सरकार और सोशल मीडिया के विवाद की गहराई में जाने के लिए पाठकों से गुज़ारिश है कि वे इस लेख को पढ़ने के बाद थोड़ी मेहनत और करें। अगर आपमें से चंद लोग भी इंटरनेट तक पहुंच रखते हैं तो गूगल में आफ्टर दि रायट्स टाइप करें। यह सौ से अधिक पन्नों की रिपोर्ट है जो पिछले अगस्त लंदन में हुए दंगों पर तैयार की गई है। ब्रिटेन के प्रधानमंत्री के कहने पर बनी एक कमेटी ने दंगों के कई कारणों की पड़ताल करते हुए सोशल मीडिया और मुख्य धारा की मीडिया के बारे में भी थोड़ी बहुत टिप्पणी की है। आप जब यह रिपोर्ट पढ़ेंगे तो पता चलेगा कि कैसे वहां की कमेटी दंगों के कारणों की वृहत जांच करती है। यहां तक कि बच्चों अभिभावकों के संबंधों, स्कूल से लेकर तमाम सरकारी एजेंसियों से समाज के रिश्ते में आई दरार,उनके प्रति अविश्वास,अमीरी ग़रीबी में बढ़ती खाई और बाज़ार का दबाव जैसे कारणों को दंगों से जोड़ती है। आप हैरान हो जाएंगे कि रिपोर्ट के अनुसार पचासी फीसदी लोग मानते हैं कि युवाओं को टारगेट करने वाले विग्यापनों के दबाव ने महंगे और ब्रांड उत्पादों की लूट हुई। इसके समाधान में सत्तर फीसदी लोगों ने माना है कि इन विग्यापनों को सीमित किया जाना चाहिए। किसी ने सोशल मीडिया को मुख्य कारण नहीं बताया है। ये और बात है कि यह रिपोर्ट सोशल मीडिया पर एकाध टिप्पणी करती है।
असम और बंगलुरू से पहले लंदन दंगों की रिपोर्ट की टिप्पणी करने की मंशा यह है कि आप जान लें कि कैसे हिन्दुस्तान में सही कारणों को पता लगाने की बजाए एक खलनायक की पहचान कर ली जाती है और उसी के आस पास राजनीति घूमने लगती है। न तो आपको कारणों का पता चलता है और न समाधान का। हर राजनीतिक दल की सरकार का यही रिकार्ड है। आफ्टर दि रायट्स रिपोर्ट में सोशल मीडिया के बारे में जो टिप्पणी की गई है वो बस इतनी है कि दंगे फैलने में इनकी भूमिका थी लेकिन कारण महत्वपूर्ण थे, माध्यम नहीं। वर्ना इसी दौरान मेट्रोपोलिटन पुलिस के ट्वीटर अकाउंट को फौलो करने वालों की संख्या ४५०० से बढ़कर ४२००० नहीं हुई होती। मतलब साफ है कि लोग सही जानकारी के लिए भी ट्वीटर का इस्तमाल कर रहे थे। रिपोर्ट में सुझाव है कि पुलिस को अपनी संचार प्रणाली में सुधार लाने के लिए सोशल मीडिया का सहारा लेना चाहिए। जबकि यही रिपोर्ट मुख्य धारा की मीडिया पर गंभीर टिप्पणी करती है। कहती है कि एक ही तस्वीर बार बार दिखाने से और कई बार सोशल मीडिया पर चल रही अफवाहों को ख़बरों का आधार बनाने से स्थिति बिगड़ी। ज़रूरी है कि ऐसे वक्त में सख्त संपादकीय गाइडलाइन का पालन होना चाहिए क्योंकि यह देखा गया है कि सामाजिक राजनीतिक तनाव की स्थिति में लोग स्थानीय रेडियो और टीवी स्टेशनों पर ज़्यादा निर्भर होने लगे थे। ऐसे वक्त में उनका भरोसा मुख्यधारा की मीडिया पर बढ़ जाता है।
