२९ अक्तूबर २००५ की शाम थी। हमने पत्रकारों ने धमाके के बाद चीखना शुरू कर दिया था। यहां धमाका वहां धमाका। पहाड़गंज से लेकर सरोजिनी नगर तक। ६७ लोगों की मौत। सैंकड़ो घायल। मैं सफदरजंग अस्पताल की खिड़की पर खड़ा था। अंदर झांक रहा था। लाशों को गिनने के लिए। संख्या बढ़ती जा रही थी। हर लाश किसी न किसी कैमरे के फ्रेम में कैद हो रहा था। चमकते फ्लैश के बीच ज़िंदगी का अंधेरा गुम हो रहा था। लाइव फोनो है। देखिये हमने देखा है कि अभी यहां पच्चीस लाशें हैं। नहीं रुकिये। दो और शव आ चुके हैं। संख्या सत्ताईस हो चुकी है। अफरातफरी, धमाका, आतंक ये सारे शब्द किसी टेलीप्रिंटर से होते हुए मेरी ज़बान पर और फिर दर्शकों के घर में पहुंच रहे थे। पूरी रात इस घर से लेकर उस घर तक। हम कुछ ढूंढने की कोशिश कर रहे थे। लाश और ख़बर के बीच की कोई चीज़ थी।
सरोजिनी नगर का जूस कार्नर। ठीक उसके सामने फ्रीज कवर बेचने वाले न जाने कितनी बार टोका होगा। तब भी जब फ्रिज नहीं था और तब भी जब फ्रिज आ चुका था। वहीं से जली हुई प्लास्टिक की गंध आ रही थी। वो वक्त था जब आतंक की हर घटना के बाद मीडिया शहर के जज़्बे को ढूंढ रहा था। सलाम दिल्ली की कहानी। हम यही समझते रहे कि आतंकवाद हिंदू और मुस्लिम को बांटने की साज़िश है। हम भूलते रहे कि बंटे हुए हिंदू मुस्लिम समाज की ज़मीन पर आतंकवाद पनपता है। २००५ की शाम से तीन साल पहले गोधरा और गुजरात में जो जला उसका धुंआ इन तमाम धमाकों के विश्लेषण में आता रहा। धमाके के बाद कहीं कोई नहीं बंटा। भारत की अखंडता तमाम ऐसे हमलों से बची रह गई है। बंटे हुए समाज और बांटने वाली राजनीति के साथ भारत की अखंडता भी एडजस्ट हो चुकी है।
ख़बरों में अगली सुबह की ज़िंदगी सामान्य हो जाया करती थी। २९ अक्तूबर के अगले दिन दीवाली थी। खिड़की से हवा में उड़ती फूलझड़ियां रंग बिखेर रही थीं। मीडिया कह रहा था कि नहीं टूटा दिल्ली का हौसला।
ज़िंदगी किसी सिनेमाई हौसले से नहीं चलती। रोज़मर्रा की ज़िंदगी ज़िंदा बचे लोगों को चलाती रहती है अपने आप। उसमें धमाके के बाद की अगली सुबह कोई नई ऊर्जा नहीं भरती। अब आतंकवाद सिर्फ एक ख़बर है। मरने वालों की संख्या और घायलों की स्थिति की ख़बर। सारे विश्लेषण बेकार होते हुए सरकार पर आकर ठहर गए हैं। पहाड़गंज का वो घर अच्छी तरह याद है। चाट दुकान के ठीक सामने का एक घर। शीशे टूटे हुए थे और सुबह सुबह घर का मालिक अपने उजड़े हुए सामानों के बीच अखबार लिये नीचे झांक रहा था। यह एक सामान्य सा दृश्य था। लेकिन मीडिया ने इसमें भी कहानी खोज लिया। सामान्य होती ज़िंदगी की कहानी।
