी ...अख़बार जो बन गया है....
सही कह रहे हैं।अख़बार पाठको को पकड़ कर रखने के लिये टीवी जैसा दिखने लगा था और अब ये रोग टीवी के न्यूज़ चैनलो को भी लग गया है।बेबाकी और ईमानदारी से लिखी गई इस पोस्ट को और आपकी कलम को सलाम्॥
जहां तक शॉट्स के सिक्वेंस गड़बड़ाने की बात है उसकी एक और वजह भी है। वो है अनुभवहीनता, कॉपी लिखने वाले के साथ-साथ वीडियो एडिटर को भी न्यूज़ सेंस होना ज़रूरी है। कई बार जो कॉपी लिखता है वीडियो एडिटर को वैसे विज़ुअल ही नहीं मिलते तो कई बार एडिटर्स आलस या अनुभवहीनता के कारण सही शॉट्य नहीं लगाते। इसलिए लिखने से पहले ज़रूरी है कि उपलब्ध विज़ुअल को अच्छी तरह देख लिया जाए।
प्रिंट मीडिया में मोटी पुस्तकें जो किसी एक लेखक द्वारा लिखी होती है सालों बाद आती हैं, और महंगी भी होती है. जबकि दुसरे छोर पर, अखबार नित्य प्रतिदिन छपता है और गरीब से गरीब आदमी इसे चाय के साथ पढने की क्षमता रखता हो - शहरों में तो कम से कम. शायद इसकी छपाई को हम गाडी चलाने सामान जानें - कब तीसरा गियर लगाना है सोचना नहीं पड़ता, हाथ अपने आप काम करता है, थोड़े समय के अभ्यास के बाद. और फिर गाडी के पिस्टन समान 'रवां' हो जाता है...
जहां तक इस भानुमती के पिटारे में क्या पाया जायेगा वो काल के अनुसार बदल बदल के आपके सामने पेश होता रहेगा ही - वैसे ही जैसे हमारी धरती में जीवाणु से लेकर मानव तक के लिए सब पदार्थ उपस्थित हैं - किसको कब और क्या काम आएगा वो उसकी समयानुसार आवश्यकता पर निर्भर करेगा...
इलेक्ट्रॉनिक मीडिया की काल की मजबूरी अब यह है की उन्हें अब हर दिन २४ घंटे कुछ न कुछ दिखाना ही है - प्राचीन कहानी के जिन्न जैसे, वो जो गड्ढा खोदता था फिर उसे भरता था, और यह काल-चक्र चलता ही रहता था :)
सत्व, या सत्य को पेश करने का उपरोक्त कहानी आकर्षक विधि से सही काम करती है - 'पंचतंत्र' की कहानी समान...
'खोटा सिक्का भी कभी-कभी चल जाता है':)
कैमरे के अलग-अलग एगंल तब ही दिखाई देंगे जब वहाँ कोई स्कोप हो। किसी चुनावी रैली या फिर क्रिकेट के खेले जाने के बाद हुई पीसी में कैमरामैन क्या जादू कर सकता है। दूसरी बात ये है कि आज के वक़्त में ख़बर दिखाना ही सबकुछ नहीं ख़बर को सबसे पहले ब्रेक करना ज़रूरी है। इसी चक्कर में कहीं कुछ हुआ है ये सूचना मिलते ही चैनलवाले टेक्सट पर उसे लिखकर चलाना शुरु कर देते हैं।
Hamare TV channel abhi balyawastha main hain. Kesii khabar ki tah main jana phir unhe dekhane ka chalan ab khatam ho gaya hai kyonki mamla TRP badhane aur channed per pahli live tasveer ka hai. Hamare pados main kya ho raha hai.Afganistan,Pakistan, Banglaesh,shrelanka aur China main kya ho raha. Is ke bare main koi gambhir charcha shayad hi kesi channel per aata ho. Varun gandhi ne kya kaha yehi badi khabar hai.TV Channel aur akhbar media ke alag sadhan hai inhe ek doosre ki copy karne ki jarrorat nahi hai.
