बचपन से पहचान का यह सवाल परेशान करता रहा है। जब पटना शहर से गांव जाता था तो लोग ताने देते थे। बबुआ शहरी हो गया है। चूड़ा दही कम ब्रेड बटर खाता है। शहर और गांव के एक फर्क को जीता रहा। दोनों ही अस्थायी ज़मीन की तरह मालूम पड़ते थे। पटना आता था तो लगता था कि गांव जाना है। गांव जाता था तो लगता था कि छुट्टियां खत्म होते ही पटना जाना है। इस बीच बिहार की अराजकता ने पटरी चेंज कर दी। दिल्ली आ गया। अब तीन जगहों के बीच अस्थायी सफर शुरू हुआ। गांव वाले फिर से कहने लगे कि पटना से ही लौट जाते हो। अपनी ज़मीन पर आया करो। दिल्ली आता था तो बस में डीटीसी वाला कह देता था अरे बिहारी। मुझे अच्छा लगता था। बिहारी। पटना में स्कूल की किताब ने यही पढ़ाया कि गुजराती होते हैं,मराठी होते थे और मद्रासी होते हैं। उसमें बिहारी होते हैं नहीं लिखा था। लगा कि अरे हम भी गुजराती मराठी की तरह बिहारी हैं। अनेकता में एकता के एक फूल हम भी हैं। बाद में पता चला कि बिहारी कहने के पीछे सस्ते श्रम का अपमान छुपा है।
इतिहास के पन्नों ने समझाना शुरू किया जो मैं भुगत रहा हूं उससे कहीं ज्यादा पुरखे भुगत कर जा चुके हैं। गिरमिटिया बनकर। वेस्ट इंडीज़,मारिशस और आस्ट्रेलिया तक। बिहार और उत्तर प्रदेश के अभागे इलाके अपने गानों में हम जैसों के लिए तरसते रहे और हम उन गानों की याद में दिल्ली के कमरों में सिसकते रहे। छठ हो या दिवाली। ऐसी हूक उठती थी कि लगता था कि दीवार से सर दे मारे। कहां रोये और कब तक रोये। छह फुट के थुलथुल शरीर पर टपकते आंसू अजीब लगते थे। दोस्तों के फिल्म जाने का इंतज़ार करता था ताकि दरवाज़ा बंद कर रो लूं। जब गांव-पटना था तो लोगों को गाली देता था। अब दिल्ली आ गया तो उनकी याद आ रही है। पटना के बांसघाट से लाउडस्पीकर से आती आवाज़। कर्ज़ फिल्म का गाना। तुमने कभी किसी को दिल दिया है। मैंने भी दिया है। फिर हम सबका रास्ते को बुहारना और घाट से लौटती व्रतियों से चादर बिछाकर ठेकुआ प्रसाद मांगना। सार्वजनिक हिस्सेदारियों से शहर से इतना प्यार हो जाएगा कि आज तक वो किसी पहली लड़की की तरह याद आता रहेगा। सब छूट गया। क्या करें।
दिल्ली के गोविन्दपुरी की गलियां हर वक्त अपने को खोजती थी। दुकानदार से पूछ लेता था। कहां के हो। गोरखपुर। अरे वहीं पास के ज़िले में तो ननिहाल है। कोई रोटी वाला कहता था गाज़ीपुर है,तो कहता था अरे वहीं पास में बड़ी बहन की शादी हुई है। कोई बस्ती का बताता तो बहनों का ससुराल बताकर रिश्ता जो़ड़ लेता था। गोरखपुर वाला तो भाई कहने लगा और दाल में एक पीस मटन का रखने लगा। सीवान का दर्ज़ी फ्री में बटन लगा देता था क्योंकि वहां मेरी मां का ननिहाल था। इतने इलाके, इतने गांवों से रिश्तेदारी फिर भी गोविन्दपुरी की एक गली में अकेलापन। एक दिन चार बजे नार्थ ईस्ट ट्रेन पकड़ने जा रहा था। कोई ऑटो वाला नहीं जा रहा था। बस पूछ लिया कहां के हो जी। बोला मोतिहारी। बस बैठ गया और कह दिया कि हम भी तो वहीं के हैं। चलो स्टेशन। वो भी चल दिया। पैसा ही नहीं लिया। ट्रेन में सवार होते होते लगा कि फिर कोई रिश्तेदार छूट गया है। एक शहर के बदलने से हमारे कितने रिश्ते बदल गए।
अब इस तरह से परिचय पूछकर नाता जो़ड़ने का सिलसिला टूट गया है। अब नहीं पूछता कि तुम कहां के हो। अब मेरे जैसे बहुत से लोग इस शहर में हैं। पत्रकार बनकर प्रवासी मुद्दे पर बहस करने लगा। अचानक एक दिन ध्यान आया। मैं व्हाइट कॉलर प्रवासी हूं। कोई मुझसे परेशान नहीं है। जो मजदूर है उसी को प्रवासी बताकर धकियाया जा रहा है। प्रवासी का भी क्लास होता है। किसी को एलिट प्रवासी से प्रॉब्लम नहीं है। सबको गैर कुलीन प्रवासी से समस्या है। ख़ैर धीरे धीरे अहसास कमज़ोर होता चला गया। लगा कि मैं तो कास्मोपोलिटन हो रहा हूं। फिर भी शहर और गांव की याद तो तब भी आती रही। आज भी आती है।
