मुझे ऐसा क्यों लगता है कि टीवी ट्वीटर हो गया है। जैसे आप ट्वीटर में करते हैं उसी तरह से टीवी में होने लगा है। टीवी के फार्मेट को देखें। ट्वीटर के फारमेट को देखें। ट्वीटर में एक सौ चालीस करैक्टर का बक्सा बना होता है तो टीवी में भी वक्ता को एक बक्से में डाला जाता है। ट्वीटर में कोई वक्ता एक से अधिक पहचान के साथ आपको फॉलो करता है। टीवी में भी यही होता है। कई वक्ता हैं जो एक से अनेक मुद्दों पर अलग-अलग पहचान के साथ बोलने आते हैं। मसलन आप एम सी डी के चुनावों का विश्लेषण कर सकते हैं। आप विधानसभा चुनावों का करते हुए आरक्षण के विरोध के मसले पर बोल सकते हैं। फिर आप गांधीवाद पर लंबा आख्यान पैदा करने लगते हैं। कहीं से कोई भी कुछ भी बोल रहा है। बोल देता है। वक्ता की पहचान ट्वीटर के अलग-अलग अकाउंट की तरह है। जिस तरह से ट्वीटर में कोई भी कहीं से फॉलो करता हुआ आ जाता है और बोलने लगता है उसी तरह से टीवी में भी होने लगा है। पहले चंद चेहरे हुआ करते थे अब इन चेहरों का रेंज बढ़ने लगा है। आप कह सकते हैं कि सीमित है लेकिन तब भी दायरा बढ़ा ही है। औपचारिक प्रवक्ताओं के साथ साथ कई अनौपचारिक प्रवक्ता भी स्टुडियो स्टुडियो घूम रहे हैं। एंकर भी अब ट्वीट की तरह बड़बड़ा रहा है। कुछ भी बोलता है। बोलकर छोड़ देता है। लोग आपस में भिड़ जाते हैं।
ऐसा नहीं है कि टीवी पर बहस के कार्यक्रम नहीं थे। मगर वो बहस और चर्चा के कार्यक्रम थे। अब तो टीवी पर लगातार मुद्दे ट्वीटर की तरह ट्रेंड कर रहे हैं। रिपोर्ट गायब है। स्पीड न्यूज़ भी एक किस्म का खुंदकिया खबर ट्वीट है। लो ये लो दनादन। एक पढ़ा नहीं,सुना नहीं कि दूसरा लोड होकर आ गया। पहले वाला नीचे चला गया। जिस तरह आपके ट्वीट की गिनती होने लगती है उसी तरह से स्पीड न्यूज़ ख़बरों को गिनता हुआ आगे बढ़ने लगता है। स्पीड न्यूज एक किस्म का ट्वीट है। खबर अफवाह की तरह लगती हैं इसमें। कौन बोला किसने बोला और कैसे बोला। यह सब कुछ नहीं। कोई विवरण नहीं है। मुझे नहीं मालूम कि यह दर्शकों में क्यों लोकप्रिय है? यह भी नहीं मालूम कि दर्शकों ने इसे थोपे जाने पर पसंद किया या फिर उन्हें वाकई अब ये काम का लगता है। जिस दर्शक के पास आधे घंटे में पांच खबर के लिए वक्त नहीं था वो अब उसी आधे घंटे में दो सौ खबरें सुन रहा है। समझ रहा है। टैम मीटर भी ट्वीटर की तरह खबरों को नापता है। उसने बताया है कि अलग अलग सेकेंड में अलग अलग दर्शक आते हैं। कभी भी आते हैं और कहीं से भी आते हैं। इसीलिए एक ही बात बार बार बोलते रहिए। जो शुरू से लेकर आखिर तक देख रहा है वो झेल रहा है कि बात आगे क्यों नहीं बढ़ रही है। इसका भी फैसला अभी बाकी है कि कटेंट कौन तय करता है। दर्शक,बाज़ार या अच्छा बुरा संपादक। यह सवाल अधूरा है। फिर भी स्पीड न्यूज़ को आप ट्वीट की तरह देख सकते हैं। जैसे बड़े बड़े न्यूज़ घराने एक पंक्ति की खबर ट्वीट करते हैं और लोगों का काम चल जाता है उसी तरह स्पीड न्यूज टीवी के माध्यम का ट्वीट है।
ट्वीटर और टीवी के फॉरमेट एक से लगने लगे हैं। दोनों की बेचैनियों और बोलियों में फर्क भी मिटता जा रहा है। जैसे ट्वीट करते ही कोई उसकी धुनाई चालू कर देता है या रिट्वीट करने लगता है उसी तरह टीवी के डिबेट में भी होता है। रिट्वीट कुछ और नहीं बल्कि हां हां है। हामी भरने को ही रिट्वीट कहते हैं। ट्वीटर पर आप कहीं से आकर कुछ भी बोल जाते हैं। उसकी कोई जवाबदेही नहीं होती। खुंदक निकालने की तो एक परंपरा ही कायम हो गई है। मानव सभ्यता के इतिहास में इससे पहले खुंदकों का लिखित खजाना पहले कभी नहीं पाया गया था। खुंदकधारी ट्वीट ने अपने अकाउंट नाम भी अजब गजब बनाए हैं। उसी तरह टीवी के वक्त भी अपनी पहचान गढ़ रहे हैं। सुहेल सेठ को आप एक ट्वीट अकाउंट की तरह ले सकते हैं। जो हैं कुछ लेकिन अकाउंट नेम अलग-अलग रखते हैं। इस टाइप का भाव आता है। अभय दुबे एक अलग अकाउंट की तरह नज़र आते हैं। वो फेक नहीं लगते हैं। कुछ पत्रकार अपने अखबार या टीवी के ट्वीट अकाउंट लगते हैं। तो मैं कह रहा था कि टीवी के बहस बक्सों में भी यही हो रहा है। एक कुछ बोलता है दूसरा कुछ और बोलने लगता है। बस चीज़ें ट्रेंड करने लगती हैं। मुद्दा पटरी से उतर जाता है।
