क्या किसी को भ्रष्टाचार से लड़ने के लिए अब कांग्रेस,बीजेपी या समाजवादी पार्टी में शामिल होना होगा? क्या संविधान से अपने लिए जीने का हक मांगने के लिए चुन कर आना अनिवार्य होगा? क्या सभी संवैधानिक और प्रशासनिक प्रक्रियाएं चुने हुए लोगों के बीच ही पूरी होती हैं? क्या चुनाव के बाद मतदाता-जनता का वजूद ख़त्म हो जाता है? तब क्या चुनाव जीतने के बाद कोई राजनीतिक दल सिर्फ मेनिफेस्टो में दर्ज वादों पर ही काम करता है? क्योंकि जनता ने तो उसे मेनिफेस्टो के हिसाब से वोट दिया है तो सरकार इतर कार्य कैसे कर सकती है? क्या अब किसी लड़ाई में होने के लिए मध्यमवर्ग से नहीं होना पहली शर्त होगी? क्या धरना-प्रदर्शन करना अब से ब्लैक मेलिंग हो जाएगा? क्या अब लोगों को अपनी मांगों की अर्ज़ी राजनीतिक दलों के दफ्तर में देनी होगी?क्या लाखों लोगों का अपनी मांगों को लेकर प्रदर्शन करना हिस्टीरिया है? क्या अब हर आंदोलन अराजक और दक्षिणपंथी ही कहा जाएगा? जंतर-मंतर पर चार दिन बिताने के बाद आंदोलन के विरोध में उठने वाले सवालों से कई सवाल मेरे मन में बन रहे थे। कुछ लोग आंदोलन को शक की नज़र से देख रहे थे तो कुछ असहमति की नज़र से। रविवार के अंग्रेजी के अखबारों में आंदोलन के विश्लेषण को पढ़ कर लगा कि जंतर मंतर के ज़रिये कुछ खाए-पीए मवाली लोगों का मजमा सरकार को हुले लेले कर रहा था। उनके उपहास के केंद्र में चंद बातें थीं। जंतर-मंतर पर जो कुछ हुआ वह भ्रष्टाचार का सरलीकरण था। गांधी के आदर्शों का सरलीकरण किया गया और फिर उसका नकलीकरण। इस तरह से अनशन पर अंटशंट कहा जा रहा है।
चालीस साल से कई दलों की सरकारें लोकपाल बिल को लेकर जनता को ब्लैक मेल कर रही थीं,ठीक वैसे जैसे महिला आरक्षण विधेयक को लेकर करती रही हैं। कोई यह बताएगा कि महिला आरक्षण बिल राजनीतिक संवैधानिक प्रक्रिया के चलते दबा हुआ है या पास न करने की मंशा के चलते। लोकतंत्र में संविधान के तहत सरकार द्वारा बनाई गईं संस्थाएं क्या अमर हैं? क्या हम कभी सीबीआई का विकल्प नहीं सोच सकते हैं? मुंबई हमले के बाद एनआईए क्या है? सीबीआई के रहते सीवीसी का गठन क्यों किया गया?क्या सीवीसी के रहते भ्रष्टाचार हमेशा के लिए ख़त्म हो गया? अगर नहीं हुआ है तो सीवीसी क्यों हैं? भ्रष्टाचार खत्म नहीं हुआ तो क्या अब इसके खिलाफ होने वाली हर लड़ाई को मूर्खतापूर्ण कहा जाएगा? तो क्या अब से भ्रष्टाचार पर नहीं लिखा जाएगा? क्या भ्रष्टाचार के नहीं खत्म होने से उसे एक संस्था के रूप में स्वीकार किया जा रहा है? ख़त्म नहीं हो सकता तो लड़ना क्यों हैं। भ्रष्टाचार का सरलीकरण क्या है? भ्रष्टाचार को जटिल बताने का मकसद क्या है? जटिल है तभी तो एक जटिल संस्था की मांग हो रही है जिसके पास अधिकार हो। जिन्होंने अण्णा के अनशन को भ्रष्टाचार का सरलीकरण कहा है,वो कहना क्या चाहते हैं? जंतर-मंतर में आई जनता भ्रष्टाचार से त्रस्त रही है। उसे नाच गाने,बैनर-पोस्टर के बहाने भ्रष्ट तंत्र को मुंह चिढ़ाने का भी मौका मिला जिसे देखकर कई लोग सरलीकरण बता रहे हैं। काश आम लोगों की परेशानी को कोई समझ पाता।
अण्णा हज़ारे के अनशन पर राजनीतिक दल खुद को संविधान से ऊपर समझ कर प्रतिक्रिया दे रहे थे। हर आंदोलन में अतिरेक के कुछ नारे लग जाते हैं। जंतर-मंतर पर भी लग गए। मगर नेता लोग इतने डर गए जैसे सभी उन्हें खत्म करने ही आ रहे हैं। सब नेता चोर हैं। यह जुमला पहली बार जंतर-मंतर पर तो नहीं कहा गया। पहले भी कई बार कहा जा चुका है। क्या रघुवंश प्रसाद सिंह जैसे ज्ञानी नेता जब किसी राजनीतिक दल पर आरोप लगाते हैं तो यह कहते हैं कि पूरी बीजेपी सांप्रदायिक नहीं है। सिर्फ नरेंद्र मोदी हैं। कांग्रेस में कई लोग ईमानदार हैं मगर हम सिर्फ टू जी को लेकर सुरेश कलमाडी का विरोध कर रहे हैं। रघुवंश प्रसाद सिंह नहीं कहते हैं। वो भी सरलीकरण और सामान्यीकरण करते हैं। सिम्पलीफिकेशन और जनरलाइज़ेशन। सब नेता चोर नहीं हैं मगर नेता लोग चोर तो हो ही गए हैं। रघुवंश प्रसाद सिंह ने कभी आरजेडी में रहते हुए लालू प्रसाद यादव पर लगे आरोपों की सार्वजनिक आलोचना नहीं की। क्या वो अब यह कह रहे हैं कि आरजेडी मे वही ईमानदार हैं लालू नहीं। अगर सब नेता चोर नहीं हैं तो कौन-कौन हैं,इतना ही बता दें। वे तो उसी आरजेडी का हिस्सा बने रहे जिसे जनता ने भ्रष्टाचार के चलते दो-दो बार रिजेक्ट किया। मेरे एक मित्र जब फोन पर यह बात कह रहे थे तो मैं सोच रहा था कि रघुवंश बाबू को किस बात का डर पैदा हो गया है। जब वो ईमानदार हैं तो जंतर-मंतर पर क्यों नहीं आए। यह क्यो नहीं कहा कि ऐसे प्रयासों का समर्थन करता हूं। मैं जंतर-मंतर नहीं जाऊंगा पर भ्रष्टाचार के खिलाफ किसी भी तरह का स्थायी-अस्थायी मानस बने उसे सराहता हूं। इतना कहने से रघुवंश बाबू को किसने रोका था। मुझे हैरानी हुई कि इस जन सैलाब से वही नेता क्यों डर गया जो खुद को ईमानदार समझता है। वो जिन ईमानदार अफसरों और नेताओं की वकालत कर रहे थे उनको किसने रोका था कि भ्रष्टाचार के खिलाफ लड़ाई में शामिल होने से या फिर उनको किसने कहा कि जंतर-मंतर से भीड़ ईमानदार अफसरों और नेताओं को मारने आ रही है। दरअसल इस आंदोलन से सरकार से ज्यादा राजनीतिक दलों को डरा दिया है। कुछ दिनों बाद यही लोग कहेंगे कि प्रतिनिधि होने का मतलब सिर्फ कांग्रेस बीजेपी का सांसद होना है। निर्दलीय सांसदों को मान्यता हासिल है तो निर्दलीय जनता को मान्यता क्यों नहीं मिल सकती?
