खोमचाप्लेक्स- सिनेमा का नया अड्डा



पूरे देश में खोमचाप्लेक्स की मौजूदगी पर किसी की निगाह नहीं गई। खोमचाप्लेक्स मल्टीप्लेक्स के बरक्स गली-गली में पसर गया है। पान,बीड़ी,गुटका,चिप्स,बिसलरी,माचिस,बिस्कुट जैसी तमाम एफएमसीजी उत्पादों को बेचने वाले खोमचे सिनेमा हॉल का काम कर रहे हैं। बीच में टीवी रखा होता है जिसमें केबल या डीवीडी के ज़रिये या तो कोई फिल्म चल रही होती है। जब फिल्म नहीं चल रही होती है तो कोई म्यूज़िक वीडियो या फिर रामायण महाभारत का प्रसारण चल रहा होता है। पान खाने आए या बेकार घूम रहे लोग पांच-दस मिनट के लिए खड़े हो जाते हैं और संवाद में ऐसे घुल-मिल जाते हैं कि होश ही न रहे कि घर भी जाना है। ये लोग मुफ्त का सिनेमा देखने का कोई मौका नहीं छोड़ते। पता नहीं अभी तक किसी खोमचेवाले को ये आइडिया क्यों नहीं आया कि वो एक या दो रुपये की उगाही भी कर ले। मध्यप्रदेश के ओरछा में जिस भी दुकान पर गया वहां टीवी लगा देखा। आठ-दस लोगों से गुमटी घिरी रहती थी। लोग तल्लीन होकर सिनेमा देख रहे थे। पूरी फिल्म देखने का सब्र भले ही इक्का दुक्का में हो लेकिन दर्शकों का एक तबका इस तरह से भी सिनेमा देख रहा है।

मोहल्ला,जनतंत्र और यात्रा द्वारा प्रायोजित बहसतलब में अनुराग कश्यप ने कहा था कि फिल्म मेकिंग की एक बड़ी प्रोब्लम है, इंटरवल। ताकि इंटरवल के दौरान एफएमसीजी उत्पादों की बिक्री हो सके। दर्शक टिकट के साथ पॉपकार्न और कोक पर भी खर्च करे। अब तो कई हॉल में चिकन नगेट्स भी मिलने लगे हैं। टिकट चेक करने वाला सीट पर ही मेन्यू लेकर आ जाता है और डिलिवरी कर देता है। खोमचाप्लेक्स में ऐसा नहीं है। सामान के बिकने के लिए इंटरवल की ज़रूरत ही नही हैं। फिल्म देखते हुए सामान खरीद सकते हैं या फिर सामान खरीदते हुए फिल्म देख सकते हैं। खोमचाप्लेक्स ज्यादा लचीला है। आप कभी भी किसी भी प्वाइंट से सिनेमा देख सकते हैं और बिना बताये एक्ज़िट मार सकते हैं।

खोमचाप्लेक्स ज्यादातर बी और सी ग्रेड शहरों में लोकप्रिय हो रहे हैं। चौराहों की रौनक अब इन्हीं से गुलज़ार होती है। कुछ खोमचे में व्यक्तिगत दर्शन के लिए टीवी या डीवीडी का इंतज़ाम होता है जबकि ज्यादातर खोमचे सार्वजनिक मनोरंजन के हिसाब से बने होते हैं। इनमें टीवी इस तरह से रखा होता है कि ज्यादा से ज्यादा लोग देख सकें। लगे कि दुकान के सामने भीड़ है। लोगों को सुनाई दे इसके लिए बड़े-बड़े स्पीकर भी लगे होते हैं। सबसे अधिक भीड़ गीत या मार-पीट या फिर क्लामेक्स के दृश्यों के वक्त होती है। समाजशास्त्री अध्ययन भी कर सकते हैं कि किस तरह के सीन में घुमंतू दर्शक ज्यादा देर तक अटकता है।



ग़ाज़ियाबाद के वैशाली मोहल्ले में भी कई खोमचे या गुमटी में लैपटॉप की साइज़ का डीवीटी प्लेयर रखा देखा। जिसमें केबल टीवी से कनेक्शन भी जुड़ जाता है। लाजपतराय मार्केट से चार से पांच हज़ार रुपये के चाइनीज़ लैपटॉप ने कमाल कर रखा है। इसके ज़रिये दुकानदार सामान बेचते हुए सिनेमा का लुत्फ उठा रहा है। पांच हज़ार रुपये में लैपटॉप की शक्ल का टीवी वो भी डीवीडी युक्त। जो लोग सिनेमा के बाज़ार को खोज रहे हैं उन्हें इन दुकानों के ज़रिये सिनेमा के प्रसारण का सामाजिक अध्ययन करना चाहिए। कम से कम सिनेमा की भूख का लाभ उठा कर कोई चाइनीज़ कंपनी डीवीडी प्लेयर का नया वेराइटी उतारकर पैसा तो बना ही रही है। सिनेमा या सीरीयल की भूख मिटाने के लिए बाज़ार इंतज़ार नहीं करता। वो सामान ले आता है।

17 comments:

दीपक बाबा said...

रवीश जी, आप यहाँ हरियाणा - पंजाब और राजस्थान हाई-वे पर जाईये......... रात के समय बहुत आनंददायक होता हाई.

