हम भी अगर गट्टू होते....

गट्टू एक ऐसी फिल्म है जो हमारे भीतर के गट्टू को खोजती है। उससे मिला देती है। खोया बचपन लौटा देती है। जो आज के बच्चे हैं उन्हें एक ऐेसे बचपन से मिला देती है जिससे वो अपार्टमेंट की कैद दुनिया के कारण अनजान हो चले हैं। उनके जीवन में कोई पड़ोस नहीं है। उनके जीवन में कोई छत नहीं है। उनके जीवन में वो सब कबाड़ नहीं है जिनके चुरा लेने और उड़ा लेने से खेल बन जाता था। पतंग उड़ाना सबसे सरल और रचनात्मक काम है। यह फिल्म हमारे जीवन में पतंगों को ले आती है जो अब भी देश के कई अंचलों और महानगरों के ख़ास मोहल्लों में बची है। पतंग सिर्फ आसमान की खोज नहीं कराती बल्कि आसमान की तरफ देखती आंगन की तरह पसरी छतों से भी रिश्ता बनाती है।

गट्टू फिल्म देख रहा था तो खुद की गट्टू काल की यादें ताज़ा होने लगीं। पतंग उड़ाने की चाह में न जाने कितनी बार धूल उठाकर हवा का रुख़ पता करने की कोशिश की होगी। फिल्म देखने से पहले आज वही करने लगा। एसी चलाना था लेकिन नीचे किसी की प्राडो कार खड़ी होती है और उन्हें शिकायत होती है दसवीं मंज़िल से उतरती बूंदें उनकी कार के शीशें की शोखियां ख़राब कर देती हैं। फिल्म जाने से कुछ घंटे पहले धूल उठायी और हवा में छोड़ दी। फिर जाकर एसी चलाया। पर्दे पर यह काम देखकर इतना मज़ा आया कि पूछिये मत। पटना के कदमकुआं में मंझा और पतंग की दुकानें होती थीं। बब्बू वहीं से लाता था और बाज़ी मार ले जाता था। जब पता चला तो हम भी सायकिल से कदमकुआं गए थे। एक्जीबीसन रोड होते हुए। गांधी मैदान में भी जाकर पतंग उड़ाने की कोशिश। खुले आसमान की चाह पतंग उड़ाने की बेकरारी से पनपी होगी। उसी क्रम में मोहल्ले के पास के एक स्कूल की छत पर चले गए। चपरासी ने देखा तो सब कूद पड़े। हम भी कूदे। पहली मंज़िल की इमारत थी। गुरुत्वाकर्षण के बारे में तब पता नहीं था। न्यूटन पांचवी या सातवीं क्लास में हमारा इंतज़ार कर रहे थे। उससे पहले ही मैं छत से कूद गया। बाकी तो कूद कर खड़े हो गए लेकिन मैं कुछ देर के लिए धंस गया। कपार ऐसे झन्नाया कि लगा कि हम भूकंप के संपर्क में आ गए हैं। पीठ और रीढ़ बराबर। मोटी घास की परत के कारण उठ खड़े होने के काबिल हुए और दर्द छुपाते हुए घर। घईली और रूमाली तिलंगी पसंदीदा रही हैं। कई नाम भूल गया। पतंग शब्द बाद में आया। हम तो इसे तिलंगी ही जानते थे। गट्टू की बेकरारी समझ रहा था। काली पतंग को काटने की चाह किस पतंगबाज़ में नहीं होगी। लेकिन इस पतंगबाज़ी के बहाने जो कहानी बुनी गई है वो शानदार है।

