भूत होते हैं।

फैंटम के मुक्के का निशान गहरा होता है। सिर्फ खोपड़ी के निशान। फैंटम को कोई नहीं देख पाता। सिर्फ उसका यह निशान दिखता है। विक्रम और बेताल। या फिर वो मशहूर गाना। कहीं दीप जले कहीं दिल। अशोक कुमार का बागीचे में गाना गा रहे आवाज़ को ढूंढना। झूले के करीबा जाना और झूलती हुई नायिका का गायब हो जाना।

कहानी, कार्टून और फिल्म। कोई भी माध्यम हो सबमें भूत होते है। हम सिर्फ उस दुनिया में नहीं रहते जो ईंट गारे की होती है। जिसमें विज्ञान से बनीं सड़कें होती हैं। साहित्य को विज्ञान से प्रमाणित किया जा सकता है? भूत का विशाल साहित्य है। इसके कई नाम हैं। आत्मा, प्रेतात्मा, प्रेत, चुड़ैल, भूत, बेताल, रूह, दैत्य आदि आदि। इतने नामों का आभासी किरदार टीवी चैनल के आने के पहले से है। मैं टीवी पर भूत प्रेत के दिखाये जाने पर कुछ नहीं लिख रहा। ठीक है कि संदर्भ उन्हीं से मिला है मगर लिख रहा हूं भूत प्रेत पर। उनके होने पर।

हिंदुस्तान की हर मां अपने बच्चे को खिलाने के लिए तरह तरह के भूत गढ़ती है। भूत के नाम पर बच्चे को सुलाती है। फिर बच्चा भी कभी कभी भूत के नाम पर मां बाप को डराने की कोशिश करता है। भूत न होता तो मांओं को खिलाने में कितनी दिक्कत आती। भूत से उनकी कल्पनाएं बेहतर हो जाती हैं। वो अपने आस पास की चीज़ों से भूत को गढ़ती हैं। घड़ी वाला भूत। टीवी वाला भूत। घंटी वाला भूत। साधू का भी नाम भूत प्रेत की श्रेणी में ही लिया जाता है। बच्चे का भी रोमांच बढ़ जाता है और वह खाने लगता है।

लिहाज़ा भूत है। हमने बचपन में भूत के होने की कई कहानियां सुनी हैं। ओझा को भूत झाड़ते हुए भी देखा है। और मुहावरा भी सुना है कि भूत चढ़ गया है, झाड़ देंगे। भूत वो कल्पना है जो सबसे अधिक मात्रा या रूप में हमारे आस पास होता है। जिसका अहसास होता है उसी का वजूद होता है। प्यार कोई देखता नहीं है। अहसास है और उसका वजूद है। लिहाज़ा भूत भी है। मैं भूत प्रेत के नाम पर अंधविश्वास नहीं फैला रहा। बल्कि कह रहा हूं कि हमारे सामाजिक जीवन में इनकी मौजदूगी है। घर से लेकर नीम के पेड़ तक भूतों के डेरे। पायल की आवाज़। नाक से बोलने की आवाज़। भूत का सफेद लिबास।

एक कल्पना हकीकत की तरह हमें घेरे रहती है। हम जानते हैं कि भूत नहीं होता। मगर मानते हैं कि भूत होता है। और भूत न हो तो क्या होगा? रोमाचंक, सिहर उठने वाली कल्पनाएं कहां से आएंगी। भूत को रहने दीजिए। टीवी चैनल पर नहीं मगर हमारी कल्पनाओं में। वाकई अगर भूत न होते तो क्या इतने सारे कार्यक्रम होते? आप भी मज़ाक करते हैं। होते हैं भई। जब दिखता ही नहीं तो कहां से देख सकेंगे। टीवी देखते रहिए क्या पता कब भूत दिख जाए। टीआरपी की पूजा कीजिए। एक दिन या तो टीआरपी का भूत निकलेगा या टीआरपी के कारण भूत मिल जाएगा। ख़बर पढ़ते हुए। टीवी देखो भई।हम भूत देखने के एतिहासिक क्षण के करीब हैं।

13 comments:

azdak said...

मैं देख रहा हूं! आपके इस लिखे में ही भूत दिख रहा है!.. अभी कुछ नन्‍हें सिपाही हल्‍ला मचाते हुए भी आएंगे कि देखो, फिर भूत को चढ़ा रहा है!.. आप भूत की बात निकाल के खामखा एक नया पिटारा खोल रहे हैं! कहनेवाले कहेंगे रवीश कविताओं से मार खाने के बाद अब एक नए प्रतीकवाद में उतर रहे हैं.. उतरिए तो संभल के उतरियेगा, साथी.

Ashish Shrivastava said...

