सोशल मीडिया से कौन डरता है

सोशल मीडिया से कौन डरता है? सरकार या मुख्यधारा की मीडिया? जिस इंटरनेट का टेक्नॉलजी के लोकतांत्रिकरण के सबसे बड़े प्रतीक के रूप में हुआ था उसके मैदान पर घास की तरह पसरते सोशल मीडिया पर लगाम लगाने के कानून दुनिया भर के कई देशों में तेज़ी से क्यों बन रहे हैं? क्या सोशल मीडिया ने हमारी सामूहिक सोच और अभिव्यक्ति को पूरी तरह बदल दिया है? क्या सोशल मीडिया ने मुख्य धारा की मीडिया से निर्भरता कम कर दी है? क्या सोशल मीडिया किसी भी तरह की जवाबदेही से मुक्त एक ऐसा सार्वजनिक मंच है जिसे हमेशा ही किसी प्रकार के सरकारी नियंत्रण से मुक्त लेकिन इसे पैदा करने वाली माता कंपनियों की छाती से चिपके रहने को ही स्वतंत्रता समझता रहेगा? क्या सोशल मीडिया तभी तक ठीक है जब तक लोग इस पर नानी से कहानी की यादें और बारिश में जामुन के किस्से ही बांटते रहे? सोशल मीडिया अपनी हदे लांघ रहा है या सरकार और मुख्य धारा की मीडिया की हदों को तोड़ कर एक ऐसा स्पेस यानी स्थल का निर्माण कर रही है जहां ट्रैफिक के नियम लागू ही नहीं हो सकते।
इन सब सवालों का जवाब हम अनुमानों और पूर्वागर्हों के आधार पर देने लगते हैं। हमारे देश में सोशल मीडिया को लेकर प्रमाणिक शोध की घोर कमी है। इसीलिए जो हो रहा है उसी की रनिंग कमेंटी सब किये जा रहे हैं। सोशल मीडिया ने सार्वजनिक होने की तमाम पुरानी मान्यताओं को ध्वस्त करना शुरू कर दिया है। पहले मीडिया और सरकार के बीच कोई नहीं था। सरकार की मीडिया थी और उसके बरक्स उसके आदेशों पर चलने वाली बाज़ार नियंत्रित मीडिया थी। इन दोनों के बीच आपसी टकराव, समझौते और आज़ादी का खेल और भ्रम चलता रहा। दोनों एक दूसरे से धूप छांव का खेल खेलते रहे। आपातकाल में मीडिया पर लगाम लगाने की राजनीतिक कोशिश हुई तो बाज़ारकाल में मीडिया को दूसरे रास्ते से ख़रीदने या प्रभावित करने की। अब इन दोनों के बीच एक नया खिलाड़ी आ गया है। जिसके मैदान में करोड़ों लोग एक साथ खेल रहे हैं। एक सूचना साझा होते होते पल भर में लाखों लोगों की सूचना हो जाती है। इसकी रफ्तार निजी टेलीविज़न की रफ्तार को बेमानी कर दिया है। रफ्तार का खेल भी पहले टीवी और अखबार के बीच चला लेकिन अब टीवी और अखबार मिलकर इस सोशल मीडिया से मुकाबला नहीं कर पा रहे हैं। ज़ाहिर है तीनों के बीच टकराव के पर्याप्त कारण मौजूद हैं। तीनों के बीच प्रभुत्व की लड़ाई चल रही है। क्योंकि सोशल मीडिया ने मीडिया के जमे जमाए प्रभुत्व और साख की धज्जियां उड़ा दी है। विज्ञापन के मामले में भी मुख्य धारा की मीडिया को होड़ दे रहा है। जिसकी फिराक़ में चालाक सरकार और मुख्य धारा की मीडिया अपने आप भी सोशल मीडिया बन रही हैं। बात साफ है अगर आप सोशल मीडिया नहीं हैं तो आप मीडिया नहीं हैं।