जब भी बंबई से प्रवासियों की खबर आती है,दिल धड़क जाता है। ये राज ठाकरे कहता है कि बाहर से आए लोगों के कारण मलेरिया फैला है। शीला दीक्षित कहती है कि आबादी का बोझ दिल्ली नहीं सह पाएगी। मैंने प्रवासी होने की प्रक्रिया पर कोई किताब नहीं पढ़ी है। अपनी सहजबुद्धि से सोच रहा हूं।
प्रवासी होना एक आर्थिक प्रक्रिया है। आर्थिक ज़रूरत है। वर्ना दिल्ली और आस पास के इलाकों में रियल इस्टेट से लेकर कंपनियों को सस्ता श्रम नहीं मिलता। वर्ना पंजाब के लोग स्टेशन पर मुर्गा मोबाइल लेकर बिहार से आने वाले मज़दूरों का इंतज़ार न करते। हम प्रवासी छात्रों के कारण दिल्ली के बेरसराय,कटवारिया सराय,मुनिरका से लेकर जीया सराय तक धनी हो गए। उनकी झोंपड़ी महलों में बदल गई। दिल्ली विश्वविद्यालय के आस पास का इलाका चमक गया। दिल्ली में अकूत धन और सस्ते श्रम का इंतज़ाम हो गया। रोज़गार और बाज़ार का सृजन हुआ। सरकारी सिस्टम पर बोझ भी बढ़ा। लेकिन एक मंजिल के मकान पर चार मंज़िल मकान बनाकर क्या बोझ नहीं बढ़ाया गया। क्या सिर्फ प्रवासियों ने बोझ डाला?यहां के तथाकथित स्थाई लोगों ने नहीं।
उदारीकरण एक बेईमान आर्थिक अवधारणा है। यह बाजार के विकेंद्रीकरण और उत्पादन के केंद्रीकरण पर टिका है। तभी चंद शहरों के आस पास ही कंपनियां लगाई गईं। उन जगहों में भी कंपनियां लगाने से पहले रिश्वत दी गई। लेकिन बिहार उत्तर प्रदेश और उड़ीसा को छोड़ दिया गया। कहा गया कि कानून व्यवस्था नहीं है। आज भी प्लंबर और फिटिंग के मामले में उड़ीया मज़दूर सूरत से लेकर पुणे तक में प्रसिद्ध हैं। उनके कौशल का जवाब नहीं। दिल्ली को भी बनाने में बिहार,यूपी,उत्तराखंड और उड़ीसा के मज़दूरों से पहले पाकिस्तान से आए शरणार्थी पंजाबियों के सस्ते श्रम और अकूत लगन ने भूमिका अदा की है। उन्होंने दिल्ली को एक नई आर्थिक और सांस्कृतिक पहचान दी। अपने ग़मों को छुपाकर रखा। उनकी सिसकियों की बुनियाद पर जब पसीने गिरे तो पंजाबीबाग से लेकर जंगपुरा तक के मोहल्ले आबाद हो गए। अब हिन्दी ह्रदय प्रदेशों के मज़दूर इसे आबाद कर रहे हैं। दिल्ली के बदरपुर,मीठापुर,आलीगांव,करावलनगर,भजनपुरा और संगम विहार। यहां भी सस्ते श्रम से धीरे धीरे पूंजी बन रही है। सारे प्रोडक्ट ने अपनी दुकान लगा ली है। लेकिन इन गलियों की सड़न देखकर जी आहें भरता है। रोता है मन। इनको मिला क्या। गैरकानूनी दर्जा। इनके वोट से न जाने कितने नेताओं की दुकानें भी चलीं। अर्थव्यवस्था के साथ साथ राजनीति भी प्रवासियों से फायदा उठाती है। मनमोहन सिंह खुद प्रवासी प्रधानमंत्री हैं। पंजाब के होकर असम से राज्य सभा के सांसद हैं।
तो क्या प्रवासियों को वापस भेजा सकता है? प्रवासी का मतलब मज़दूर से क्यों हैं। ग्लोबल प्रवासी भी तो हैं। जो दिल्ली से जाकर बंगलौर में नौकरी करते हैं। वहां से अमेरिका जाते हैं। प्रवास सिर्फ श्रम का नहीं है। टेक्नॉलजी का भी तो है। एक जगह की कार दूसरी जगह बिक रही है। बाज़ारवाद ही प्रवास पर टिका है। वो स्थायी नहीं है। उसकी कोई स्थायी ज़मीन नहीं है। उत्पाद बिकने के लिए प्रवास करते हैं। चीन का माल भारत आता है। दुनिया की अर्थव्यवस्था प्रवासी उत्पाद और प्रवासी उपभोक्ता के दम पर चल रही है। एयरलाइन्स का कारोबार काम से प्रवास पर निकले लोगों से चल रहा है।