यह फिल्म स्कूल सिस्टम और ग़ैर स्कूल सिस्टम के बीच टकराव की कहानी नहीं बनाती। यह फिल्म दोनों के बीच ऐसा रास्ता बनाती है जिसके बारे में हमारे सिस्टम वाले कभी सोच नहीं पाते। गट्टू वो बच्चा है जिसकी संख्या इस देश में लाखों है। वो स्कूल की दीवार पार नहीं कर पाते क्योंकि चपरासी गेट पर बैठा है। भला हो उस ऊंघते चपरासी का और उन योजनाओं का जिसके तहत कई स्कूलों के बच्चों की मिलावट की जाती है ताकि वे एक दूसरे से सीखें। सरकार की यही योजना गट्टू को मौका देती है स्कूल में दाखिल होने की। जहां वो सारे जहां से अच्छा सुनकर अकबका जाता है। किस हिन्दुस्तान को सारे जहां से अच्छा बता रहे हैं। फिर भी वो टकराव की स्थिति में कम, अचरज से हालात का मुकाबला करता है।


यहां क्लास रूम का सीन ज़बरदस्त है। गट्टू का बस्ता और बाकी स्कूल सिस्टम के बच्चों का बस्ता एक दूसरे के विरोधी नहीं बल्कि पूरक बन जाते हैं। प्रेमचंद की कहानी ईदगाह कैसे कतरन में बदल गई है वो ब्लैक बोर्ड पर नज़र आती है। गट्टू की किताब वफादार जासूस और बाकी छात्रों की किताबें अदल बदल हो जाती हैं। चोरी से ही सही। जिसे हम चोरी कहते हैं दरअसल वो बचपन की स्वाभाविक करतूतें हैं। जिनकी पहचान स्कूल सिस्टम चोरी के रूप में ही करता है जबकि गट्टू के लिए यह चोरी नहीं है। जब वह गुरुत्वाकर्षण यानी ग्रेभिटी सीखकर निकलता है तो वहीं जाता है जहां उसके बाकी दोस्त कूड़ा बिन रहे होते हैं। वो उन्हें ग्रेभिटी बताता है। फॉरमल और नॉन फॉरमल नॉलेज के बीच एक रिश्ता बनाता है। वो भी आसानी से। फिल्म आंखें खोल देती है।

इन सबके बीच काली पतंग को काटने की चाह गट्टू की मासूमियत छीन लेती है। जिस सारे जहां से अच्छा हिन्दुस्तान से वो अकबका जाता है अचानक वो आतंकवाद, बारूद और एसीड की बात करने लगता है। कहानी फिर भी कहानी होती है। उसे हम सरकारी की फाइल की किसी नीति के अनुसार नहीं देख सकते। गट्टू की वफादार जासूस वाली टीम योजना बनाती है और उस छत को हासिल कर लेती है जहां से काली पतंग को मात देने की लड़ाई आखिरी चरम पर पहुंचती है। ये वो छत है जिसे वो बच्चे भी हासिल कर लेते हैं जिन्हें स्कूल सिस्टम से वंचित कर दिया था। यहां दोनों सिस्टम के वंचित बचपन का ऐसा मैदान बनता है जो ऊपर आसमान के ठीक बराबर है। यह क्षण दुर्लभ लगता है।

गट्टू कमाल की फिल्म है। कहानी बेहद सरल और संपादन कच्चा पक्का। ताकि लगे कि आप रावन जैसी कोई महंगी फिल्म नहीं देख रहे हैं। अगर ऐसा नहीं होता तो गट्टू कोई प्रभाव नहीं छोड़ पाता। कैमरे ने पतंग को देखा है ज़बरदस्त है। निर्देशक को बधाई। पतंग को लेकर जो रोमांच रचा गया है वो सत्यजीत रे की किस्सागोई सा है। सोनार केल्ला की याद आई। संगीत भी उसी तरह की रहस्यवादी। स्लम डाग मिलेनियर की तर्ज़ पर गट्टू को दीवार पर टंगी सत्यमेव जयते की याद आती है और उसे धिक्कारती है कि झूठ क्यों बोला। गट्टू फिर सच बोलता है। अपने दोस्तों को बचा लेता है और आसानी से उस सिस्टम का पार्ट हो जाता है जिसके लिए हमारा स्कूल सिस्टम तरह तरह की योजनाओं के ज़रिये तमाम बचपनों को एक सिस्टम में कैद होने के लिए बुला रहा है। पता नहीं उसके बाद गट्टू कितना गट्टू रह पाएगा। मैं यह भी नहीं जानता कि गट्टू काइट रनर की प्रतिलिपि है या नहीं । हो भी तो कोई फर्क नहीं पड़ता। इसलिए लिखा कि किसी ने ट्वीट पर पूछा था कि कहीं ये काइट रनर से प्रेरित तो नहीं है।