अंग्रेजी के अखबारों और कुछ तथाकथित वरिष्ठ पत्रकारों के लेख और बहसों से गुज़र कर यही लगा कि भ्रष्टाचार के खिलाफ मानस भी नहीं बनाना चाहिए क्योंकि इससे उनकी या उनकी पसंद की सरकार को असहजता होती है। लिखने वाले किस नज़रिये से जंतर-मंतर पर आने वाली भीड़ को एक ही तराजू में तौल रहे हैं कि वो मिडिल क्लास है। उसका नक्सल और किसान आंदोलन से कोई सरोकार नहीं है। क्या कोई आंदोलन और उसमें शामिल लोग तभी सरोकार युक्त कहे जायेंगे जब वो सभी आंदोलनों और मुद्दों से जुड़े हों? क्या इसकी आलोचना इस आधार पर की जा सकती है कि अण्णा ने दिल्ली विश्वविद्यालय में ज़बरिया लागू हो रहे सेमेस्टर सिस्टम पर क्यों नहीं अनशन किया? क्या यह दलील फटीचर नहीं है कि आप तब कहां थे जब वो हो रहा था,ये हो रहा था,कहां था ये मिडिल क्लास? क्या लोगों के भीतर बन रही नागरिक सक्रियता से वाकई कुछ भी लाभ नहीं होने वाला था? तो फिर लिखने वाले तमाम मुद्दों पर क्यों लिखते हैं? उनके लिखने से समस्या समाप्त तो नहीं हो जाती। अगर मैं यह कह दूं कि भारत की हर समस्या आर्टिकल लिखने वालों को नगद भुगतान कराती है तो क्या यह सरलीकरण नहीं होगा। क्या वे फ्री में समाज सेवा के तहत अपनी राय बांटते हैं। वो कौन हैं जो अपनी राय देते हैं। क्या किसी विश्वविद्यालय ने उन्हें अखबारों में लिखने का सर्टिफिकेट दिया है? ऐसी बतकूचन से दलीलें पैदा करनी हैं तो करते रहिए।
जंतर-मंतर पर जो कुछ हुआ उसे एकतरफा नज़रिये से देखने की कोशिश हो रही है। कोई एकसूत्री फार्मूले के तहत खारिज या समर्थन करने की कोशिश की जा रही है। अण्णा के अनशन से पैदा हुई विविधताओं पर पर्दा डाला जा रहा है। कुछ तो था इस आंदोलन में कि सरकार की तरफ से मीडिया को बांधने की तमाम कोशिशें नाकाम हो गईं। अगर यह लोगों का गुबार न होता तो मीडिया एक मिनट में इस मुद्दे को सनकी कह कर खारिज कर देता। रिपोर्टर दबाव मुक्त हो गए। स्वत स्फूर्त होकर जनवादी राष्ट्रवादी और ललित निबंधवादी जुमलों में घटना को बयान करने लगे। उनके विश्लेषणों में सिर्फ उन्माद नहीं था। उनकी लाइव रिपोर्टिंग को भी कई स्तरों पर देखने की ज़रूरत है। वो हिस्टीरिया पैदा नहीं कर रहे थे। बल्कि लोगों के उत्साह के साथ रिएक्ट कर रहे थे। अगर न्यूज़ चैनल उन्माद पैदा कर रहे थे तो अखबार क्यों बैनर छाप रहे थे? आंदोलन किसी संप्रदाय के खिलाफ नहीं था। आंदोलन किसी भाषा-लिंग के खिलाफ नहीं था। आंदोलन भ्रष्टाचार के खिलाफ था जिसके निशाने पर प्रत्यक्ष रूप से सरकार और अप्रत्यक्ष रूप से बेईमान नेता थे। मीडिया भ्रष्टाचार के खिलाफ आवाज़ उठाता रहा है। जब लोग उठायेंगे तो वो कैसे किनारा कर लेता। उसके भी नैतिक सामाजिक अस्तित्व का सवाल था। इसलिए किसी चैनल या अखबार को हिम्मत नहीं हुई कि जंतर-मंतर के कवरेज को दूसरे तीसरे दिन ग्यारह नंबर के पेज पर गायब कर दे।
अतिरेक के एकाध-अपवादों को छोड़ दें तो जंतर-मंतर पर आने वाली भीड़ उन्मादी नहीं थी। वो आ रही थी कतारों में और घुल मिल रही थी नारों में। तमाम व्यवस्थाएं अपने आप बन गईं थीं। पुलिस ने नहीं बनाई थी। अनुशासन अपने आप बन गया। कोई एक दूसरे को हांक नहीं रहा था। लोगों ने अपने नारे खुद लिखे। फिर भी इस भीड़ को एकवर्गीय रूप दे दिया गया। मिडिल क्लास है ये तो। हद है। जब मिडिल क्लास जागता नहीं है तो आप गरियाते हैं। जब जाग जाता है तब लतियाते हैं। आंदोलन करने वाले अब यह तय कर लें कि उन्हें मिडिल क्लास का साथ नहीं चाहिए। वो इस क्लास को किसी भी जनआंदोलन में शामिल होने से रोक देंगे। जिन लोगों ने जंतर-मंतर पर आने वाली जनता को करीब से देखा है वो यह नहीं कह सकते कि इसमें एक क्लास के लोग थे।
इसमें न तो युवाओं की संख्या ज्यादा थी न बुज़ुर्गों की कम। सब थे। पुणे में पढ़ रही अपनी बेटी को एक पिता ने इसलिए
दिल्ली बुला लिया कि वो देखे और समझे कि देश के लिए क्या करना है। मालवीय नगर से एक महिला गोगल्स लगाए चली आईं। उनके हाथ में तख्ती थी। सरकारी विचारकों में भीड़ के कपड़े तक देखने शुरू कर दिये। जो उपभोक्ता है क्या वो नागरिक नहीं है? किशनगंज के नवोदय स्कूल का एक मास्टर आया जिसने नवोदय स्कूल के प्रिंसिपल के खिलाफ घोटाले उजागर किये मगर कुछ नहीं हुआ। संगम विहार के शिव विहार का एक व्यक्ति आया था। बताने लगा कि उसके यहां करप्शन बहुत है। सब लूट लिया जाता है। कोई सुविधा नहीं है। रैली में अस्थायी तीन हज़ार कंप्यूटर शिक्षकों का जत्था भी अपना बैनर लेकर आ गया। दिल्ली नगर निगर का कर्मचारी संघ भी आ गया। डिफेंस कालोनी रेजिडेंट वेलफेयर संघ भी अपना बैनर बनवा लाया था। कई लोग जो अपने-अपने शहर दफ्तर में भ्रष्टाचार को भुगत रहे थे वो भी आए थे। सब सिर्फ जनलोकपाल बिल के समर्थन में नहीं आए। सब इसलिए भी आए कि शायद उनकी अकेले की लड़ाई समूह में बदल कर ताकतवर हो जाए। कुछ असर कर जाए। एक व्यक्ति ने बताया कि उसकी कंपनी न्यूनतम वेतन नहीं दे रही थी। छह महीने से धरना कर रखा था। अनशन टूटने के एक रात पहले एलान कर दिया कि हम सब जंतर-मंतर जा रहे हैं, कंपनी ने सबकी सैलरी बढ़ा दी। ये लोग अस्थायी मज़दूर थे। अलग-अलग समस्याओं को लेकर महीनों से आंदोलन करने वाले लोग भी धरने में शामिल हो गए। इस वजह से भी अण्णा का अनशन बड़ा होता चला गया।
जिन लोगों जंतर-मंतर पर आने वाली भीड़ को सनकी और एकवर्गीय बताया है उन्हें वहां मौजूद लोगों से मिलना चाहिए था। कई आरटीआई कार्यकर्ता घोटालों की फाइलें लिये पत्रकारों को खोजने लगे। आप तो मिलते नहीं यह फाइल रख लीजिए। आपके दफ्तर चक्कर लगा आया हूं। कोई कवरेज नहीं है। देखिये तीस करोड़ का घोटाला है। एक ऑटो वाला भावुक हो गया। कहने लगा कि सरकार हमको मुर्दा समझती है। चोर बनाने के लिए मजबूर करती है। तंग आकर उसने आटो चलाना छोड़ दिया। गुड़गांव से सेना के ब्रिगेडियर स्तर के रिटायर अफसर चले आए। कहने लगे कि एक सिपाही के नाते आ गया हूं। रोक नहीं सका। भीड़ में मुझसे एक अफसर माइक छिनने लगे। पूछा कि आप कौन है। जवाब मिला कि मैं कस्टम विभाग में चीफ कमिश्नर रहा हूं। रिटायर हो गया हूं। मेरे ख्याल में करप्शन को लेकर इस तरह का पब्लिक ओपिनियन बहुत ज़रूरी है। जिन लोगों ने टीवी पर इसकी कवरेज देखकर लेख लिखकर खारिज किया है उनसे चूक हुई है। जंतर मंतर पर भोजन के स्टॉल वाले ने बताया कि पचीस साल में ऐसी भीड़ नहीं देखी। स्कूल के बच्चे आ रहे हैं। उनके टीचर आ रहे हैं। वो भी चाहते हैं कि उनके बच्चे ऐसे सरोकारों से जुड़ने का अभ्यास करें। एक तरह से यह प्रदर्शन कई लोगों के लिए अभ्यास मैच भी था। अहिंसक चरित्र होने के कारण बड़ी संख्या में गृहणियां आ गईं। कुछ महिलाओं ने आंचल से मुंह ढांक लिया। मेरे एक मित्र ने बताया कि वे अण्णा के पास गईं। समर्थन दे आईं। मीडिया जब फोटू खींचने लगी तो कहने लगी कि हम लोग मिनिस्ट्री में काम करते हैं। फोटू मत लीजिए। नौकरी चली जाएगी।