किस किस को भगायेंगे आप। जब मज़दूर भगाये जायेंगे तो टेक्नॉलजी भी लौटा दी जाए। सब अपनी अपनी भाषा में टेक्नॉलजी का विकास कर लें और जी लें। जब टेक्नॉलजी का हस्तातंरण हो सकता है तो श्रम का क्यों नहीं। उसे रोकने का नैतिक आधार क्या है? इस दौर में स्थानीय रोज़गार की अवधारणा खत्म हो चुकी है। क्या अमेरिका को सिलिकॉन वैली से भारतीय प्रवासियों को लौटा नहीं देना चाहिए? अगर सरकार आर्थिक उत्पादन का विकेंद्रीकरण नहीं कर सकती,राज्यों में संस्थाओं का विकास नहीं कर सकती तो प्रवासी होने के अलावा चारा क्या है। आखिर क्यों आईआईएम अहमदाबाद और आईआईटी के लोग बाहर जाते हैं.क्या ये प्रवासी होना नहीं है। ये तो बेज़रूरत प्रवासी होना है। इन्हें अपनी जड़ों से बांध कर रखने के लिए क्या किया जा रहा है। आईआईएम अहमदाबाद का मैनेजर किसी अमेरिकी कंपनी के लिए सस्ता प्रवासी श्रम है। प्रवासी होना एक आर्थिक स्वाभिमान है। गर्व से कहना चाहिए कि हम श्रम,बाज़ार और उत्पादन का सृजन कर रहे हैं। इतना ही नहीं प्रवासी होकर हम उत्पाद की प्रक्रिया में अपने श्रम का मोलभाव करने का हक रखते हैं। जहां भी ज्यादा दाम मिलेगा,जहां भी काम मिलेगा, जायेंगे।
हम सस्ते और लाचार प्रवासियों की वजह से ग्लोबल अर्थव्यवस्था में जान आई है। कौन खरीदता नोएडा और ग्रेटर नोएडा के मकानो को। उड़ीसा और झारखंड के लोग उजड़ें हैं तभी तो कंपनियों को ज़मीन मिली है। सस्ता श्रम मिला है। ऐसा नहीं हो सकता कि अर्थव्यवस्था प्रवासी से लाभ ले और राजनीति दुत्कार दे। नहीं चलेगा। प्रवासियों को अर्थव्यवस्था का हिस्सा मानकर उन्हें स्वीकार करना होगा। आज कल तो धंधे की प्रतिस्पर्धा में लोगों ने पीछे छूट चुके राज्य को पहचानना शुरू कर दिया है। डीटीसी के ड्राइवर ने जब बिहारी कहा था तब अच्छा लगा था। अब कोई बिहारी कहता है तो राजनीतिक लगता है। बुरा लगता है। इस देश में सब प्रवासी हैं। जो आज नहीं हैं वो कल हो जायेंगे। वो नहीं होंगे तो उनके बच्चे हो जाएंगे। इसलिए अब प्रवासी होने को मौलिक अधिकार में जोड़ा जाना चाहिए।
संविधान में कानून बदल कर प्रवासी होने के अधिकार को जो़ड़ा जाना चाहिए। ताकि किसी को कहने में शर्म न आए और जो कहे कि देखो वो प्रवासी है,मलेरिया लेकर आया है तो उसे किसी धारा के तहत जेल में ठूंस दिया जाए। अगर राज ठाकरे कहीं से आकर मुंबई और दिल्ली में अपनी ज़मीन बना सकते हैं,दावा कर सकते हैं तो फिर सबको हक है। दक्षिण के राज्यों की हालत तो अच्छी है। फिर वहां के लोग मुंबई,दिल्ली क्यों आते हैं? भारत के सभी राज्यों के लोग यहां से वहां जा रहे हैं।
इसीलिए खुद को प्रवासी कहने में शर्म नहीं आनी चाहिए। इसमें कुछ गलत नहीं है। अगर आप एक राज्य के भीतर एक ज़िले से दूसरे ज़िले में जाते हैं तो भी प्रवासी हैं। अगर प्रवासियों को वापस भेजना है तो ग्लोबलाइजेशन को रोक दो। राज ठाकरे से पूछों कि वो ऐसा कर सकते हैं? अमर्त्य सेन या शीला दीक्षित से पूछ लो। शहर बोझ नहीं सह रहा तो सबको मिलकर सबसे बातकर हल निकालना होगा। किसी एक को भगाकर नहीं। हर शहर संकट में हैं। मुंबई की गत पर बात हो रही है सतारा और पुणे की क्यों नहीं हो रही है। नागपुर भी तो चरमरा गया है। बंगलौर में क्या कमी थी? कर्नाटक से लोग दिल्ली में काम करने आए और अब दिल्ली के लोग वहां नौकरी कर रहे हैं। क्या दिल्ली और मुंबई के लोग दूसरे राज्यों में जाकर काम नहीं कर रहे। प्रवासी होना एक आर्थिक सामाजिक प्रक्रिया है। इसे कोई नहीं रोक सकता।
69 comments:
svpgनमस्कार!