हम ऐसी फिल्मों को बाल फिल्म क्यों कहते हैं। यह तो पूरी फिल्म है। उनकी फिल्म भी है जो कभी बाल थे मगर उनके सर पर बाल नहीं रहे। अभिनय बालक का सहज है। किसी किरदार का अति अभिनय है। बहुत ही सरल है। एक्टिंग के पैकेजिंग के इस दौर में हम भूल जाते हैं कि कहानी भी कोई चीज़ होती है। गट्टू में एक्टिंग कहानी की है। इसलिए हो सके तो देख आइये । हो सके तो यह अफसोस कीजिए कि हम भी अगर गट्टू होते.....

21 comments:

बाबुषा said...

हाँ ! गट्टू प्यारी फिल्म है. अब पोस्ट पढ़ती हूँ आपकी.

बाबुषा said...

Nostalgic !

ravish kumar said...

jee..

Unknown said...

इस फिल्म को देखने की ख्वाहिस है ! शायद अपना भुतकाल देख सके !

और आपके इस समीक्षा के बाद तो इसको देखने की चाहत कई गुनी हो गई है ।

Narendra Kumar said...

jaldi hi dekhna chahunga...apne bohot achhe se puri film ko humare hi bachpan se jodkar pesh kiya hai

Unknown said...

अब तो मैं भी इस बार 15 अगस्त के लिए ही सही.. फिर से गट्टू बन जाऊंगा.. हा हा.

Unknown said...

Ab. To lag raha hai ki gattu dekhni hi padegi ...

Unknown said...

Ab to lag raha hai ki gattu dekhni hi padegi.

Unknown said...

Ab. To lag raha hai ki gattu dekhni hi padegi ...

Unknown said...

Ab. To lag raha hai ki gattu dekhni hi padegi ...

विनीत कुमार said...

मेरी तिलंगी, हां हम बिहारशरीफ में इसे तिलंगी ही कहा करते, माइग्रेशन ने पतंग बना दिया..खैर. एक उंचे पेड पर जाकर अटक गयी थी. मैं बड़ी मुश्किल से उस पेड़ पर चढ़ पाया था. लेकिन मैं उसे तोड़कर वहां से नीचे लेकर उतरना नहीं चाहता. टहनी से छुड़ाकर उतर जाना चाहता था ताकि नीचे आकर एक घघा भर मारुं की तिलंगी सरसराकर खिल उठे. हवा भी कम थी जिससे डर भी था कि शायद ही हम इतने फिर से ले जा पाएंगे. मैं छुड़ाकर उतर गया और फिर उड़ाने की कोशिश करने लगा. फंस गई तिलंगी.
फिर चढ़ा, बरसात का मौसम. मैं फिसलकर बुरी तरह गिर गया. किसी तरह उठा,रोया..जब आंखे खुली तो मेरा पैर अचानक से भारी लगी. देखा तो घुटने तक प्लासटर थे,जहां-तहां बैडेज और चारों तरफ खड़ी मेरी मां,भइया और मोहल्ले के कुछ लोग.
जरुर देखेंगे इस फिल्म को, आपने जैसा बताया, एक बड़ा हिस्सा मेरे तिलंगी युग का भी है.

deep chand said...

Gattu introduce karane k liye thanks rabish ji, ab movi bhi dekhi jaayegi.

deep chand said...

Gattu introduce karane k liye thanks rabish ji, ab movi bhi dekhi jaayegi.