तीन साल बाद सितंबर के महीने में धमाका हुआ है। कोई दिन का संयोग मिला रहा था तो कोई टाईमर और अमोनियम का संयोग। बम किसी फोटोस्टेट मशीन पर नहीं छपा करते। आतंकवाद के हमले के बाद की ख़बरें अब सड़ने लगी हैं। शोर करने लगी हैं। उन सवालों को छोड़ने लगी हैं जिनसे हो कर आतंकवाद के पनपने की कहानी बनती है। तीन साल बाद दिल्ली दहली तो अगली सुबह कनाट प्लेस के सेट्रल पार्क में लोग ट्रैक सूट पहन कर जॉगिंग कर रहे थे। मेरी ज़बान लड़खड़ा गई। मैं समझ गया। ये सामान्य ज़िंदगी के लक्षण नहीं हैं। बल्कि उस ज़िंदगी के लक्षण हैं जो सामान्य ही है। जिसे न सवाल समझ में आते हैं न समाज का पता है।
आतंकवाद किसी को नहीं बांटता। वो चंद लोगों को मार देता है बस। मार कर दूसरे शहर की योजना बनाने में व्यस्त हो जाता है। मीडिया के लिए ज़िंदगी सामान्य हो जाती है। मोदी मसीहा बनने लगते हैं और शिवराज मर्सिया पढ़ने लगते हैं। १३ सितंबर की शाम धमाके के बाद तेज कार चलाता हुआ दफ्तर की तरफ भाग रहा था। कार भी वही थी और वही रास्ता जब २९ अक्तूबर २००५ की शाम दफ्तर की तरफ भाग रहा था। एफएम रेडियो स्टेशनों पर गाने चल रहे थे। धमाके की ख़बर आ कर जा रही थी। बचे हए लोग घर जा रहे थे मीडिया की ख़बरें सुनने।
इस बार ज़िंदगी धमाके की शाम ही सामान्य हो चुकी थी। अगली सुबह के इंतज़ार करने की रवायत ख़त्म हो चुकी है। जिनके यहां मौत होती है वो कभी सामान्य नहीं होते। सरोजिनी नगर के जूस कार्नर में जिसकी मौत हुई थी उसकी पत्नी से मिला था अगले दिन। तभी कहा था कि कोई अपने को नहीं भूल पाता। हमें पता नहीं कि यह आखिरी धमाका है। जब धमाके होंगे हमें हमारे हसबैंड याद आते रहेंगे। कनाट प्लेस पर अगली सुबह यानी रविवार को उनकी बात याद आ रही थी। फिर घूमने लगे चेहरे, अहमदाबाद, हैदराबाद, मालेगांव और जयपुर के मारे गए लोगों के परिवारवालों के। सिहरने लगा कि इन घरों में सारी रात कोई नहीं सोया होगा। पत्थर हो गए होंगे। मौत की हर गिनती की ख़बरों में अपनों को भी गिन रहे होंगे।
22 comments:
कुछ साल पहले 26 जनवरी के भूकंप के दौरान गुजरात में ही थी....आज भी महीने में एक बार रुक कर देखती जरूर हूँ...कहीं धरती हिली तो नहीं......
जिसपर गुजरती है वह भूल नहीं पाता....और बाकी को याद नहीं रहता..
apathy और sensitivity के बीच हर स्तर पर जंग छिड़ी हुई है।
जिन पर बीती उन्हें छोड़कर बाकी लोगों के लिए तो किसी न किसी तरह से फायदे का ही बिजनेस दिख रहा है. कहीं राजनीति में फायदा कहीं टीआरपी में. सामान्य वही नहीं हो पायेंगे जिन पर बीता.
Ravish ji
Nirdosh logon ki aisi hatya ke baare men kya kaha jaay.
Pata nahin vidwan log is ki paidais itihas men kahan se dhoondengen. par yah khanti nayi cheej hai.iska naya daur Delhi men 80 ke dasak men Transitor bomb kand se shuru hua.
aisi manviya trasadi , lagata hai hathode maar maar kar samuhik samvedana ko kund kar raha hai koi.
hamare jaise logon ko shawdon ki kami pad jaati hai.