टीवी पर लोक गीत चल रहे होते हैं......
खाट पर ड्राईवर और उनके कुलिनर बैठे रहते हैं........
दारू के संग-संग ..... लोक गीतों की ठमक...

सही मायने में किसी भी बड़े मल्टीप्लेक्स से ज्यादा मज़ा वहाँ आ रहा होता है

नीरज said...

रविश जी, अपने इन दुकानों को सही नाम दिया है 'खोम्चाप्लेक्स' | शायद यही खोम्चाप्लेक्स अभी भी लोकगीतों को जिंदा रखे हुए हैं |

Banbir Singh 09415718047 said...

yahi to bharat hai.asli bharat ....janha rahne waale log bhale hi shahar ki chakachaudh bhari jindgi se mahroom hote hai lekin sharee logo se sacche jaroor hote hai ya kanhe dimaag se adhik dil se kaam lete hai ....

Parul kanani said...

intresting :)

Anand Rathore said...

Ravish ji bahut intresting hai..laajpat rai market mein chines maal ka pata bata den to abki baar ek gaon lete jaunga...de dunga gumti wale ko..khush ho jayega... ek khomchapalex hum bhi khulwa dete hain... vahin adhyan bhi kar lunga..kaun kis tarah ke scene par public atak jaati hai... shukriya...

सम्वेदना के स्वर said...

रवीश जी!
जब ए ग्रेड के शहरी "सभ्य वर्ग" नें इन्हें बी और सी ग्रेड शहरों में बाटं कर, इस लम्पट दौड में लगा ही दिया है तो अपने अपने तरीके से "यह बेचारे" भी ए क्लास के मज़े ले रहें हैं! जानते हैं उन ए क्लास मल्टीपलेक्स में घुसने की औकात इस जन्म में तो आ नही पायेगी !!

S.VIKRAM said...

intresting post sir, truly Ravish brand....bas shaharon ko B, C grade kahana uchit nahi laga.....kshama chahunga...

Nikhil said...

खोमचाप्लेक्स पर सबकी निगाहें गई हैं..जाती हैं.....बस, लिखा आपने है....
मेरा अनुभव ये कहता है कि क्रिकेट मैचों के दिन यहां सबसे ज़्यादा भीड़ जुटती है...कई बार मैं खुद भी कुछ देर खड़े होकर पिक्चर या मैच देख चुका हूं...यहां सुनाई कुछ नहीं देता मगर दर्शकों का रोमांच उनकी आंखों में दिखता है......मेरठ से आगे किसी हाईवे पर शूट के बाद एक लाइन होटल में खाना खाने रुका तो देखा एक खाट पर सब मरद मिलकर कोई भोजपुरी फिल्म देख रहे हैं....आंखें बाहर आने को थीं, इतने सीरियस थे...अपनी कैंटीन में भी कई बार देखा है कैंटीन के स्टाफ को किसी तरह थोड़ा-थोड़ा समय बचाकर टीवी पर नज़र मारते रहते हैं चाहे कुछ भी चल रहा हो.....
तो, खोमचाप्लेक्स कई प्रकार के पाए जाते हैं..और दर्शक भी....

Arvind Mishra said...

करंट जानकारी -शुक्रिया !

Unknown said...

खोमचा काम्प्लेक्स से ही सही..चलिए आपने मध्यप्रदेश की कही से तो शुरुआत की..

KK Yadav said...

दिलचस्प पोस्ट....अच्छा लगा.

jay said...
This comment has been removed by the author.
jay said...

mai aap ki har report dekhta hoon lekin ek baat soch kar dukhi ho jata hoon ki aap delhi aur bihar ko chhodkar bharat ke aur shaharon ke barein mein report kyon nahi dikhate aap apani pratibha ko sirf do rajyon ke liye kyon istemal karate hai please expand your area of reporting and create awareness in people.

Vinod Kumar Modi said...

रवीश जी, गांवों में सिनेमा के बाजार पर आपका ये पोस्ट काफी अच्छा लगा... आनंद लेने के तरीके चाहे जैसे हों... अहम बात है कि भदेस लोग आनंद लेने से चूकते नहीं है... आखिरकार यही तो है गांवों की असली कहानी...

पंकज मिश्रा said...

बहुत खूब रवीश जी। यह हाल किसी एक क्षेत्र का नहीं है बल्कि मुझे तो लगता है पूरे देश का ही है। पूरे देश का नहीं है तो कम से कम उत्तर भारत का तो है कि जहां मैं रहा हूं। एक बात और है वही कोई घटिया की फिल्म आपको घर बैठे देखने पर वह मजा नहीं देगी जो ५ मिनट में चार की चुस्की के साथ वहां दे जाएगी। मैं भी करीब १० साल पहले क्रिकेट देखने ऐसे ही किसी दुकान को खोजा करता था। बहुत खूब रिपोर्ट है बधाई स्वीकार करें।

Unknown said...

बहुते सही बात कह रहे हैं आप। कौनो अब तक धयाने नहीं दिया।

Ne pazarold said...

I would like to add that these "khomchaa" plexes are also a very good entertainment points for those fun seekers or tired / sad local soules who are poor or middle class or any person of any class who don't want to spend time and money on home electronic goods or those who are in a new place for a temporary period of time.