11 अप्रैल को महात्मा ज्योतिबा फुले की 185 वीं जयंती थी। जिन्होंने मुफ्त और अनिवार्य शिक्षा के साथ आरक्षण की बुनियाद रखी थी। उसके अगले दिन यानी 12 अप्रैल को सुप्रीम कोर्ट का फैसला आया जिसमें निजी स्कूलों में ग़रीब बच्चों के लिए पचीस फीसदी सीट आरक्षित करने के फैसले पर मुहर लगा दी गई। 14 अप्रैल को आरक्षण को वैचारिक और राजनीतिक जामा पहननाने वाले डॉ भीभराव आंबेडकर की 121वीं जयंती थी। एक तरह से देखें तो अप्रैल का यह हफ्ता आरक्षण के लिए काफी क्रांतिकारी रहा है। जो यह सवाल कर रहा है कि क्या हम सुप्रीम कोर्ट के फैसले के बाद वर्ग आधारित आरक्षण की दिशा में बढ़ने लगे हैं। क्या यह आरक्षण के प्रति राजनीतिक सोच की सार्वभौमिकता की शुरूआत है? जहां इसे सिर्फ जाति के दायरे में नहीं देखा जा सकता। यह वर्ग आधारित असमानता को दूर करने का भी कारगर हथियार होने लगा है। यह कहना मुश्किल होगा कि जाति आधारित आरक्षण अप्रसांगिक होने लगा है लेकिन यह तो कहा ही जा सकता है कि आरक्षण को लेकर सहमति इतनी व्यापक होने लगी है कि जाति,लिंग,धर्म और अब वर्ग के आधार पर इसकी मांग होने लगी है।
बींसवीं सदी की शुरूआत से लेकर अबतक आरक्षण ने अपनी दौ सौ तेरह साल की विकास यात्रा में अनेक राजनीतिक उतार-चढ़ाव देखे हैं। पूना पैक्ट से लेकर मंडल आयोग फिर महिला आरक्षण से लेकर मुसलमानों के लिए आरक्षण की हालिया राजनीति तक। जातिगत असमानता और भेदभाव को दूर करने के लिए आरक्षण का राजनीतिक आधार सबसे मज़बूत रहा है। सामाजिक न्याय का दूसरा नाम आरक्षण रहा है। 1990 में मंडल आयोग के वक्त उठी विरोध की लहर ने पहली बार एक ऐसी बुनियाद डाली जिसने आरक्षण की यात्रा में आर्थिक आधार का बीजारोपण कर दिया। सारी पार्टियां धीरे धीरे मांग करने लगी कि आर्थिक आधार पर अगड़ों को आरक्षण दिया जाएगा। संसद में भले ही महिला आरक्षण पास न हुआ हो लेकिन कई राज्यों में पंचायत से लेकर निगमों तक में पचास फीसदी सीट महिलाओं के लिए आरक्षित करना आज की राजनीति का सबसे प्रगतिशील कदम माने जाने लगा है।
लेकिन क्या आरक्षण और उसकी राजनीति अब अपनी सीमा को छूने लगी हैं? जब सुप्रीम कोर्ट ने गरीब बच्चों के लिए पचीस फीसदी सीट रिज़र्व करने के फैसले को सही ठहराया तो सबने कहा कि ऐतिहासिक है। सर्वणों की तरफ से भी आवाज़ नहीं आई कि ग़लत है। पिछड़ों और दलितों की तरफ से आवाज़ नहीं आई कि उनके हक में सेंधमारी है। क्या ग़रीबी आरक्षण का आधार अब तक सबसे सर्वमान्य आधार है? जब आंकड़ें बताते हैं कि ग़रीबों में सबसे अधिक दलित ही हैं। आदिवासी ही हैं। इसके बाद भी दलित समाज के नेताओं ने भी स्कूलों में वर्ग आधारित आरक्षण को सही माना। शिक्षा के अधिकार कानून में दलित पिछड़ों और आदिवासियों के लिए आरक्षण होने के बाद भी प्रतिशत की बात नहीं है। पहली बार आरक्षण के पारंपरिक उत्तराधिकारियों के साथ साथ आर्थिक रूप से कमज़ोर परिवारों को भी जोड़ दिया गया है। आरक्षण के इतिहास में यह पहली बार हुआ है जहां सभी को एक ही प्रतिशत के दायरे में रखा गया है। किसी के लिए अलग से प्रतिशत तय नहीं किया गया है।