हिन्दुस्तान में चल रहे विवाद पर आने से पहले इतना कहना इसलिए ज़रूरी था ताकि साफ हो सके कि हम आज भी अपने पूर्वाग्रहों आशंकाओं को ही सच मानते हैं और उन्हीं की जड़ों की तलाश में अनाप शनाप कार्रवाई करने में यकीन रखते हैं। यह काम हम व्यक्तिगत जीवन से लेकर राजनीतिक और सरकारी संस्थाओं में हर जगह करते हैं। असम में जो कुछ हुआ और उसकी प्रतिक्रिया में देश भर में जो कुछ हुआ उसके मूल में सोशल मीडिया कम,हमारी व्यवस्थाएं ज़्यादा ज़िम्मेदार हैं। क्या असम के भीतर पांच लोग सोशल मीडिया के कारण विस्थापित हुए या फिर सरकारी और राजनीतिक संस्थाओं के नाकाम होने के कारण इतनी बड़ी मानवीय त्रासदी हुई। क्या सरकार ने किसी भी स्तर पर यह पता लगाने में तेज़ी दिखाई कि जो ज़िम्मेदार है उसे पकड़ा जाए ताकि विस्थापित हुए पांच लाख लोगों में सरकार के प्रति भरोसा हो और वे अपने गांव घरों की तरफ लौट पड़े। जब असम जल रहा था तब सरकार ने ऐसी त्वरित कार्रवाई की। उसकी नींद तो तब टूटी जब बंगलुरू से हज़ारों की संख्या पूर्वोत्तर के हमारे भाई बहन शहर से पलायन करने लगे। उनका यह कदम हमारी सरकार से लेकर सोच तक पर गहरा तमाचा था। सरकार ने एस एम एस के ज़रिये फैल रहे अफवाहों को तात्कालिक कारण माना और कई साइट्स से लेकर ट्वीटर अकाउंट को बंद करने के आदेश टाइप किये जाने लगे।
अब सवाल यह उठता है कि माध्यम दोषी है या मानसिकता। सोशल मीडिया के आगमन और प्रचलन के बहुत पहले शर्मनाक हिंसक दंगे हो चुके हैं जिसकी ज़िम्मेदार सिर्फ और सिर्फ हमारी आज की राजनीति और राजनीतिक दल हैं। जिन पर कोई प्रतिबंध नहीं लगाता। सवाल यह भी है कि क्या सरकार सोशल मीडिया को नया खलनायक बनाकर अपनी संस्थाओं की नाकामी पर पर्दा नहीं डाल रही है। क्या आपके देश में लंदन दंगों जैसी रिपोर्ट मुमकिन है जो प्रधानमंत्री के कहने पर तैयार हो और जिसका मकसद कारण और समाधान दोनों का पता लगाना हो। एक ऐसे समय में जब प्रधानमंत्री का दफ्तर खुद ट्वीटर पर आकर संकेत दे रहा था कि उसने सोशल मीडिया के महत्व का सार समझ लिया है ठीक उसी दौर में सरकार ट्वीटर की दुनिया में अपना विरोधी खोजने लगती है। ट्वीटर की नीतियों के अनुसार किसी की पहचान का कोई नकली अकाउंट खोलता है तो वो गलत है लेकिन जो पैरोडी करता है उसे छेड़ने की क्या ज़रूरत थी। क्या समाज में हम अपने नेताओं की पैरोडी नहीं करते, अपने ख्याति प्राप्त लोगों की पैरोडी नहीं करते। ब्रेकिंग न्यूज़ की तर्ज पर फेकिंग न्यूज़ एक अकाउंट है। जिसपर हर दिन ख़बरों का मज़ाक उड़ाया जाता है क्या इससे मुख्य धारा की मीडिया को परेशान होना चाहिए। कहीं ऐसा तो नहीं कि हमारी सरकारी संस्थाएं आज भी सोशल मीडिया के महत्व को ठीक से समझ नहीं रही हैं। वे तभी परेशान होती हैं जब कोई उनकी नीतियों,सत्ता और साख को चुनौती देता है। आप ट्वीटर या फेसबुक को बंद कर देंगे लेकिन क्या इसे आम सामाजिक जीवन में गली चौराहों पर घटित होने से रोक सकते हैं?
