मगर है मन में छवि तुम्हारी
कि जैसे मंदिर में लौ दिये की
छुपा लो दिल में प्यार मेरा
कि जैसे मंदिर में लौ दिये की
हिंदी युग्म के ब्लाग पर यह गाना सुन रहा था। मगर है मन में छवि तुम्हारी। हम अपने मन को कितना जानते हैं। कितनी छवियां होती हैं मन में। कई रिश्ते मन के भीतर होते हैं। जो मन के बाहर होते हैं उससे भी ज़्यादा। हम जिनको सामने से देखते हैं उन्हें मन में क्यों अलग देखते हैं। क्यों चुपके से किसी को ढूंढ लेते हैं और क्यों मन ही मन उसके साथ जो जी में आता है करते चले जाते हैं। ये मन ही है जो इंसान को दोहरा बनाता है। झूठा नहीं बनाता। अक्सर दोहरा बनाने को हम दोगला समझते हैं। हेमंत कुमार का यह गाना कहता है कि मगर है मन में छवि तुम्हारी कि जैसे मंदिर में लौ दिये की। भरोसा दिला रहा है कि मन में भी वैसी छवि है कि जैसे मंदिर में लौ दिये की।
मन के रिश्तों को कोई बताता नहीं। अपना लेता है। अपने जैसा बना लेता है। हम सब मन ही मन कितनी बातें करते हैं। ज़ाहिर नहीं करते। तभी तो हम इंसान को बाहर से ही देखना चाहते हैं। कहने लगते हैं कहां खो गए हो। निकलो वहां से। सामने वाला जानता है कि मन के गुरुत्वाकर्षण ने उसे किसी अंतहीन दिशाओं की तरफ खींच लिया है। जिससे मिला नहीं और जिससे मिल नहीं सकता उसके साथ बैठ कर बतिया रहा है। प्रेम कर रहा है। झगड़ रहा है। कार चलाते चलाते वक्त अक्सर मन ही मन किसी को गोली देने लगता है। किसी को हल्के से छूने लगता है। एफएम पर गाने सुनते हुए बहुत खुश होने लगता है। उसका मन उसे बहला देता है। पता ही नहीं चलता। हम जागते हुए जितना बाहर बोलते हैं उससे कहीं ज़्यादा अपने भीतर बोलते हैं।
क्या ऐसा आपके साथ नहीं होता। जो मन के भीतर होता है वो बाहर वाले से अलग होता है। रहस्यमयी दुनिया बन जाती है। एक चोर की तरह छुपा कर रखना चाहते हैं। किसी को बताना नहीं चाहते। मुझे आज तक समझ नहीं आया कि मैं हर दिन उठता दिल्ली में हूं मगर आंख खुलती है गांव की उस मोड़ पर से जहां से मेरा घर दिखने लगता है। बांध के ढलाने से उतरती साइकिल। चेन से रगड़ खा कर निकलती आवाज़। अचानक स्कूल के मास्टर जी की शक्ल खड़ी हो जाती है।
ये सब कोई नहीं जानता। ऐसे अनगिनत लम्हें हैं जो मन के भीतर रोज़ आते हैं। कोई नहीं जान पाता। बहुत सारे रिश्ते गायब होते रहते हैं। नए नए बनते रहते हैं। कब आप वहीदा रहमान के साथ बातें करते हुए गाने लगते हैं पता नहीं चलता है। आज फिर जीने की तमन्ना है, आज फिर मरने का इरादा है। अपने ही बस में नहीं मैं। दिल है कहीं तो हूं कहीं मैं...
जीने के लिए मन की उड़ान ज़रूरी है। पर मन बताता क्यों नहीं। साथ वाले को, सामने वाले को। हम देखने में चाहे जैसे दिखें, बोलने में चाहे जैसा बोलें, लिखने में चाहे जैसा लिखें लेकिन मन में वैसे नहीं होते। ज़रा अपने मन के भीतर झांकना तो। और गाने लगना। कई बार यूं ही देखा है। ये जो मन की सीमा रेखा है। मन उसे तोड़ने लगता है।
28 comments:
सच तो यही है कि हमारे अन्दर हम जैसे कई होते हैं. अलग अलग चेहरे अकग अलग सोच जैसे मनोहर श्याम जोशी ने कुरु कुरु स्वाहा में लिखा भी है.
और फ़िर वहां अंतर्द्वंद चलता रहता है हर चेहरा दुसरे से लड़ता है और हर सोच हावी होने कि कोशिशे करती रहती है. फ़िर यूँ भी होता है कि एक ही इंसान हर किसी के साथ अलग अलग व्यवहार करता है .
