(चेतावनी- स्टाररहित ये समीक्षा काफी लंबी है समय हो तभी पढ़ें, समीक्षा पढ़ने के बाद फिल्म देखने का फैसला आपका होगा )
डिस्क्लेमर लगा देने से कि फिल्म और किरदार काल्पनिक है,कोई फिल्म काल्पनिक नहीं हो जाती है। गैंग्स आफ वासेपुर एक वास्तविक फिल्म है। जावेद अख़्तरीय लेखन का ज़माना गया कि कहानी ज़हन से का़ग़ज़ पर आ गई। उस प्रक्रिया ने भी दर्शकों को यादगार फिल्में दी हैं। लेकिन तारे ज़मीन पर, ब्लैक, पिपली लाइव,पान सिंह तोमर, विकी डोनर, खोसला का घोसला, चक दे इंडिया और गैंग्स आफ वासेपुर( कई नाम छूट भी सकते हैं) जैसी फिल्में ज़हन में पैदा नहीं होती हैं। वो बारीक रिसर्च से जुटाए गए तमाम पहलुओं से बनती हैं। जो लोग बिहार की राजनीति के कांग्रेसी दौर में पनपे माफिया राज और कोइलरी के किस्से को ज़रा सा भी जानते हैं वो समझ जायेंगे कि गैंग्स आफ वासेपुर पूरी तरह एक राजनीतिक फिल्म है और लाइसेंसी राज से लेकर उदारीकरण के मछलीपालन तक आते आते कार्पोरेट,पोलिटिक्स और गैंग के आदिम रिश्तों की असली कहानी है।
रामाधीर सिंह, सुल्तान, सरदार जैसे किरदारों के ज़रिये अनुराग ने वो भी दिखा दिया है जो इस फिल्म में नहीं दिखाई गई है। हिन्दू मुस्लिम अपराधिकरण के इस गठजोड़ का इस्तमाल राजनीति में सांप्रदायिकरण की मिसालों के रूप में खूब हुआ है। मगर उसके पहले तक यह गठजोड़ सिर्फ धंधा पानी में दावेदारी तक ही सीमित था। गैंग्स आफ वासेपुर एक राजनीतिक दस्तावेज़ है। इस फिल्म को इसलिए नहीं देखा जाना चाहिए कि किस समीक्षक ने कितने स्टार दिये हैं। इस फिल्म को इसलिए भी देख आइये कि ऐसी फिल्में बनने लगी हैं और सेंसर बोर्ड उन्हें पास भी करने लगा है( सेंसर बोर्ड के अफसरों को बधाई,पंकजा ठाकुर से मिला हूं तो उनका नाम लेकर लेकिन बाकी को भी बधाई)। गालियों के लिए नहीं बल्कि उन दृश्यों के लिए जिनके बिना यह फिल्म वास्तविक नहीं बन पाती। बड़े बड़े मांस के लोथड़ों के कटने की जगह से जो आपराधिक मिथक बनते हैं,यह सीन अगर सेंसर बोर्ड काट देता कि लोगों की भावना आहत हो सकती है तो फिल्म आइना बनने से रह जाती। संवादों में कोइलयरी की राजनीति और अपराधिकरण में टाटा थापर का नाम लेकर उस प्रक्रिया को बता देना आसान फैसला नहीं होगा। नूझ लैनल( मैं न्यूज़ चैनल नहीं कहता क्योंकि मुझे ये लैनल ही लगते हैं) में यह औकात है तो बता दीजिए।
अच्छा निर्देशक वो होता है जो अपनी कहानी के समय और उसके रंग को जानता हो। कैमरे की लाइटिंग, दिन और रात के शेड्स,बारिश के क्लोज अप्स,मोहल्ले की गलियां,गलियों के ढलान, कोने, पुराने अखबारों की कटिंग,धूल,बाल इन सबको एक निरंतरता में रखते हुए दृश्य रचता हो। अनुराग मिलते तो पूछता कि मनोज वाजपेयी के लिए गमछा तो मिल गया होगा लेकिन ईनार(कुआं) पर नहाने के वक्त जो अंडर वियर पहना है वो ब्रांडेड है या पटरी से खरीदा था। ईनार पर बाल्टी में फुले हुए कपड़े और गमछा लपेट कर मनोज का चलना कमाल का है। कट्टा का विवरण और चित्रण बेजोड़ है। फट के फ्लावर हो जाता है। ये संवाद रिसर्च से ही आ सकता है। गुल और ज़र्दे के डिब्बे में बम बनाना और फेंकना वास्तविक है। लुंगी पहनने का तरीका और पीछे फंसी हुई लुंगी को हल्के से खींचना यह सब डिटेलिंग पर्दे के दृश्यों को यादगार बनाते हैं। कलाकार को अभिव्यक्ति देते हैं। जिसने भी इस फिल्म की लाइटिंग की है वो कमाल का बंदा या बंदी होगी। अंधेरा कितने शेड्स में उभरता है,लाजवाब है।
