भाग मिल्खा भाग

भाग मिल्खा भाग देख कर निकला तो आख़िरी सीन ने कुछ ऐसा असर डाला कि राकयेश मेहरा को संदेश भेज दिया कि शानदार सिनेमा है । तीन घंटे से ज़्यादा की यह फ़िल्म उसके देखने के बहुत देर के बाद जब ज़हन में दोबारा चलने लगती है तो बहुत सारी छवियाँ सवाल बनने लगती हैं । फ़िल्म शानदार से अच्छी के स्तर पर आने लगती है । मिल्खा सिंह की अपनी कहानी किसी गाथा से कम नहीं । महज़ उनकी व्यक्तिगत कहानी नहीं है बल्कि उसमें एक ऐसा रक्तरंजित अतीत है जो बँटवारे की बुनियाद पर बनी छत पर हमेशा बैठी रहती है । मिल्खा का अतीत हिन्दुस्तान का भी अतीत है । विभाजन और हत्याओं के सिलसिले को राकयेश मेहरा ने एडिटिंग से पैदा किये जाने वाले प्रभावो से ज्यादा ही सिनेमाई और नाटकीय बनाया है । एक ऐसा स्केच खींचा है जो दर्शक के पूर्वाग्रहों को पुनरस्थापित करता है । मिल्खा के पिता के सर कटने का प्रसंग सही है मगर इस हकीकत को स्टीरियोटाइप फ्रेम में फिल्माया गया है । फिल्म के कई भावुक क्षण अभिनय से असरदार हो सकते थे मगर एडिटिंग के खेल के कारण ज़्यादा असर नहीं छोड़ पाते । गानों का इस्तमाल उस पंजाबियत का असर लिये है जो आजकल की फ़िल्मों में बेज़रूरी मौज मस्ती के लिए किया जाता है । कोई गाना यादगार नहीं है । सब औसत है और झनझनाहट के बाद बेअसर हो जाता है । भाग मिल्खा भाग काल्पनिक कब होती है और हक़ीक़त कब होती है समझना मुश्किल हो जाता है । इन सब चक्करों में राकयेश न पड़े होते तो थोड़े कम समय में ज़्यादा प्रभावशाली फिल्म बनती, जिसमें कैमरे का कमाल कम कथा का असर ज़्यादा होता है । शरणार्थी शिविरों के बचपन में मर्दानापन पनपने के स्वाभाविक माहौल को बेहतर तरीके से फ़िल्माया है । तंबू में सेक्स का सीन और मिल्खा का चादरों की दीवार को गिरा देना अलग से समझ की मांग करती है । हिंसा के शिकार लोग हैं, सब कुछ गंवा दिया है ऐसे में यह नितांत निजी प्रसंग मिल्खा के ज़हन को और विचलित करता है । फिल्म अच्छी है और ऊब के चंद अंतरालों से गुज़रते हुए देखी भी जा सकती है । दोनों मुल्कों का आधुनिक इतिहास रक्तपात से शुरू होता है । इतनी हिंसा है कि उसे लगातार समझना पड़ता है । सदियों और पीढ़ियों तक समझना पड़ता है । इस संवाद से ज़्यादा कि हालात बुरे होते हैं इंसान नहीं ।  । फिल्म आख़िर में एडिटिंग के असर से महान लगने लगती है जब मिल्खा की जीत के क्षणों में उसका बचपन साथ साथ दौड़ता है । मिल्खा की जीत हिंसा के निजी और राष्ट्रीय अतीत को भविष्य का रास्ता देती है । मिल्खा उस देश की ज़मीन पर जीत हासिल करते हैं जो उनका ही था मगर तलवार ने अलग कर दिया । अपनी पैदाइश की ज़मीन पर एक दूसरे देश की पहचान का तमग़ा लिये विजय हासिल करने की विडम्बना और पीड़ा को समझना सबके बस की बात नहीं ।  मिल्खा का नया नया राष्ट्रवाद सिर्फ एक ब्लेज़र की चाहत में सिमट जाता है । वो अपने ही अतीत से भाग रहा होता है । जिसे परास्त करने के लिए वो ब्लेज़र की भावुकता से कहीं ज़्यादा अतीत की क्रूरता से धधकता है । ये वो हिंसा है जो लौटती रहेगी । दोनों मुल्कों के वर्तमान और भविष्य में । हम सबके भीतर मिल्खा भागता रहेगा । राष्ट्रवाद धर्म की पहचान लेकर बंदूक दागेगा । मिल्खा का अपने गांव लौटना और पुराने मित्र से मिलने का प्रसंग रूला देने वाला है । अब भी यहां वहां कितना कुछ बचा हुआ है । फ़िल्म देख कर लौटा तो डीडी न्यूज़ पर पाकिस्तान की मलाला का भाषण आ रहा था । वो कह रही थी एक टीचर, एक बच्चा, एक किताब और एक क़लम चाहिए आवाज़ उठाने के लिए, हर तरह की हिंसा और आतंक के ख़िलाफ़ । प्राइवेट चैनलों पर बहस चल रही थी क्या मोदी ने दंगों में मरे मुसलमानों की तुलना कुत्ते के बच्चे से की है । तभी देखा कि एक ईमेल आया हुआ है कि हम ऐसे ही अपना बेड़ागर्क करेंगे । खै़र । भाग मिल्खा सिंह भाग एक अच्छी फिल्म है । उससे अच्छी चक दे इंडिया थी । दोनों की तुलना पान सिंह तोमर से नहीं कर सकते क्योंकि पान सिंह तोमर फिल्म नहीं महागाथा थी । मिल्खा जैसी साधारण से थोड़ी बेहतर फिल्म को चार और पाँच स्टार मिले हैं । मिल्खा सिंह को हम तब से दस में दस स्टार देते रहे हैं जब किसी ने उन पर फिल्म बनाने की सोची भी नहीं थी । देखियेगा ज़रूर । फ़रहान का शरीर ग़ज़ब का है और अभिनय भी अच्छा है । बस उस हिंसा और जीत के जज़्बे को उतार पाते तो इतिहास में उनका यह अभिनय अमर हो जाता । 