सांप्रदायिकता एक गंभीर समस्या है। इसका मुकाबला राजनीतिक ही हो सकता है। प्रकाशनों और वेबसाइटों के बंद होने से नहीं हो सकता। सरकार कह सकती है कि वो क्या करे। हम पूछ सकते हैं कि वे इससे पहले क्या कर रही थी। क्या पंद्रह बीस वेबसाइट बंद करने से ऐसी मानसिकताओं के खिलाफ लड़ाई बंद हो गई। और अगर यह उसके लिहाज़ से ज़रूरी कदम है तो इसे लेकर खुलेआम बहस करनी चाहिए। जिन साइट्स को बंद किया जा रहा है उन्हें नोटिस दिया जाना चाहिए। सरकार पहले ही सोशल मीडिया पर सेंसर लागू करने का रास्ता खोज रही है। अन्ना आंदोलन के समय मार खा चुकी सरकार को लगता है कि सोशल मीडिया के कारण ही मामला हाथ से निकल गया। यही घबराहट आज भी है जब रविवार को दिल्ली में प्रधानंत्री के घर प्रदर्शन होने जा रहा था तो कुछ घंटों के लिए मेट्रो सेवा बंद कर दी गई। जबकि सरकार को संवाद करना चाहिए था कि प्रधानमंत्री का घर सुरक्षा के लिहाज़ से ठीक नहीं है। क्या आप यह दलील मान लेंगे कि एक साल तक चलने वाला आंदोलन किसी सोशल मीडिया का आयोजन था या आप यह नहीं देखेंगे कि घोटालों ने साख इतनी गिरा दी है कि हर कोई इस सरकार को किसी न किसी मंच से कुछ बोलना चाहता है। क्या राजनीति में ऐसा पहली बार हो रहा है कि किसी सरकार की साख कमज़ोर हो रही हो। क्या सोशल मीडिया से पहले सरकारों की साख नहीं गिरी है और वो बदली नहीं गईं हैं।
इसलिए सोशल मीडिया को खलनायक बनाना ठीक नहीं है। लेकिन इतना ही कहने से जैसे सरकार नहीं बच सकती वैसे ही सोशल मीडिया भी नहीं बच सकता। ट्वीटर और फेसबुक में आपके पास ऐसे हथियार हैं जिनके सहारे समाज के लिए ख़तरनाक तस्वीरों और वीडियों को ब्लाक कर सकते हैं। अब सवाल यह उठता है कि जब व्यक्ति कर सकता है तो सरकार क्यो नहीं? लेकिन इसकी एक पारदर्शी प्रक्रिया तो होनी चाहिए। क्या सरकार उसे भी बंद करेगी जो उसके खिलाफ अभियान चलाते हों। यह दलील दी जा रही है कि डेढ़ करोड़ से ज्यादा ट्वीटर अकाउंट में से सिर्फ सोलह सत्रह को बंद करने की बात कही गई है। सवाल संख्या का नहीं है। सवाल है कैसी परंपरा कायम हो रही है। क्या हमारे प्रधानमंत्री उन्हें लेकर लतीफों चुटकुलों और मुहावरों से इतने परेशान हैं कि उन्हें बंद करा देने की सोचने लगे। ऐसी बातें तो राजनीतिक दल खुलेआम संसद से लेकर सड़क पर करते हैं। सरकार क्यों नहीं उनके खिलाफ मामले दर्ज करती है।
हमें इंटरनेट की मूल अवधारणा को समझना होगा। आज़ादी इसकी बुनियाद है। मुख्य धारा की मीडिया भी आज़ाद है लेकिन उस पर बाज़ार से लेकर सरकार तक किसी न किसी रूप में प्रभाव रहता है। सोशल मीडिया इन सबसे अलग है। जब लिखित रूप में अपने खिलाफ हज़ारों लोगों की बातें पढ़ने को मिल जाएं तो सुनी सुनाई बातों से ज्यादा घबराहट और गुस्सा मचता होगा। भारत सरकार के इस कदम पर अमेरिकी सरकार की प्रवक्ता विक्टोरिया नूलंद ने कहा कि हम इंटरनेट के राष्ट्रीयकरण के खिलाफ है। यह एक महत्वपूर्ण टिप्पणी है। सोशल मीडिया की आज़ादी सार्वभौमिक है। देश और काल से परे हैं। इनकी ताकत दिनों दिन बढ़ती जा रही है। तभी मुख्य धारा की मीडिया भी सोशल मीडिया पर आ रही है। सोशल मीडिया उनका ही स्वरूप बदल रहा है। आखिर बड़े समाचार कंपनियों को क्यों अपना ट्वीटर अकाउंट खोलना पड़ रहा है। शायद इसलिए कि ये उनके बीच जाकर सही खबरों की प्रासंगिकता को भी बनाए रखना चाहती हैं। न्यूज़ देना और न्यूज़ पर बात करना ये दो अलग अलग सामाजिक मंचों पर होने वाली क्रिया है। मुख्यधारा की मीडिया बखूबी समझ रहा है। सरकार को भी अपना अकाउंट खोलकर अपने खिलाफ हो रहे मिथ्या प्रचार का मुकाबला करना चाहिए। बस यह जान लेना होगा कि इस मंच पर प्रोपेगैंडा थोड़ा मुश्किल है। लोग सीधे और तीखे सवाल करते हैं। आपकी मंशा से लेकर आशंका तक को घेरते हैं। ठीक वैसे ही जैसे कोई राजनीतिक दल।
