टूट रही है कमर शहर की

राजस्थान और मध्यप्रदेश के कई शहर बारिश से तबाह हैं। बारिश के वक्त जो हालत मुंबई और दिल्ली की हुआ करती है वही हालत जयपुर, अलवर,सीकर और भोपाल की भी होने लगी है। जयपुर ने तीस सालों में सबसे अधिक बारिश देखी तो मरुभूमि में बूंदों के गिरने का उत्साह कई तरह की आपदाओं की तस्वीरों में ढल गया। चंद दिनों की बारिश से निपटने के लिए सेना बुलाने वाले मुख्यमंत्री अशोक गहलोत ने ठीक ही कहा कि जयपुर में बाढ़ कहां आई है। दरअसल यह बाढ़ तो है नहीं यह तो उन शहरी ढांचों के चरमराने से बहने वाला मवाद है जिसे व्यक्त करने के लिए बाढ़ के अलावा कोई शब्द नहीं है। हम संज्ञा सर्वनाम और विशेषण की जगह अगर अपने शहरों को ठीक से देखने लगे तो जवाब अपने आप मिलता चला जाएगा। आखिर उस राजस्थान के शहरों की हालत इतनी बुरी क्यों हुई जो हिन्दुस्तान के शहरीकृत राज्यों की सूची में नीचे स्थान पाता है। मुंबई और दिल्ली की तरह भोपाल क्यों तबाह हो गया? क्या यहां का शहरी ढांचा भी अब एक दिन की बरसात झेलने के लायक नहीं रहा? जिस जयपुर को १७२७ में योजनाओं के अनुसार बसाया गया था वो आज कहां पहुंच गया है। क्या उसके बाद जयपुर ने आज की बढ़ती आबादी और उसकी ज़रूरतों के अनुसार खुद को बसाया है?
यह सवाल तो सिर्फ जयपुर से ही नहीं बल्कि भारत के ज्यादातर शहरों से पूछा जाना चाहिए। कागज़ पर  बहुत योजनाएं हैं लेकिन लगभग हर शहर नियोजन की कमी और अतिक्रमण की ज़्यादती का शिकार हो रहा है। जनगणना की रिपोर्ट के अनुसार हम तेजी से शहरी हो रहे हैं लेकिन हमारे शहर उस तेज़ी से तैयार नहीं हो पा रहे हैं। यह तब है जब भारत में शहरीकरण करीब करीब शुरूआत की अवस्था में हैं। इतने बड़े देश में सिर्फ पैंतीस बड़े शहर हैं जिसकी आबादी दस लाख या दस लाख से अधिक है। कुल आबादी का तीस फीसदी हिस्सा ही शहरों में रहता है। बिल्डरों की बसाई कालोनी शहर की प्लानिंग की संकल्पना का हिस्सा नहीं बन सकती। सोसायटियों के बाहर जो शहर, सड़कें, ड्रेनेज, फुटपाथ, स्कूल, खेलने के मैदान हैं इन सबकी कोई ठोस प्लानिंग बराबर से नहीं दिख रही है।
दिल्ली एक ऐसा महानगर है जिसकी नब्बे फीसदी जनता आबादी शहरी कही जाती है। शत प्रतिशत शहरी क्षेत्र। लेकिन यहां भी बारिश के दिनों में तबाही मच जाती है। सड़कों पर पानी भर आता है और ड्रेनज की सफाई की दिखावटी समीक्षा बैठकें होने लगती हैं। इतना खुला शहर होने के बाद भी इसकी यह हालत है। फ्लाईओवर और मेट्रो कायम करने से शहरी ढांचे की बुनियादी ज़रूरतें पूरी नहीं हो जाती हैं। हमने संसाधनों के इस्तमाल की कोई शहरी संस्कृति का विकास नहीं किया है। तालाबों का लोग ही अतिक्रमण करते हैं और फिर राजनीति से भरण पोषण की मांग करते हैं। अतिक्रमण हर शहर की पहचान है क्योंकि जिस तेजी से आबादी गांवों से शहरों में शिफ्ट हो रही है उसे रखने के लिए पहले से मौजूद शहरों में कोई व्यवस्था नहीं है। लिहाज़ा आप किसी भी शहर में देखिये, किरायदारों को जगह देने और उनसे कमाने के चक्कर में मकानों पर कैसे टेढ़े मेढ़े मकान बन गए हैं। शौच की भयंकर समस्या है। मैं रोज़ दिल्ली शहर में शौच के लिए जाती हुई महिलाओं को सड़क पार करते देखता हूं। किसी भी शहर में जाइये महिलाओं के लिए शौच की कोई व्यवस्था नहीं है।
कोरपोरेटर या पार्षद हमारे शहरी समाज का सम्मानित हिस्सा नहीं बन सके हैं। इनका काम भी राजनीतिक दलों की रैलियों के लिए अतिक्रमित बस्तियों से भीड़ लाने भर का रह गया है। इनकी मांगें कभी शहरी विकास मंत्रालय तक ठोस रूप में जगह हासिल नहीं कर पाती। हम इन्हें शहर के विकास के लिए ज़रूरी एजेंट के रूप में नहीं देखते। यहां तक कि नगर निकाय चुनावों में हम अपने शहर के स्वरूप और समस्या को लेकर गंभीर बहस और जवाबदारी की मांग तक नहीं करते। ज़ाहिर है हमारे शहर सबकी उपेक्षा के शिकार हो रहे हैं। जिन जिन इलाकों में पार्षदों की भूमिका अच्छी रही है वहां विकास के काम हुए हैं। दिल्ली ने इस समस्या को रेजिडेंट वेलफेयर समितियों को कुछ अधिकार देकर बहुत हद तक संभाला है लेकिन फिर भी शहर के स्तर पर योजनाओं की व्यापक कमी दिखती है। जो आप जयपुर से लेकर भोपाल तक में देख सकते हैं।
हमारी नाकामी से बारिश बदनाम हो रही है। आसमान से गिरती बूंदों को सोखने के लिए कहीं मिट्टी नहीं बची है। फुटपाथ तक कंक्रीट के बन चुके हैं। सड़कें भी अब सीमेंट की बन रही हैं। गलियों में भी पार्षदों को लगता है कि सीमेंट की सड़क विकास की नई पहचान है। नाली के ऊपर सड़क बनाकर वोट से काम हो जाएगा। लेकिन हमें यह समझना होगा शहर इन नालियों के ज़रिये सांस लेता है। इनकी सफाई का अभियान तभी क्यों होता है जब बारिश आती है। आम शहरी होने के नाते हमने क्या गुटका या प्लास्टिक की थैलियों को नालियों में बहने से रोका है। हालत यह हो गई है कि शहरी जानवर अब घास की जगह प्लास्टिक चरने लगे हैं। यह सारी बातें आपको मालूम हैं। आप तभी गुस्सा ज़ाहिर करते हैं जब नाली का पानी आपके घर आता है। जयपुर हमारी पहचान है तो हम जयपुर के लिए कौन सी पहचान कायम कर रहे हैं। यही सवाल हर शहर में अब लोगों से पूछा जाना चाहिए।

