जब भी मुझे अकेले में डर लगता है

जब भी मुझे अकेले में डर लगता है
भीड़ में खो जाने का मन करता है

अक्सर मेरा मन चुप सा हो जाता है
अपनी ही बातों पर बोर सा हो जाता है

हर वक्त किसी का इंतज़ार सा रहता है
कैसा अकेलापन है जो बेचैन सा रहता है

जब भी मुझे अकेले में डर लगता है
भीड़ में खो जाने का मन करता है

लौटने की चाह में घर जल्दी भागता है
भीड़ से घबराता है तो अकेला हो जाता है

तबीयत और शख्सियत का हाल पूछता है
जितना मज़बूत है उतना ही थरथराता है

जब भी मुझे अकेले में डर लगता है
भीड़ में खो जाने का मन करता है

5 comments:

राजीव रंजन प्रसाद said...

जब भी मुझे अकेले में डर लगता है
भीड़ में खो जाने का मन करता है

ये दो पंक्तिया ही पूरी कविता हैं रवीश जी। अच्छी रचना।

*** राजीव रंजन प्रसाद

Udan Tashtari said...

हर वक्त किसी का इंतज़ार सा रहता है
कैसा अकेलापन है जो बेचैन सा रहता है
जब भी मुझे अकेले में डर लगता है
भीड़ में खो जाने का मन करता है

--क्या बात है, रविश जी. यह कौन सी दिशा ली जा रही है? :) बढ़िया भाव हैं, बधाई.

np said...

pehle to tumne metro dekhee ...uskee itnee tareef ke . ab kehte ho kiseee ka intezaar sa rehta hai ....extra marital affair kar rahee ho...kaun hai ..batao mere dost

Ramashankar said...

डर और भीड़ ... अपने आप में ही सब कुछ कह जाते है विषय अच्छा चुना. बेहतर रचना.
बधाई.

विनीत उत्पल said...

जब भी मुझे अकेले में डर लगता है
भीड़ में खो जाने का मन करता है
॰॰॰
बात अपनी कहें या दूसरों के मन की, सच तो सच होता है रविशजी,
जाने या अनजाने अकेले डर सभी को लगता है।
किसी के चेहरे पर भाव दिखता है तो कोई इसे छिपा लेता है रविशजी,
वैसे लोगों का क्या कहेंगे जो दिखते कुछ और होते कुछ हैं।
बहुत खूब लिखा है आपने।