मैं कहानी में नहीं जाना चाहता। कसाई के मोहल्लों के बहाने अनुराग ने पीयूष मिश्रा के नैरेशन से ज़ाहिर कर दिया है कि एक समय था जब ये बस्तियां ठेकेदारों के गुर्गों की खदानें हुआ करती थीं। जिनका नब्बे के दशक में सांप्रदायिक अफवाहों में इस्तमाल किया गया। बिना इस डायनमिक्स के आप इस फिल्म को नहीं पढ़ सकते। फिल्म बनती है वासेपुर में। आज़ादी के पहले से, अंग्रेज़ों के आने और जाने के बीच, ट्रेन के लूटने का लंबा सीन, सरदार के बाप का मरना, सरदार का बनना,उसकी शादी,बच्चे। वो एक सामान्य मर्द है। मनोज वाजपेयी ने ऐसे किरदारों को अपने समाज में खूब देखा होगा,सुना होगा। सत्या में मनोज अपने बेहतरीन अभिनय से काल्पनिक हो जाते हैं तो वासेपुर में अपने शानदार अभिनय से वास्तविक। गिरिडिह गिरिडिह बोलने का अंदाज़, नली वाला मटन पीस चूसना, लड़की को ताकना,कुएं पर दुर्गा के साथ कपड़े धोते वक्त ताल से ताल मिलना,बंगालन का राजनीति में आना यह सब बिहार यूपी के आपराधिक होते समाज के वास्तविक किस्से हैं। आप इन्हें बिंदेश्वरी दूबे, सत्यदेव सिंह सूरजदेव सिंह बीपी सिन्हा जैसे असली नामों में सुन सकते हैं(जिसकी बेहतरीन चर्चा रंजन ऋतुराज ने अपने फेसबुक स्टेटस में की है) या फिर आप अपने स्थानीय मोहल्लों में उभरे ठेकेदारों और उनके गुर्गे की सुनी सुनाई कहानियों में खोज सकते हैं। कोयला माफिया के पनपने की प्रक्रिया के भीतर कितने उप-वृतांत हैं।
सरदार का अभिनय कमाल का है। मनोज वाजपेयी ने जितना बेहतरीन गुंडई के किरदार को उभारने में किया है उससे कहीं ज्यादा उनका अभिनय औरतों के सापेक्ष एक मर्दाना कमीनगी में दिखता है। मनोज को काफी फोलो किया है। लेकिन इस बार मनोज ने अपने कारतूस से वही निकाले जो हम सब देख चुके हैं। अगर नया वाजपेयी उभरता है तो वो सिर्फ नगमा और दुर्गा के बीच के संबंधों में फंसा मक्कार मनोज है। दानिश को गोली लगते वक्त और अंतिम दृश्य में ठेले पर गिरने का अभिनय काफी अच्छा है। कुएं के पास वो जिस तरह से दुर्गा से बात करते हैं और घर की सफाई करते वक्त जिस तरह से नगमा से बात करते हैं उसका सांस्कृतिक अध्ययन कोई फिल्म वाला करता रहेगा लेकिन हम जिस भोजपुरी समाज से आते हैं उसे देखकर गदगद हो गए। निश्चित रूप से दुर्गा और नगमा के बीच के अवसरों पर मनोज वाजपेयी ने अपने अभिनय को नया मुकाम दिया है। एक सीन में जिस सफाई से मनोज पांव उठाते हुए उठ खड़े होते हैं पता चलता है कि फिल्म में अभिनेता नहीं निर्देशक अभिनय कर रहा है। और बहुत सारे गुमनाम सहायक निर्देशक अपने निर्देशक के साथ खड़े हैं, तैयारी के साथ।
सरदार और औरतों के बीच के संबंध को अलग से देखा जाना चाहिए। नगमा और पीयूष मिश्रा के बीच जो संबंध होते होते रह गया और उससे जो फैज़ल पर असर पड़ा उसके लिए अनुराग ने कैसे आसानी से वक्त निकाल लिया है, शाबासी देने का मन करता है। बिना उस दृश्य के फैज़ल का किरदार पैदा ही नहीं हो सकता था जो शायद दूसरे हिस्से में उभरेगा। मनोज वाजपेयी के पिता का किरदार जिसने भी किया है उसका अभिनय भी नोटिस में लिया जाना चाहिए। कहानी में शुरूआती जान वही डालता है। कोइलरी में पत्थर से मारपीट का सीन प्रभावशाली है।
