दोनों लड़कियों ने खुद को एक दूसरे से जकड़ लिया और हवा में हाथ उठाकर कैमरे के क्लिक होने का इंतज़ार करती रहीं। दोस्तों ने क्लिक किया और फिर कैमरा लड़कियों के हाथ में और लड़कों के हाथ इंकलाब की मुद्रा में लहराते हुए। रामलीला मैदान से लौटते दोस्तों की टोलियों में एक आंदोलन से लौटने का इतना उत्साह कभी नहीं देखा। भले ही ये तस्वीरें उनके लिए सर्टिफिकेट कोर्स की तरह प्रमाण बन जायेंगी लेकिन 74 साल के एक बूढ़े के प्रति नौजवानों का उत्साह और समर्थन सिर्फ तस्वीरें खींचाने तक ही सीमित नहीं था। वर्ना वो कई महीनों और कई दिनों तक अण्णा आंदोलन से जुड़े नहीं रहते।
अब एक दूसरी तस्वीर देखिये। 2009 का लोकसभा चुनाव। पंद्रहवी लोकसभा को अब तक का सबसे युवा लोकसभा करार दिया जाता है। हिन्दुस्तान की आबादी के तरुण होने की कितनी बातें लिखी जाती हैं,बोली जाती हैं। पत्रिकाओं के कवर में उच्चवर्गीय राजनीतिक परिवारों के वारिस सांसद बन कर युवाओं के भावी प्रतिनिधि के रूप में चमकने लगते हैं। अंग्रेज़ी के एक अखबार में तो नियमित कालम ही शुरू हो जाता है कि युवा सांसदों की दिनचर्या कैसे बीत रही है। कई पत्रिकाओं में उनके फैशन,शौक और गुड लुकिंग का राज पूछा और लिखा जाने लगता है। 66 सांसद ऐसे चुन कर आते हैं जिनकी उम्र 25 से 40 साल के बीच है। 41-50 साल के बीच की उम्र के सांसदों की संख्या १५० हो जाती है और लोकसभा के सांसदों की औसत उम्र 54.5 साल हो जाती है। मीडिया इन युवा सांसदों को चमक दमक के चश्में से देखने लगा।
लेकिन रामलीला मैदान से लेकर देश के तमाम शहरों और गांवों में क्या हुआ? छह महीने तक चले इस आंदोलन में कोई युवा सांसद नज़र नहीं आया। इन युवा सांसदों के आने से जिस राजनीति को नया और तरोताजा बताया जाने लगा वो पहली रोटी की तरह छिप कर कैसरोल के डिब्बे में बासी होने लगे। इनमें से किसी युवा सांसद ने अण्णा हज़ारे के पीछे जुटे युवाओं से संवाद कायम करने की कोशिश नहीं की। मेरे एक मित्र ने दक्षिण दिल्ली के कमला नेहरू कालेज से गुज़रते वक्त बड़ी संख्या में लड़कियों का एक वीडियो बनाया। जिसमें ये लड़कियां चिल्ला रही थीं कि कहां हैं राहुल गांधी। वो अब अपने युवा राहुल गांधी को खोज रही थीं जिनके स्टीवंस कालेज में जाने पर लड़कियों ने आई लव यू राहुल गांधी कहा था। राहुल गांधी भले ही पारिवारिक कारणों से चुप रह गए हों मगर तमाम युवा सांसदों को चुप्पी ने बता दिया कि सांसदों के युवा होने से राजनीति में साहस का नया संचार नहीं हो जाता। युवा सांसद तभी आगे आए जब राहुल गांधी लोकसभा में आकर बोल गए। उसके बाद टीवी चैनलों पर बोलने के लिए कांग्रेस के युवा सांसदों की भरमार हो गई। यानी राजनीति में कुछ नहीं बदला। जब सबको पार्टी लाइन पर ही चलना है तो सांसद के युवा या बुजुर्ग होने से क्या फर्क पड़ता है। एक तरह से देखें तो युवा सांसदों और नेताओं ने युवाओं की इस बेचैनी की आवाज़ बनने से इंकार कर दिया।