इसीलिए सरकार को अपने भीतर झांकना चाहिए। बंगलुरू से लोग सिर्फ एस एम एस और फेसबुक पर गलत तस्वीरें के कारण नहीं भागे बल्कि इसलिए भी भागे कि उन्हें सरकारी संस्थाओं पर भरोसा नहीं है। उन्हें पता है कि सचमुच दंगा हो गया तो पुलिस पेशवर की तरह कम पार्टी की तरह ज्यादा बर्ताव करेगी। जैसा कि अभी अभी मुंबई में हुआ। फिर क्या इन अफवाहों को जगह इसलिए नहीं मिली कि मुख्यधारा की मीडिया ने अपना काम ठीक से नहीं किया। क्या उसकी चुप्पी से ऐसी बातों ने ज़ोर नहीं पकड़ा। अगर मुख्यधारा की मीडिया ने साहस से काम लिया होता और लोगों को बताया होता कि मुंबई के आज़ाद मैदान की कुछ तस्वीरें हम नहीं दिखायेंगे क्योंकि इनसे बातें भड़क सकती हैं लेकिन इसमें शामिल लोगों के खिलाफ सख्त कार्रवाई होनी चाहिए। चुप्पी दवा नहीं है। बोलना पड़ता है। ग़लत है तो ग़लत के ख़िलाफ़ और सही है तो सही के लिए। अभिव्यक्ति की आज़ादी निर्बाध नहीं है मगर अभिव्यक्ति के मंचों पर कोई शर्त या दवाब नहीं होना चाहिए। पुस्तकों से लेकर फिल्मों और कलाकृतियों पर पाबंदी से कुछ हासिल नहीं होता है। सवाल से टकराना पड़ता है।
(यह लेख नेशनल दुनिया में प्रकाशित हुआ था)
11 comments:
मानसिकता ही महत्वपूर्ण है..माध्यम को क्यों दोष दें..
We have no full proof plan against Islamic terrorism and we have provided Indian citizenship to Bangladeshi Muslims to win election in Assam and West Bengal so obviously, we are facing terrorism and we are unable to hang Kasab or Ajmal so we can not blame social media becuase he ha done a wonderful job to unite nation.today Social media has given a lot of hidden facts about terrorism in India.
माध्यम को दोष देना कतई सही नहीं है । अपनी गलती के लिए माध्यम को दोष देना बिल्कुल गलत है ।
आफ्टर द रायट्स आप यहां से उठा सकते हैं।
http://riotspanel.independent.gov.uk/wp-content/uploads/2012/03/Riots-Panel-Final-Report1.pdf
रविश जी आप का ब्लॉग padh कर बहुत अच्छा लगा.सामाजिक मीडिया बराबर aapki raay से मुख्य सहमत हुन.प्रतिबंध lagane की मानसिकता से hamare प्रजातंत्र को fayda kam और nuksaan zyada होगा.
all that is good, has negative too..we have travelled so far with time that the meaning is lost of which we started..we cannot go back but carrying the legacies and moving forward is our job..Everyone is responsible and we must accept full responsibility to move forward taking good to make the tomorrow better.
रवीश जी शेअर करने की अनुमति दीजिये
सोशल मीडिया एक नया औज़ार है, संचार का। जब कहीं कोई अपराधी किचन के चाकू या बढ़ई के हथोड़े से किसी पर वार करे और आप उस औज़ार को हथियार करार देने लगें [जो सरकारें आदतन करती रहती हैं], तो यह आपकी कमजोरी दर्शाता है न कि उसे औज़ार की। संचार के माध्यम पहले भी आपराधिक कामों के लिए प्रयोग किए जाते रहे हैं, और अगर हम साईंटिफ़िक फिक्शन से ज्ञान लें तो लगता है कि भविष्य में ऐसे कु-प्रयोग ज़्यादा प्रभावशाली और मारक तरीकों से होते रहेंगे।
हिन्दी के अच्छे ब्लॉगों को ढूंढते हुए हम यहाँ पहुंचे और अच्छा लगा यह देखकर कि हिन्दी में कई अच्छे ब्लॉग लिखे और पढे जा रहे हैं। लिखते रहिए!
वास्तव में बहुत अच्छा ब्लॉग लिखा है. आज पत्रकारिता सनसनी फैलाने के बारे में अधिक है, यह इस समय में इस तरह के ब्लॉग को पढ़ने के लिए अच्छा है.बहुत बहुत धन्यवाद.
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Excellent opinion sir ..and sir pls give permission to share some or part of column with your name or people will take your thoughts and will use them as their thoughts choice is yours...bytheway very good column again
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