किस आधार पर इसे मिडिल क्लासवाली आंदोलन कहा जा रहा है। जंतर-मंतर को पेज थ्री कहने वाले लोग इस बात से हिल गए हैं कि उनके मुद्दे पर हर कोई बोलने लिखने लगेगा तो उनकी दुकान न बंद हो जाए। कचरा बिनने वालों का संगठन भी समर्थन करने आ गया। आने वालों की प्रोफाइल का कोई एक रंग तो था नहीं। मगर देखने वालों को सब एक ही रंग में दिख रहे हैं क्योंकि यह दलील सरकार के मैनजरों को सही लगती हैं। वे खुश होते हैं। क्योंकि अण्णा के अनशन ने जंतर-मंतर पर होने वाले धरनों में जान डाल दी है। अब उन्हें डर सता रहा होगा कि सब इस तरह से अनशन करने लगे तो क्या होगा? सब क्यों न करें। अगर सिस्टम सालों तक आदमी और संगठन को टहलाता रहे। क्या सिस्टम का कोई आदमी जंतर-मंतर पर महीनों से धरने पर बैठे लोगों से बात करने भी जाता है? उनके साथ न्याय न हो रहा हो तो क्या करें। जो लोग यह सवाल पूछ रहे कि क्या लोकपाल बिल से भ्रष्टाचार खत्म हो जाएगा दरअसल ये वो लोग हैं जो किसी भी रैली या दलीलों में शामिल एलिमेंट की तरह यह पूछने लगता कि इससे क्या होगा? दुनिया में अन्याय खत्म हो जाएगा। चले हैं दुनिया को बदलने। हें..हूं थू। बोलेगा रे। बस हो गई मारपीट।
अण्णा का अनशन एक उत्सव में भी बदल गया। कई लोग एक दूसरे का फोटू खींचने लगे। टीवी पत्रकारों के आटोग्राफ लेने लगे। उनके साथ फोटो खिंचाने लगे। पानी की कुछ कंपनियों ने हजार-हज़ार बोतल फ्री में बांटनी शुरू कर दी। हवन होने लगे। एक एनजीओ आदिवासियों को ले आया उनका नृत्य होने लगा। प्रभात फेरी निकलने लगी। कई लोग तुरंत कविता और शेर लिखकर रिपोर्टर को देने लगे कि मेरा वाला पढ़ दीजिए। बहुत सारे गुमनाम अखबार अपना एडिशन बांटने लगे। कई संगठन अपना पैम्फलेट बांटने लगे। आरएसएस वाले भी बांट रहे थे। यह सब भी हो रहा था मगर यह सब आंदोलन के मूल चरित्र के केंद्र में नहीं हो रहा था। हाशिये पर ऐसी बहुत सी हास्यास्पद और नाटकीय चीज़े हो रही थीं। इंडिया गेट के आइसक्रीम वाले जंतर-मंतर आ गए। यह तो होता ही है। राजनीतिक दलों की रैलियों में भी इस तरह की दुकानें सज जाती हैं। तो इसके आधार पर अण्णा के अनशन को खारिज कर देंगे।
ऐसी बात नहीं है कि जंतर-मंतर के धरने को लेकर अहसमतियों की गुज़ाइश नहीं है। इसमें शामिल कई लोगों पर विचारधारा के स्तर से सवाल उठाये जा सकते हैं। अण्णा हज़ारे ने भी कहा कि मंच से वहीं बोले जिनका चरित्र अच्छा हो। इस आंदोलन में वही आएं जिनका कैरेक्टर हो। उन्होंने कहा कि आरएसएस और बीजेपी से संबंध नहीं है फिर भी उमा भारती को फोन कर बुला लिया। राम माधव आ गए। मेरी राय में वैचारिक आधार नहीं तो स्पष्टता होनी चाहिए। तब यह सवाल उठ सकता है कि क्या हर आंदोलन का वैचारिक आधार होना ज़रूरी है। क्या हर लड़ाई इस खेमे और उस खेमे में ही बंट कर होगी। मंच पर मौजूद संघ और कुछ संत समुदाय से जुड़े लोगों को लेकर मेरी असहमति रही है। लेकिन यह आंदोलन भ्रष्टाचार को मिटाने के लिए एक कानूनी हथियार हासिल करने के लिए था। अच्छा हुआ अनुपम खेर और बाबा रामदेव आंदोलन को हाईजैक नहीं कर सके। हमारा देश समाज और सिस्टम दोनों स्तर पर व्यापक रूप से भ्रष्ट है। उन घरों में लोग टीवी से ज़रूर उकता गए होंगे जहां रिश्वत का पैसा आता होगा। दलाली करने वाले पत्रकारों को भी कष्ट हो रहा होगा। हालांकि इस आंदोलन से अहसमति रखने वाले सभी दलाल नहीं कहे जा सकते लेकिन यह बात मेरे मन में उठ रही थी कि घूसखोर कैसे अपने परिवार के साथ जंतर-मंतर से सीधा प्रसारण देख रहा होगा।
राजनीतिक दलों के विरोध पर सवाल करने का मन करता है कि आज आप बड़े हो गए हैं। कई सांसद और विधायक हैं। आपने अलग ही दल क्यों बनाया? कांग्रेस में ही शामिल हो जाते। जिस सिविल सोसायटी को आप खारिज कर रहे हैं, चुनाव लड़ने की चुनौती दे रहे हैं क्या आपकी हालत वैसी नहीं थी जब आपने राजनीतिक दल की स्थापनी की थी। क्या लोकतंत्र में सिर्फ राजनीतिक दलों को ही मान्यता हासिल है? किस आधार पर यह कह रहे हैं कि अण्णा की लड़ाई राजनीतिक नहीं है। राजनीतिक भ्रष्टाचार के खिलाफ कोई भी लड़ाई राजनीतिक ही होगी। आगे जा कर यह लड़ाई कहां जाएगी कौन जानता है। किस नतीजे पर पहुंचेगी किसने देखा है। नतीजा तय कर लड़ाई की शुरूआत नहीं होती। वैसे सरकार के मान लेने के बाद जीत तो हो ही गई। सरकार में हिम्मत होती तो कह देती कि हम अण्णा के ब्लैकमेल से मजबूर होकर उनका प्रस्ताव मान रहे हैं। उसने क्यों कहा कि यह लोकतंत्र की जीत है। सरकार और सिविल सोसायटी को मिलकर काम करना होगा। क्या सरकार ने सिविल सोसायटी को मान्यता नहीं दे दी। बल्कि देनी पड़ी है। अनशन को ब्लैकमेल लिखकर अंग्रेजी के लेखक भाग लिये। वो अब इतिहास भी बदल दें और गांधी को ब्लैकमेलर कह दें। किसी आंदोलन में कमियां नहीं होतीं मगर क्या अण्णा के आंदोलन के मूल उद्देश्य में भी कमी है? क्या हमें भ्रष्टाचार के खिलाफ नहीं लड़ना चाहिए? बस इतना ही कह सकता हूं। दो लोग हैं इस वक्त। एक जिसने जंतर-मंतर देखा है और दूसरा जिसने नहीं देखा है। जंतर-मंतर अब अण्णा के अनशन का पर्याय बन चुका है। जिनको अंट-शंट बकना है बकें। मगर असहमतियों को ध्यान से सुना जाना चाहिए। ताकि आगे से ऐसे नागरिक आंदोलनों को चलाने से पहले कुछ सावधानियां बरत ली जाएं।
69 comments:
खूब. बहुत खूब.