कसाइयों के मोहल्ले का सुल्तान इस फिल्म में जम गया है। यहां कबूतर भी एक पंख से उड़ता है का संवाद कितनी आसानी से बिना किसी विशेष भाव भंगिमा के उतार देता है। चप्पल उतारकर दांत पीसते हुए दौड़ा कर मारने का सीन। उफ कैसे बताऊं कि एकदम वास्तविक है। मेरे पिताजी ठीक इसी तरह चप्पल खींच लेते थे मारने के लिए। हमारे गांव समाज में चप्पल निकालने का सामंती चलन कैसे आया होगा इसका ज़िक्र करूंगा तो सामंतवाद और जातिवाद में उलझ जाऊंगा। खैर मनोज वाजपेयी ने भी ऐसे वास्तविक दृश्य अपने गांव घरों में देखे होंगे।
सुल्तान को मैंने पहली बार रीमेक वाली अग्निपथ में नोटिस किया था। इस कलाकार का भविष्य उज्ज्वल है। भोजपुरिया ज़ुबान में कहूं तो खंचड़़ा गुर्गा लगा है। इसका किरदार बहुत उभरा नहीं क्योंकि सरदार की बराबरी में नहीं था। सरदार की बराबरी रामाधीर से हो रही थी। क्या आप उस प्रसंग को भूल सकते हैं जब सुल्तान रामाधीर के घर जाता है। पत्नी चीनी मिट्टी वाले बर्तन की बात करती है। मुसलमान आया है। तभी मैं कहता हूं कि इसे आपराधिकरण और सांप्रदायिकरण के बीच की यात्रा के प्रसंगों के रूप में देखा जाना चाहिए। सुल्तान ने क्या एक्टिंग की है।
आप समझ रहे होंगे कि मैं समीक्षा लिख रहा हूं या किताब। कुछ फिल्मों को ऐसे भी देखना चाहिए। इस फिल्म में पीयूष मिश्रा का किरदार बहुत नहीं उभरा। उनकी आवाज़ और गाने ने कमाल का अभिनय किया है। अनुराग पीयूष को और क्रूर बना सकते थे लेकिन शायद स्कोप नहीं रहा होगा। पीयूष का किरदार मनोज के साथ जो लड़का मार काट करता है, वो होना चाहिए था। लेकिन क्या पीयूष के नैरेशन के बिना यह फिल्म पूरी हो पाती। नहीं। हो सकता है कि अनुराग ही पीयूष के रोल को ठीक से समझ न पाये हों। गुलाल में उनके लिए पूरा प्लान था लेकिन गैग्स आफ वासेपुर में पीयूष को लेकर कोई योजना नहीं दिखती है। नगमा और दुर्गा का अभिनय लाजवाब रहा है। दीवार का प्रंसग देखकर लगा कि अनुराग ने सिनेमा के भीतर सिनेमा का इस्तमाल ओम शांति ओम टाइम के भौंडे गाने रचने से हटकर किया है। मुकद्दर का सिकंदर का गाना आहा। सिनेमा देखने की चाह और चाह में बनते किरदार। वाह।
लिखते हुए सोच रहा हूं कि कुछ छूट तो नहीं रहा है। बहुत कुछ छूट रहा है। गानों पर बिल्कुल नहीं लिखा। लेकिन यह फिल्म इसलिए विवाद नहीं पैदा करेगी क्योंकि घटना के समय से बहुत बाद में बनी है। फिर इसका जवाब भी फिल्म में ही है। कैसे माफिया का काम कोयले का चूरा चुराने वाली महिलाएं करने लगीं और माफिया आखिरी दिनों में मछली मारने लगे और रंगदारी के धंधे में आ गए। कुछ नहीं हुआ तो उस रामाधीर सिंह का जिसके पास राजनीतिक सत्ता बची रह जाती है। वही रामाधीर सिंह आज रेड्डी ब्रदर्स लेकर ए राजा तक में बदल गया है।