दीपक बाबा said...

@ग्रेभिटी


@ ग्रेभिटी = ग्रेविटी

मेरे ख्याल से आपने बिहार /पटना पर एक पोस्ट निकाली थी, साईंन बोर्ड को लेकर जिसमे "व" = "भ" का बखूबी वर्णन किया था. आप अभी तक बिहार की उसी "ग्रेभिटी" से निकल नहीं पायें हैं.

शुभेच्छा ...

प्रवीण पाण्डेय said...

फिल्म देखकर हम भी अपने अन्दर के गट्टू को ढूढ़ेगे..

संगीता मनराल said...

आजकल, कितनी फ़िल्में देख रहे हैं आप??

Akhilesh Jain said...
This comment has been removed by the author.
aSTha said...

indeed..those wonderful moments..
all those days flying kites and trying to win over other kites..running after the kite that went off the string and cherishing that torn kite, it was a valuable possession and nothing could replace the satisfaction derived..
Peter Pan is desperately required :)

मधुकर राजपूत said...

पतंगबाज़ी हमारे गांव, कस्बों में आज भी बाकी है। हरियाली तीज, 15 अगस्त जैसे पतंगबाज़ी दिवस हैं। आसमान पटा होता है। बस फर्क इतना भर है कि अब पतंग कहते हैं और हम कनकौआ कहते थे। गिलसिया, चांद-तारा, अद्धा, झाप्पा जैसे तमाम नाम थे। कोशिश बहुत की पतंग उड़ाने में महारत हासिल करने की लेकिन पल्लेदारी यानी चर्खी पकड़ने, ढील देने, मंझा लपेटने और अट्टी करने में ही रह गए। कनकौआबाज़ ने कभी देर तक पतंग नहीं उड़ाने दी। हां छतें फलांगने में माहिर जरूर हो गए थे। महारत ऐसी की छलांग मारी और ये जा वो जा, हड्डी कभी नहीं टूटी। एक बार पतंग लूटते पिताजी ने देख लिया और कमर, चेहरे और हाथों पैरों पर बने कुछ निशान बतौर मेडल लेकर पतंगबाज़ी का हमारा करियर खत्म हो गया। :)

मधुकर राजपूत said...

पतंगबाज़ी हमारे गांव, कस्बों में आज भी बाकी है। हरियाली तीज, 15 अगस्त जैसे पतंगबाज़ी दिवस हैं। आसमान पटा होता है। बस फर्क इतना भर है कि अब पतंग कहते हैं और हम कनकौआ कहते थे। गिलसिया, चांद-तारा, अद्धा, झाप्पा जैसे तमाम नाम थे। कोशिश बहुत की पतंग उड़ाने में महारत हासिल करने की लेकिन पल्लेदारी यानी चर्खी पकड़ने, ढील देने, मंझा लपेटने और अट्टी करने में ही रह गए। कनकौआबाज़ ने कभी देर तक पतंग नहीं उड़ाने दी। हां छतें फलांगने में माहिर जरूर हो गए थे। महारत ऐसी की छलांग मारी और ये जा वो जा, हड्डी कभी नहीं टूटी। एक बार पतंग लूटते पिताजी ने देख लिया और कमर, चेहरे और हाथों पैरों पर बने कुछ निशान बतौर मेडल लेकर पतंगबाज़ी का हमारा करियर खत्म हो गया। :)

Prabhat said...