सीधी बात रोज़ के जीवन के बहत्तरस्तरीय असंतोष के विरोध का उत्सव था, स्वाभाविक है बीस गलतियां भी रही हों, मगर वह केंद्र नहीं था. और असंतोष की अभिव्यक्ति के एक दूसरे मिजाज का लोगों को स्वाद मिला, भ्रष्टाचार के खिलाफ देश भर में कोई गोलबंदी हो सकती है का सबको सपना मिला, बड़ी राजनीतिक पार्टियां इतनी आसानी से बेमतलब हो सकती हैं इसका टेस्ट भी. इतनी जीत बड़ी जीत है.
कुछ लोग अन्ना के आंदोलन की निरर्थक बताने की कोशिश के तहत तरह-तरह के तर्क-कुतर्क दे रहे हैं...यहां मुद्दे की जगह व्यक्ति पर सवाल किए जा रहे हैं...इसमें ये नकारात्मक सोच सबसे ज़्यादा प्रभावी है कि कुछ नहीं हो सकता....हम सब खुद ही भ्रष्ट हैं...मीडिया क्यों अन्ना के आंदोलन को इतना हाईलाइट कर रहा था...ऐसे लोगों से मेरा एक बस यही सवाल है कि क्या कभी सरकार को इतना दबाव में आते हुए हाल-फिलहाल में पहले किसी ने देखा...सरकार ही क्यों विरोधी पार्टियों के नेता भी अन्ना के पीछे आ जुटी ताकत को देखकर बौखलाए हुए हैं कि अब हमें कौन पूछेगा...क्या ये अन्ना की कम उपलब्धि है...
डॉ अमर्त्य सेन ने argumentative Indians में बिल्कुल सही लिखा है कि भारतीयों ने और कुछ अच्छी सीखा हो या न हो लेकिन उन्हे हर बात में मीन-मेख निकालना और फिर बहस में उलझना बड़ा रास आता है...ठेठ मेरठी भाषा में कहूं तो मुहज़ोरी करना बड़ा सुहाता है...अमेरिकी प्रोफेसरों में ये बात मशहूर है कि उनका आधा वक्त भारतीय छात्रों के साथ तार्किक-अतार्किक बहस में बीत जाता है और आधा वक्त चीनी छात्रों के साथ इस कोशिश में कि वो कुछ बोलें...हम कुछ और करें न करें, खाली बैठे-ठाले ज़ुबानी जमाखर्च और दूसरे की टांग-खिंचाई खूब कर सकते हैं...अब अन्ना पर पिल पड़े हैं...क्या ज़रूरत थी भला चोर को चोर कहने की...सरकार को ये एहसास कराने की कि देख लीजिए जनता किस तरह उबल रही है, और ये ज्वालामुखी फटा तो क्या क्या साथ बहा कर ले जाएगा...
जय हिंद...
जंतर-मंतर पर उमड़े उत्साह व अनशन की जीत को सिर्फ टेस्टिंग ऑफ वॉटर के तौर पर देखा जाना शायद ज्यादा समझदारी की चीज़ होगी. लोकपाल की नियुक्ति और उसकी कार्यप्रणाली में ईमानदारी और जनतांत्रिक एक्सिक्यूशन की गारंटी और नियंत्रण कौन करेगा, हम जान रहे हैं? सरकार इसका भी अपनी निरंकुशता के हित में इस्तेमाल नहीं करेगी ऐसा सोचना हमारा भोलापन नहीं होगा?
मसले पर दिलचस्पी रखनेवाले सिक्के का दूसरे पहलू पर इधर नज़र मार सकते हैं.
http://kafila.org/2011/04/09/at-the-risk-of-heresy-why-i-am-not-celebrating-with-anna-hazare/
सच्चाई इन दोनों धुरियों के बीच कहीं होगी, आनेवाले दिनों में राष्ट्रीय स्तर पर लोग अपने विरोध में भरोसा रखें, पहलकदमियां लें, हम सभी इस पर विश्वास रखें.
बहुत खूब लिखा है.
इस आन्दोलन से मुख्य रूप से दो लोगो या संस्था तो सोचना परेगा
पहले - BJP
दुसरे - रामदेव बाबा
इन दोनों के आन्दोलन को जैसे अन्ना ने अयना दिखा दिया
gaurav
नेताओं ने उत्साह को पहले भी चढ़ते और उतरते देखा है, कुछ समय बाद ही इसका प्रभाव दिखेगा।
मुझे पिछले पांच दिनों से ऐसी ही एक पोस्ट की तलाश थी रविश जी । आज आपने बहुत सारे प्रश्न उठा कर उन सबके प्रश्नों का उत्तर दे दिया जो इस जनांदोलन को , जो इस कोशिश को , जो इस सोच को , जो इस मुहिम को अपने अपने चश्मे से न सिर्फ़ देख बल्कि दिखाने की कोशिश भी कर रहे थे । आपका अनुभव और आपका जज़्बा आज खुद को प्रमाणित कर गया । इस पोस्ट को बुकमार्क करके रख रहा हूं ताकि इस बहस को कुतर्क की तरफ़ मोडने वालों के मुंह पर चस्पा दूं और ये भी पूछ सकूं कि चलो मैं तो बस एक साधारण सा इंसान हूं अपनी नौकरी और अपनी गृहस्थी में व्यस्त लेकिन आखिर क्या वजह है कि एक इतना बडा नाम , एक इतना बडा पत्रकार , इतना बडा खबरी भी ठीक वही सोच रखता है जो मुझ जैसा आम आदमीं । शुक्रिया बहुत बहुत शुक्रिया रविश जी ।
रवीश जी,
आप की सच्चाई भरी लेखनी का मैं कायल हूँ |
ये शब्द मैं एक आम नागरिक कीऔर से केह रहा हूँ | मेरे पास शब्द नही ,सिर्फ एहसास हैं ,जो आप के लेखो को पड़ कर मेहसूस करता हूँ |
खुश और स्वस्थ रहें !और मुझ जैसो की आवाज बने रहें |
शुभ कामनाएं |
अशोक सलूजा !
पोस्ट से परे एक आग्रह है रविश जी फ़ेसबुक पर आपसे मित्रता का आग्रह किया है जब भी उचित लगे और लगे कि आप मुझे शामिल कर सकते हैं तो ...मैं शुक्रगुजार रहूंगा । अन्यथा ब्लॉग मित्र तो आप हैं ही । शुभकामनाएं
नमस्कार!
अण्णा हजारे का अनशन समाप्त हो गया. अण्णा सरकार से जो आश्वासन चाहते थे मिल गया. अब परिचर्चा हो रही है. सफलता की असफलता की. अण्णा भ्रष्टाचार को समाप्त करने के लिए एक सशक्त लोकपाल की मांग कर रहे हैं. जिसके लिए विधेयक बनाने की सशक्त समिति का गठन अण्णा की शर्त के अनुसार होना है. भारत के तमाम राजनैतिक दल इसकी चर्चा तो करते हैं किन्तु कानून ऐसा चाहते हैं जो उनकी मुट्ठी में रहे और उनका कभी भी कोई अहित नहो सके चाहे वे जो करते रहें. कोई सार्थक परिणाम न मिलाने पर अण्णा आमरण अनशन पर बैठ जाते हैं. उन्हें इतना समर्थन मिलाने लगता है कि सरकार उअनकी शर्तें मान लेती है. वह प्रत्येक व्यक्ति हर्षित हो जाता है जिसने केवल मानसिक समर्थन मात्र दिया है. http://jppathakdeoria.blogspot.com/2011/04/blog-post.html
अभी अभी जी न्यूज पर अन्ना हजारे ने कहा है कि नीतीश कुमार और मोदी अच्छे नेता हैं। आइए, अन्ना के इस बयान का विरोध करें और उनसे कहें कि अन्ना, ये इंसानियत के खिलाफ भ्रष्टाचार में शामिल लोग हैं। इनसे अच्छे हैं शरद पवार, क्योंकि पैसे के भ्रष्टाचार से ज्यादा खतरनाक होता है नफरत का भ्रष्टाचार।
मैं बहुत दुखी हूं और अन्ना को अपना लीडर मानने से इनकार करता हूं। भ्रष्टाचार के खिलाफ अभियान को हमारा समर्थन जारी रहेगा।
बहुत बेहतर!