ravish jee,
main aapke madhyam se ndtv india ko likh raha hoon,
ndtv india ki yeh kaisi bhasa ho gayi hai eisa lagta hai ki hum pure din sansani dekh rahe haimaan jao pakistan ,lagta hai dar,ho jayega samapt sab kuchh. ek hindi channel ki bhasa achanak kaise badal gayi main delhi mein rahta hoon aur kareeb do mahine se siti cable ne ndtv dikhana band kar diya jiske karan mujhe tata sky lena pada par ab sochta hoon ki bajaroo channel hi dekhna hai to mere cable sare channel to pahle se hi aarahe hai main kyou 250 rs. jyada pay karoon aap mujhe mail kare at uttamagrawal@vsnl.net
tv me to aaj kal sirf talibaan hi aata hai,
aur khabar dhundho to sirf BAITULLA SAMA aur PAKISTAN satata hai...
Sorry for commenting in English.My laptop does not have hindi text activation as of now.
I cae to your blog from Nilesh's blog who has written a post on his times in Lucknow and TV.I have seen several other forwards craving for the good old days when TV was almost like a member of the family.TV's place in the Indian Mind was secure as it brought wholesome entertainment to all - papa ke liye News channel,mummy ke liye hum log,bachchon ke liye nanhe munne aur phulwari.While it did take away the freedom of choice I don't think we have it anyway when all channels are showing the same stupidity all the time.Whether the Indian mind has become a pygmy or is it an attempt to do that I don't know but Television has certainly fallen from grace.
Quality always gets sacrificed at the altar of Quantity.You guys can't kill someone to make news although I sometimes that they would if the TRP's seriously dropped and say " Dekhiye ye wo reporter hai jo kal tak Zinda thaa Aur Samchar Padhta tha.Is Masoom ko kisee ne maar diya.Ab Iskee ye Bholi Aanken Ye Swal pooch rahee hai ki kya hamien insaaf milega"Agar apka Jawaab Yes hai to A type Karein Aur No to B type karien.PAr Type zaroor karein nahin to iskee atmaa tadapti rahegi aur yeh aapka khoon pee lega.
Sincerely there is a need for a good channel that excellent programing divided into time slots and not as in category of chennels.
You can do a survey but I am certain what the result would be.
And I can start watching TV once more.
बॉबी भाई ने बिलकुल सही कहा...रवीश जी आजकल एनडीटीवी देखने की इच्छा मरने सी लगी है...क्योंकि ये भी अन्य समाचार चेनलो की तरह होता जा रहा है...कुछ दिन बाद ज्योतिष और जादू टोने भूत-प्रेत पर आधे और एक घंटे के कार्यक्रम भी शुरू हो जाएँ तो कोई आश्चर्य नही होगा...
निधि कुलपति जी की क्षमताओं को यू-ट्यूब की क्लिप्स दिखाने में व्यर्थ किया जा रहा है...एन डी टी वी ग्लैमर तो स्टार न्यूज़ के सास बहु और साजिश की तरह लगने लगा है...आप जब रिपोर्ट पेश करते हुए बोलते हैं तो बगल में टेक्स्ट स्लाइड चलती रहती है मानो दर्शकों को बिना देवनागरी की स्लाइड देखे रवीश कुमार की बात समझ ही नहीं आएगी.परिवर्तन धीरे धीरे हो रहे हैं पर समझ में आ रहे हैं.
ये समझ नहीं आता कि कही एनडीटीवी के सर्वेसर्वा टीआरपी की रौ में तो नहीं बह रहे,ये टी आर पी भी अजीब चीज है न,कुछ लोगों के घर में लगे बक्से से मिले आंकडों के आधार पर पूरे देश के लोगों की रुचियों का निर्धारण किया जाता है, और फिर फालतू चीजें परोसी जाती हैं..
रवीश जी कहीं ऐसा न हो कि जैसे सपा से समाजवादी और बसपा से दलित दूर हुआ है वैसे ही एनडीटीवी में हो रहे परिवर्तनों से इसका प्रबुद्ध दर्शक वर्ग भी इससे दूर हो जाए.
आजकल तो मुझे ये भी शक होता है कि कहीं प्रभु चावला तो एनडीटीवी के चीफ एडिटर नही बन बैठे.
Post a Comment