रवीश जी,

आपने विदर्भ की कवरेज की है, वहां एक अंधश्रद्धा निर्मूलन समीती है। यह समिती खूले आम चुनौती देती है कि भूत प्रेत या कोई भी चमत्कार दिखाओ, २ लाख का इनाम पाओ!

आज तक किसी ने यह पुरस्कार नही जिता है!
एक समय मैने भी इसके लिये काम किया है!

Sagar Chand Nahar said...

भूत प्रेत हो या ना हों पर भूत सचमुच हमें बचपन से लुभाते आये हैं। हम भी अपने बच्चों को भूत आया कह कर कभी सुलाते तो कभी खिलाते आये हैं। और हमारे माता पिता भी।
अच्छे अच्छे बहादुर अकेले में किसी परछाई को देखकर भूत का भ्रम पाल लेते हैं ( मैं भी) और अच्छे अच्छे नास्तिकों को उस समय हनुमान चालीसा याद आ जाता है। :)
भूत प्रेतों पर जनप्रिय लेखक ओम प्रकाश शर्मा का पिशाच सुन्दरी नामक उपन्यास बहुत चर्चित है। पचासों बार यह उपन्यास पढ़ा होगा पर अब भी पढ़ने में मजा आता है।

विनीत उत्पल said...

रविशजी,आज से करीब डेढ़ साल पहले प्रेस इंस्टीट्यूट आफ इंडिया की पत्रिका विदुर में मैंने लिखा था'अंधविश्वासों को पुख्ता करता मीडिया'.यदि आप उसे पढ़ें तो कुछ बातें तो समझ में आ ही जायेगी.

विनीत उत्पल said...

2००5 के अक्टूबर-दिसंबर अंक में

Satyendra Prasad Srivastava said...

न भी हो तो क्या फर्क पड़ता है। भूत से ज्यादा परोपकारी और समाज सेवक शायद ही कोई हो। दिखते नहीं, फिर भी कितनी मदद करते हैं। छोटे बच्चे की बदमाशी से परेशान मां से लेकर रोज चालाक होते दर्शकों की चुतरता से परेशान चैनल चलाने वाले दिग्गजों की। दरअसल अब भूत ही भविष्य है।

Monika (Manya) said...

बस इतना कहूंगी की प्लीज भूतों को रहने दिजीये.. मुझे बच्पन से भूत-प्रेत के किस्से , कहानियां, फ़िल्में, किताबें, धारावाहिक सभी पढने देखने और सुनने का बहुत शौक रहा है.. अगर भूत नहीं रहे तो ये सब कहां से आयेंगे.. मुझे भूत पसंद हैं../ और सही है.. जो दिखता नहीं वो किसी को कैसे दिखेगा.. इस्लिये भूत को भूत ही रहने दिजीये..

editor said...
This comment has been removed by the author.
editor said...

In my childhood I was told by an elder that even spirits are divided amongst communal lines.

That's why bhoot are Hindu and djinns (jin) are Muslim. :)

Sanjeet Tripathi said...

हमरे इहां भी अंधश्रद्धा निर्मूलन समिति लगी है अपने काम में, अच्छा काम कर रही है!!

पर भैय्या! ई सब टी वी चैनल को का हो गया है, सबै भूत दिखाने के चक्कर मा लगे रहते हैं और खासकर तो वो इंडिया टी वी जब तक दिन मे एक दो बार कौनो ना कौनो भूत वाली खबर ना दिखा ले लगता है इनका खाना ही नही पचता!

पका डाले हैं ई सब दिखा दिखा के मानो इहां अउ कछु है ही नही दिखाने के लिए।

ravishndtv said...

आपको यह जानकर हैरानी होगी कि भूतो पर दिखाये जाने वाले कार्यक्रम की टीआरपी दुगनी हो जाती है। क्योंकि इसे भूत भी देखते हैं। आप अकेले नहीं देखते आपके साथ कई प्रेतात्माएं एक साथ भूत पर दिखायें जाने वाले कार्यक्रम देख रहे होते हैं। जहां कोई नहीं होता वहां भी देर रात भूत टीवी औन कर के देखते

ढाईआखर said...

रवीश भाई, आप देख ही रहे हैं कि भूत कितना लोगों को भा रहा है। अच्छा एक बात बताइये, भूत भी आभासी ही होता है न्।

ravishndtv said...

नसीर
मैंने भूत को नहीं देखा। शायद के आधार पर कह सकता हूं कि आभासी होता है। यह भूत के दिख जाने तक की स्टाप गैप अरेंजमेंट हैं। दिखते हैं आभासी की जगह साभासी लिखा जाएगा। भूत की प्रतीक्षा कीजिए।