शुक्रिया बहुत बहुत शुक्रिया रविश जी इस पोस्ट के लिए ।
बेहतरीन पोस्ट। बहुत कुछ पता चला वहाँ आने वाले लोगों और उनके सरोकार के बारे में। कल राँची की मेन रोड पर पन्द्रह बीस बच्चों का काफ़िला देखा। संख्या ज्यादा नहीं थी पर उनकी आवाज़ की गूँज सबको मुड़ कर देखने को मज़बूर कर रही थी। इस तरह के प्रदर्शन, विरोध से समाज के बहुत बड़े वर्ग ने अलग कर लिया था। शायद ये सोचकर कि इससे कुछ होना जाना नहीं पर अब एक विश्वास जरूर आएगा लोगों में कि अपने स्तर पर भी कुछ किया जा सकता है। एक बिल को लाने से भ्रष्टाचार पर लगाम लगे या ना लगे पर मूक दर्शक बन कर सरकार को कोसने के बजाए संगठित होकर उसमें हिस्सा लेने की प्रवृति अगर इस मुहिम से शुरु होती है तो इससे अच्छी उपलब्धि और कुछ भी नहीं।
रविश भाई, अन्ना हजारे ने अनशन का एलान किया और लोग स्वस्फूर्त इस आन्दोलन से जुड़ने लगे, कोई इन्हें ट्रेक्टर ट्रालियों में खाने के पैकेट या चाँद रुपयों की दिहाड़ी देकर नहीं लाया...इससे यह जाहिर होता है कि भ्रष्ट्राचार से लोग आजिज आ चुके हैं..
जंतर-मंतर पर तो नहीं पहुच सका... लेकिन सुदूर अंचल के गाँव में भी आम नागरिक भावनात्मक रूप से इस आन्दोलन से जुड़ गया.. भ्रष्ट्राचार के विरोध की आवाज गाँव से भी उठने लगी. लोगों की भावनाएं इतनी उठान पर थी कि "जैसे तुरंत ही इस महामारी से मुक्ति मिल जाएगी".
लोग अपेक्षा बहुत अधिक लगा लेते हैं और अपेक्षानुसार प्राप्त नहीं होने पर बिखरना स्वाभाविक है.. आगे इसका प्रतिफल क्या मिलता है वह तो भविष्य के गर्भ में है.. लेकिन इस अनशन ने भ्रष्ट्राचारियों को भीतर तक हिला कर रख दिया होगा...
आलेख के आभार
रविश सर, यह बात सही है कि अब धरना प्रदर्शन दलाली करने के लिये हो रहा है. अन्ना कि अनशन भी वही है जो मध्य्वागिये बुद्धिजीवी जानते है लेकिन बोलने कि साहस नहीं है. जन्तर मंतर पर जिन लोगों ने अनशन पर बैठे थे, उन्हें इरोम का अनशन नहीं दीखता है.
aapki is post ka itnzaar tha, sabhi ko jaweab de diya hain aapne!
लोग तो गांधी को भी गाली देते हैं, उससे क्या उनका महात्मा का पद छीन जाता है.बकने वालों को क्या कहा जाए। बाकी तो समय ही बताएगा.और जो हो सो हो, अन्ना के आदोंलन से लोगों को देश पर भरोसा जरूर हुआ है.
behtarin post. kitni sacchai se likhte hai ap.
Achhaa huaa ki baabaa raamdeva ka nahin chalaa. Baabaa raamdewa ki davaa ki dukaanen khud cash memo nahin detin aur bhrashtrachaar rokane ke liye aandolan ki baat kyaa karen?
Maahaul banaaya chahe kisee ne lead le gaye Anna Hajare, bahut achaa huaa.ravindrakumarpathak@gmail.com
achhaa huaa ki Baaba raamdeva kaa khel nahin chala. Baaba raamdeva ki dava ki dukanen khud tax bachaati hain, cash memo ki jagah Estimate likh kar deti hain. saamanya adami ke rup men kisi kasbe men kharid kar dekhiye
आशा की नई किरण, जो ईजाद करने में हम देर तो कर सकते हैं, चूकते कभी नहीं.
मुझे हैरत है और खुशी का तो ठिकाना नहीं। रवीश जी अगर ऐसा सोचते हैं तो फिर उम्मीद बची है। वरना वाम,जनवाद,जातिआधारित,भाषामूलक,क्षेत्रीय समझ और जिला-जवार के आग्रह ने तो ऐसी स्ट्रेट जैकेटिंग कर दी है कि उनके एजेंडा के अलावा कोई बात लगभग देशद्रोह बन गया है। फालतु,गैरवाजिब और नक्कारा। एक और बात क्यों छिपाऊँ? जिस सौंदर्यबोध का हिंदी में राज चलता है,और जो शायद संख्या में भी अधिक हो(कमसकम हल्ले में तो अधिक है ही)अगर रवीश जी उसी कुनबे से आते हैं तब तो यह पोस्ट टर्निंग प्वायंट है भाई। मुझे हिंदी (गोबर क्षेत्र) से कई दिनों बाद कोई उम्मीद दिखी। आपकी जय हो,अब दिन बहुरेंगे 'काऊ बेल्ट'के इस आशा से प्रफुल्ल हूँ।..विजय शर्मा
ravish ji bht achha likhte hain ap. aapko kai bar hindustan news paper me bhi pda mene.
आपने बहुत सही प्रश्न उठाए हैं. मध्यमवर्ग का होने से यह तो नहीं कहा जा सकता कि उसे अपनी बात कहने, विरोध दर्शाने का अधिकार ही नहीं है.कुछ ऐसा वातावरण बनाया जा रहा है कि यदि आप अमुक तबके, जाति, विचारधारा के नहीं हैं तो आपको बोलने का अधिकार नहीं है, आपकी सही बात भी गलत है.कुछ तो भ्रष्टाचार का विरोध भी तभी करेंगे जब इस मुहिम की कमान उनकी जाति या पिछड़ी जाति वाला या आरक्षण का पक्षधर के हाथ में हो.
घुघूती बासूती
"बना रहे बनारस" http://vipakshkasvar.blogspot.com/2011/04/blog-post_10.html?showComment=1302497982103#c4116290158183035927
की पोस्ट पढ़्कर प्रश्न उठा कि क्या पत्रकारिता, स्पिन डाक्टरों के चंगुल से आजाद होगी? जो अपने पेशे में गलत को गलत नहीं कह सकता वह आखिर कर क्या रहा है?
जब चुटकुले और नाच खबर बन सकते हैं, चौटाला और उमा भारती खबर बन सकते हैं तो "यह" क्यों नहीं? खबर तो "यह" बनती ही थी?? और इस तरह से खबर का बाहर आना अधिक नुक्सान दायक है।
आखिरी नमस्ते।
GREAT ANALYSIS...CONGRATULATION FOR YOU POINT OF VIEW
बेहतर यह है कि इसे अण्णा का आंदोलन न कहकर तरुण भारत का जनांदोलन कहा जाए। आप सही हैं कि जिन लोगों ने जंतर-मंतर के इस आंदोलन को मध्यवर्गीय आंदोलन कहा है उन्होंने जंतर-मंतर आकर भीड़ के रंग नहीं देखे। बल्कि इसे भीड़ कहना गलत होगा क्योंकि भीड़ में अंतःक्रिया नहीं होती। यहां तो लोग स्वतः स्फूर्त रूप से इस आंदोलन से जुड़े। आम आदमी भ्रष्टाचार से आहत है। सरकारी छलावे से दुखी है। इसलिए यह स्वतःस्फूर्त समर्थन अण्णा को मिला। जो विश्लेषक इसे गलत नज़र से देखते हैं वो अपनी आंखों पर चढ़ा सरकारी चश्मा उतारें। शानदार विवेचना रवीश भाई।
abhi to yeh ek suruaat bhar hai
aane wale samay main neta logo ka kiya hoga aap khud samajhate hai ..
azadi ki ladai main gandhi ji ke saath..saath..bhagat singh jaise logo ki toli bhee thee....
jai baba banaras.....
बहुत उम्दा पोस्ट है। कई रूटलाइन बातें भी पता चली जिन्हें कि अक्सर खबरों में जगह नहीं मिलता।
Ravish ji! Aapne bahut achcha likha. bahut dino baad ek achcha lekh padne ko mila ji Aam aadmi ki aawaj hai! lekin Raghuvansh prasad jaisi hi soch kal aapke Vinod dua ji ki bhi thi! Anna Hazare ke anshan ko Blackmail kahana saral hai lekin ek din bhi bhookha rahana bahut kathin hai wo bhi desh k liye!!!!!!!!!!!
अत्युत्तम
Plz visit once http://shabdshringaar.blogspot.com
आपकी हर रिपोर्ट एक दृश्य कविता होती है रवीश जी...बधाई !