उधर अण्णा हज़ारे के पीछे जमा युवाओं की भीड़ को समझने में जानकारों ने भी चूक कर दी। फेसबुक,ट्विटर और मोबाइल से लैस ये युवा उस भारत के नागरिक हैं जो इनके बीच खुद की मार्केटिंग विश्व शक्ति के रूप में करता रहा है। इन युवाओं के जीवन की रफ्तार और धीरज की गति में काफी फर्क है। वो प्रायोजित तरीके से विश्व शक्ति के रूप में प्रचारित किये जा रहे भारत की जड़ता को बर्दाश्त नहीं कर पा रहे हैं। वो जीवन के कई क्षेत्रों मे दीवारें गिरा रहे हैं। राजीनीति की दीवार उनके लिए बाद में आकर खड़ी हुई है। जब सामने आई तो युवाओं ने चुनौती दी। जयप्रकाश नारायण के आंदोलन में भी युवा आगे आए। इन युवाओं ने मीडिया और समाज की बनी बनाई छवि को तोड़ दिया। बड़ी संख्या में लड़के और लड़कियों ने घरों से निकल कर यह साबित कर दिया कि वो सिर्फ अपनी ज़िंदगी में ही नहीं जी रहे थे। जिन युवाओं के लिए हकीकत से काट कर फिल्में तक बनने लगीं, उन युवाओं ने देश की कुछ हकीकत से लड़ने का फैसला किया।
इसीलिए रामलीला ग्राउंड से लेकर तमाम जगहों पर हर धर्म और हर जाति के युवाओं की तादाद दिखी। उनकी एक राजनीतिक ट्रेनिंग का माहौल बना। यह सवाल भी उठा कि क्या यह सवर्णवादी युवा है जो देश की विषमता को नहीं समझता और आरक्षण का विरोध करता है। क्या यह वो युवा है जो सांप्रदायिक शक्तियों द्वारा प्रायोजित आंदोलन में बिना किसी राजनीतिक समझ के उतर गया है? लोग यह भूल गए कि यह वही युवा है जिसने २००४ और २००९ में दो बार सांप्रदायिक शक्तियों को खारिज किया है। यह वो युवा है जो राजनीति के बनाए इन पूर्वाग्रहों को समझने लगा है मगर पूरी तरह से समझ रहा है इसके प्रमाण और ढूंढे जाने बाकी है। आखिर भ्रष्टाचार के विरोध में नारे लगाते लगाते भले ही कुछ लोगों ने आरक्षण के विरोध का नारा लगाया वो अन्य जातियों में पर्याप्त रूप से शंका पैदा कर सकता है। लेकिन इसके बाद भी इस आंदोलन में जाति और धर्म के हिसाब से युवाओं की विविधता की भागीदारी उल्लेखनीय रही। न सिर्फ भागीदारी के स्तर पर बल्कि आंदोलन को तैयार करने और जारी रखने के स्तर पर। इसके लिए इन युवाओं ने किसी फैशनपरस्त और गुडलुकिंग युवा सांसद को भ्रष्टाचार की लड़ाई का प्रतीक नहीं बनाया। बल्कि अपने घर के पिछवाड़े में धकेल दिये गए बुज़ुर्गों में से एक को ढूंढ लाए और उनमें उन्हीं नैतिक मान्यताओं की खोज की जो हमारी राजनीति का आधार रहे हैं। १९७४ में भी युवाओं ने जयप्रकाश नारायण को खोजा था। वो ढूंढ लाए थे पटना में बीमारी से लड़ रहे जयप्रकाश नारायण को। इस बार ढूंढ लाए रालेगण सिद्धी गांव में बैठे अण्णा हज़ारे को।
लेकिन सवाल यहां एक और है जिसपर आंदोलन से लौट कर युवाओं को सोचना होगा। भाषण और नारेबाज़ी के बीच के फर्क का। बेचैनियों को आवाज़ देने के उतावलेपन में सहनशीलता को छोड़ देने के ख़तरे का। सांप्रदायिकता के प्रति सचेत रहने का होश गंवा देने के खतरा का। एक आंदोलन तभी कामयाब माना जाता है जब ऐसी आशंकाएं हाशिये पर ही खत्म हो जाएं,मुख्यधारा में न आएं। वसीम बरेलवी का एक शेर है। उसूलों पे जहाँ आँच आये टकराना ज़रूरी है,जो ज़िन्दा हों तो फिर ज़िन्दा नज़र आना ज़रूरी है, नई उम्रों की ख़ुदमुख़्तारियों को कौन समझाये,कहाँ से बच के चलना है कहाँ जाना ज़रूरी है। युवाओं की भागीदारी ने राजनीति को समृद्ध बनाया है मगर इस डर को उन्हें ही ग़लत साबित करना होगा कि उनकी भागीदारी से चलने वाले आंदोलन आगे किसी मोड़ पर संकुचित नहीं होंगे।
(आज के राजस्थान पत्रिका में छपा है)
22 comments:
नई उम्रों की ख़ुदमुख़्तारियों को कौन समझाये
कहाँ से बच के चलना है कहाँ जाना ज़रूरी है...