माफी चाहता हूं बोर समीक्षा के लिए। इस तरह से कोई समीक्षा करे तो फिल्म ही न देखने जाए। मगर आप इस फिल्म को देखिये। काफी मनोरंजन है इसमें । मैं कमज़ोर दिल का आदमी हूं। सोचा था कि बहुत गोली चलेगी तो सिनेमा हाल से चला आऊंगा। बड़ा कलेजा कांपता है महाराज। लेकिन हत्या और गोलीबारी के दृश्य क्रूरतम तरीके से नहीं फिल्माये गए हैं। क्रूरतम से मेरा मतलब वल्गर भी है। सबसे बड़ी बात है कि पूरी फिल्म अनुराग कश्यप की है। निर्देशक ने कहानी पर बराबर की पकड़ बनाए रखी है। किसी किरदार को ज्यादा जगह नहीं दी है। इसीलिए इस फिल्म से आप मनोज वाजपेयी या नवाज़ या पंकज चतुर्वेदी नहीं चुन पायेंगे। जब भी चुनेंगे फिल्म को ही चुनेंगे। अनुराग ने कहानी की ज़रूरत को बहकने नहीं दिया है। हाथ और दिल पर नियंत्रण रखा है। जिसने संपादन किया है उसका नाम तो कोई नहीं जानेगा। उसके परिवारवाले भी स्क्रीन पर नहीं पढ़ पायेंगे मगर वो तारीफ के काबिल है। शायद उसका नाम श्वेता है। इसीलिए कहता हूं कि गैंग्स आफ वासेपुर फिल्म निर्देशकों के लिए चुनौती है। ऐसी बात नहीं है कि इस स्तर की फिल्में नहीं बनी हैं। बनी हैं। मगर आज के मोड़ पर यह फिल्म प्रस्थानबिंदु है। पाथब्रेकिंग।
39 comments:
Khatarnak.....
गैंग्स आफ वासेपुर : रविश कुमार जी की समीक्षा ! इन्होने इस फिल्म के बारे मे दिल से लिखा है क्योकि यह फिल्म वैसी ही है । हमे तो अभी तक देखने को नही मिली , वैसे इस फिल्म को एक बार जरुर देखे । यह फिल्म ना ही हालीउड की " गाडफादर " है और ना ही " बालीउड के किसी " भाई या डान " की दास्तान , बल्कि ऐसा प्रतीत हो रहा है कि " इंग्लोरियस बास्टर्ड " जैसी कुछ अजीब लेकिन कोल माफिया के चमडे को उधेडती यह फिल्म बवालिया लग रही है ।
हम सभी जानते है कि ( खासकर बलिया वाले ) की कभी एक समय मे सुरजदेव सिंह का " सिंह मेंशन " और उनकी हनक धनबाद और झरिया मे चरम पे थी , फैसला वही से होता था सत्ता मे कोई भी हो। कुछ उन्ही चीजो से प्रभावित कुछ उन्ही स्थितियो को लेकर बनी ये फिल्म फटहेपन की असलियत को भी दिखा रही है ।
गीत संगीत और इसमे बिहार का लाला , अपने ठसकपन भोजपुरिया बिहारी और पुरबिया ठसक को दिखा रहा है धुने वही है बोल वही है रिमिक्स का असर लेता वुमनिया है तो पीयुष मिश्रा की आवाज और बोल दिल कुहुकाने पे मजबुर कर देते है । गीत संगीत बेहतरीन है लाजवाब है उम्दा है और भोजपुरी गीत संगीत को एक नया आयाम दे सकते है ।
विमलचन्द्र पांडे जी का एक कमेंट कि " अगर मनोज बाजपेयी दुसरे देश मे जन्म लिये रहते तो अब तक तीन चार आस्कर एवार्ड उनके पास होते" ( यह कमेंट इस फिल्म को देखने के बाद आया है )
नोट- अभी तक हमने फिल्म देखी नही है और जो भी हमने लिखा है वो ट्रेलर , गीत संगीत और लोगो की समीक्षा और बातो को पढ के कह रहा हुँ ।
ye film dekhne ke liye chalees kilometer ka safar kar ke multiplex (cinema hall nahin) tak aaye...aur light nahin hai, generator kharab hai bol ke show cancel kar diya.....ye bhi ek india hai