12 comments:

प्रवीण पाण्डेय said...

आपकी अनुशंसा पर निश्चय ही देख आयेंगे।

Unknown said...

ab.toh zaroor dekhge

S. M. Rana said...

dileri, lagan aur parishram ki moorty hain Chandigarh nivasi Milkha...film zaroor dilchasp hogi

Unknown said...

Sir can I have your email address please mine is ashishkedia.niet@gmail.com please revert back on it.just for some professional advice from you I assure that r You won't be disturbed with any spams. Thankyou

S. M. Rana said...
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Unknown said...

sir aapka channel toh sirf sach dikhata hai na toh fir aapke maninya reporter sahab ko sach dikhane mein aise kya dikat hai? Pradeep Tamta ji Almora-Pithoragarh se Sansad hai. Yeh toh shayad aap jante hi honge ki iss baar Pithoragarh District mein kitni tabahi aayi hai jiska nirikshan karne ke liye mere pita 2 hafton tak usi ilake mein bhramand karte rahe. Hridyesh Joshi ji bhi unke saath the jab wo Darma Ghaati gaye the.Toh please unse poochiye ki kya aise wajah hai ki aaj aapka channel keh raha hai ki prashasan se related koi bhi vayqti wahan nahi gaya hai? hume khabron mein rehne ki lalsa nahi hai Sir par please sir sheezon ka iss tarah mazaq mat banaiye!

Akhilesh Jain said...

"मिल्खा जैसी साधारण से थोड़ी बेहतर फिल्म को चार और पाँच स्टार मिले हैं । मिल्खा सिंह को हम तब से दस में दस स्टार देते रहे हैं जब किसी ने उन पर फिल्म बनाने की सोची भी नहीं थी।" इसे पढने के बाद कुछ और कहने को नहीं बचता।

Mahendra Singh said...

Film aur achchee ho sakti thi. Malbourne olumpic main gaye Milkha ka Australian fan ke saath kiss scene ka auchitya samajh nahi aaya. Is type ke chaunk kee kya zaroorat thi samajh se pare hai.Nehruji kee soch ko NEWSPAPER kee main story ko banakar dikhya ja sakta tha. Character ko physically dikhane ka matlab samajh se pare hai.Dilip tahil ka abhinay bhi vajan ke hisab se halka hai.

yesido said...

"Kapasaheda border- ye dekhiye ek majdoor desh ki GDP badhane me laga hua h.."

Adbhut Raveesh babu..

Unknown said...
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Unknown said...
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Suresh said...

Your review is commendable.The sex scenes could have been avoided because when story line is based on the life of a national hero,these trite gimmicks are not required.I have lived a part of my life in the settings depicted in the refugee Colony around Purana Qila and hence know that life then demanded much more serious thoughts then that what is happening behind the sheets.This shows the mentality of the director.Yes Paan Singh was a mahagatha.
Suresh Mandan
USA