लेकिन प्रभुत्व और प्रसार के खेल के बीच एक परिवर्तन और हो चुका है। हमारे बीच कई लोगों को लग रहा है कि परिवर्तन हो रहा है बल्कि यह कई साल पहले ही हो चुका था उसका अहसास अब हो रहा है। न्यूज़ यानी ख़बर प्रसार माध्यमों की तुलना में सोशल मीडिया के विभिन्न रूपों से पहुंच जा रहा है। संवाददाता ख़बरें टीवी चैनल पर ब्रेक करने से पहले ट्वीट कर देता है और पल भर बिना टीवी सेट ऑन किये वो ख़बर सैंकड़ों से लेकर करोड़ों लोगों के बीच पहुंच जाती है। यह किसी रोमांच से कम नहीं है। सोशल मीडिया ने मुख्य धारा की बनाई भाषा को भी खारिज कर दिया है। उसकी अपनी भाषा और शैली है। पहले लोग संपादक के नाम चिट्ठी के ज़रिये अख़बार से बात करते थे फिर टीवी में वाक्स पाप के ज़रिये छटांक भर जनता की आवाज़ लाखों लोगों के बीच पहुंचती थी,फिर एस एम एस के ज़रिये टीवी ने जनता को हिस्सेदार बनाना शुरू किया, फिर टीवी स्क्रीन और अखबारों में फेसबुक और ट्वीटर के कमेंट जगह पाने लगे। इस प्रक्रिया को कोई रोक नहीं सकता था। जो न्यूज़ चैनल और अख़बार स्वतंत्र मीडिया बन कर उभरे थे वो अब एक नए माध्यम के सहारे हो गए। हर अखबार और टीवी चैनल की वेबसाइट है और ट्वीटर अकाउंट है। हर पत्रकार का अपना माध्यम है जो उसके संपादक से स्वतंत्र है। हर आदमी खुद को पत्रकार की भूमिका में ले आ रहा है। सूचना और सार्वजनिक मंच के माध्यम जब इस तरह से उलट पुलट हो जाते हैं तो स्वाभाविक है कि सब इस पर कब्ज़ा चाहेंगे और सब एक दूसरे से लड़ेंगे। आज अमिताभ बच्चन को ट्वीटर पर किसी भी एक न्यूज़ चैनल के ट्वीटर अकाउंट या दैनिक हिट्स से ज्यादा लोग अनुसरण करते हैं। वो अब प्रेस कांफ्रेंस नहीं करते। वो सीधे बात कर रहे हैं लोगों से। मीडिया अब माध्यम नहीं रहा। फिर अंग्रेज़ी के कुछ नामचीन पत्रकार राजदीप सरदेसाई और बरखा दत्त को लाखों लोग क्यों फालो करते हैं। जबकि वही लोग उनके चैनल को भी फॉलो करते हैं।
यही नहीं दुनिया भर में सोशल मीडिया न्यूज़ चैनल को बदल रहा है। अब न्यूज़ चैनल ख़बरें देने के माध्यम के रूप में सिमटते जा रहे हैं। ख़बरों ने अपना अलग मदारी ढूंढ लिया है। तो क्या मुख्य धारा की मीडिया खत्म हो जाएगी? ऐसा नहीं होगा। हर तरह का माध्यम किसी न किसी रूप में कायम रहेगा। अब न्यूज़ चैनलों का काम यह होगा कि तमाम तरह की सूचनाओं में से प्रमाणिक सूचनाओं को देना। पिछले साल अगस्त में लंदन में दंगा हुआ। जब वहां दंगों के कारण और सोशल मीडिया की भूमिका की जांच के लिए कमेटी बनी तो उसने एक रिपोर्ट दी है। आफ्टर द रायट्स नाम से इस रिपोर्ट को आप गूगल में ढूंढ सकते हैं। इस रिपोर्ट में बताया गया है कि दंगों या तनाव की स्थिति में लोग सोशल मीडिया पर कम निर्भर थे। वे स्थानीय रेडियो और टीवी पर ज़्यादा भरोसा कर रहे थे लेकिन रेडियो टीवी यह कर रहे थे कि वे सोशल मीडिया की अफवाहों को भी ख़बर बनाने लगे थे। उन्हें बदलना होगा। इस रिपोर्ट ने बताया कि कैसे दंगों के वक्त म्यूनिसिपल पुलिस के ट्वीटर अकाउंट पर लोगों की संख्या दस गुनी बढ गई।  यानी सूचनाओं के मामले में मीडिया की भूमिका अब भी है। लेकिन हो यह रहा है कि ट्वीटर और फेसबुक के लोग अब न्यूज़ रूम के संपादकों को सरकार या बाज़ार से ज़्यादा प्रभावित कर रहे हैं। उनकी दलीलें चैनल की लाइन बन जाती है। यह एक गंभीर चुनौती है। जिसे आप सोशल मीडिया की आलोचना से नहीं बल्कि अपने पेशेवर नियमों की सख्ती से ही सामना कर सकते हैं।