क्या यह बड़ा बदलाव नहीं है? आप सहमत हों या नहीं हों लेकिन क्या इस सवाल से मुंह मोड़ सकते हैं। आरक्षण को लेकर ऐसी सहमति कब देखी थी। आर्थिक रूप से कमज़ोर अगड़ों को आरक्षण देने की मांग बीस साल से उठ ही रही है। किसी ने सार्थक पहल नहीं की। लेकिन केंद्र सरकार और सुप्रीम कोर्ट ने शिक्षा के अधिकार कानून में चुपचाप कर दी। यही सहमति एक दिन आरक्षण की ज़रूरत और स्वरूप के सवाल पर पारंपरिक राजनीतिक लाइन बदल देगी।
महात्मा ज्योतिबा फुले ने ही सबसे पहले नौकरियों में आरक्षण के साथ सबके लिए मुफ्त और अनिवार्य शिक्षा की बात की थी। 185 साल लग गए उनकी इस बात को साकार होने में। हो सकता है अपने सवा दौ साल की विकास यात्रा में आरक्षण अपना चोला बदल रहा हो। हमें यह कभी नहीं भूलना चाहिए कि हमारे समाज में जातिगत ढांचे में आए बदलाव के बाद भी जातिगत भेदभाव अब भी है। लेकिन इस आर्थिक दौर में आर्थिक आधार पर बनी असमानता का भेदभाव भी कम ज़हरीला नहीं है। खासकर अमीर और गरीब के बढ़ते अंतर के कारण यह ज़हर और तेज़ होता जा रहा है। शायद यही वजह है कि वर्ग के आधार पर आरक्षण की जो बुनियाद पड़ी है उसके चलते कोई सामाजिक भूचाल नहीं आया जो मंडल आयोग के लागू होने के वक्त आया था और जो उच्च शिक्षा में पिछड़ों को आरक्षण देने के वक्त विरोध की औपचारिकता निभाने के साथ ठंडा पड़ चुका था। इतना कि जब उत्तर प्रदेश में अखिलेश यादव ने प्रमोशन से आरक्षण खत्म करने का एलान किया तो कोई भी दलित या पिछड़ा संगठन सड़कों पर नहीं उतरा।
यह फैसला एक ऐसे समय में आया है जब देश में मुसलमानों को आरक्षण देने के सवाल पर सहमति बन रही है । भारतीय जनता पार्टी के घोषित विरोध को छोड़ दें तो सारी पार्टियां सहमति जता रही हैं। पचास फीसदी के दायरे में अठारह करोड़ लोगों को जोड़ देने से आरक्षण का प्रतिशत छोटा ही होता चला जाएगा। यह भी कह सकते हैं कि पचास प्रतिशत शिक्षा के अधिकार माडल की तरह बेमानी हो जाएगा। याद रखिये कि इस प्रतिशत में आर्थिक रूप से पिछड़े सर्वणों को भी ठूंसना बाकी है। यानी पचास फीसदी के भीतर इतनी बड़ी आबादी एक वर्ग के रूप में आपस में प्रतिस्पर्धा करेगी। गुर्जर और जाट भी आरक्षण की मांग पर शांत नहीं हुए हैं। जातिगत आरक्षण अपने आप वर्गीय आधार में बदल रहा है।