Rajsatta iske aage vivash lagati hai.
Ek loktantrik samaj iska kaise mukabla kare.
aadmiyon ka samooh kaise is tarah ke jaghany apradh kar sakta hai.
lagata hai ki is tarh nirdoshon ka katleaam khetihar samaj men shayad sambhaw nahin tha, ya shayd yeh meri khushphami ho.
Ravishji
Is samasya ka koi samadhan sujhe to batayen.
Aisi manviya trasadi ko ek tv patrakar ke taur par cover karna bhawanatmak roop se chunauti lagati hai
Saadar
रवीश जी इस देश में जब कभी संवेदना लोगों को आपस में जोड़ती थी पराए लोग भी अपने लगते थे।एक दुसरे की विपदा अपना ही लगता था।समय की रफ्तार में हम अपने अन्दर की अत्मा को मार कर फेंक दिया और मान बैठे की बिना आत्मा का कत्ल किए आगे नहीं बढ़ सकते।और हम संवेदन हीन हो गए ।पर आपक यह सावाल समझ में नहीं आया कि बंटे हुए हिन्दु मुस्लिम समाज की जमीन पर आतंकबाद पनपता है ।पाकिस्तन में कहां हिन्दु मुस्लाम का कंसेप्ट काम कर रहा है ।आफगानीस्तान में तो एक ही कौम विराजती है।चलते है इराक की ओर क्या यहां भी इस्लाम के सामने हिन्दु या क्रिश्चन खड़ा बांग दे रहा है ।क्या यहां भी कोई नरेन्द्र मोदी सुरसा बना बैठा है।रवीश जी इस देश में विस्फोट के बाद बहुत सारे लोग बांग देना शुरु कर देते हैं,कहा जाता है कि आतंक का कोई धर्म नहीं,मजहब नही होता तो आप कैसे कह सकते है कि बंटे हुए हिन्दु मुस्लिम समाज की जमीन पर आतंकवाद पनपता है। रही बात जिंदगी के उस लक्षण की जो सामान्य हीं है तो महोदय लोगों को पता है कि हमें इसी माहौल में जिना है कल कोई लालू सिमी की तारिफदारि करेगा ,तो कोई मुलायम बोट की खातीर सिमी को अपना देवता मान बैठेगा। रामविलास को मत भुलिएगा वो दिल का किताना बड़ा है बंग्लादेशियों को देशमें पनाह देगा। वेवकूफ तो वो है जो सीमा पर जान की बाजी लगा्ते है। एक अपील उन लड़ाको से कब तक मरते रहोगों सीमा पर। नपुंसक लोकतंत्र के ढकोसला के माया जाल को तोड़ डालो।
हाल ही में नैंना देवी में जो हादसा हुआ था..यकीन मानें कि रास्ते में लाशें पड़ी थी और लोग उन्हें एक नजर देखकर हाथ जोड़ते हुए माता के दर्शनों के लिए ऊपर जाते जा रहे थे। वहां जीवन कुछ मिनटों बादी ही सामान्य हो गया।
Daarsal zindagi ki raftar ne saab ko abhut zyada busy ya sahi main kaha jaye selfish bana diya hai.... zindagi to apni raftar se hi chalegi....haam kaam p bhi jayenge lakin badi badi batao main haam aapni duty bhool jate hai ya nibhana nahi chahte....
tabhi khabar sirf khabar baan gayi hai or samasya sirf samasya......
भारत में शायद सामान्य जीवन का मतलब ही है हफ्ते भर की मगजमारी और वीकेन्ड पर घर में चैनल बदल-बदल कर पड़ोस में बम से उजड़ी जिंदगियों की चटपटी कहानियों से updated रहना.... मनमोहन या शीला जी को पता भी नहीं होगा कि गफ्फार मार्केट पड़ता कहाँ पर है....दिल्ली में कि लखनऊ में.... कैबिनेट मीटिंग करके पता नहीं क्या उखाड़ लेगी सरकार...मोदी ऐसे सीना फुलाकर बम फटने की ख़बरों पर दाद बटोर रहे थे जैसे भाजपा इस घटना के इंतज़ार में थी कि "अच्छा किया मोदीजी, आपके कहने पर सरकार ने कोई कदम नहीं उठाया....वरना बम फटने के बाद हम भी चेहरा छिपा रहे होते.....आतंकवादियों ने हमें गौरवान्वित किया है..."