किसी का बुरा से बुरा आक्षेप हम मुस्कुरा कर सुन लेते हैं और खुश भी होते हैं. और किसी की छोटी सी भी बात बुरी लग जाती है.हम सीमाएं ख़ुद ही बना लेते हैं.
खैर अंतर्मन की बातें लम्बी होती हैं अच्छा लगा पढ़ कर.
उम्मीद है जल्दी ही ऐसा ही कुछ और अच्छा पढने को देंगे आप.
सही कहा रवीश जी,
हमारा व्यवहार कई बार हमारी सोच से बिल्कुल वीपरीत रहता है।
अक्सर हम आंतरिक द्वंद्व से जूझते रहते हैं। बहुत ही कम बार होता है कि
हम उसी प्रकार से आचरण करें जो जिस प्रकार से हम चाहते हैं। लाख़ चाहकर भी ऐसा हो नहीं पाता।
शायद इस बंधन के लिए हमारी वो झिझक आड़े आ जाती है
कि न जाने लोग क्या सोचेंगे। कुछ करने से पहले ही हम पूर्वाग्रह से भर जाते हैं।
हम अपने विचारों, ख्यालातों और यूं कहें की अपने असली रूप को
सामाजिकता की बलि चढ़ा देते हैं।
मन के भीतर की बातें बड़ी उलझी हुई होती हैं...
दरअसल, मन की बातें कहने में बड़ा डर लगता है....एक सही आदमी नहीं मिलता जिससे आप मन की बातें कह सकें.... आपने एक अच्छी चर्चा छेड़ी है....
हिन्दयुग्म से भी मन के तार जोड़े रखें....
रविश ,आपका जवाब नहीं. गजब लिखते हैं आप.
टीवी में होकर भी इतना सोचना.इतना लिखना.भीड़ में होकर भी भीड़ से अलग...आपकी रिपोर्टस एनडीटीवी पर देखता रहा हूं...ब्लाग पर जब भी मौका मिला आपको पढता हूं...यूं ही अलख जगाए रहिए...
मन की किताब से तुम मेरा नाम ही मिटा देना..
गुण तो न था कोई तुम मेरे अवगुण ही भुला देना..
"Jahan na pahunche Ravi
wahan pahunche Kavi"
TV saman
Mun roopi viman
Remote dwara
Kshirsagar athva
Mansarovar se
Sanchalit hai!
Drishta Vishnu hai
Ya Shiv hai
Aur her koi bhi hai!
Surya ki kiran ko
Mamooli shisha tak
Kaid ker leta hai
Gagar mein sagar jaise!
रविशजी
और यह जो हमारा मन है उस की बाय्रिंग बहुत ही मजबूती से जीवन के शुरूआती सालों में ही हो जाती है. मूल संवेदनाएं और अनुभूतियों की आधारशिला रख दी जाती है .ऐसा नहीं की बाद के जीवन अनुभव उस पर बायरिंग की कोई नई परत या कोई और रंग नहीं चढ़हाते पर शायद नई परत और नया रंग उतना गाढा नहीं होता , की आप उठें दिल्ली में और आँखें आप के बचपन के माहौल में न खुले.
लेकिन यह स्थिती भी प्रयाप्त आनंद दायक है. इसका भी लुत्फ़ उठाया जाय.इसमें विस्थापन और अलगाव की अगर पीड़ा है तो वर्त्तमान युग की विविधतायों का मनमोहक kaleidoscop है .मन जब चाहे जैसा रंग अपने सामने ले आता है.
मन की उन्मुक्त उड़ान के क्या कहनें .आखिर मन दिए हैं तो -" पंख दिए हैं तो आकुल उड़ान में विघ्न न डालो "... की तर्ज पर - "होती पंखों की होडा होडी, या तो छितिज मिलन बन जाता या तनती साँसों की डोरी . "
मन की उडान और इसकी स्थितियों पर और इसी तरह लिखते रहें
सादर
sach hai ki mann me bahut se bhaw hote hain,mann ki seema rekha bhi tutti hai......par jahan gahraai ho,wahan mandir ke diye si chhawi hi aprtim jalti hai.....
हर आदमी में होते हैं दस बीस आदमी
जिसको भी देखना उसे कई बार देखना।
भाई बहुत सुंदर आलेख, मन को छूता हुआ ।
मन की बातें मन ही जाने। क्या मन की बातें कभी पूरी हो सकती है? लेकिन इतना पता है। मन के जीते जीत है... मन की हारे हार....