सार्थक बहस एक मिथक है। कई बार सार्थक बहस भी होती है। जैसे कि ट्वीटर पर भी कई बार सार्थक बहस हो जाती है। मगर दलील की प्रवृति एक सी है। जैसी प्रतिक्रिया होगी वैसे ही शब्द होंगे। तार्किक दलील कम होगी। ट्वीटर में भी मूल और प्रमाणिक सूचनाएं कम होती हैं। होती भी हैं तो कुतर्कों की भीड़ में गायब हो जाती हैं। आयं बायं सायं बका जाने लगता है। इम्पल्स मूल भाव है ट्वीटर का। लिखा हुआ देखकर आपने किस मनोभाव में पढ़ा ये तय करता है आपके उस पर रिएक्ट कैसे करेंगे। टीवी के बहस बक्सों में भी यही होने लगा है। वक्ता अब सूचना के आधार पर कम,भावना के आधार पर ज्यादा बोलने लगे हैं। बात पर बात। बात का दाल भात। यही होता चला जाता है। कुछ भोले और फालतू दर्शक निराश हो जाते हैं कि निष्कर्ष नहीं निकला। दुनिया में किस बातचीत का निष्कर्ष निकला।
कल जब दिल्ली में मुख्यमंत्रियों की बैठक हो रही थी तब यह मसला ट्वीटर पर भी था और टीवी पर भी था। सब अपनी अपनी जानकारी और पूर्वाग्रहों से बोल रहे थे। टीवी का काम क्या होना चाहिए था। रिपोर्टिंग से जनता को सूचित करना चाहिए था कि सुप्रीम कोर्ट की फटकार के बाद विरोधी मुख्यमंत्रियों के राज्यों में ही पुलिस सुधार पर कितना काम हुआ है। पुलिस सुधार के दो पक्ष हैं। एक उपरकरण और ट्रेनिंग का पक्ष और दूसरा प्रशासनिक स्वायत्तता का पक्ष। जिसे करने में पैसे की ज़रूरत नहीं है। क्या इस मामले में मोदी से लेकर अखिलेश और नीतीश और पृथ्वीराज चौहान ने ठोस काम किये हैं। किये भी हैं तो उन्हें सामने लाकर एक जानकारीप्रद परिप्रेक्ष्य का निर्माण हो सकता था। उसके बाद किसी एक कार्यक्रम में बहस हो सकती थी। लेकिन अब हर कार्यक्रम ही बहस है। रिपोर्टिंग बंद है। इसीलिए बहस की सार्थकता कभी पूरी नहीं होगी। हां कुछ बहस अच्छी ज़रूर हो जाएगी। कुछ एंकर ज़रूर अच्छा कर लेंगे। लेकिन सब ट्वीटर के तरह तुरंता ही है। कुछ भी कहीं से भी बोलते चलो। बस जिस वक्त जो बोल रहे हो वो कर्णप्रिय लगे। आकर्षित करे। एंकर अपने सारे शोध गूगल के आधार पर करता है। कुछ रिपोर्टरों का भी सहयोग होता है। लेकिन गहराई से रिपोर्टिंग नहीं होती। रिपोर्टर को मार कर आप टीवी को ट्वीटर तो बना सकते हैं मगर न्यूज़ चैनल नहीं।
इतना ही नहीं ट्वीटर के फॉलोअर का भी एंकर पर असर पड़ने लगा है। कई एंकरों संपादकों के पांच लाख छह लाख फॉलोअर हैं। लोग उन्हें रगेद देते हैं। अपनी खुंदक से लेकर खबर तक के सवालों को लेकर चहेंट देते हैं। संपादक एंकर उनकी बातों को नज़रअंदाज़ नहीं करता। वो भी टीवी की बहस का हिस्सा बन जाते हैं। मुद्दे को तय करने में और प्रतिक्रिया देने में। इसलिए उनके ट्वीट को फ्लैश किया जाता है। दर्शकों से ट्वीट मांगा जाता है। जिस तरह से आप किसी ट्वीट पर उबल जाते हैं और मुद्दे को छोड़ कर कुछ भी बोल निकल जाते हैं वैसा ही टीवी के डिबेट में होता है। जिसके दिमाग में जो उस वक्त चल रहा होता है वो वही बोलता है। बहस होती है मगर बहस जैसी नहीं होती। कोई नतीजा नहीं निकलता। बस गिनती गिन ली जाती है। जैसे ट्वीट में आप देखते हैं कि कितने लोगों ने फॉलो किया उसी तरह से टीवी में देखते हैं कि कितनी रेटिंग आई। टीवी ट्वीटर को काफी गंभीरता से लेता है।