बहुत अच्छा और मार्मिक विषय .
बहुत बहुत धन्यवाद.
बाक़ी बाद में, एक बार फिर पढ़ने के बाद.
नमस्कार
मौलिक अधिकार वाली बात अच्छी लगी....क्या ऐसा सचमुच हो सकता है.....और क्या नीतीश कुमार ये लेख पढ़कर कुछ सोच पाएंगे कि उनकी राजनीतिक प्रतिबद्धता सिर्फ आरा-बक्सर तक नहीं है....जो बाहर आए हैं, उनके लिए वहीं बेहतर इंतज़ाम होता तो इधर काहे आते....मकानमालिक की लट्ठमार बोली सुनने के लिए.....
कोई बिहारी कहता है तो मुझे खुशी नहीं मिलती...आप भी झूठ बोल रहे हैं....कभी किसी ने प्यार से नहीं कहा....
25 साल पुराना किस्सा एक सीनियर ने सुनाया कि जिससे प्यार करते थे, उसके घर 4 बजे पहुंचना था.....कहीं से लड़की की मां को भनक लग गई और जब लड़के(सीनियर) ने दरवाज़ा खोला तो लड़की की मां दरवाज़े पर मिली....लड़का काटो तो खून नहीं...मां चुपचाप सोफे तक ले गई....बिठाया...पानी दिया...फिर पूछा- क्यों करते हो बदमाशी....बिहारी हो क्या...
यानी 25 साल पहले भी बिहारी गाली ही थी...शक करने की चीज़....और आपको अच्छा लगता है....फिर से सोचिए...
निखिल आनंद गिरि
रवीश जी,
दो साल पहले राज ठाकरे के फालतूयापे के चंद दिनों बाद मुंबई से गाँव गए एक शख्स ने सरकारी रोडवेज बस में एक शख्स से रिक्वेस्ट कर कहा था कि बच्चे को गोद में ले लो....मैं सीट पर बैठूँगा....लेकिन वह शख्स बच्चे को गोद में लेकर बैठने को तैयार न हुआ...बोला इसका भी तो टिकट लिया है।
तब तक पीछे से कलेजे को चीरते हुए एक व्यंग्य बाण सुनाई पड़ा - वहाँ ठकरवा मार मार भगा रहा है तो वहाँ सीट नहीं माँग रहे....इहाँ आए हो सीट मांगने।
तो यह तो हालात है.....
मैं सोच में हूँ कि प्रवासी तो कहीं के नहीं रहे ....न अपनी कर्मभूमि के और न जन्मभूमि के।
जिन स्थानीय लोगों से इस सब फालतूयापे के बाद लौटने पर सहानुभूति की उम्मीद थी वह लोग व्यंग्य गढ़ मजे लेते पाए जाते हैं....इससे बढ़कर विडंबना क्या होगी....शायद उनमें एक गरूर का भाव उत्पन्न हो आया हो...यह कहते कि ...गए तो थे कमाने.....क्या उखाड़ लाए.....।
शायद एक तरह की राहतमय ठंडक ही देता होगा गाँव वालों को ऐसे किस्म का कोई बवाल....कि अच्छा हुआ हम नहीं गए बाहर.....
देखिए.. प्रवासी...मार खाकर भी दूसरों को राहत ही पहुँचा रहा है....भले ही मानसिक ही सही।
GOOD ARTICLE
Ravish ji namaskar....humesha ki tarah bahot umda aur dil ko choo lene wala lekh...emotional baton se shuru kar technicality aur demand and supply ki market policy tak sab kuch aisa samet liya ki manoranjan aur gyan ki khicdi aisi swadist bani ki baar baar aur khane ka man kare....kripya jaldi jaldi nai post bheja karien..
"जब टेक्नॉलजी का हस्तातंरण हो सकता है तो श्रम का क्यों नहीं।"
वाह, लेख पढ़ के सच की तह को जान लिया , आपने बड़े ही सही ढंग से कहानी को बचपन की छुट पुट यादों से निकाला फिर उसे तीखे टेढ़े रास्तों से होते हुए सच्चाई से मिलवा दिया ,
गर्व से कहो हम प्रवासी हैं, मैं प्रवासी हूँ !
पहले जब पोस्ट की लम्बाई को देखा तो लगा- नहीं ,पूरा मुझसे पढ़ते नहीं बनेगा, बीच में ही कहीं ध्यान और रस खो जाएगा..पर लाजवाब , लेख बहुत बढ़िया है :)
"जब टेक्नॉलजी का हस्तातंरण हो सकता है तो श्रम का क्यों नहीं।"
वाह, लेख पढ़ के सच की तह को जान लिया , आपने बड़े ही सही ढंग से कहानी को बचपन की छुट पुट यादों से निकाला फिर उसे तीखे टेढ़े रास्तों से होते हुए सच्चाई से मिलवा दिया ,
गर्व से कहो हम प्रवासी हैं, मैं प्रवासी हूँ !