बेहतर आलेख...
एक बात निश्चित है कि युवाओं को अपने मन की बात स्पष्ट स्वरों में कहनी चाहिये थी।
sir ji yeh sahi hai ki is andolan me yuvaon ko sath lane me facebook, twitter aur media ka bahut bada role raha ....16 august se 28 aug tak desh me 5 se adhik war hadtalein hui,chakka jam raha,...ek majdoor admi jo yadi din me kaam na kare to shaam ko khana nahin kha pata hai uska pariwar kaise chala hoga in dino me iski koi chinta nahin ki is yuwon ke andolan ne........yah yuwa ka andolan yah bhool gaya ki is desh me 70% se adhik janta sirf 20 rupay roj me gujara karti hai ..jinko shaam ko bhojan nahin milta hai unkle liye brastachar se jyada roti ki samasya hai....jiske liye yah yuwa andolan kuch nahin bolta.....rahi baat yuwa sansadon ki, ki we media ko lekar ek garib ke ghar me khana khane se we unki samasyaon ke samadhan ke karndhar nahin banjate........mere hisab se yuwaon ko aur yuwa sansadon ko majdoor ki awaj sunni aur samajhni chahiye.....kyon ki yadi majdoor bhadka to is desh ko russia aur china bante der nahin lagegi...
yuwon ko yah baat achhi tarah se samajhna chahiye ke uttejna aur jajboton be bahkar we kisi ka bhala nahi kar sakte aur kya sahi hai kya galat yah vivek se nirdharit karein ....bheed ka hissa banne se bheed ka galat istmaal hone me jara bhi der nahin lagti..
युवा अब समझने लगा है कि कब मीडिया को तवज्जो देनी है और कब नहीं। वरना जिस हिसाब से मीडिया कवरेज चल रहा था वह लोगों के बीच मीडिया के प्रति एक तरह की ओवरहाइप वाली नकारात्मक छवि भी बना सकता था लेकिन बात लोगों के रोजमर्रा से जुड़ी थी, माहौल और परेशानी से जुड़ी थी सो लोगों ने मीडिया को भी सराहा और बढ़चढ़ कर भागीदारी निभाये।
युवा पीढ़ी ,और सब को एक चेतावनी देता लेख ..
युवाओं को सोचना होगा। भाषण और नारेबाज़ी के बीच के फर्क का।
आभार!
शुभकामनायें!
रामलीला मैदान पर खिंचाई गई फोटो भी उस लम्हे को समेटने का एक हिस्सा है जो इतिहास बन गया। नौजवान ही नहीं अब तो बच्चे भी ज्यादा जागरुक हो रहे हैं। ये सचमुच अच्छा है।
लेख वास्तव में अन्ना हजारे के कथित तौर पर जन आन्दोलन की हकीकत बयां करता है .कुछ ऐसी ही हकीकत जयपुर में भी रिपोर्टिंग के दौरान देखा जब जयपुर के रसूखदारों के बच्चें स्टेच्यु सर्किल को पिकनिक स्पोट बना दिया था.केवल इतना ही नहीं जयपुर के एक प्रसिद्ध ज्वेलरी शो रूम के विज्ञापन वाली वाहन सौ फीसदी भ्रष्टाचार मुक्त भारत के साथ साथ सौ फीसदी प्योर गोल्ड देने का का भी खूब प्रचार प्रसार किया ...... जगह जगह एन जी ओ का भी मेला लगा था
अपने लेख का ये शीर्षक आपने अखबार में तो नहीं दिया!
JYADATAR YUVA MP YA TO POLITICAL COMPENSATION SE YA POLITICAL ACCOMMODATION SE MP BANE HAI.ISLIYE KUCH NAYAPAN YA JUJHARUPAN DEKHANA BEMANI HAI.
RAVISH SIR NE THEEK HI KAHA KI YADI YUVA MP BHI APANI PARTY KE LINE PAR HI CHALENGE TO KYA FARQ PADATA HAI KI SAANSAD YUVA HAI YA YUVRAJ,BUJURG HAI YA UMARDARAJ.