हमारे शहर रोज़ाना संकट से गुज़र रहे हैं। मामूली भीड़ पार्किंग की समस्या को विकराल कर देती है। अभी तक हम अपने शहरों के लिए पब्लिक ट्रांसपोर्ट का विश्वसनीय सिस्टम नहीं विकसित कर पाए हैं। मेट्रो को ही अंतिम विकल्प मान लिया है क्योंकि यह विकास के प्रतिमान के रूप में दिखता है। दिल्ली में मेट्रो के बनने के बाद भी सड़कों से भीड़ खत्म नहीं हुई हैं। आए दिन हम पानी के संकट से गुज़र रहे हैं। नगरपालिकाओं के पास पानी नहीं है और बाज़ार में पानी का करोड़ों का कारोबार हो रहा है। ग़रीब आदमी को सड़क पर पानी भी नहीं मिल रहा है। क्या हमारे शहर सिर्फ बहुमंज़िला इमारतों में रहने वाले अमीर मध्यमवर्ग के लिए ही बने हैं। पूरी दुनिया में अब यह नई थ्योरी चल रही है कि भीड़ भाड़ वाले इलाके आर्थिक रूप से ज्यादा उपयोगी होते हैं। ये शहर की अर्थव्यवस्था की रीढ़ होते हैं। क्या हम अपनी शहरी भीड़ को बेहतर सुविधाओं के बल पर आर्थिक संभावनाओं में नहीं बदल सकते? विकास को लेकर हमारा सब्र समंदर जैसा है मगर घुटने भर पानी का जमाव हमें ऐसे कूदने के लिए बेचैन कर देता है जैसे हम इनके कारण को जानते ही न हों। यह आसमान से आया ज़लज़ला नहीं है बल्कि जो आप जयपुर या भोपाल में देख रहे हैं उसे हम सभी ने पैदा किया है।
(राजस्थान पत्रिका के लिए लिखा था)

22 comments:

दीपक बाबा said...