मन की बातें मन ही जाने। क्या मन की बातें कभी पूरी हो सकती है? लेकिन इतना पता है। मन के जीते जीत है... मन की हारे हार....
बढ़िया है...
दिल को छूने वाला आलेख.
"कई बार यूं ही देखा है। ये जो मन की सीमा रेखा है। मन उसे तोड़ने लगता है।"
Yeh seema rekha kisne banai?
Krishna ke anusar: agyanta ne!
Bahut samay tak manav ke man per ChandraMa, yani moon, yani - 'Hindu' ke shabdon mein - 'Indu' chhayaya tha. Wo asambhava sa swapna bhi poorna kar dikhaya 'Pachim' ne.
Ab India' that is 'Bharat', yani 'Purva' bhi bhejega 'chandrayan'
Ma yani ChandraMa per!
Kya Mata ne bulaya hai?
JC Joshi
C/o http://indiatemple.blogspot.com
जब से ये गाना आपके ब्लॉग पर देखा, इसको लगातार गुनगुना रहा हूँ। बहुत ही खुबसुरत तऱीके से गाया है हेमंत दा ने। बहुत सी पुरानी बातें मानसपटल पर अचानक तैरने लगी है। कई पुरानी यादें, पुराने भूल बिसरे किस्से सामने तैरने लगे हैं। गोया कल कि ही तो बात रही हो।बहुत शूक्रिया।
पता नही मन ने क्या तोडा
मगर आप ने मन दिल जोड़ा
दिए की लौ मन्दिर में दी जला आपने छोड़
याद दिलाया गांव का यूँ घर को जाता मोड़
इतने सारे लेकर कहां जाओगे। अच्छा सब चाँदी के है या कुछ मिलावट भी है।
पोस्ट के बारे में: बहुत सवेंदनशील लिखा ह,ै जब भी कोई बात आत्मा को छूकर जाती है तब ऐसा ही लगता है, मन की बात लगती है, अपनेपन की बात लगती हैं।
आज अपने ब्लॉग पर इसे पोस्ट किया है. मेरे भीतर की अभिव्यक्ति की जरूरत थी, इसलिए लिखा. आग्रह है, इसके लिए कोई भाव मत बनाइएगा.
मैं ठीक अपने कस्बे की तरह एक कस्बे (क़स्बा -रवीश कुमार का ब्लॉग) का जिक्र करना चाहता हूँ जो मेरे कस्बे की तरह रोज तड़के चाय की भट्ठियों के धुँए के बीच आँखे मुँचमुँचाता, सजग होता-सा दृष्ट होता है; जो अंगड़ाई लेकर उठता है और चाय की चुस्कियों के बीच अपनी संवेदना, अपनी जागृति के घूँट भरने लगता है। मैं जिस कस्बे का जिक्र कर रहा हूँ वहाँ अनुभूति बहुत दूर से अपने संकेत ग्रहण करती है, और अपनी प्रासंगिकता स्पष्ट करती हुई सार्वजनीन बन जाती है ।
मैं 'रवीश कुमार' के चिट्ठे की चर्चा कर रहा हूँ । रवीश कुमार कस्बाई आदमी हैं, उन्हें कस्बे का रिदम(rhythm) मालूम है । शब्द की बनावट-बुनावट से रवीश जी वाकिफ हैं। हूक कहाँ से उठ रही है-जानते है रवीश और उस हूक के लिए शब्द की अनिवार्यता या स्वीकार्यता को अच्छी तरह समझते हैं। मैं अपनी इस बतकही में 'क़स्बा' की अक्टूबर माह की दस लिखावटें (Posts) अपनी कई जिज्ञासाओं, स्वीकारोक्तियों एवं अनिवार्य प्रतीतियों के लिए संदर्भित कर रहा हूँ । रवीश कुमार की 'हिन्दुस्तान दैनिक' की 'ब्लॉग-चर्चा' की प्रेरणा ने मुझमें चिट्ठाकारी का भाव भरा - तो यह उस ऋण के प्रतिपूर्ति का भी प्रयास है, हो सकता है।
रवीश अपने कस्बे में बिल्कुल टटकी अनुभूतियाँ व्यक्त करते हैं । इन अनुभूतियों के शब्द रोज ब रोज की स्वाभाविक गतिविधियों से उपजते हैं और जाने अनजाने न जाने कितने मुहावरे, कितने सूक्ष्म तथ्य प्रकट कर देते है--
"अविश्वाश को कई बार सच की परछाइयाँ मिल जाती हैं। इससे सच नहीं बन जाता।" (क़स्बा : 'मेरीदलील तेरी दलील से सफ़ेद ' : बुधवार, १ अक्टूबर,२००८)