अभी एक सप्ताह पहले आसनसोल के पास एक कोयला खादन में काफी नीचे उतर कर आया हूं...खादान के अंदर इस फिल्म को लेकर चर्चा हो रही थी....वहीं पर किसी ने मुझे बताया कि वासेपुर वाकई में एक जगह है...और इसके साथ ही कोयला माफियाओं के कई किस्से और कहानी भी सुनने को मिले....ट्रेड यूनियनों की दंबगई के बारे में भी सुनने को मिला....अभी इस फिल्म को देख नहीं पाया हूं....लेकिन देखूंगा जरूर....अमूमन अनुराग कश्यप की सभी फिल्में मैंने देखी है...इनकी फिल्म मेकिंग स्टाइल पूरी तरह से इटली के रियलिज्म और फ्रांस के न्यू वेव मुवमेंट जैसी है...अनुराग की फिल्में परेशान करती हैं, और इनकी फिल्मों की खासियत है...उम्मीद है कि पान सिंह तोमर के बाद एक और अच्छी फिल्म देखने को मिलेगी....आपके डिस्कलेमर ने पूरी समीक्षा पढ़ने के लिए उकसाया....और पढ़कर निराशा नहीं हुई, वैसे इसके पहले आप कई बंडल फिल्मों की स्तुतिगान कर चुके हैं....लेकिन आपकी समीक्षा से ज्यादा अनुराग की काबिलियत पर भरोसा है मुझे...
इस फिल्म को इसलिए नहीं देखा जाना चाहिए कि किस समीक्षक ने कितने स्टार दिये हैं। इस फिल्म को इसलिए भी देख आइये कि ऐसी फिल्में बनने लगी हैं और सेंसर बोर्ड उन्हें पास भी करने लगा है.
bhaiya comment baad me denge. ham to chale film dekhne...
इस फिल्म को इसलिए नहीं देखा जाना चाहिए कि किस समीक्षक ने कितने स्टार दिये हैं। इस फिल्म को इसलिए भी देख आइये कि ऐसी फिल्में बनने लगी हैं और सेंसर बोर्ड उन्हें पास भी करने लगा है.
bhaiya comment baad me denge. ham to chale film dekhne...
जिस सफाई से मनोज पांव उठाते हुए उठ खड़े होते हैं पता चलता है कि फिल्म में अभिनेता नहीं निर्देशक अभिनय कर रहा है।
और बहुत सारे गुमनाम सहायक निर्देशक अपने निर्देशक के साथ खड़े हैं, तैयारी के साथ।
bohot hi achhi sameeksha padhi. Aajkal itne clear reasons shayad hi koi critic likhta hai... It was a wonderfull read. Main jitna jaldi ho sake utna jaldi yeh movie dekhne jaungi.
bohot hi achhi sameeksha padhi. Aajkal itne clear reasons shayad hi koi critic likhta hai... It was a wonderfull read. Main jitna jaldi ho sake utna jaldi yeh movie dekhne jaungi.
फिल्म तो कल देखूंगा लेकिन इस चीनी मिट्टी के बरतन प्रकरण को खुद भी देखा है जब मेरे ओसारे में कुछ बरतन अलग से रखे जाते थे। सवाल करने पर कि आखिर बाजार में तो सभी लोग बिना धर्म भेदभाव किये एक ही जग में अंजुली बना पीते हैं तो यहां.......और जवाब मिलता-बाजार की बात अलग है, ये घर है। यहां सफाई रखनी पड़ेगी।
एक घटना और याद आती है जब गर्मी की छुट्टियों में मुंबई से गांव गया था तब किसी शादी के दौरान परोसते समय मेरी कलछुल से दाल और पत्तल तनिक नजदीक भर हो गये थे एक दूसरे धर्म के बाराती को परोसते समय और बाल्टी भर दाल फेंकवा दी गई।
जो उस माहौल को जिये हों, उससे रूष्ट हुए हों वह इस फिल्म का अर्थ समझ सकते हैं। देखता हूँ कल।
यह फिल्म मुझे नपुंसक महसूस करती है की मैं ऐसा कुछ क्यूँ नहीं बना पायी|
यह पढ़कर देखने का मन बन गया है..
accha bhai film hall me jakar film dekhe to zamana ho gaya hai. ab jab ravish babu itni tareef kar rahe hain to jakar dekhna hi padega.
filam ki vastvikta ki tarah aapki samiksha bhee vastvik lagti hai raveesh. ab to turant dhekne ka man kar raha hai. dhekta hoo. muscat me kaise iska jugad ho sakta hai. pirated hi sahi. download to ab karna padega.