पहले जब पोस्ट की लम्बाई को देखा तो लगा- नहीं ,पूरा मुझसे पढ़ते नहीं बनेगा, बीच में ही कहीं ध्यान और रस खो जाएगा..पर लाजवाब , लेख बहुत बढ़िया है :)
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Your' obediently
ashish kedia
बढ़िया। अभी सौ की रफ्तार से पढ़ा है। यह रफ्तार नहीं जल्दबाजी थी। एक श्रमिक की जो दिनभर खटने के बाद इस पोस्ट को ऐसे ही पढ़ सकता था। कल कुछ नए साथियों को अप्रवासी और आप्रवासी का फर्क महसूस करने को कहा था।
फिर लौटता हूं। चंद घंटों में। मन तो प्रवासी ही रहेगा सदा। प्रवास में थकन है, पर सीखने का जो आनंद है उसके आगे थकान बेमानी है। प्रवास होता ही सीखने के लिए है। मगर सीखना तो अय्याशी है। लोग तो रोज़ी के लिए ही प्रवासी होते रहे हैं। क्षमा करें, सीखना प्रवास का बाय प्रोडक्ट है। प्रवास का असली उत्पाद श्रम की रोज़ी है।
ख़ैर, थका हूं, प्रवासी हूं, जल्दी लौटता हूं। चंद घंटों में। नींद के आगो़श में जाता हूं। नींद भी तो प्रवास है....
बेहतरीन!! गर्व से कहो प्रवासी हैं
रवीश जी. एक शेर का रेफरेंस दे रहा हु.
जहाँ भी जाता है रौशनी फैलाता है.
किसी दिये का अपना मकान नहीं होता
ये बात हम प्रवासियों पे भी सही साबित होती है
अब दिये की जगह बिहारी शब्द लगा कर शेर सुनाने लगा हु.
शुरुआत रोचक ढंग से करके आपने कई सारे पहलुओं पर ध्यान खींचा है .......बधाई
बहुत ही अच्छा विश्लेषण। वैसे,राज ठाकरे भी उच्च मध्यवर्गीय लोगों को मुम्बई से नहीं भगाना चाहता। हमारे बहुत से जानने वाले हैं जो जरूरत से बहुत ज्यादा सम्पन्न हैं और उनमें से बहुत से शिवसेना के पदाधिकारी हैं। और इनमें से बहुत से राज ठाकरे के तर्क को वाजिब मानते हैं।
एक अच्छा लेख।
प्रवासी एक सामाजिक प्रक्रिया है, इसे रोका नही जा सकता।
देखा जाए तो दिल्ली भी प्रवासियों ने ही आबाद किया, पाकिस्तान से आए शरणार्थियों ने ही दिल्ली, सही मायने मे आर्थिक रुप से समृद्द दिल्ली बनाया। जब भारत एक देश है तो उसमे गैर इलाकाई लोग प्रवासी कैसे हुए? मुम्बई मे सभी लोगों के लिए समान अवसर थे, बाहर के लोगों ने आकर मुम्बई को आर्थिक राजधानी बनाया, अब वो प्रवासी हो गए? ये राज ठाकरे जैसे लोग, इन मराठी अस्मिताअ जैसे मुद्दों मे अपनी राजनीतिक जमीन खोज रहे है, जहाँ उनको जमीन मिल गयी, फिर वो भी चुप बैठ जाएंगे। राजनीतिक बेरोजगारी बहुत बड़ी चीज होती है।
तस्वीर का एक दूसरा पहलू भी है, हर शहर के विकास की कुछ सीमाएं होती है। शहर की आबादी भी उसी अनुसार होनी चाहिए। जहाँ तक दिल्ली की बात है, दिल्ली एनसीआर क्षेत्र काफी विस्तृत हो चुका है, उसका विकास भी सही ढंग से नही हो पा रहा है, ऊपर बढती आबादी, आखिर कब तक मौजूदा इंफ़्रास्ट्रक्चर, इस बढते बोझ को सम्भालेगा। सरकार को विकास की नयी योजनाएं बनानी चाहिए और उन पर ईमानदारी से अमल करना चाहिए। तभी इन समस्याओं से निजात मिलेगी।
दूसरी तरफ़ गाँवों से शहरों की ओर पलायन अभी भी नही रुक रहा। गाँव देहात में रोजगार के अवसर बढ नही रहे, यही मूल समस्या है। इसका समाधान किया जाना है।
मै भी एक प्रवासी हूँ, दूसरे देश मे रहता हूँ, एक प्रवासी का दर्द समझता हूँ। आज भी तीज त्योहारों मे अपना घर, अपना शहर याद आता है। उन्ही यादों के साये मे ब्लॉग लिखे जाते है। बाकी तुम अपने को प्रवासी मत समझो, तुम आजाद भारत के आजाद नागरिक हो, प्रवासी कैसे हुए?