 हां सोशल मीडिया में अभिव्यक्ति की आज़ादी का ग़लत इस्तमाल भी हो रहा है। राजनीतिक और सांप्रदायिक संगठन अफवाहों को फैला रहे हैं। ऐसे दल तो सोशल मीडिया से पहले भी कर रहे थे। असम में पांच लाख विस्थापित हुए। सरकार की वजह से या सोशल मीडिया की वजह से। बंगलुरू में एस एम एस से घबराहट फैली उसके पीछे दंगों या तनाव के वक्त सरकार या प्रशासन की खराब भूमिका का इतिहास कारण नहीं रहा होगा। दिल्ली से लेकर गुजरात के दंगों तक कब प्रशासन ने लोगों को हिफाज़त की है। इसलिए माध्यम को टारगेट करने का खेल ट्वेंटी ट्वेंटी का गेम है। मानसिकता से लड़ाई लंबी है और लंबे समय तक लड़नी पड़ेगी। हम अभी भी सोशल मीडिया को समझ नहीं पा रहे हैं। इसे एक भूत बना लिया है।
 इस लेख को लिखने से पहले अभी अभी प्रकाशित एक किताब पढ़ रहा था। जिसका नाम है- म्यूज़िक ऑफ द स्पिनिंग व्हील, महात्मा गांधी मेनिफेस्टो फॉर द इंटरनेट एज। किताब अंग्रेज़ी में है और लिखा है खुद को बीजेपी का कार्यकर्ता कहने वाले सुधींद्र कुलकर्णी ने । अभी पूरी नहीं पढ़ी है लेकिन इसलिए इसके वैचारिक पक्ष पर टिप्पणी नहीं कर रहा हूं लेकिन यह किताब इंटरनेट के युग में गांधी के चरखों को ढूंढती हुई दलील दे रही है कि इंटरनेट ही गांधी का चरखा है। एक ऐसी तकनीक जो पूरी तरह से लोकतांत्रिक और अहिंसक। हालांकि अहिंसक बात से सहमत नहीं हूं मगर इंटरनेट वो चरखा तो है ही जिसे सब आसानी से चला सकते हैं। इसलिए सोशल मीडिया एक ऐसा समाज बना रहा है जो मीडिया से पहले का मीडिया भी हो सकता है। जब अख़बार और टीवी नहीं थे तब सूचनाएं कैसे पहुंचती थीं। बस रफ्तार पहले जैसी नहीं है। यही वो खूबी है जो सोशल मीडिया को उपयोगी और खतरनाक बनाती है। यहां पर हर दिन एक नया मीडिया अमीबा की तरह पैदा होता है जो अगले चंद दिनों में बिखकर नया अमीबा यानी नया मीडिया बन जाता है। आप इसे कब तक और किस किस कानून से रोकेंगे। इसका जवाब नहीं है मेरे पास। जब अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता कई तरह के अगर मगर के साथ मिली है तो अभिव्यक्ति का कोई ऐसा मंच हो सकता है जो किसी अगर मगर के बग़ैर हो। यह बहस का विषय है। बौखलाहट में कदम उठाने का विषय नहीं है।
(यह लेख राष्ट्रीय सहारा के हस्तक्षेप में प्रकाशित हो चुका है)

4 comments:

प्रवीण पाण्डेय said...

सूचनाओं का अंबार आ गया है..

ambrish kumar said...

SAAHMAT

Unknown said...

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nptHeer said...

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