Ravish ji, aapke blogg ki kisi rachna ya photo ko kahin aur prayog karne ka adhikar nahi hai. chavanni chap ko aapne izazat de di ho to idea nahi. aap ek baar ye clear kar den to kai logon ka bhala ho jayega.
sir, maine ye film dekhi nd aaj eveng. Se hi aapke review ka intezar kar raha tha.. To intezar ka fal v mila itne achhe review ko padh k...gardaaaa
Ravis ji May Dhanbad ka hoo Safia Jo fahim khan ka Baap tha ..wamare ghar aata tha may 6ya7 sal ka tha .Hamara chacha Mins BoardMADA ka chairman aur Minister thy mujhay is kahani ka 25saal ka live story yad hai aur Surajdev Singh ka BaraBeta Rajive Ranjan Singh Bhi mera Class met tha sayed wo aab is dunya may nahi hai
Mijaj khus kar diye...pehle bhi kuch filmo ke review padhe hain pr wo filmon ke prachar ya dusprachar Ka hissa lagta tha...jb tk review me kahani ke ans nahi aate uski taseer Ka pata nhi chalta...apne wo tasse de di hai...kal ek party ke Press conference me baitha tha jitne bhi media karmi the unke bich charcha GOW ki hi ho rahi thi us se hi andaja laga liye the ki kya fim hai aur film dekhte wakt ki apki tweet sari kahani keh gai...marde aap isme bhi aage badhiye maja aya padhne me jaise laga ki sab charitra aankhe ke samne hai...
गुंडई का नया महाकाव्य - देखने की बहुत इच्छा हो रही है, वैसे भी हमें संवाद बहुत अच्छा लगा ।
रविशजी,
फिल्म नहीं देख पाया हूँ पर तहलका का रिपोर्ट कुछ और कहता है।
http://www.tehelkahindi.com/%E0%A4%86%E0%A4%B5%E0%A4%B0%E0%A4%A3-%E0%A4%95%E0%A4%A5%E0%A4%BE/1258.html
isme koi shak nhi ki yah film ek bde mudde ko lekr bdi bariki se banai gai hai...pr yah samiksha itni bariki se likhi gai hai ki na jane wale bhi ab jana chahenge... behtareen samiksha..
Ravishji,i am not reading filmy litrature-maine tay kiya tha-agar kuchh bhi galat laga to agli baar aap ke filmy opinions ko nahin padhna hai:)but i think movi is concerned with much more reality-and above of all-pls dont get sad-but i think your native also(which i came to know yesterday)thats why i read this review-considering this as a political reality based movi discribed by a journo:) well haha:) may be i will not watch this movie but i am sure i can not watch and justify this one if i have'nt read this blog! :)i hope you will share your memories of your native with we readers???(directly with real names)if possible?pls?and yes-pls do inform if you are going to watch the part 2nd and write a good blog like this:)waiting if so:)so many things ppl will know with your eyes and memories which are in dark nowadays:-|let us wish ppl will learn awareness and 'ahinsa' nonviolance frim it rather than usual things.:)
एक और बात जो नज़रन्दाज हो जाती है वो ये है की फिल्म में इस बात को भी बड़ी खूबसूरती के साथ दिखाया गया है की किस तरह से पुलिस और हथियारों के माफिया मिलीभगत से पैसे कमाते हैं। और पुलिस किस तरह से विपरीत सामाजिक व्यवस्था में खुद को स्थापित करती है।
माफी चाहता हूं बोर समीक्षा के लिए।
आज पहली दफ़ा आपकी देहरी परा आया हूँ. इस किस्सागोई को कोई बोर करना कहे तो हम सदा से बोर होने के शैदाई हैं.
वासेपुर.. कतरास.. धनबाद.. बिहार.. साठ, सत्तर और अस्सी का दशक.. वर्चस्व की नहीं अपने होने और जीने की लड़ाई.. धनबादी बने बलियाटी सूरजदेव सिंह ही नहीं, वासेपुर के असली चेहरे और उनके गोल.. उनकी गोलबंदी.. असली महीन सामाजिक तानाबाना.. हम यही सब देख-सुन कर बड़े हो गये.