बड़ी जुझाडू लेख है ,तथ्यपरक और मर्मस्पर्शी भी .
इसे कहते हैं सरिया के लात मारना उन गन्दी सोंच
पर जो लगातार सींचा जा रहा है .
मुझे तो लगता है अब हमें दाल की तरह महंगा
होने भी हक़ है .
---संजय शर्मा-----
एक अच्छा लेख।
प्रवासी एक सामाजिक प्रक्रिया है, इसे रोका नही जा सकता।
देखा जाए तो दिल्ली भी प्रवासियों ने ही आबाद किया, पाकिस्तान से आए शरणार्थियों ने ही दिल्ली, सही मायने मे आर्थिक रुप से समृद्द दिल्ली बनाया। जब भारत एक देश है तो उसमे गैर इलाकाई लोग प्रवासी कैसे हुए? मुम्बई मे सभी लोगों के लिए समान अवसर थे, बाहर के लोगों ने आकर मुम्बई को आर्थिक राजधानी बनाया, अब वो प्रवासी हो गए? ये राज ठाकरे जैसे लोग, इन मराठी अस्मिताअ जैसे मुद्दों मे अपनी राजनीतिक जमीन खोज रहे है, जहाँ उनको जमीन मिल गयी, फिर वो भी चुप बैठ जाएंगे। राजनीतिक बेरोजगारी बहुत बड़ी चीज होती है।
तस्वीर का एक दूसरा पहलू भी है, हर शहर के विकास की कुछ सीमाएं होती है। शहर की आबादी भी उसी अनुसार होनी चाहिए। जहाँ तक दिल्ली की बात है, दिल्ली एनसीआर क्षेत्र काफी विस्तृत हो चुका है, उसका विकास भी सही ढंग से नही हो पा रहा है, ऊपर बढती आबादी, आखिर कब तक मौजूदा इंफ़्रास्ट्रक्चर, इस बढते बोझ को सम्भालेगा। सरकार को विकास की नयी योजनाएं बनानी चाहिए और उन पर ईमानदारी से अमल करना चाहिए। तभी इन समस्याओं से निजात मिलेगी।
दूसरी तरफ़ गाँवों से शहरों की ओर पलायन अभी भी नही रुक रहा। गाँव देहात में रोजगार के अवसर बढ नही रहे, यही मूल समस्या है। इसका समाधान किया जाना है।
मै भी एक प्रवासी हूँ, दूसरे देश मे रहता हूँ, एक प्रवासी का दर्द समझता हूँ। आज भी तीज त्योहारों मे अपना घर, अपना शहर याद आता है। उन्ही यादों के साये मे ब्लॉग लिखे जाते है। बाकी तुम अपने को प्रवासी मत समझो, तुम आजाद भारत के आजाद नागरिक हो, प्रवासी कैसे हुए?
बहुत अच्छा आलेख। सच तो यह है कि प्रवासी या बाहर का होने की मानसिकता ना तो राज्यों में रुकती है और ना ही राज्यों के बीच शहरों में। इस दर्द को प्रत्येक इंसान को झेलना ही पड़ता है फिर भी सब एकदूसरे को देते रहते है। दुख तब अधिक बढ़ जाता है जब राजनीति की भाषा भी यही हो जाए।
Really..
Dil ko chu gayi aapki ye bat....Sahi main Apno se bichrne ka bahut dukh hota hai...
Aur phir humlog ye kehte hai ki humsab bhartiayea hai...to phir ye Bihari,Gujrati,Marathi ka Bhed kYoin...
Apno ki talash main humesa nazer baher hi laga hua rehta hai chae aap Office main hi kyoin na ho....
जब पूँजीवाद को गाली देते हैं तब कहते है इसका कोई ईमान धर्म देश नहीं होता. फिर धन के लिए कुछ भी करने को तैयार कहीं भी धंधा करने को राजी लोग बिहार उत्तर प्रदेश और उड़ीसा को क्यों छोड़ दिया? आरोप लगाने से पहले अपने चुने हुए नेताओं और उनके कारनामों कोसें. कभी सोचें क्यों नहीं बिहार के लोग पंजाबी मजदूरों की राह देखते? क्यों बिहार से बाल मजदूर देश भर में बरतन माँजते है. हम सब के लिए शर्म की बात है. और इसके पीछे का कारण है समाजवादी व वामपंथी स्वप्न जो केवल सपनों में ही अच्छा लगता है. सपनों से पेट नहीं भरता. पूँजीवाद को कोसने से पहले मनन कर लेना उसी का खाते हो.
जिस भूमि ने रोजीरोटी दी उसके प्रति सम्मान होना चाहिए और वहाँ की संस्कृति व भाषा में रंग जाना चाहिए. अगर मुम्बई को बिहार बनाने की कोशिश होगी तो विरोध तो होगा ही. राज ठाकरे असंवैधानिक काम कर रहा है. तो दुसरा पक्ष भी दूध धूला नहीं है.