सही कहा सर, पहले तो मात्र महानगर ही अनधिकृत अतिक्रमण की लपेट में थे, परतुं धीरे धीरे देश के सभी शहर इस बिमारी की चपेट में हैं. और ये बिमारी कई महामारियों को जन्म देगी.

Madhukar said...

आजकल ब्लॉग के लिए कम और अख़बारों के लिए ज्यादा लिख रहे हैं महाराज। चलिए अच्छा है। लिखते रहिए। एक ही काम दो मोर्चों पर जारी है। :)

प्रवीण पाण्डेय said...

बड़े नगर तो बना दिये, अभी बड़े कार्य करने हैं...

aSTha said...

for every country, development starts from infrastructure..the basics..sadly it has never been the case here..we end up at the place from here we should have started..

Unknown said...

good...chote shahro tak rozgar bhee pahuchane honge..

ritesh kumar said...

jara dhyan dijiye sir ! raipur ke naliyon se gandagi saaf karne ke liye videsh se special machli mangai gayi thi jo gandagi kha leti thi, 1 hafte me logon ne kanta dalkar sari machliyon ko hi kha liya.ab iska kya ilaaj hai sahab.

Daniel said...

Ravish ji mein app se puchna chahata hoon .. kya election system is the only way to get our ministers and the final policy makers ?? ..Me as common man does not what is economic policy or if a particular policy is good or bad for the country, than how and why should I take the right to vote and select a minister who will make the policy for the country. Its like same thing some children in a house demanding sweets and we give them the sweets, without knowing if the sweet will be good for their health or not. Can we not have any other way to select our ministers instead of voting or may be 50% voting and 50% from selection committee. I hope, ki aap meri baat ko samaj rahe honge. And if you can conduct a debate on this .. will be of great help for the country.

Daniel said...

Ravish ji mein app se puchna chahata hoon .. kya election system is the only way to get our ministers and the final policy makers ?? ..Me as common man does not what is economic policy or if a particular policy is good or bad for the country, than how and why should I take the right to vote and select a minister who will make the policy for the country. Its like same thing some children in a house demanding sweets and we give them the sweets, without knowing if the sweet will be good for their health or not. Can we not have any other way to select our ministers instead of voting or may be 50% voting and 50% from selection committee. I hope, ki aap meri baat ko samaj rahe honge. And if you can conduct a debate on this .. will be of great help for the country.

nptHeer said...

Ab city planing ke baare main to sab jarjarit vyvastha hai--arhar ki jhopadi aur gujrati taala:) dilli wale metro metro kah ke 'claping' karte hai-mumbai wale 'local local':)kolkata kaltak 'tram tram' karta tha aur chennai 'feri' :) aisa lagta hai jaise pvc ke STD cabin main kisine 5t ka A/C fit kar diya ho:) drainage hai nahin metro,air port aur rail ko dranage denge-pineka paani hai nahin--paani ki bochharon se hawai jahaj dhoyenge--gobar ke chulho se khana banate log rocket launching dekhenge:)lekin ek najar se sabka sab ek dam sahi bhi to lagne lagta hai--jub hum mahine bhar ki aamadni ka sochte hai to budget banate hai aur naya mobile phone lene paani poori main paise bachate hai:) to lagta hai sab sahi hai:)duniya chal rahi hai,hum nind se jaage hai abhi-to kya?:)duniya hamare liye ruki nahin hai,ok-lekin humari duniya itni bhi nahin badal jaati agar hum na uthe?:)sawalon se takrana kyun?:)sawal se to samsya ka aur fir uske hal ka pata chalta haina?:)

Mahendra Singh said...