एक सम्पूर्ण विश्लेष्ण के साथ सटीक आलेख |
जितना देखने पर भी समझ नहीं पाए वो सब इस आलेख के माध्यम से समझ पाए है |
आभार |
ravish ji ka jvaab nahi hai... waah..........
bahut khoob
Sir very well said..Sorry that,When Anna ji was fasting u kept quite & I was prejudice about your silence!I have faith on your journalism , so my anger burste on you.I was upset n not willing to believe that you too are follower of psuedo-journalism & pro-Govt.I felt ki aapki teekhi aur sateek vani ki humein zaroorat thi. Thanks for scripting all those ideas in your blog which I wanted to convey to masses.I Don't know why most journalists even People like Karan Thapar feel that opposing any issue is quality of True Journalism? Sir,Aap mere jaise,bahut se,logo ke liye Anna ji ki tarah "prerana ke strota" hain..jab mein hatash hone lagti hoon,iss samaj ki vichaaron mein privartan lane ki koshish,karte karte, Jab bahut bhojhil mahsoos hone lagte hain apne hi adarsh aur vichaar tab apke vicharon ko padkar lagta hai-"I am no an Alien in this world" kuchh aap jaise saral log aaj bhi hain iss duniya mein.
Sorry to pour out my anger on you earlier.
Thanks for being marvellous presenter and for clearing the air about this national ission.
Regards keep writing and inspiring all!
Best lines-"जन सैलाब से वही नेता क्यों डर गया जो खुद को ईमानदार समझता है।"
"क्या लोगों के भीतर बन रही नागरिक सक्रियता से वाकई कुछ भी लाभ नहीं होने वाला?"
"अगर यह लोगों का गुबार न होता तो मीडिया एक मिनट में इस मुद्दे को सनकी कह कर खारिज कर देता।"
"जिन लोगों जंतर-मंतर पर आने वाली भीड़ को सनकी और एकवर्गीय बताया है उन्हें वहां मौजूद लोगों से मिलना चाहिए था।"
"मेरे ख्याल में करप्शन को लेकर इस तरह का पब्लिक ओपिनियन बहुत ज़रूरी है।"
"सरकार में हिम्मत होती तो कह देती कि हम अण्णा के ब्लैकमेल से मजबूर होकर उनका प्रस्ताव मान रहे हैं। उसने क्यों कहा कि यह लोकतंत्र की जीत है। सरकार और सिविल सोसायटी को मिलकर काम करना होगा। क्या सरकार ने सिविल सोसायटी को मान्यता नहीं दे दी। बल्कि देनी पड़ी है।"
"अनशन को ब्लैकमेल लिखकर अंग्रेजी के लेखक भाग लिये। वो अब इतिहास भी बदल दें और गांधी को ब्लैकमेलर कह दें।"
http://shuchitavatsalsworld.blogspot.com/2011/04/nice-poem-to-bring-change-we-all-must.html Please friends read this Poem..Hope you too will find it good!
apke report ka 'kalevar-falevar' hi alag hai.........ravishji..
'bas dar hai ke mohre na ban jayen'
pranam.
My email is lifefile2@gmail.com
If you liked this verse of mine, do tell me..Your comment is most important
Siddhant xx
कुछ रोने के बहाने ...
होने का रोना
न होने का रोना
पा तो गए, अब उसे खोने का रोना
नसीब की बिगडैल फरमाईशों का रोना
जिस्म है, पर कुव्वत का रोना
अँधेरे को तरसती मेरी तन्हाई का रोना
बिसरी हुई यादों का रोना
चादर से लम्बे पांवों का रोना
किताब में रखे तेरे उस गुलाब की, उडी हुई खुशबू का रोना
राहों में छुपती मेरी मंजिल का रोना
शीशे पर खुद के मंज़र का रोना
और मेरी पथराई आँखों में, तेरी ख़ुशी के आंसू का रोना
रोने के बहाने हैं हज़ार...
sir, i am with Anna hazare because now we have to change system for the next generations because i have spent my half life life with this corrupt system and no more i can tolerate it.
Paresh K Singh
pareshksingh@rediffmail.com
ब्लैक मेलिंग किसी अच्छे कामों की नहीं होती. कारनामा अगर ब्लैक किया हो तो उसकी ब्लैक मेलिंग हो सकती है. अन्ना के अनशन को चाहे आंदोलन कहें, घटना कहें या परिघटना कहें.....नाम उसे हम चाहे जो भी दें, इतना तो तय है कि वह गलत काम के खिलाफ एक अच्छा काम था. सोने पर सुहागा यह कि मतदान जैसे अवसरों पर भी सोई रहने वाली जनता न सिर्फ जागी, बल्कि सुगबुगाई भी. और इस सुगबुगाहट ने ही शासन और सरकार को झकझोर दिया.
विमलेंदु सिंह
जब नेता भ्रष्टाचार के बीज
बोते थे
तब भी तो तुम
होते थे
ओ अन्ना तब तुम कहां
सोते थे?
विदर्भ में आशा से
खेत जोते थे
फिर कर्ज में डूबे किसान
खून के आंसू रोते थे
ओ अन्ना तब तुम कहां
सोते थे?
sach kaha aapne hamesha ki trah.bhrast aur baimano ko kuch der kisi samshan main gujarna chahiye dekhen whana jakr ek din unki bhi wohi gati honi hai to aaj kyon apne lalaj ke liye tusro ko kast de rahe hain. kyon kisi ka khoon choos rahe hain? sudhir jha
इस लेख की एक एक पंक्ति मन में विचारों की श्रंखला पैदा कर देती है। बहुत ही संजीदगी से लिखा यह लेख व उसमें उठाये गये प्रश्न इत्यादी करोडो हिंदुस्तानियों के मन में उठ रहे अलग अलग प्रश्नों व विचारों का गुलदस्ता है। बहुत सलीके से सभी पहलुओं को आपने समेटा है।
रवीश जी बहुत आभार ॰॰॰॰॰ शुभकामनायें
राजेश बिस्सा
isiliye ravish ki report dekhke kuch line man me uthti hai har taraf andhera fail gaya hai rah bhi nazar na aayegi khud ek rah tu banle duniya usi pe chali aayegi.
Dear Sir,
I am really very glad to know your opinion, your thoughts about this topic. And I agree with you. But in my opinion (May be it is wrong), it is very simple that we are corrupt on the inside. And of course, we need to improve our thoughts one more time. Or i think, Not a single time, but on each & every slight issues. Then it’ll be never happened again in future.
Anyways, you are doing a great job. I am your one little admire out of thousand in crowd. And I have a high regard for you. I am also student of Multimedia. And I’ve respect for journalism. It’s my hearty wish to meet with you.
With warm regards,
Anjani Kumar.
9891416638
देर से इस पोस्ट को बरास्ते मोहल्ला पढ़ा। काफी महत्त्वपूर्ण मुद्दे उठाए गए हैं। परिवर्तन की कोई राह ‘सब चोर हैं’, भ्रष्टाचार से नहीं लड़ा जा सकता और सिनीसिज्म या दोषदर्षनवाद से आगे जाकर ही मिल सकती है। मीडिया और जनआंदोलनों की लगातार आलोचना की जरूरत है, मगर राज्यवादी, यथास्थितिवादी, और सरकारवादी आलोचनाओं का जवाब देना जरूरी है। कुछ लोग यह भरम पाले बैठे हैं कि मध्यवर्ग के भाग में प्रतिक्रियावादी भूमिका ही बदी है, क्योंकि आमूलचूलवादी बुद्धिजीवियों ने इसी तरह की कुंडली बनाई है, उन्हें मध्यवर्ग को राजनीतिक भूमिका में आता देख कोफ्त होती है। मध्यवर्ग राजनीति में काफी अगर-मगर, धुंध और धुंए के साथ आता है, इसलिए उसे कोसना सरल, मगर उससे स्वस्थ राजनीतिक संवाद कायम करना कठिन। यह लेख नाउम्मीदी की क्रांतिकारिता में फंसने की जगह आशा के धुंधले और मुश्किल रास्ते को चुनता है।
Bhai Ravish Kumarji,Badhayi ho, Aapki mehanat safal hui, Khoda ko 300 karod ki kimat vasool hui !!