इंडिया न्यूज़ चैनल ने ९.३० पर एक और बम संसद मार्ग पर फटने की ख़बर दी..... ये बम बस उसी चैनल पर फूट रहा था.....दीपक चौरसिया एक कांस्टेबल को कैमरे में कैद करने के लिए बेताब थे...बेचारा suspend होने के डर से मुंह छिपाकर भागा जा रहा था कि कहीं कैमरे के सामने कुछ ग़लत-सलत मुंह से निकला तो गई नौकरी....मगर दीपक जी इस कम ओहदे के पुलिस वाले की मजबूरी को दिल्ली पुलिस की मुंहछिपाई साबित करने पर तुले थे....दाद बटोर रहे थे....
शुक्र है इंडिया टी वी इस वक्त किसी ज्योतिष की राय नहीं ले रहा था वरना हम तो उम्मीद में थे कि इंडिया टी वी इसे प्रलय का हिस्सा और वैज्ञानिकों की मनमानी का फल न साबित कर दे....
Netaao aur prashasan ne ek baar fir wahi chabe-chabaaye shabdo ki ulti kar di. shayad hamaara samucha tantra apni napunsakta se kabhi baahar aa hi nahi sakta.
कई बार लगता है कि आए दिन होने वाले बम धमाको से हम संवेदनहीन होते जा रहे है। इस राय से हो सकता है आप सहमत ना हो लेकिन अब बम विस्फोट की खबर अब इतना विचलित नहीं करती।
सब कुछ सामान्य जिंदगी का हिस्सा नजर आता है।
कई बार सोचता हुँ कि शायद मैने किसी अपने को नही खोया इसलिए एसा सोचता हूँ। कितनी खुदगर्ज सोच हो गई है मेरी ।
its really tough to understand wats going on in our country, i don't agree that terrorism flourish on the ground of devided hindu muslim. i think it grows on the ground of devided society....... thats why it get a very safe heaven in our country. who is responsible is tough question. i admit that being the citizen of this country i m also responsible for this and i think all true citizens will think in the same manner.
its so easy to claim that after these blasts too life in the city is normal. i believe the city which bears these blast can't be normal so how come life after blast looks normal to all...... its totally insensitivity on the part of the people who claim that life is normal on the second day fo the blasttttttttt.
क्या होगा है, इस देश का। कितनी आसानी से विस्फोट कर देते है।सारा सूचना तंत्र मजाक बन कर रह जाता है।अब लगता है किस दरबार मे दाकर गुहार लगायी जाए।इन विस्फोटों की अहमियत इतनी है कि मीडिया हो आलोचक हो जिनको अपनी लेखनी का दम दिखाने का मौका मिल जाता है सब मे वाह वाही लूटने की होड़ तग जाती है।रविश जी से िचना कहना चाहुंगा इतनी संवेदना दिखाने के लिए धन्यवाद।शायद हमारे ये सिपाही तो कुछ नही करेंगे ये खोखले हो चुके है।हां कलम के सिपाही क्या करते है ये देखना है।
हम हिन्दुस्तानियों का नया नारा है....
दुनिया में गम बहुत हैं किस-किस को रोईये ..
आराम बड़े काम की चीज है मुँह ढककर सोइये....
हम भारतीय अपने ड्राइंग रूम में चाय और काफी की चुस्की लेते हुए धमाकों के बेहतरीन दृश्य देखते हैं ....और मजा लेते हैं ....