Ravish ji yeh problem chote bade sabhi shahron ki hai. ritesh sinha ne bahoot sahi baat kahi hai.

योगेश said...

लोकतंत्र के पेड़ पर कौआ करें किलोल

टेप-रिकार्डर में भरे चमगादड़ के बोल

नित्य नयी योजना बनतीं जन-जन के कल्यान की

जय बोलो बेईमान की!

Kislay Kamlesh Choudhary said...

Sirf shehron ki baat nahi hai. Yeh hamaare desh ke toot-te hue buniyaadi dhhaanche ka sawaal hai.

Kislay Kamlesh Choudhary said...
This comment has been removed by the author.
David M Tirkey said...

महानगरों में गाँव-नगर, बाढ की तरह ही चले आ रहे है। जब तक बारिश का पानी बाढ की शक्ल नहीं लेता बो बडा ही खूबसूरत लगता है, हथेलियों में समेटने की लालसा अनायास और अनवरत होनें लगती है पर जब यही बारिस बाढ की शक्ल ले लेती है तो इससे बचनें की तरकीबे हम खोजने लगते है। कुछ यही हालात गाँवों-नगरों से महानगरों में होने वाले पलायन का है।

ramanbohra said...
This comment has been removed by the author.
Unknown said...

ravish ji prime time ek garimapurn aadrsh programme hai is karykam main judge kataju jaise savyambhu budhiman asal main maha murkh badtamij aadmi ko bula kar kyon programme ki gauravpurn garima ko thesh panhuchane ka kam kar rahe ho jise des ke sanvidhan va partik ka apman- apman nahi lagata lekin apane maan-saman ke liye marne marne par utaru rahata hai

Unknown said...

ravish ji prime time ek garimapurn aadrsh programme hai is karykam main judge kataju jaise savyambhu budhiman asal main maha murkh badtamij aadmi ko bula kar kyon programme ki gauravpurn garima ko thesh panhuchane ka kam kar rahe ho jise des ke sanvidhan va partik ka apman- apman nahi lagata lekin apane maan-saman ke liye marne marne par utaru rahata hai

ritesh kumar said...

jindagi ki gadi jab muflisi me phasti hai .
chhote se chutkule par der tak hansti hai.

dimag me aaya to likh diya shaher ki nali se iska koi sambandh nahi hai.

Unknown said...

Thanks

PC88 said...

Namaskar Sir,

Mujhe aapka ye post bohot pasand aaya. Mein Jaipur shahar mein hi pala aur badha hun aur apni aankhon ke saamne us sundar, shaant shahar ki betarteeb bekadri aur barbadi barabar dekh raha hun.

Kabhi ye shahar apne dhaanche aur acchi planning ke liye jaana jaata tha. Aaj wahan vikas ke naam pe bina koi soch aur samajh ke aas paas ke gaon ki kheti ki jameen ko khaaya ja raha hai aur illegal construction bedhadak chal raha hai.

Wahan sadkon ki halat itni kharab maine apnni jindagi mein kabhi nahin dekhi. Har taraf gandagi aur kachre ka jamawada hai.

Bohot dukh hota hai jab apni aankhon ke saamne apne shahar ko marte huey dekhte hein!!

PC88 said...

Namaskar Sir,

Mujhe aapka ye post bohot pasand aaya. Mein Jaipur shahar mein hi pala aur badha hun aur apni aankhon ke saamne us sundar, shaant shahar ki betarteeb bekadri aur barbadi barabar dekh raha hun.

Kabhi ye shahar apne dhaanche aur acchi planning ke liye jaana jaata tha. Aaj wahan vikas ke naam pe bina koi soch aur samajh ke aas paas ke gaon ki kheti ki jameen ko khaaya ja raha hai aur illegal construction bedhadak chal raha hai.

Wahan sadkon ki halat itni kharab maine apnni jindagi mein kabhi nahin dekhi. Har taraf gandagi aur kachre ka jamawada hai.

Bohot dukh hota hai jab apni aankhon ke saamne apne shahar ko marte huey dekhte hein!!

Rakesh Chandra said...

बड़ा ही समसामयिक और विचारोत्तेजक लेख है। काश हमारे नेता पढ़े लिखे और समझदार होते, तो इन समस्याओं पर ध्यान देते।