अचानक लोगों की जानकारी बेहद बढ़ गयी है ?अरविन्द केजरीवाल खाते का है ? क्यूँ खातें हैं ?अन्ना तब क्यूँ नहीं बोले जब हमरे दरवाज़े पर चार दिन कुत्ता मारा पड़ा था ?कुमार विश्वास जुमले क्यूँ सुनाते हैं ?किस के सुनाते हैं ? ये कुछ लोग अब भी इसी मुगालते में हैं की दुनिया इन की चालो में उसी तरह आ जाएगी जैसे ४० साल से थी ....तो भाइयो बुरी सूचना है की आप की समय सीमा खत्म हो गयी है ....चाहे अरविंद हों , मनीष सिसोदिया हों ,कुमार विश्वास हों सब एक साथ हैं और आप से ज्यादा ताकत के साथ हैं ...कोई देश खोज लो भागने के लिए या समय रहते सुधर जाओ चोरो .
नमस्कार, मै आप से सहमत हूँ , लेकिन आपको क्या यह बात आश्चर्य-जनक नहीं लगती है की
जहाँ इतने सारे प्रबुद्ध और नौजवान भ्रस्ट्राचार के खिलाफ सड़क पर है, वैसा ही जोश
कार्यालयों में काम करनेवाले लोगों में क्यों नहीं दिखता है ? क्या हम इससे यह मतलब
निकालें की पद धारण के बाद वो इन्सान भी बदल जायेंगे या बदलना पड़ जायगा .
क्या यही कारण है की कई सारे अच्छे कानूनों द्वारा बनी हुई संस्थाएं भी
अच्छी तरह कम नहीं क़र पा रही है
bahut umda lekh hai, sari batein ujagar ho gayi hain.Ek insan kitane point of view se soch sakta hai ise padhkar pata chala. Very Good Ravishji.
लोहे ने लकड़ी से कहा "तू भ्रष्ट है/ तुझे कीड़े खा जायेंगे"! ...काल मुस्कुरा दिया क्यूंकि उस सत्य का पता था - लोहे में जंग लग गयी और लकड़ी का बुरादा बन गया!
फिर मानव को अधिक बुद्धि दी तो लकड़ी पर पॉलिश कर अथवा स्वयं केन बना; और लोहे पर रंग लगा, अथवा स्टेनलेस स्टील बनवा बढवा दी उनकी शक्ति और उम्र उसने,,,किन्तु सब कुछ सिखा मृत्यु पर विजय नहीं सिखाई मानव को उसने!
कवि ने कहा, "सब कुछ सीखा हमने / न सीखी होशियारी" ! अथवा,"हर क्षण (?) के हूँ होश में / होशियार नहीं हूँ"!
रविश जी, NDTV पर आपकी रिपोर्ट देखता हूँ. तंत्र-मंत्र, बन्दर-भालू का नाच, फूहड़ कोमेडी के अंश और सास-बहू के ड्रामों से वितृष्णा की हद तक उकता चुके लोगों के लिए यह चंहुओर उठती दुर्गन्ध के बीच अगरबत्ती की भीनी खुशबू सा अहसास देता है. साधुवाद स्वीकार करें.
एक शिकायत परिचर्चाओं को लेकर है. अखबार में तो "संपादक के नाम" स्तम्भ होता है परन्तु टी0 वी0 चैनलों पर दिखाए जाने वाले कार्यक्रमों के विषय में प्रतिक्रिया देने हेतु चैनलों ने कोई मार्ग खुला नहीं रखा है अतः आपके ब्लॉग पर ही इसे लिख रहा हूँ-
टी0 वी0 चैनलों पर चलने वाली परिचर्चाओं पर आम जनता की भागीदारी न के बराबर होती है. वे दर्शक मात्र बन कर रह जाते हैं. साथ ही आमंत्रित वक्ताओं को भी शायद ही पर्याप्त समय मिल पाता है. पूरी परिचर्चा के बीच एंकर ही सवाल कर रहा होता है और जवाब भी वह स्वयं ही दे रहा होता है. उपस्थित सभी लोगों में वह सबसे अधिक विद्वान, विषय का विशेषज्ञ और जनता के हित का ठेकेदार, नैतिकता के घोड़े पर सवार होता है. वह किसी एक का पक्ष लेकर दूसरे पर बरस रहा होता है. वह एक साथ ही पीड़ित, अभियोजक और जज की भूमिका अपनाकर बहस को हाइजैक कर लेता है, कोई तर्क की बात उठते ही ब्रेक ले लेता है और अंत में आधे-पौन घंटे बाद समय की कमी का चिरपुरातन रोना रोते हुए परिचर्चा को समाप्त कर देता है. हम जैसा दर्शक टी0 वी0 को फोड़कर अपना नुकसान करने की हैसियत नहीं रखता इसलिए एंकर के परिवार के स्त्रीवर्ग के साथ निकटतम सम्बन्ध स्थापित करने वाले मन्त्रों का उच्चारण करते हुए अपने बाल नोच लेता है.
अच्छा होता कि टी0 वी0 चैनल जनमत को मोड़ने या यूँ कहें तोड़ने - मरोड़ने की बजाए विशुद्ध खबर बिना कानफोडू पार्श्वसंगीत के दिखाते और देश की जनता के विवेक पर भरोसा करते. परन्तु ऐसा प्रतीत होता है कि जिस प्रकार देश का राजनीतिज्ञ वर्ग जनता को "चूतिया" समझने का दुराग्रह पाले हुए है उसी दुराग्रह से मीडिया भी ग्रस्त हो चुका है.
नरेन्द्र मोदी की तारीफ कर देने भर से व्यक्ति "अछूत" हो जाता है, भगवान का नाम ले देने भर से वह सांप्रदायिक हो जाता है परन्तु इत्तहाद-इ-मुसलमीन के साथ गठजोड़ कर चुनाव लड़ने पर भी वह खांटी "सेकुलर" बना रहता है. वह अपने नास्तिक और प्रगतिशील होने का सबूत भगवान को गरियाकर देता है परन्तु किसी अल्लाह या पैगम्बर के लिए वह कभी ऐसा "खतरा" नहीं उठाता :)
बहुत कुछ था कहने को. अभी जो मन में आया लिख दिया.
अब अन्ना के अनशन पर-
राजनीतिज्ञ जब यह कहते हैं कि अन्ना किसका प्रतिनिधित्व कर रहे हैं, उन्हें किसने चुना, उन्होंने कभी लोकतान्त्रिक प्रक्रिया (चुनाव) का मुंह नहीं देखा तो उनसे कुछ सवाल पूछने जरूरी हैं-
१. भारत में क्या वास्तव में लोकतंत्र है ? १५,२० या २५ प्रतिशत वोट पाने वाला प्रत्याशी चुनाव जीतकर विधायक, सांसद बन जाता है. शेष ८५,८० या ७५ प्रतिशत जनता उसकी समर्थक नहीं है फिर वह उनका प्रतिनिधि कैसे?
२.वर्तमान समय में कोई विधायक, सांसद क्या दावा कर सकता है कि वह अपने क्षेत्र के बहुमत (५१% से अधिक ) का प्रतिनिधि है ?
३. जनभावनाओं के विपरीत कार्य करने वाली सरकार क्या जनतांत्रिक सरकार हो सकती है ?
वह कहते हैं कि आप चुनाव लड़कर आईये.
एक समिति के पांच सदस्य जनता के बीच से आ गए तो यह थुक्का-फजीहत हो रही है. फिर जनता के उम्मीदवारों को चुनाव लड़ने के लिए कितने पापड़ बेलने पड़ेंगे यह अनुमान कठिन नहीं.
वास्तव में अन्ना ने गाड़ी को घोड़े के आगे नाध दिया. पहले तो चुनाव सुधारों द्वारा इन "स्वयंभू" नेताओं को सिस्टम से बाहर करने की आवश्यकता थी. कदाचित जन लोकपाल बिल की जरूरत ही न रहती.