फिल्म अपनी जगह, फिल्माया गया सारा कुछ अग़र वैसा ही जैसा लिखा हुआ है तो समझिये जीये गये साल उपटकर सोझे हो गये हैं.
दिल से कही गयी बातें दिल ही सुनता है. फिर दिल ही कहता है.. .
बलु, सिनेमा देखे के परी.
सौरभ पाण्डेय
aap ke is report se ye samajh me aa gya ki shyad aaj ke jamane ki ye movie hai.dhekhna bnta nhi dhekhna padhega...........
the movie is nice...! I have seen it, and is not a work of fiction.. real thing, real story which is been told with an in your face reality...!!
People who are talking crap about this movie or discussing the opening budgets and stars it has got know nothing about Films at all....
This movie is a worth watch :)
And very very very nice blog..
बाप रे! एक बात समझ में आ गई कि फिल्म देखनी है।
ho sake toh film ko balcony ke badle stall me baithake dekhna. jyada maza aayega
ab film dekni padegi
इस फिल्म की इतनी ख़ूबसूरत समीक्षा की गई है इस साईट पर और मुझे इस फिल्म का बड़ी बेसब्री से इंतज़ार था,पर जब मैंने फिल्म देखी इसके बाद मुझे बड़ा दुःख हुआ की अनुराग कश्यप जैसा फिल्म बनाने वाला इंसान भी भटक सकता है...अनुराग की फिल्म को एक बौद्धिक वर्ग हमेशा सराहता है और वो फ़िल्में भी ऐसे ही बनाते है पर इस फिल्म में जरूरत से जादा गाली गलौज और कुछ दृश्यों को जबरदस्ती ठूसना अच्छा नही लगा ऐसा लगा वो कोई भोजपुरी मसाला फिल्म बनाना चाहते थे मै मानती हु बिहार उत्तर प्रदेश में बहुत गाली गलौज है पर जिस तरह से उन्होंने दिखाया है उतना तो बिलकुल भी नही होना चाहिए मै भी ऐसे ही छोटी सी जगह से हूँ मेरे घर में भी पूरा ठेकेदारों वाला माहौल है उसी में पली बढ़ी बाद में महानगर में आई हु सब कुछ देखा है गाली गल्लौज इत्यादि सब लेकिन फिल्म में कुछ ज्यादा ही है मानती हूँ मेरे समय में और उस समय में जमीन आसमान का फर्क है... ऐसा लगता है जैसे फिल्म का विषय कही दब गया हो इन सारी चीजों के बीच इतनी ज्यादा हिंसा दहलाने वाली...यदि अनुराग एक बौद्धिक वर्ग के लिए फिल्म बनाते है तो उसे ही बनाये यह वर्ग थोड़ी कम गाली गलौज वाली भाषा भी समझता है और यदि वो सिर्फ सिनेमाहाल की सीटियों के लिए फिल्म बनाना चाहते है तो फिर ये कहना बंद कर दे की लोगों को यहाँ फिल्म देखने नही आती.....पर उन्होंने हर कलाकार से अभिनय कराया है किसी भी कलाकार का अभिनय ख़राब नही कहा जा सकता ....शायद यह फिल्म भी इस बार कलाकारों की वजह से चल जाये ..... अंत में अनुराग से यही कहना चाहूंगी कि आपकी फिल्मों को पसंद करने वाले है यदि आप गंभीर विषय पर भी फ़िल्में बनाते है तो उसे लोग पसंद करते है तारीफ करते हैं फिर उसमे मसाला डालने कि क्या जरुरत है उसे आम मुम्बईया फिल्म कि तरह न बनाये सिर्फ थोड़ी देर के मनोरंजन के लिए....जैसे फिलें आप बनाते है वैसे ही बनाये...सभी लोग खलील जिब्रान या शेक्सपीयर को नही पसंद करते उनका एक अलग वर्ग है फिर आप क्यों अपनी तरह कि फिल्मे बनाने से डरते हैं...
रबिश सर .....आपका समीक्षा करने का तरीका बिलकुल बेबाक और साफ जुबान है...बहुत खूब सर
थोडा और पढने को मिला होता -पढ़ते पढ़ते अचानक ख़त्म :-( गज़ब की दृष्टि है !
thoda kami kar gaye ravish ji
manoj wajpayi ke baap ka roll bhi to manoj wajpayi ne kara tha
Mere paas 8 ghante the timepass karne ko akela tha, bhagalpur stn pe. Paidal ghoomte hue ek theater mila ,wasseypur lagi thi unexcitedly show was housefull . Ticket 30 me balcony .maja full . Gaali full on &off screen.back to Lucknow.