यह आरक्षण की कामयाबी है जिसके कारण अब हर कोई इसकी मांग कर रहा है। मेरिट के आधार पर इसके विरोधी भी अब वर्ग के आधार पर मिल रहे आरक्षण का स्वागत कर रहे हैं। सबको आरक्षण चाहिए। यह मान्य हो चुका है कि असमानता का तात्कालिक और दीर्घकालिक उपाय आरक्षण है। आरक्षण ने जिस तरह दलितों में कुलिन पैदा किये हैं। जिस तरह से उनके भीतर आत्मविश्वास पैदा किया है उसे भी नज़रअंदाज़ नहीं किया जा सकता। दलित चिंतक चंद्रभान प्रसाद कहते हैं कि अब दलित भी आरक्षण का ठप्पा नहीं लेना चाहता। इस बात के बावजूद कि कई दलितों को इसकी सख्त ज़रूरत है। मगर हां अब समय सीमा तय करने का वक्त आ गया है। आरक्षण सौ साल तक यह जारी नहीं रह सकता। राजनीतिक दलों ने इसे आइटम में बदल कर बकवास बना दिया है। आरक्षण के नाम पर सहमति और असहमति की जगह मज़ाक की राजनीति होने लगी है।
आरक्षण की अवधारणा और स्वीकार्यता बदल रही है। आरक्षण अब नकारात्मक ठप्पा नहीं है। लेकिन इस भ्रम में नहीं रहना चाहिए कि इससे किसी हद तक जातिगत भेदभाव की दीवार टूटने के बाद वर्ग की दीवार भी टूट जाएगी। मौजूदा पूंजीवादी उदारवादी ढांचे की बुनियादी शर्त है आर्थिक असमानता। चंद हज़ार बच्चों के प्राइवेट स्कूलों में पहुंच जाने से वर्ग का भेदभाव समाप्त हो जाता तो कार्ल मार्क्स मज़दूरों को एकजुट करने के बजाए दुनिया के स्कूलों एक हों का नारा देते। लेकिन इतना ज़रूर है कि समाज का एक वर्ग उन प्राइवेट स्कूलों में पहुंचेगा जो उनके ख्वाब से दूर थे। जब तक अलग अलग तरह के स्कूल रहेंगे यह अंतर बना रहेगा। सवाल यहां दूसरा है कि शिक्षा के बाद क्या हम नौकरियों में आरक्षण की इस सार्वभौमिकता को स्वीकार कर लेंगे? क्या राजनीति यह मान लेगी कि भेदभाव का नया ज़रिया वर्ग है, जाति नहीं? आसान नहीं लगता मगर किसी चीज़ की बुनियाद पड़ती है तो वो एक दिन इमारत में ज़रूर तब्दील होती है।
(यह लेख आज के दैनिक भास्कर में प्रकाशित हुआ है।)
8 comments:
आम लोगों का एतराज आरक्षण को लेकर नहीं बल्कि इसके आधार, इसके लागू करने के तरीके और इसको लेकर होने वाली स्तरहीन राजनीति से था और बहुत से मामलों में अब भी है. आरक्षण की व्यस्था उस आधार को लेकर सफल नहीं कही जा सकती जिसमे जाती को आधार मानते हुए करोड़पति और कौड़ीपति के फर्क नहीं किया जाता बल्कि इस नवीन आधार में है जिसमे बगैर जात पूछे जरूरतमंद को इसका लाभ मिलेगा. इस आधार को लेकर घटिया राजनीति करने करने की सम्भावना भी कम है और शायद इसीलिए 'SC' (दोनों) को भी इसमें कुछ आपतिजनक नहीं लगा. इस आरक्षण का परिणाम जल्द प्रभावी और ज्यादा सकारात्मक रूप में प्राप्त होगा. नमस्कार!
जितने लोग जाति आधारित आरक्षण का विरोध करते हैं वो सब के सब महिला आरक्षण, स्कूल में मिले गरीब बच्चों के आरक्षण से सहमत हैं। काश इन लोगों ने जाति आधारित सैंकड़ों सालों के शोषण का दर्द अपने घरवालों से सुने होते या फिर महसूस किए होते। जिस देश में आज भी जाति विशेष में पैदा होने से गुणवान और विशेष जाति में पैदा होने से नक्कारा और बेवकूफ माना जाता है उस व्यवस्था को बदलने के लिए जाति आधारित आरक्षण की अब भी काफी जरूरत है। काश हम स्वार्थ से ऊपर उठकर सोच पाते
JC said...