JAI HO.............
aap jinhe yuva sansad kahte hai . wo darasal budhape ki suruaat hai . gam me to itne umr me stta unke bete ke hath me chali jati hai. sansad ko is aandolan me nahi aane ke liye badhai ke patr hai nahi to is aandolan ka rajnitikarn ho jata. wais wahi sansad yuva hai jinke bap ddadao ne virasat me sansadi chor rakhi thi. waise is aandolan ke bare me ek bat hamesha kahi jati rahi thi ki is prakar sansad ko pangu nhhi bana chaiye . lekin agar koi 42 sal tak kanun nahi bana paye to pangu banane ke alawa or kya chara rah jata hai or . media bhi utni hi badhai ki patr hai jitne anna
Ravish sir , ek aap hi the jo poore andolan ke dauran iska doosra pachh bhi rakhte rahe....waki poore patrakar to anna ke jajbaton me bah chuke the....apki is kabliyat ke liye apko salute hai....
रवीश जी साधुवाद आपको की आपने आंदोलन के दौरान बेहतर सामाग्री मुहैया कराई। जहां तक युवा सांसदों की बात है तो ऐसे प्रतिनिधि चुप्प ही रहेंगे। ये कभी नहीं बोलेंगे। रजवाड़ों, रईसों और नेताओं के बेबी और बाबाओं ने यह प्रतिनिधित्व पसीना बहा कर नहीं कमाया, ज़मीन से जुड़ कर नहीं कमाया तो इसकी कीमत या इसे खोने का डर भी कहाँ होगा? जो प्रतिनिधित्व विरासत में मिला हो उसे अपने बाप की जागीर समझना इन युवाओं का जन्मसिद्ध अधिकार है। कुछ युवा ऐसे भी हैं जो वैसे थे जिन्हें पहले मुहल्लों में आवारा, फिर गुंडा, कहा जाता था और उसके बाद विभिन्न प्रांतीय, अंतर्प्रान्तीय व राष्ट्रिय स्तर प्राप्त करने के बाद अंततः इस रास्ते के नैसर्गिक लक्ष्य "राजनीति" में उतर गए हैं। इन लोगों ने प्रतिनिधित्व कमाया नहीं बल्कि छीना है। और छीनी गयी वस्तु खो भी जाए तो क्या गम फिर छीन लेंगे। तो बंधु यह तो हम ही मूर्ख हैं जो इन्हें युवा प्रतिनिधि कहते हैं। जरा इस लिंक पर नज़र डालें और देख लें की कितने और कैसे कैसे युवा सांसद हैं। http://www.adrindia.org/
रही बात राहुल गांधी को आई लव यू की तो बताते चलें की आवाज़ स्टीफेंसनियों की ही थी पर जो सड़कों पर उतरे वे स्टीफेंसनिए नहीं थे। और आज के जमाने में युवा भी समझदार हैं जरूरी नहीं कि जिससे लव यू कहें उसी को सब कुछ सौप दें - तन मन धन और वोट। सबकी अपनी अपनी कीमत है भई।
रविश जी, वर्षा जी ने बीमार गणतंत्र की सही नब्ज़ पकड़ी और कहा, "...नौजवान ही नहीं अब तो बच्चे भी ज्यादा जागरुक हो रहे हैं। ये सचमुच अच्छा है।..." इसमें संकेत दिखाई पड़ा हमारे सतयुगी पूर्वजों का! जिन्होंने कहा था कि घोर कलियुग में, अर्थात कलियुग के अंत में, आदमी छोटा हो जाएगा!
JAI MATA KI!
क्रान्ति की लहर जन-जन में दौड़ गयी है। सबने अपनी-अपनी उम्र और समझ के अनुसार भागीदारी दिखाई। कुल मिलाकर एक शुभ संकेत ही है।
रविश जी आपकी इस बात से तो मै सहेमत हूँ की अगर सांसदों को पार्टी लाइन पर ही चलना है तो इशसे क्या फर्क पड़ता है की वो युवा है या बुजुर्ग . ये बात काफी गंभीर है और बिचार करने लायक है .
- Mahendra Athneria
ब्रांड युवा का misuse हो रहा है रवीश भाई- चुनाव में वोट लूटने के लिए और फिर संसद में आकर चुप बैठने के लिए | कभी-कभार सचिन पायलट की category के नेता बोलने की कोशिश तो करते हैं पर राहुल गाँधी के पामेलियन बनकर रह जाते हैं, व्यक्तित्व की जबरदस्त कमी है|
कभी फुरसत में हमारी गली(ब्लॉग) भी आइयेगा... सुना है कस्बे वाले गलियों को Like करते हैं !
आज देश भ्रष्टाचार के अलावा बेरोजगारी की समस्या से भी जूझ रहा है ,युवा सांसदों को अन्ना के आन्दोलन से बेरोजगार होने का खतरा दिख रहा है | अन्ना के आन्दोलन ने एक नई युवा पीढ़ी को जनम दिया है| जो अब तथा-कथित युवा संसद के बातो में नहीं आने वाला है| जो आपने कथनी और करनी से कोसो दूर है |यह देश सबका है और इसके भाग्य विधाता कुछ मुठी भर लोग नहीं हो सकते है ..........
