रामनवमी के दिन हमारी एक मासी मां का निधन हो गया। किसी के जुड़ने का मतलब नहीं होता कि आप उसे कितने सालों से जानते हैं। दो तीन सालों से जानता था। उनका मुस्कुराना और हाल चाल पूछने में चिंता का अंदाज़, हमेशा लगा कि कोई मेरा ख्याल करना चाहता है। कम लोग होते हैं जिनके चेहरे पर हंसी खिल कर आती है। अस्सी साल की उम्र में भी उनकी हंसी उन्हें बेहद खूबसूरत बना देती थी। बांग्ला और हिंदी घुलती मिलती जब उनकी ज़बान से उतरती थी तो भाषा किसी नादान बच्चे की तरह हो जाती थी। रोबिस तुम कैसी है। फिर वो ठीक कर देती थी कि कैसा है। हंसने लगती कि बाप रे क्या करेँ। तुम ही बांग्ला सीख लो। अब नहीं हैं। हमेशा के लिए नहीं। जाने वाला सिर्फ यादें छोड़ जाता है।
लेकिन मैं यह लेख किसी और वजह से भी लिख रहा हूं। हिंदी न्यूज़ चैनलों ने जिस तरह से श्मशान को काली विधाओं का भयंकर गढ़ बना दिया है,उस छवि को लेकर श्मशान में जाएं तो एक डर पहले से मौजूद रहता है। लेकिन श्मशानों के बारे में लिखा जाना चाहिए। हम सब मासी मां को दिल्ली यूपी बार्डर पर गाज़ीपुर श्मशान घाट लेकर गए। वहां का इंतज़ाम देखकर मैं हैरान रह गया। हर बात का ख्याल रखा गया था ताकि आपको कोई और सांसारिक तकलीफ न हो। गेट पर ही चार लोग मिले और आखिर तक बिना पैसा लिये, मदद करते रहे। लकड़ी के लिए पूछा तो कहा जितना चाहिए उठा लीजिए, पैसा बाद में देंगे। साफ सुथरा इंतज़ाम। दिल्ली के कई श्मशानों को देखा है। जहां इस तरह के इंतज़ाम किये गए हैं। अंतिम संस्कार में लूट खसोट करने वाले पंडे पंडित का जोर नहीं चलता।
श्मशान घाट की दीवारों पर लिखे संदेश भावुक मन को हल्का कर देते हैं। जिस चबूतरे पर शव को रख कर पिंड दान किया जा रहा था, उसके सामने लिखा था- यहां तक लाने का बहुत शुक्रिया,आगे का सफर खुद तय कर लूंगा। हर दीवार पर इसी तरह की बातें जिससे मन हल्का होता रहा। किस काम में कितना पैसा लगेगा यह सब दीवारों पर लिखा था। उससे एक रुपया अधिक किसी ने नहीं माना। जहां शव को जलाया गया उसके द्वार पर लिखा था, मुक्ति द्वार।
मेरा ज़्यादातर अनुभव उत्तर भारत के भीषण सामंती गांवों का ही रहा है। वहां इस तरह के इंतज़ाम नहीं होते। श्मशान घाट तो होते हैं लेकिन इतनी गंदगी होती है कि मन और बेचैन हो जाता है। पैसे खसोटने के लिए नाई और पंडित परेशान कर देते हैं।