औऱ हमारे चैनल हमारे लिए चिल्लाते हैं कि देखिये ये धमाकों का सबसे नया नजारा है जो सिर्फ हमारे पास है और किसी के पास नही हैं..आप हमारे साथ बने रहिये हम आपको इससे भी अच्छे दृश्य दिखायेंगे....
ravish ji. namaskar.
dhamakon ke baad zindagi ka samanya hona newton ke is niyam ki tarah hai ki--
"kriya ki pratikriya hoti hai."
hamare desh me angrez ek hi cheez chor gaye hain-"sweekarna".
yahi sweekarna hamari niyati ban ja rahi hai. karne ka jajba samapt pray ho gaya hai.
dushyant kumar ki wo lines yaad aa rahi hain--"mai fir janm lunga, unhi uchakti nigahon ke beech....... aur fir.."
यह प्रश्न यही ख़त्म नही हो जाता। हमारी आदतें कुछ इस तरह से है कि हम जल्दी ही किसी भी समस्या का विकल्प तलाश कर लेते है। समस्या का समाधान हम करना नही चाहते है। हमारी संवेदना एक या दो दिन में नही मरी हैं एक सतत प्रक्रिया ने इन्हे मार डाला है। और बची मीडिया तो इस पर अतिरिक्त ज़िम्मेदारी आन पड़ती है लोगों तक ख़बरे पहुँचाने में संजीदगी बरतने की। लेकिन जाने कैसी होड़ है लाशों पर राजनीति होती है तो आज मीडिया भी पीछे नही है लाशों को कैश ये भी कराना चाहती है। कुछ समझ में नही आता है मुझे। मै केवल इसलिए घबरा उठता हूँ कि मै खुद भी मरता जा रहा हूँ.......
सच कहूं तो बड़ा डर लगता है...आतंकवाद से ज़्यादा डर हमारी प्रतिक्रियाओं से। हमें वाकई फ़र्क पड़ना बंद हो गया है कि कौन जिया कौन मरा जब तक कि उसमें कोई अपना शुमार न हो। थोड़ा सरकार को कोसा, थोड़ा आतंकवाद को, थोड़ा पाकिस्तान को और चाय की अगली चुस्की में ये गया दिल्ली सीरियल ब्लास्ट...हम जिन चीज़ों में जज़्बा तलाशते हैं वो शुरु से ऐसी ही हैं। दिक़्क़त दरअस्ल ये है कि दर्शक शायद जज़्बे की ही कहानियों में दिलचस्पी रखते हैं वर्ना धमाके के उसी शनिवार को अलसुबह तक अलमस्त लोग नोएडा के डिस्कोथिक में थिरक रहे थे। लेकिन छी: धमाके के अगले दिन ये भी कोई कहानी हुई भला !
Kya aapko 'cinema' mein aur 'yathart' mein kuchh anter dikhai pardta hai? Film mein kya aap dhamakon ko usi bhav se nahin dekhte jaise anya drishyon ko?
Shayad yehi 'Prabhu ki Maya' kahlai gayi - kewal ek natak! Mata ke darshan hetu, hath jorde sirdhiyan chardhta, bhi ek kalakar matra hi hai jo likhe likhaye dialogue bol raha hota hai!
saayad isi samanya ho jane ko aajkal ''SPIRIT OF THE CITY'' kahtey hain, par main yeh manta hoon yeh kayarta hai! pratiwad nahi karna aur jindagi koh aagey badhana dono alag baatein hain, ek khabar pichli khabar koh baasi kar ddeti hain, pahle KOSI, phir DELHI blast aur ab SENSEX .. LOG SAB BHOOL kar aagey badh rahein hain, 40 lakh logon ki tabahi,ko bhool kar delhi bomb blast mein aa gaye, aur ab usko bhula kar LEHMAN brothers ki diwalia hone ki khabar. Koi yah batayega ki yoon refugee ki tarah kyon chal rahey hain hum, sirf apna aur apne baare mein sabkuch bhool kar.