यह विडंबना ही है कि जिस काल में विश्व स्तर पर हर प्रकार के गुण,ज्ञान और सामान के लेन देन की वकालत की जा रही हो .. वही क्षेत्रवाद को भी ऐसे पकडा जाए .. पर गजब संयोग है .. कल शाम हमलोग इसी विषय पर चर्चा कर रहे थे .. और इसी के बाद आपने ये पोस्ट लिखी .. भले ही मुझे देर से पढने को मिला !!
बेहतरीन सर बेहतरीन!
Well thought-ed and concluded. Thanks
sar jyada nahi kahunga lekin sayad "RAAJ" marathi sabd nahi hai. iska matlab hindi me(raaj karna) or urdu me hota hai(secrate).marathi me kya hota hai pata nahi.......
Yeh Sab lalch aur ahem ki ek misaal hai, jo pravasi ko beizzat karti hai.
Amrika ho, yaan Dilli, pehle pravasi logon se, rent ki kamai karo, fir jab jeb bhar jaaye, to unko dullati maaro
Kya kahe...bus dil ki baat kah di aaj aapne....
Ravish Bhai aap likhte ho to baat dil ko touch kar jaati hai.
Sanjay jee..
aapko ye baat samajh me aani chahiye ki koi us jagah ko hi apne hisaab se sawarne ki koshish karta hai jise wo apna manta hai aur agar aapko ye lagta hai ki apni bhasha bolne se koi alag state hi banne ki koshish kar raha to aapse winti hai ki desh ke tamamm state me apne bhasha ke logo ke beech ek apnapan sa hota hi hai aur ise is tarah se react nahi kiya jana chahiye..
Kya kahoon, kuch kahne ke liye bacha hi nahin. Main salem (TN) main Amethi (UP) se 2400 km door.
सबसे पहले तो शानदार पोस्ट लिखने के लिए धन्यवाद। मैं यह नहीं कहूंगा कि हमेशा की तरह अच्छी पोस्ट। यह कुछ अलग तरह की पोस्ट लगी। बहुत शानदार है।
इस पोस्ट में बहुत दिनों बाद या फिर कहें ब्लॉग पर पहली बार दर्द भी छलकता हुआ दिखा है। आप तो अपने आपको मराठी, गुजराती, पंजाबी की तरह बिहारी कह सकते हैं, मैं तो यूपी का हूं क्या कहूं? आप गांव से निकले तो पटना में रहे और वहां से निकले तो दिल्ली में। यात्रा ज्यादा लम्बी नहीं रही। मैं यूपी से निकला तो उत्तराखंड में रहा जो खुद को पहाड़ी और हमें प्लेन वाला कहते हैं। उन्हें लगता है यूपी वालों ने उत्तराखंड का हक मार रखा था अब मिला है तो वह भी खाने आ गए। वहां से निकला तो पंजाब गया, जहां पंजाबी पता नहीं कौन कौन से गाली दे देते थे पता भी नहीं चलता था। और पता चल भी जाता तो उनका क्या कर लेता। वहां से निकला तो हरियाणा पहुंचा वहां भी यही कहानी। फिर एमपी आया कहने तो एमपी है पर यहां के लोग भी किसी से कम नहीं, गाहे बगाहे याद दिला ही देते हैं कि मैं कौन हूं...यानी जहां जाइएगा गाली ही खाइएगा।
मैं किसी नेता की बात नहीं करुंगा नहीं तो उसे अनावश्यक रूप से प्रचार ही मिलेगा। टेक्निॉलॉजी और विकास की बात बाद में इस वक्त दर्द हो रहा है.................
बहुत अच्छा लेख लिखा है आपने -
सही कहा कि हम हर स्तर पर कहीं न कहीं प्रवासी ही रहे - फिर ये होहल्ला क्यूं ! राजनीतिक लोग अपने स्वार्थ कि रोटी सेंकने के लिए कुछ भी कर सकते हैं - पर जब आम लोग उनके साथ हो जायें तो दुःख होता हैं
बहुत बढिया आलेख है बधाई स्वीकारें.....
सर,
आपका लेख पढ़कर गंगा की घाट का याद आ गया। एक याद को इस तरह पिरो कर ताजा करना कोई आपसे सीखे।
आपने बचपन को जिस तरह प्रवास के गम से जोड़ा वो वाकई तारीफ है।
सर, मेरा कहना है कि अगर शीला जी और राज ठाकरे की राह पर चली जाए तो एक गांव से पास के शहर जाने वाले प्रवासी कहलाएंगे। लेकिन इन दोनों के पूर्वज भी यूपी और एमपी के थे। फिर ये भी दिल्ली और मुंबई के लिए प्रवासी हैं।
लेकिन ऐसा होता नहीं, क्योंकि ये तो दिल्ली के तंग गलियों में नहीं रहतें।
आज मेट्रो की साइट और कॉमनवेल्थ के लिए बन रहे स्टेडियमों में काम कर रहे वर्करों के बीच जाने पर पता चल जाता है कि कौन प्रवासी और अप्रवासी है। बताने की शायद जरूरत नहीं पड़ेगी।
धन्यवाद...