@nishachar: sadhu..kahne ka andaz bha gaya mere dost.
anna hazare ya fir koi aur koi kitna bhi anshan kar le kuch nhi hone wala kyunki yahan koi bhrast nhi hai balki poora dehs bhrast hai jab tak koi vyakti aam hota hai tab tak to bhrastachar door krne ki baat krta hai or jaise hi use koi ucch pad prapt ho jaten hai wo khud bhrast ho jata hai yadi wo na banna chahe to halat bana dete hai fir kuch bhi ho jaye bhrastachar khatam nhi hoga uske liye kisi anna matr ke anshan par baithne se kuch nhi hoga har vyakti me ek anna hota hai zrurat hai to use phchanne ki|
ravish sir, pura bharat janta hai ki jantar- mantar me kuch din pehle hue andolan me aaye logo me kitne khud currpted hai. . . . .
anna ki bhoomika chaahe jo ho lekin ek baat to taye hai ki desh ka har aam aur khaas naagrik bhrashtaachar se aahat hai, aur jantar mantar ki bheed iska saboot hai. lekin sawaal ye hai ki kya sirf neta hin bhrasht hain? kya bhrashtaachar nishedh sirf lokpaal vidhyek se ho jaayega? kya bina janta kee sahayata ke koi neta bhrasht aachran kar sakta? jitne bhi sarkaari ya gair sarkaari mahkame hain sabhi jagah bhrashaatachaar vyaapt hai. hum janta hin bhrasht bhi hain aur ise badhawa bhi dete hain. lekin jantar mantar par ekjut hokar aisa laga jaise ki sabhi bhartiye suaachran waale hain aur satta aur neta bas yahi bhrasht hain. fir aison ko gaddi par bithata kaun hai? bahut saare prashn aur prashn par prashn...
achha laga aapke blog tak aana aur aapka aalekh padhna. shubhkaamnaayen.
Super Excellent!! Keep it friend. It means there is hope
अन्ना हजारे की यह यात्रा राजनीति से प्रेरित है भ्रष्टाचार के विरुद्ध संयुक्त राष्ट्र कन्वेंशन में भारत एक हस्ताक्षरकर्ता देश है संयुक्त राष्ट् का यह कन्वेंशन 2003 में आया था सरकार पिछले 7 साल से इस जानकारी को छिपा रही है
दोनों पार्टियों कांग्रेस और भाजपा को भ्रष्टाचार के बारे में नहीं कहना चाहिए . क्योंकि दोनों केंद्र में इस अवधि के दौरान शासन किया है अगर दोनों पार्टियों को भ्रष्टाचार खत्म करने के इच्छुक थे तो लोकपाल विधेयक 2003 से अब तक लागू क्यों नहीं किया गया दोनों पार्टी और अन्ना बिना किसी कारण के मायावती सरकार को दोष दे रहे हैं. सही तथ्य यह है कि भाजपा और कांग्रेस दुनिया में सबसे भ्रष्ट पार्टियों है
विस्तार के लिए विकिपीडिया पर देखें
http://en.wikipedia.org/wiki/United_Nations_Convention_against_Corruption
http://www.unodc.org/unodc/en/treaties/CAC/signatories.html
http://en.wikipedia.org/wiki/Shanti_Bhushan
he did well... who the hell r these political parties and political leader ... ha tell to them we have wake now they can;t do anything .. and look their self .... this movement was 1st step against corruption ... and this fight will be continue until corruption free india... thxx to ravish sir.... u write truth thing ........
ravishji,
Mein ek child specialist doctor hoon. Mein bhi Jantar Mantar gaya tha. Mujhe nahin pata mein kaunsi class mein ata hoon. Par mere khayal mein bhookh harek adami ko ek jaisi hi lagati hai. Jo bhi bhrashtachar se prabhavit hai vo sab ek hi class mein ate hain. Apane bari hi khubi se saari baat ka saar likh diya hai.Ravish ki report religiousely dekhata hoon. Aj pata chala ki ap to likhte bhi khoob hain. Sadhuvad !!!
JP Dadhich
speechless article , congratulation ravish
क्या संविधान से अपने लिए जीने का हक मांगने के लिए चुन कर आना अनिवार्य होगा?
जो लोग सिर्फ सरकारी तंत्र (नेता और अफसर) के भ्रष्टाचार की बात करते हैं वे चाहते हैं सिर्फ प्राइवेट लोग(कार्पोरेट) मस्त होकर खाते रहें. भ्रष्ट सरकारी लोग उनसे हिस्सा न मांगें. भकोसने का हक सिर्फ उन्ही को है.यह तो उनका जन्म सिद्ध अधिकार है-बोले तो जीने का हक! अभी क़ानून बना कर सरकारी की ऐसी तैसी कर देते हैं.
क्या सभी संवैधानिक और प्रशासनिक प्रक्रियाएं चुने हुए लोगों के बीच ही पूरी होती हैं?
सिविल सोसायटी प्रक्रिया में शामिल तो है - कहाँ रूकावट है भाई?
क्या चुनाव के बाद मतदाता-जनता का वजूद खत्म हो जाता है?
नहीं.. तभी तो सिविल सोसायटी को जनता ने चुना है.
तब क्या चुनाव जीतने के बाद कोई राजनीतिक दल सिर्फ मेनिफेस्टो में दर्ज वादों पर ही काम करता है?
सिविल सोसायटी भी अपने मेनिफेस्टो से डगमगा जाय तो कोई क्या उखाड़ लेगा?
क्या अब किसी लड़ाई में होने के लिए मध्यमवर्ग से नहीं होना पहली शर्त होगी?
लड़ाई तो जनता भी लडती है-शोषण,दमन,उत्पीडन के खिलाफ,लेकिन जब मध्यम वर्ग(उपभोक्ता) दिखाई देता है - तभी मीडिया के क्रांतिकारी कैमरे चमकते हैं.
क्या धरना-प्रदर्शन करना अब से ब्लैक मेलिंग हो जाएगा?
इरोम शर्मीला इतने दिन से ब्लैकमेल कर रही है.किस पर असर हुआ?
क्या अब लोगों को अपनी मांगों की अर्जी राजनीतिक दलों के दफ्तर में देनी होगी?
वैसे सिविल सोसायटी के एनजीओ भी कौन बुरे हैं.उनको भी मौका मिल रहा है.
क्या लाखों लोगों का अपनी मांगों को लेकर प्रदर्शन करना हिस्टीरिया है?
अन्ना समर्थक ही ईमानदार बाकी सब भ्रष्टाचारी की रट लगाए उन्मादी लोगों के लिए कृपया सही शब्द सुझाएँ.
क्या अब हर आंदोलन अराजक और दक्षिणपंथी ही कहा जाएगा?
ऐसा कौन कहता है? आन्दोलन काफी सुनियोजित था 'यूथ फ़ार् इक्वेलिटी' के जाबान्ज प्रोफ़ेश्नल्स का क्या कहना. भारत पाकिस्तान के मैच जैसा रोमांच लग रहा था.
aaj ka bhaarat do bhaagon me banta hua hai - india aur bhaarat.
indians anna hazare ke kaam ki tareef toh karte hain par usme sahyog nahi kar sakte. kuch ki iksha nahi hoti aur zyadatar apni "earn more than bread & butter" wali pravritti ke kaaran kar nahi paate.
bharatiya anna hazare ke saath khade hona chahte hain. par unme se aadhe apni vyaktigat laachaari ke kaaran samay nahi nikaal paate aur jo nikaal lete hain wohi anna ke saath hote hain.
waise anna ki uplabdhi rajnitik partiyon ke liye "akalpaniya" hai. ek taraf jahan lagbhag har rajnitik partiyan sirf news me rehne ke liye kuch bhi bolne ki koshish karti hain, wohi anna bina bole hi saari partiyon se zyada news me aa gaye. meri toh salaah hai ki saari rajnitik partiyon ko ek "research wing" banani chahiye ki kaise ek gandhi-topi wale vyakti ne itni publicity paa li.
good one thx
sir.. mei apka ek kafi badha fan hu. Mei mass comm n media ke vishey mei shiksa ley raha hu .. halaki abi meri siruat hone wali hai. paraunti ek ajib baat jo ki mere zehen mei aata hai ki RABISH KI REPORT SHOW jo ki dehs bar mei kafi prasnsha bator raha tha.. !!
ab uski koi nayi report kyu ni aa rahi.. ?
Media field se hath ke sochu aur aam logo ki sunu toh unke anusar apki teekhi vani aur sarkar ki negative chizo ko dhikane ke naazariye neh shyad ap ke upar ek aisa dabav bana diya jisse aap apni reports janta ko t.v madhyam se pesh nahi kar pa rahey.?
kya media power jo ki ek aayina hai janta ke lie usse bi kahi na kahi sarkar ke agey apni bat rakhne se dhikane se jhukna padh sakta hai.?
sir muje pata hai ki kahi anek fans ki tarah mei bi unmei se ek hu parantu mere lie yeh baat jana behad avashyak hai. !!
jab mei apki kahi bat yad karta hu ki "shaukey deedar hai toh nazar paida kar"
Mera confidence level tut jata hai jab mei iss vishey mei sochta hu ki kya yeh haqiqat hai ki kahi na kahi sarkari takto ya kul milake apko bi t.v madhyam se apni bat ni rakhi dene ja rahi ya kuch aur wajah se.
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