हमारी पौराणिक परंपराओं के नाम पर पैदा हुए डाकू गाज़ीपुर के श्मशान घाट में नहीं थे। अच्छा सा पार्क बना था। जीवन और मृत्यु के बेहतरीन संदेश लिखे थे। चार स्वर्गवासी माताओं का नाम लिखा था। मैं सोच ही रहा था कि इनके नाम क्यों लिखे गए हैं तभी नीचे लिखी एक लाइन पर नज़र गई। लिखा था- इन चारों माताओं की उम्र सौ साल थी। इन्हीं के बच्चों के नाम श्मशान घाट चलाने वाली समिति में थी। तभी समझा जिसने जीवन को इतना जीया हो वही समझ सकता है जीवन के बाद का जीवन। पंडित के खिलाफ कंप्लेन करने के लिए शिकायत पुस्तिका रखी गई थी। आप चाहें तो लिख कर आ सकते थे कि पंडित ने बदसलूकी की है। हमें श्मशानों के बारे में भी अपनी रचनाओं में जगह देनी चाहिए। वे औघड़ों के अड्डे नहीं है जिन्हें दिखाकर टीवी चैनल रेटिंग भकोसता है।
( एक मकसद और था इसे लिखने का। दिल्ली के विद्युत शवदाहगृह नौ बजे सुबह से पांच बजे शाम तक ही खुले रहते हैं। इसका तर्क समझ नहीं आया। परिवार चाहता था कि विद्युत शवदाहगृह का इस्तमाल करें लेकिन पांच बज जाने के कारण लकड़ी की चिता जलानी पड़ी। एक शरीर के साथ एक पेड़ की भी चिता जली। गाज़ियाबाद में तो है ही नहीं शायद। जब लोग नदियों के बिना दाहसंस्कार करने लगे हैं तो लकड़ियों के बिना भी किया जा सकता है। )
15 comments:
उत्तर प्रदेश के बारे में आपने बिलकुल सही कहा ...और कुछ लोग सुधर रहे हैं तो ये बहुत ही अच्छे संकेत हैं
अपका आलेख पढ कर मुझे भी कुच अनुभव याद आ गये सारे उत्तर भारत मे स्थिती एक जैसी नही है मैने चंडी गढ फरीदाबाद के शमशान घाट देखे हैं अच्छे बने हुये हैं हमारे शहर का शमशान घाट भी बहु अच्छा है लेकिन कई गाँवों मे अभी इस तरफ कोई ध्यान नही दिया गया हैरानी तो तब हुई जब एक बार लुधियाना[पंजाब्] के शमशान घाट पर जाने का अवसर मिला वो लुधियाना का पौश एरिया है1 वहां छोटी सी जगह थी हैरानी तो तब हुई जब मैने मृ्तक को जलते हुये देखा 1वहाँ एक आदमी किराये पर मृ्तक को जलाने के लिये रखा हुआ है वो एक एक लकडी कर के देह जलाता है ये इस लिये कि लकडी की बडी किल्लत है शाय्द लुधियाना पंजाब का सब से समृ्द्ध शहर है मगर अमीर लोगों के पास समय नहीं है 1शायद दिल मे मानवत नहीं है कि उसकी दशा ही सुधार दें
आप की बात सही है, वह स्थान तो बहुत खूब सूरत होना चाहिए जहाँ हम अपने को हमेशा के लिए छोड़ आते हैं। यहाँ कोटा में शमशानों की स्थिति बहुत सुधरी है। कुछ तो देखने लायक हो गए हैं।
shamshan ghat ke bare me jo kuch kahe. lekin waha ja kar ham jivan aur maut ki sachai se rubaru hote hai
Chaliye, jeevan aur maut ke beech kahin to sach aur imaan shesh hai.
