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ज़हर खाये मरीज़ों के लिए आईसीयू की विशेष सुविधा। भिवानी के प्राइवेट अस्पतालों में ज़हर खाये मरीज़ों के लिए अलग से प्रचार के लिए जगह बनाई जाती है। ऐसे मरीज़ों को लेकर काफी प्रतिस्पर्धा है। इनसे कमाई काफी होती है। भिवानी में ऐसे मरीज़ों की संख्या भी कम नहीं। हमने वहां के एक डॉक्टर जे बी गुप्ता से पूछा कि ज़हर खाये मरीज़ों का अस्पताल कुछ समझ में नहीं आया तो गुप्ता ने जो बताया उसे यहां लिखना चाहूंगा।
भिवानी में हर दिन एक या दो केस ज़हर खाने के आते हैं। कुछ समय पहले तक दहेज की सताई महिलायें और कर्ज के मारे किसानों की संख्या अधिक थी। लेकिन अब बेवफा मर्दों के कारण पत्नियां सल्फास खा लेती हैं। विवाहेत्तर संबंध पारिवारिक तनाव का बड़ा कारण बन रहे हैं। सुसाइड करने वाली ज़्यादातर औरतें इसी मामले से जुड़ी होती हैं। डॉक्टर जी बी गुप्ता ने बताया कि हर दिन एक या दो केस आता है। यह वो संख्या है जिसे हम बचने लायक मान कर भर्ती करते हैं। वो संख्या नहीं है जिन्हें मृत मानकर वापस भेज देते हैं। ज़िला अस्पताल में भी सुसाइड के केस काफी आते हैं।
बस हमारी दिलचस्पी बढ़ने लगी। हम और जानना चाहते थे। इससे पहले किसी भी शहर में ज़हर खाये मरीज़ों के लिए अलग से सुविधा जैसी बोर्ड पर मेरी नज़र नहीं पड़ी होगी। मैं भिवानी को बिजेंद्र और जितेंद्र की कामयाबी की कहानी के पार जाकर देखने की कोशिश कर रहा था।
पता चला कि बेवफाई की मारी पत्नियों के अलावा कुंवारी लड़कियों का नंबर आता है। ये वो कुंवारी लड़कियां हैं जो इम्तहानों में फेल हो जाती हैं। इनकी पढ़ाई चौपट होती है। घर में मां बाप लाठी लेकर पिल जाते हैं क्योंकि फिर से खर्च करना होगा। इससे भी ज़्यादा तनाव इस बात को लेकर हो जाता है कि फेल होने से शादी में दिक्कत होगी। बिहार में हमने देखा था कि किस तरह से गार्जियन( मां बाप का एक संभ्रांत नाम) अपनी बेटियों को पास कराने के लिए कॉपी चेक करने वाले मास्टर के पांव पड़ते हैं। उनकी दलील होती है कि पास कर दीजिए नहीं तो शादी नहीं होगी। लड़के वाले को पढ़ी लिखी लड़की चाहिए। बेटी का बाप मास्टर पिघल जाता था।
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ख़ैर डॉ गुप्ता ने बताया कि इस दोहरे तनाव के कारण नतीजों के महीनों में रोज़ानो सुसाइड करने वाली लड़कियां लायी जाती हैं। हमने पूछा कि फेल करने वाले लड़के नहीं होते तो जवाब मिला नहीं होते। जबकि तीसरे नंबर पर नौजवान ही आते हैं। लेकिन इनका कारण फेल करना नहीं होता। बाप से मोबाइल या मोटरसायकिल नहीं मिलने के कारण नौजवान आत्महत्या तक की कोशिश कर लेते हैं। इस सामाजिक आर्थिक आकांक्षा का विश्लेषण किया जाना बाकी है। जिस शहर में एक भी सिनेमा घर न हो वहां इस तरह बंबईया शौक कैसे युवाओं को आत्महत्या की तरफ धकेल रहे हैं। भिवानी में तीन सिनेमा हॉल थे जो अब बंद हो चुके हैं। यहां के लोग पायरेटेड डीवीडी के भरोसे फिल्म देख रहे हैं। इनसे मनोरंजन का सार्वजनिक अधिकार भी छिन लिया गया है। मल्टीप्लेक्स दौर ने छोटे शहरों को सिनेमा से वंचित कर दिया है। इसके बाद भी मरने और जी कर कुछ कर जाने की तमन्ना को बड़े शहरों वाले अपने पैमाने से समझना चाहते हैं।
भिवानी की कामयाबी पर जश्न के साथ साथ इन सवालों से भी टकराना होगा। पूछना होगा कि कहीं ओलिंपिक की कामयाबी के बहाने हम इन शहरों के यथार्थ से मुंह मोड़ने की कोशिश तो नहीं कर रहे। आखिर बिजेंद्र को मेडल दिलाने में इन शहरों ने क्या दिया होगा। कोच के अलावा। यहां की टूटी सड़कें, बिजली का न होना, बसों की छत पर सफर ये सब किसी कामयाबी का फार्मूला हैं या अरबों रुपये की पंचवर्षीय योजनाओं की नाकामी की तस्वीर। न होती तो ज़हर खाये मरीज़ों के लिए आईसीयू की सुविधा जैसे बोर्ड न होते।