"ई-मेल और एसएमएस के जमाने में भी शब्द सिर्फ़ एक बीप साउंड बन कर रह गए हैं।" (क़स्बा : 'वेलकम तू सज्जनपुर' : शुक्रवार, ३ अक्टूबर,२००८)
"पता ही नहीं चलता। हम जागते हुए जितना बाहर बोलते हैं, उससे कहीं ज्यादा अपने भीतर बोलते हैं।" (क़स्बा : 'ये जो मन की सीमा रेखा है' : रविवार, १९ अक्टूबर,२००८)
रवीश की भाषा सहज स्वाभाविक ,सकुचाती परन्तु अभिव्यक्त तीव्रता की भाषा है। इसकी एक विशेषता लक्ष्य किए जाने योग्य है - ठहरते विलगते वाक्य, हर वाक्य की अपनी निजी संरचना परन्तु इनके युग्म से बनता है एक कठोर भावानुबंध। 'कहानी : नयी कहानी' में 'निर्मल वर्मा के गद्य पर लिखते हुए 'नामवर सिंह' जो कहते है, उसकी जमीन बदलकर, सन्दर्भ बदलकर रवीश कुमार के लिए क्यों न कहा जाय -
"उनका गद्य 'शुद्ध गद्य' है - ठेठ वाचक शब्द, विशेषणहीन संज्ञाएँ, उपमा रहित पद तथा स्वतंत्र वाक्य। अलग-अलग देखने पर हर शब्द मामूली, हर वाक्य साधारण है, लेकिन पूरा भाव जबरदस्त है। " (नामवर सिंह : 'कहानी : नई कहानी' )
चिट्ठाकारी में रवीश कुमार का अपना अनोखा अंदाज है। उनमें एक मनोहारी वैचारिकता है । विचारों में डूबते उतराते रवीश दृष्टि के दास बन जाते हैं। दृष्टिकोण से शुरू होते हैं परन्तु बाद में 'कोण' खो जाता है, 'दृष्टि' बच जाती है; 'view' गुम हो जाता है, 'vision' दिखने लगता है --
"कल सुबह तुम्हारे सपनों की नौकरी
रात भर जागकर कर रही होगी इन्तजार
गुलाबी रसीद वाले होठों से चूम लेगी तुमको
एक दम से गरीब नहीं होगे तुम, न खत्म होंगे
नौकरी में आसमान छूने के तुम्हारे सपने ।" (क़स्बा : 'ग्यारह बजे का एसएमएस' : बुधवार, १५ अक्टूबर,२००८)
रवीश जी ने अपने 'कस्बा' से चिट्ठाकारी में नया आयाम जोड़ा है । विश्लेषण से इतर कहें तो रवीश कुमार अप्रत्यक्षतः चिट्ठाकारों को कुछ मंत्र, कुछ सरोकार दिए जाते हैं - पाठ पढ़ा जाते हैं -
(१) चिट्ठे जन सरोकार से जुडें,
(२) चिट्ठों की अभिव्यक्ति 'सामान्य' से जुड़े और अनुभूति 'विशिष्ट' से,
(३) चिट्ठे प्रदर्शन का पर्याय न बनें, उनमें गति और संगति का सामंजस्य हो। आदि, आदि।
रवीश अपना 'कस्बा' लिखते हैं, उसमें अपने वैचारिक एवं भावात्मक संसाधनों का खुल कर प्रयोग करते हैं, नए चिट्ठाकारों, उल्लेखनीय चिट्ठाकारों को संदर्भित करते हैं, 'हिंदुस्तान दैनिक' में 'ब्लॉग वार्ता' लिखते हैं - शायद अपनी तमाम व्यस्तता के बावजूद। 'ब्लॉग वार्ता' की 'कमेंट्री' करते हुए रवीश कुमार वस्तुतः चिट्ठाकारी का अघोषित इतिहास लिख रहे होते हैं । मैं हर बुधवार इसे पढ़कर सोचने लगता हूँ - 'क़स्बा' की 'कमेंट्री' कौन करेगा ? रवीश तो नहीं ही।
मैं दो चिट्ठों का अनुकरण (follow) करता हूँ - 'क़स्बा' और 'रचनाकार' । पर हमेशा 'कस्बा' पर जाकर कुछ 'कहने का मन करता है'।
आप दिल की गहराई से लिखते है । और दिल की बात को ओठो से बयां कर देते है । यही तो खासियत है आपकी । मन के अन्दर हो रहे कोलाहल को आपने खूब पहचाना है ।
क़स्बा में लिखने के लिए हर कोई तैयार हैं अब हम क्या लिखे साहबजी आप के मन के तो क्या कहने हमारे मन में आपके लिए क्या क्या हैं हम बता या लिख भी नहीं सकते जहा से हम सोचना शुरू करते हैं वहा आपका मन सब कुछ कह जाता हैं और फिर मन का क्या हैं हर कोई अपने मन की करने में लगा हैं
Himanshuji ke shabdon ko pardh anand agaya!