संयोग से कल अपन भी दिन में जयपुर में ही ऑफिस में एक साथी के पिताजी की अंतिम क्रिया में गए।
सुविधाएं तो वहां भी थीं, हां पर जितनी आपने बताई उतनी नहीं
हां एक तरफ राजस्थान विधानसभा और दूसरी तरफ नरक निगम (जयपुर नगर निगम) का जोनल ऑफिस यानी शानदार लोकेशन
पर आपने यूपी की सुंदर तस्वीर पेश की वर्ना मुझे तो इतना ही याद है कि ब्लू लाइन में गाजीपुर बार्डर से ही गुजरो तो बदबू के मारे हालत खराब हो जाया करती थी।
एक बेहतरीन अनुभव में अपना साझीदार बनाने के लिए धन्यवाद
इस विषय पर बातें व चर्चा होनी ही चाहिए। मैं भी बिजली के दाहघर में विश्वास करती हूँ। आपका अनुभव अच्छा रहा जानकर अच्छा लगा। ऐसा समय और भी कटु अनुभव झेलने लायक नहीं होता।
घुघूती बासूती
आद. रविश जी ..हट कर विषय उठाने और उस पर लिखने के लिए धन्यवाद ....पूरे देश का तो नही मालुम लेकिन गांवों के शमशान ओ की स्थिति ठीक नही शहरों में ठीक ठाक है...फिर भी कुछ वर्ष पूर्व जब भोपाल में जया बच्चन के पिता....पत्रकार ..तरुण कुमार भादुरी का निधन हुआ था उस मौके पर अमिताभ जी को भोपाल के शमशान घाट पर पर जिसतरह के फिकरे सुनने को मिले थे ..वो दीवारों पर भी आपने नही पढ़े होंगे....फूलों के पौधे हरियाली जल आदि की समुचित व्यवस्था के साथ पुस्तकों -लायब्रेरी भी होना चाहिए...थोडी प्रायवेसी और सुरक्षा व्यवस्था भी ....
आद. रविश जी ..हट कर विषय उठाने और उस पर लिखने के लिए धन्यवाद ....पूरे देश का तो नही मालुम लेकिन गांवों के शमशान ओ की स्थिति ठीक नही शहरों में ठीक ठाक है...फिर भी कुछ वर्ष पूर्व जब भोपाल में जया बच्चन के पिता....पत्रकार ..तरुण कुमार भादुरी का निधन हुआ था उस मौके पर अमिताभ जी को भोपाल के शमशान घाट पर पर जिसतरह के फिकरे सुनने को मिले थे ..वो दीवारों पर भी आपने नही पढ़े होंगे....फूलों के पौधे हरियाली जल आदि की समुचित व्यवस्था के साथ पुस्तकों -लायब्रेरी भी होना चाहिए...थोडी प्रायवेसी और सुरक्षा व्यवस्था भी ....
samvedan sheel baaten kahi hain aapne ,is aalekh ke maadhyam se.
- vijay
मेरे घर के पास ही है ये जगह...सैकड़ों बार दोस्त से मिलने जाते वक्त सामने से निकला पर कभी ग़ौर से देखा भी नहीं...सोचा, अभी यहां पहुंचने में बहुत वक़्त लगेगा पर अब एक दिन ज़रूर जाऊंगा...सुंदर श्मशान घाट और उसका उतना ही सुंदर ब्योरा...क्या बात है...सबको एक न एक दिन देख ही लेना चाहिए जीते-जी। रवीश जी...कितनी बड़ी बातें आप कितनी सहजता से कह जाते हैं...बधाई लगातार.
i like your blogs n reporting in 'ndtv'-special report.
jarj ko nikalkar nitish kumar ne bata dia hai ki unke bhavi neta munna shukla ,jagdish sharma aur prabhunath singh jaise log hi ho sakti hain,aise me wo kaisa bihar banana chahte hain,isse yah saf ho jata hai,unhe iske lia badhai di jani chahia ki budhe marte jarj ke prati aisi sambedanshilta dikhai hai .nayi pidhi ke bacche is desh me karodo budhe mata pita ko dhakia kar ghar se bahar nikalen.
एक समय था जब अघोरी अदि तांत्रिक विद्या द्वारा आत्मा को वश करने के फेर में रहते थे. और उसके लिए वे श्मशान में ट्रेनिंग हासिल करते थे. ऐसे मुर्दे की तालाश में रहते थे जिसे गरीब लोग बिना जलाये ऐसे ही रख जाते थे अदि. वैसे भी एक समय चलन था गुलाम रखने का. यह तो अब गणतंत्र राज्य बन ने के पश्चात कुछ जागरूकता आई है देश में. शायद वैसे ही जैसे बुझने से पहले दीये का प्रकाश तेज़ हो जाता है...
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