Ravish this is a film which appropriately throws light on the darkest depths of politics and criminals
चप्पल से याद आया अब्बू नाराज़ बाद मे होते थे
चप्पल पहले निकल आती थी सीन देखते ही मेरे अब्बा
याद आ जाते है
चुकी मैं मुस्लिम इलाक़े से हू
फिल्म से एक खास लगाओ हो जाता है
लगता है मैं वही हू.
ये सब मेरी आखो के सामने गुजरा है
खुच सीन दिल और दिमाग़ दोनो पे असर करते है
जैसे राम धीर अपने बेटे को घर आके पीटता है
बधाई हो फिर से आप को........................
अच्छा तफसरा है फिल्म का,,,,,लेकिन एक शिकायत है,,,,,
शायद इस दशक में खोजा गया सबसे उम्दा ऐक्टर "तिग्मांशु धुलिया" के बारे में भी आपको लिखना चाहिए।।।।।।।लेकिन कोई बात नहीं ,,जैसा की पहले ही आपने कहा की शायद आपने बहुत कुछ छोड़ दिया फिल्म के बारे में .
मैंने दूसरा पार्ट देखा फिल्म का और शायद कोई भी ऐसा संवाद उनका नहीं है जो आज मुझे जुबानी याद न हो।,,,
कुछ लिख रहा हूँ।।
1-सबके दिमाग में साली अपनी अपनी पिचरर चल लई है,,,,,,, ...जब तक इस देश में सनीमा है ,,,,,लोग चु **या बने रहेंगे,,,,,,(सुलतान और शमशाद को समझाते हुए )
2-वासेपुर पर तुम राज करो,,,धनबाद प्रशासन तुम्हारा साथ देगा,,,हमारे आदमी से गलती हो तो हमारा सीना खुला है,,,,,,,और अगर तुमसे कोई गलती हो तो ...."हमें भी वाजिब कदम उठाना पड़ेगा,,,,तुम्हे बुरा नहीं मानना चाहिए" (फेजल के साथ )\
3-कभी कभी ऐसा लगता है की डेफिनिट में तुम्हारा खून कम ,,,सरदार का ज्यादा है ,,,(दुर्गा से उसके हिन्दू होने का एहसास दिलाते हुए )
4-साला सारे दिन छुट भइये नेताओं छोटे छोटे बच्चो के साथ बैठे रहते हो,,,,,,,,,,,,अबे अपने क्षेत्र में जाओ,,,थोडा लोगो को मोटिवेसन दो।।। (अपने बेटे को हडकाते हुए )
और सिर्फ एक संवाद जो शायद मेरी जिंदगी में आज तक का सुना सबसे बेहतरीन है,,,,,,,वो ऊपर वाली ^^^,,लाइन बोलने से ठीक पहले आता है,,,,,जब उसका बेटा रामधीर सिंह से कहता है।।।।"बाबूजी वो सुलतान का आदमी जिसने सरदार को मारा था न ,,,,,,,,,,उसे फेज़ल ने मार दिया''''''
तो रामधीर सिंह कहता है,,,, >>>>>>>>>>>>>>>>> "अबे ठीक ही तो किया"..........
किसी सिचुएसन को समझ कर किरदार के हिसाब से ऐसा तो शायद डायलॉग ओम पुरी या नसीर साहब ने भी अपनी शुरूआती फिल्मो में नहीं बोला होगा,,,,,
और इस डायलॉग को शायद वोही समझ सकते है जिन्होंने किसी यु पी , या बिहार के रामधीर सिंह की पूरी जिंदगी सही से समझी हो,,,,,,की वो कितना प्रेक्टिकल है,,,और ऐसे वाकये को स्वीकार करने की हिम्मत रखता है।।।(फिल्म में जरूर देखिएगा ये सीन )
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..शुक्रिया
Waah guru maja aa gaya....kon kahega ke ee sameeksha bore hai...are bore sameeksha karne ke ustaad to ham hain. Isi film pe hamne bhi likha hai...pata nahi kaise kaafi log pasand bhi kar diye....ek baar jaroor najar maariyega.
http://aryanzzblog.wordpress.com/2013/05/17/aryan-speaks-an-ode-to-the-gangs/
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