इसीलिए यह टीवी का ट्वीटर युक्त वक्ताकाल है। टीवी दिखाता नहीं है। सुनाता है। बुलवाता है। दिल्ली के एमसीडी के चुनावों में वक्ताओं के नाम और चेहरे देखिये। बड़े लोग नहीं हैं। जैसे ट्वीटर में आप किसी के अकाउंट को फोलो कर सकते हैं और वहां जाकर बोल सकते हैं। उसी तरह टीवी में भी नए लोगों को मौका मिल रहा है। जितने बोलने वाले हैं अब सब टीवी पर हैं। अखबार अगर अपने रिपोर्टर और डेस्क संपादकों को भी अनुमति दे दे की जाओ टीवी पर जाओ। कुछ बोल कर आओ। ट्वीट की तरह फॉलो करो। कमेंट करो। तो वो भी आ जायेंगे। बहस की दिशाहिनता सवालों के चिरकुटई से ढांक दी जाती है। आप एंकरों को ध्यान से सुनिये। उनके पास पूछने के लिए पहला ही सवाल ठीक से नहीं होता है। अलबला जाते हैं। दलील प्रधान होती जा रही है। बात प्रवृत्ति के नकल की है। उसके एक माध्यम से दूसरे माध्यम में प्रसार की है। इसलिए मुझे लगता है कि टीवी की प्रवृत्ति ट्वीटर की तरह हो गई है। तो अब न्यूज़ चैनल को भी सोशल मीडिया का ही अंश माना जाना चाहिए। वे भी ट्वीटर की तरह हो गए हैं।हम खबर दिखाते हैं, इस टाइप के स्लोगन जल्दी बदल जायेंगे। हम करतें हैं बकर बकर। आप सुनते हैं बकर-बकर। इस तरह के स्लोगन होने लगेंगे।
7 comments:
absolutely Ravishji..the media policy makers are responsible for these things.
अभी भी एक फरक है! जनता ट्विट्टर पर पेड रिपोर्टिंग नहीं करती! जो कहानियाँ टीवी और अखबार से गायब हो जाती हैं वो ट्विट्टर पर चलती हैं! रवीश जी दिल पे हाथ रख कर बोलिये Radia tapes, President's house और अन्य मुदों पर मीडिया ने unbiased reporting की है! क्या यह बात सच नहीं कि सरकार ने Media Advisory Committee बनाई है जो आप लोगों को सलाह देती है कि किस तरह की स्टोरी चलाएँ/छापें और ज़्यादातर एडिटर्स में हिम्मत नहीं कि इस सलाह के खिलाफ जा सकें चाहे उसका मतलब न्यूज़ के साथ खिलवाड़ करना ही क्यों ना हो!
जिस तरह के पनेलिस्ट मीडिया टीवी पर लाता है, आप लोगों(all mediamen) ने तो बहस का standard ही गिरा दिया है
kuch had tak aam admi ke coments se sahmat hu..magar mene tv per jabse ravish ji ke program dekhe he meri dharna kuch badli bhi he..mene ravish ki reporting bhi dekhi aur inka prime time bhi niymit dekhta hu..yaha tak ki apne bachho ko padane ke bajay inko prathmikta de deta hu..kyu ki kuch vishwasniyta ravish ne arjit ki he..jab aap is vishay ko utha rahe he to nishchit he ki aap bahut karib se is badalte ghatnakram ko dekh rahe he...bahut hi achha lekh he ye.
I completely agree with you sir, but still media doesn't have balls to show the real issues which may affect the government electorally. Media has to come up with this stigma of (paid media) if it wants to stay in the long run, otherwise THE HISTORY IS IN THE MAKING through the social media and the time is coming when it will overtake the mainstream media as well as the PSYCHI of the anchor's who are selling lies. Media sell lies and they knows it, so the time has come for the redemption, that's the only way you can save this ailing media.
even the so called debates that are shown on various news channels are not yielding anything..there is no solution that comes up. They have indeed played a great role in every issue-big or small but how much and to what extent it should be shown is a play of mere TRPs.
On the other hand, when there is "short break" in between a report; you better not browse the other news channels because the case is same everywhere..and then they all say, they are the real saviours of 'aam janta'.
Undoubtedly, be it Anna Hazare, Cwg scam or anything happening around the world-they give us a perspective to look out for and i totally respect that. But, it's more thorns and less of the rose bud. The "Dadagiri" is no less
लोकसभा TV है ना..
ab test match ka zamana gaya ravish ji ipl aur t20 ka daur hai thik waise hi log ek ghante ki khabar panch minut me sunna pasand karte hai lekin test match ki baat hi alag hai waise hi jaise apka PRIME TIME.
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