सर माफ करना इस लेख से सम्बन्धित ये टिपण्णी नहीं है! आपके नए प्रोग्राम को लेकर है!
"रवीश की रिपोर्ट" के सामने प्राईम टाईम उनीस ही ठहरता है, हो सकता है कि फोर्मेट का फर्क हो,और ये भी है कि उसमे आप बिलकुल अपने अंदाज में होते थे जो मन में आया बोल दिया,आपकी कमेंट्री प्रोग्राम की जान होती थी पर इस डिबेट नुमा शो में आप बंधे बंधे,(टाई जो लगा लेते है)लगते है और डिबेट विबेत अभिज्ञान, अभिसार जैसे लोगो का कम होता है एक तरह की नूरा कुश्ती वाला काम,वो ही सारे वकील नुमा पार्टियों के प्रवक्ता और कुछ तथाकथित विशेषज्ञ मिलकर खेलते है ....परन्तु आपके लिए प्राईम टाईम देखा जा सकता है
रवीश कि रिपोर्ट-घर की बनी बाजरे कि रोटी
प्राईम टाईम-पर्यटन विभाग के होटलों में बनी अंग्रेजो को खिलाई जाने वाली बाजरे की रोटी
nice sir .... bahut kuchh saaf ho gya ki aage kya karna hai anna ji ke samarthan me ...thanks
मुझे व्यक्तिगत तौर पर कभी नहीं लगा किन्तु बहुत से लोगो को राहुल गाँधी और उनकी युवा टीम से बहुत उम्मीद थी जोकि पिछले दो महोनो में धूल धूसरित हो गई.राहुल गाँधी में गाँधी उपनाम के अलावा ऐसी क्या विशेषता है जो उनके इतने चर्चे होते है उनका राजनीती या समाज में क्या योगदान है. सुषमा स्वराज ने भी सदन में कहा क़ि वो संसद में बहुत कम आते है. इतने चर्चे अन्य युवा नेताओ सचिन पायलट, नविन जिंदल , ज्योतिरादित्य सिंधिया आदि के क्यों नहीं होते ? कांग्रेस में होने वाले अच्छे कार्य का सेहरा राहुल गाँधी के सर ही क्यों बंधता है? यदि सब राहुल ही करते है तो इस युवा टीम का भारतीय राजनीति में क्या योगदान है? वैसे सच भी है इस युवा टीम का राजनीति और समाज में क्या योगदान है कोई नहीं जानता. सिर्फ अपने पिताओ क़ि विरासत को भुनाने के अलावा कोई योगदान नहीं दिया.
राहुल गाँधी के राजनीती में प्रवेश के उपरांत कहा गया युवा शक्ति का आगमन . अब भारत की राजनीति का एक नया दौर आरम्भ होगा. राहुल गाँधी और उनकी युवा टीम ने सिर्फ १ काम किया गाँधी जी की १ सीख पर अमल कि बुरा मत देखो, बुरा मत सुनो और बुरा मत बोलो. इस सरकार के पिछले और इस कार्यकाल में भ्रस्ट्राचार की सारी हदे टूट गई किन्तु इस युवा टीम ने न कुछ देखा , न कुछ सुना और न कुछ बोला. अगर कुछ देखा, सुना और बोला तो केवल उत्तर प्रदेश या बी जे पी शासित प्रदेशो में.. वो भूल गए कि किसी कि तरफ एक ऊँगली उठाने से बाकि बची तीन उँगलियाँ अपनी तरफ भी उठती है . जिस आभा मंडल के साथ वो देश में राजनीति करना चाहते है तो उन्हें बाहर सफाई करने से पहले अपने घर कि सफाई करने की जर्रूरत है. बहुत से लोगो का ऐसा मानना है की युवा और पड़े लिखे लोगो के आने के बाद देश में राजनीति का स्तर ऊपर उठेगा नए मापदंड स्थापित होंगे . नए मापदंड जरूर स्थापित हुए केवल भ्रस्ट्राचार के. पहले सिर्फ २,४ या १० करोड़ के घोटाले सुनने में आते थे और अब ज्यादा पढ़े लिखे लोगो के आने के बाद १०, १००, २०० करोड़ की तो बात ही मत करिए, हज़ार और लाख करोड़ से नीचे का तो कोई घोटाला सुनने में ही नहीं आता.
www.realrock-tushar.blogspot.com
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