Ravish ji Sadar namaskar,

mujhe nahi pata ki apne blog likhne ke baad aap uspe aaye comments ko dekhte honge ya nahi, shayad aapka in comments par koi comment nahi dekha jata hai.
fir bhi me apne blog se liya hua apna ek lekh pesh kar raha hu, kash aap ise dekhe




अब कोई राम नहीं हमारा धनुष जो तोड़े
ज़िन्दगी रोती है सीता के स्वयंवर की तरह


किसी मशहूर शायर के कहे गए ये लफ्ज़ आज लगभग हर शख्स की जुबाँ से किसी न किसी तरह सुनाई पड़ सकते हैं। हर कोई परेशां है , किसी को कोई परेशानी है तो दूसरे को कोई और। शायर अपनी ज़िन्दगी रुपी सीता के उद्धार (सहारे ) के लिए किसी राम की उम्मीद में हैं शायद । वैसे तो ये संसार पूरी तरह से दुःख का ही समुन्दर है , जैसा की भगवान खुद ही गीता में कहते हैं "दुःखालयम अशाश्वतम"। पर सिर्फ सार्वभौमिक आध्यात्मिक तथ्य के अलावा अन्यान्य कारणों पर विचार न करने की हमारे पास कोई खास वज़ह भी नहीं है। अन्य कारण भी हैं हमारे दुःख के।
हम में से बहुत नहीं जानते की स्पेक्ट्रुम क्या होता है , कॉमनवेल्थ खेल क्या होते हैं । पर हमें बताया जाता है की सिर्फ एक्स वाई क्रोमोसोम्स की वज़ह से पैदा किसी पुराने पापी का बेटा कौन है। हमारी समस्याओं की जगह उस अनुवांशिक गन्दगी का महिमामंडन किया जाता है, जिसके कारक से तो हम पहले से ही त्रस्त है। फिर पैदा होते हैं चापलूस जो ये समझ बैठे हैं की उनका वजूद सिर्फ इन राजकुमारों की लल्लो-चप्पो में ही है। शुरू होता है आरोपों प्रत्यारोपों का दौर। नरेन्द्र मोदी कौन हैं। हम में से ज्यादातर लोग उनके बारे में सिफ उतना जानते हैं , जितना कांग्रेस हमें बताती है, या बी.जे.पी हमें बताती है और दोनों को सुनने के बाद हम जो अपने मन में विश्लेषण करते हैं। सांप्रदायिक विकास पुरुष।जिन लोगो को हमारी समस्याओं पर ध्यान देना चाहिए था उन लोगो ने खामख्वाह एक भारतीय को हिंदुत्व का मसीहा बना दिया और फलस्वरूप उसे मिल गयी प्रसिद्धि और समान विचारधारा में लोकप्रियता। ऐसे कई लोग हैं , चाहे वो नाचने गाने वाले हों, खेलने कूदने वाले हों या लोकतंत्र की नौटंकी के अहम् सूत्रधार हों, जिन की लोकप्रियता की वज़ह से हासिले पर चले गए अन्ना हजारे, बाबा राम देव , और इन जैसे तमाम लोग जो हमारी आवाज़ बनने की कोशिश करते रहे हैं। वास्तविकता ये है की इस देश के आम आदमी को न तो किसी नौटंकी वाले से मतलब है न ही किसी फूहड़ जोकर से। ये वास्तविकता कांग्रेस और अन्य पार्टियाँ अच्छी तरह से जानती है। दुःख इस बात का है की हमारे सब्र के इम्तिहान लेने से ये राजनीतिक खटमल बाज़ नहीं आ रहे हैं ,और इस बात का भी दुःख है की एक अदद जबाब की बजाय हम इम्तिहान दिए जा रहे हैं।

धर्मं बाहुल्यता और , जातिवाद जिसे हर भारतीय अनेकता में एकता के रूप में अपने देश की मजबूती समझता आया था , आज वो सोच सम्प्रदायिकता और आरक्षण के दकियानूस शब्दों ने बदल दी है। किसने बदली हम जानते हैं। क्यों बदली ये भी हम जानते हैं , फिर भी कुछ करते नहीं हैं। इसी बात का तो सबसे बड़ा दुःख है की जनता हुए भी हम वो सब कुछ नहीं करते जो हमारे सांसारिक और आदिभौतिक सुखों के लिए ज़रूरी है। आपके विचार प्रार्थनीय हैं।



प्रभात शर्मा
http://prabhikalp.blogspot.in/