Yeh jo safedposh hamarey beech hain inko isi baat ka intejar rahta hain, aaj bihar k badh ki khabar purani ho gayee, sivraj patil relaxed hain, chidambaram ji k governor vyast hain. NAYA DIN NAYEE HEADLINES.. MARNEY WAALEY MAR GAYE HUM LOG UNKO BHOOL KAR JINDAGI KO SAMANYA KAR RAEY HAIN? Is weekend par koi gosthi ho gi tv par ayr usmey kuch darpok celebrities aayenge aur doon school wali angrezi mein kahenge, ''WE SALUTE THE SPIRIT OF DELHI''Yeh saayad khud itna spirit daal kar aatey hain ki inko yeh bhi pata nahin ki kiskey barey mein baat ho rahi hai....
रविशजी हमने डीज़ास्टर मेनेजमेन्ट में पढा है कि दो विपदाऎ होती हैं एक मानवसर्जित दूसरी कुदरती।
गुजरात इन दिनों दोनो ही विपदाएं झेल चुका है।
फर्क इतना है कि......
मानवसर्जित आफ़त ___दिलों को तोडने का काम करती है। और
क़ुदरती आफ़तें ___दिलों को ज़ोडने का काम करती हैं।
आपकी क्या राय हैं?
यह घटना भी पिछले दिनों जयपुर, बंगलुरू व अहमदाबाद में हुई विस्फोट की घटनाओं जैसी ही है और इसकी जिम्मेदारी लेने वाला आतंकी संगठन भी वही इंडियन मुजाहिद्दीन है। समानताएं केवल घटना की प्रकृति में ही नहीं, इन घटनाओं के बाद देश के राजनीतिकों और नौकरशाहों व सुरक्षा एंजेंसियों की प्रतिक्रियाओं में भी है।...और यही नहीं समानता जनता की प्रतिक्रिया स्वरूप संवेदना में भी है...यानी यदि दो-चार दिनों तक कोई और विस्फोट नहीं हुआ, तो 13 सितंबर को दिल्ली के करोलबाग, गफ्फार मार्केट, कनाट पैलेस व बाराखंभा रोड क्षेत्र में हुए बम विस्फोट और उससे हुई ताबाही को भी हम भूलने लगेंगे और भूलते-भूलते अचानक से फिर एक दिन किसी शहर में श्रृंखलाबद्ध बम विस्फोट की खबर सुनकर सहम जाएंगे।...
रविश जी ,धमाकों के बाद सामान्य होती ज़िंदगी , में आप की चिंता ,आप की भावना देखकर ऐसा लगता है ,अभी भी समाज में शेष है मनुष्यता , सुरक्षित है संवेदना .
दहशतगर्द अपने मौत के बारूद से एक झटके में किसी शख्स को उड़ा देते हैं....वो मर जाता है..हमेशा के लिये चला जाता है...लेकिन मौत के सौदागार..उस शख्स के साथ-साथ उस परिवार को भी मार देते हैं..जिसने अपना खोया होता है..वो परिवार जीते जी मर जाता है...बेटी-बाप के हाथों विदा नहीं हो पाती...मां..लाड में बेटे को खाना ना देने की खाली धमकी नहीं दे पाती..बहन..भाई की कलाई खोजती रह जाती है..भाई-भाई का हाथ ढूंढता रह जाता है..बीवी...पति से झूठ-मूठ का झगड़ा नहीं कर पाती..दोस्त..पीने-खाने के महफिल में उसे तलाशते रह जाते हैं ...आतंकवादी...खूनी खेल-खेल लेते है..जाने वाला दुनिया से चला जाता है..कोई..लाख बुला लो..रो-रोकर सिर पिट लो..जाने वाला...आते ही नहीं ..सुना है उस दुनिया में मोबाइल भी काम नहीं करता..कोई आवाज नहीं पहुंचती..वहां सब कुछ साउंड प्रूफ है..मेरे जैसे लोग...बुरा हुआ भाई..आतंकवादी दरिदें है...पुलिस नाकारा है..सरकार बेकार है..ये हो क्या रहा है..कहते रह जाते हैं...
विपिन देव त्यागी
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