धन्यवाद रविश जी, इस अनंत ब्रह्माण्ड में एक छोटे से, तुलनात्मक रूप से एक बिंदु समान अपनी असंख्य तश्तरीनुमा गैलेक्सियों में से एक, बिन्दू समान ही, 'मिल्की वे गैलेक्सी' के भीतर समाये, साढ़े चार अरब वर्षीय सौर-मंडल के एक छोटे से सदस्य पिंड, धरा, पर अवस्थित छोटे से देश 'भारत' पर आधारित नित्य-प्रति परिवर्तनशील अस्थायी मानव व्यवस्था का पिछले दो-तीन सौ वर्ष के आरक्षण के इतिहास के लिए!
April 17, 2012 5:52 AM
So, needless to say, anytime you mention what you look like, or the images of your profile on this post, I become momentarily stunned and confused to discover that you do not in fact look like me, even though I pictured you looking exactly the way I do for the past year or so of reading this blog because, again, you with the relatableness, ’tis your talent milady.Jaipur wedding planners
aj ke samaj me sirf do tarah ke log rahate hai Amir Aur garib, koi school nahi ja pata isaka sabse bada karan garibi hai koi jati nahi,,,,,,
is parishthiti me dekhe to aarakshan ki paribhasha badalane ka waqt aa gaya hai...
aarakshan ki jarurat hamesha rahegi kyonki samaj ki khai bharegi nahi bas apna roop badalti rahegi....aur usase nipatane ke liye hame bhi paribhashaye badalte rahana padega..tabhi ham samaj me santulan banaye rakh sakenge anyatha virodh aur asantosh ka samana karna padega agar kisi purwagrah ko aatmsat kiye rahe to.........Namaskar
mujhe hairani ho rhi hai ye blog padh kar.yakin nai aa rha ki aap jati ko varg bta rahe h yahan.aapko ek sujhao h,marxisto ka sath jati aarakshan ke mudde pe chad dena chahiye,jo ek taraf class struggle or varg ki rajneeti krte h tohh dusri or 300 indian communist partiiyo me brhamano ko president baanate h..(sabse hypocrates)rahi baat upper castes ka aarakshan ko support karne ka ,toh ye toh unke khun me hai.4000 saal education pe 100% aarakshan jo tha unka,ab unhe dekha nai ja raha ki dusron ko iska laabh kaise mil rha hai.
ye hasyadpad hai ki jaati rajneeti ki vajah se aap aarakshan ha structure hi badlana chahte hai....bhartiya samaj ko ameer aur garib ke taur pe dekhna maansik gareebi ka uudahran hai.....
Mere kuchh sawal hai reservation ke supporter se....
1)jati ke bajaye garibi ko adhar banane me unhe aapati kyu hai?
2)rajneeti ke is paridrrishya me kya wo ek bargaining nahi kar rahe hai?
3)ek system ka mukhya uddeshya aur kartavya kya hota hai?
jo ye kahate hai ki 100% arakshan raha hai siksha me kisi khash warg ka wo shayad bhul jate hai unko(maharshi Balmiki,Vedvyash) jinke likhe ko aj dharm man ke padha aur suna jata hai ye bhulkar ki wo kis jati se the unhone bagair siksha ke kaise itane bade granth ka rachana kiya hoga?
usase bhi badkar hamare desh ka sanvidhan ek dalit samuday ke yogya vidwan ne kiya,kya kisi ne aapati ki?
adhuri jankari aur itihas ko swarth ke chashme se bahar karke dekhe fir ek samajik santulan ki asha ki ja sakti hai.
suvidhawo ko kendrit karane ke bajaye samang vitaran ki paribhasha ki awasyakta hai.
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