Shabdon mein itni shakti chhipi hoti hai ki aam aadmi bahak sakta hai. Kisi 'Hindu' ko yeh batane ki avashyakt nahin hoti hai, kyunki wo janta hai, ya kum se kum sun chuka hai ki kaise anadi aur anant nirakar brahm ne kewal 'Om' shabd se hi sampoorna brahmanad ki rachna ki!
Aisa kaha jata hai ki kisi ek kavi ne kisi sthan ki us rajya se sambandhit Raja ko aisa vivaran sunaya ki us Raja ko achambha hua ki use kabhi kisi ne dharati per usi ke rajya mein swarg ka hona pehle kabhi kuun nahin bataya!
Agle din hi wo us sthan ke liye kafile ke saath nikal parda aur kai din ki yatra ke paschat wahan pahunch yatarth dekh achanmbhit rah gaya! Wo sthan ek registan tha!
Raj Thakrey ke shabd bhi kum shaktishali nahin deekhte!
Dear Ravish.
I liked your coverage of Bihar floods.
आपने मन की सीमा रेखा को मापने का भरसक प्रयत्न किया है,लेकिन यह तो अथाह सागर की तरह है, जिन ढूढा तीन पाईयां गहरे पानी पैठ,जो इसके भीतर जितना उतरा वह उपर उठता ही चला जाता है,फिर न तो कहने की कोई बात रह जाती है न सुनने की. ऐसे वि षय को छेडने के लिए साधुवाद.
Mishraji, ‘OM’ ki gahrai mein jayein to payenge ki ‘Hindi’ bhasha mein athva devtaon ki ‘devnagari lipi’ mein pratham shabd ‘a’ hai, aur ‘o’ nau-van (9). Aur iske atirikta, pratham akshar ‘Ka’ hai (jis-se ‘Brahmaji’ ka Kamal ban-ta hai), jabki ‘ma’ pachhis-van (25)…
Ab inhein yoga athva ‘bhoot’ se jord ker dekhein to Astrologers (khagol shastri) ke ‘navgraha’ arthat 9 planets, aur Vir Vikramaditya se sambandhit ‘Betal Pachchisi’ se bhi jord sakte hein!
Christians ne bhi kewal ‘alphabet’ ke pratham akshar ‘A’ ko apnate hue ‘Om’ ke sthan per ‘Amen’ shabd ka prayog kiya, jabki Islam dharm mein wo ‘Ameen’ apnaya gaya!
Sambhavatah ise kaal ka prabhav hi kahein ki adhunik ya shayad pracheen ‘Hindu’ (‘Indu’ shabd athva ‘Chandrama’ se utpanna!) gahrai mein jaane mein asamarth deekhta hai!
good enough bhai
keep it up
Happy Dipawali
आदमी शायद अपनी पूरी जिंदगी में दो रुपों में जीता है ...एक रुप वह है जिसमें हकीकत को लेकर वह सच्चाि से जीता है ..दूसरा जिसमें वो दुनिया के लिये जीता है ..जिसमें झूठ , फरेब ,मक्कारी , दुनियादारी और धोखों के साथ साथ सच्चाइ और इमानदारी भी है । पहले रुप में में १०० में से १० तो ऐसे तथ्य होते है जो सिर्फ उसी को पता होता है या यूं कहे तो दूसरों को शेयर करने की हिमाकत नही होती ।
खैर मन तो बहुत कुछ करने को उकसाता है ..अपनी इच्छाओं को पूर्ण करने में मन बाधक नही होता ..और इच्छाओं के पूर्ण ना होने के बाद ही शायद मन ने मसोसना सीख लिया ।
मन की बात मेरे मन से ना निकली
ऐसे तडपूं की जैसे जल बिन मछली ।
Baat Sahi hai jab man me antardvandita chalti hai to apne hi saath dete hai
naveen
naisadak.blogspot.com
ye sare blogs main aaj tak parhe nahi the ...jab bhi kuchh likhne ki sochti hoon , lagta hai aapka koi blog parh loon aur parhti chali jati hoon ...ek ke baad ek.
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