अमित कुमार दुबे(IBN7)
sartk aalekh
मै रोया परदेस मे, भीगा माँ का प्यार
दुखः ने दुखः से बात की, बिन चिटळी बिन तार
...........
सीधा-सादा डाकिया,जादू करे महान
इक ही थैले मे भरे, आँसू और मुस्कान
भैया, अब के पाकिस्तान से और तब के उत्तरी-सीमांत प्रान्त से हम लोग आये. १० में पड़ते तो भी राजस्थान के उस गाँव में जहाँ में पैदा हुवा, हमें शानार्थी कहा जाता था. यानी की ४५ वर्ष बाद भी हम पंजाबी शानार्थी ही थे. देल्ल्ही आये... एक जाट मित्र में ने पूछा, तुम कों से पंजाबी हो - मुंह से तुरंत निकला - शानार्थी.
बाकी, बिहारी मजदूरों के लिए दिल्ली आज करह रही है................
एक रिपोर्ट मेरी भी पढिये.................
http://deepakmystical.blogspot.com/2010/07/blog-post_7016.html
RAVISH JI, BAHUT KUCH MAN MEIN AA RAHA HAI. KABHI LAGTA HAI SAB KUCH MEHSUS KIYA HUA HAI AUR KABHI LAGTA HAI SAB STAHI BAATEIN HAIN. KUCH BHI SOCHA HUA NAHI HAI. JO ILHAAM HO RAHA HAI WO BASHIR BADR NE EK SHE'R MEIN KAHA HAI
"TUMHARA SHAHAR TO BILKUL NAYE ANDAAZ WALA HAI, HAMARE SHAHR MEIN BHI AB KOI HUMSA NAHI REHTA.
AB LAGTA HAI AAPSE 36 KA AANKDA HOGA GHBRAIYE NAHI 36 KE AANKDE KA MATLAB HAI KI MERA COMMENT HAMESHA AAPKE BLOG PE 36 NUMBER HI AATA HAI
REGARDS
VARUN GAGNEJA (FAZILKA)
एक बेहद उम्दा पोस्ट के लिए आपको बहुत बहुत बधाइयाँ और शुभकामनाएं !
आपकी पोस्ट की चर्चा ब्लाग4वार्ता पर है यहां भी आएं !
प्रवासियों का समाजशास्त्र और अर्थशास्त्र दोनों काफी पुराना है. बिहार के लोगों के विषय में एक कहावत है जिसे मैं लंगट सिंह कॉलेज के हॉस्टल में रहने के दौरान सुना था. जब हॉस्टल से घर जाते थे तो चाचा जी अक्सर इस बात का जिक्र किया करते थे कि बिहार के लोग धान के बिचड़े की तरह हैं, अगर उसे एक ही जगह छोड़ दो तो धान की फसल नहीं होगी और उसे एक जगह से उखाड़ कर पूरे खेत में रोप दो धान की फसल शानदार होगी. प्रवासियों के विषय में जानकर, पढ़कर और अब दिल्ली में रहते हुए बहुत सारे प्रवासियों को देखकर बचपन की कहावतों और गीतों का मर्म समझ में आने लगा है. तुलसी दास अगर अपने गांव घर से बाहर नहीं निकलते तो तुलसिया ही कहलाते, गांव से निकलने के बाद ही वो तुलसी दास बने.
intresting!
Ravish ji, aapka blog pada acha laga...hum main se har koi pravasi hain. Delhi toh basi hi pravasiyon se hain. Pakistan se aye pehle refugee kehlate the aur aab pet ki khatir kamane aye pravasi kehlate hai. Jab sara Bharat ek hai to yeh pravasi ki bhavna kyon...koi un logon se puche hume pravasi kehne wale yeh toh bata tum kis desh ke wasi ho, hum toh bharat wasi hain.
नमस्कार!
प्रवास ही विकास है.
सभ्यता का विकास प्रवास से ही ही हुआ है.
संस्कृति मिश्रण या एकल्तारेशन की प्रक्रिया बिना प्रवास के संभव नही है.
आजकल मध्य वर्ग और उच्च वर्ग जिसके श्रम बल जीवित है उसे फूटी आँख नहीं देखना चाहता है.
दिल्ली को जब कर की जरूरत होती है तो पूरा भारत उसका है. बाक़ी दिली को दिल्ली बनाने वाले भीड़ हैं.
काम ख़तम तो भागो.
अपने योजना की कमियों को तथा भ्रष्टाचार को छिपाने के लिए संकीर्ण जातिवाद प्रांतवाद, जिलावाद, तहसीलवादसे ग्रामवाद का सहारा लेकर अपनी राजनीति की रोटी या कहिये पकवान बना लिया जाता है.
प्रवासियों के नाम पर मत बैंक बनाने वालों को बेनकाब किया जाना चाहिए. यह काम प्रवासियों के भरोसे करोडो अरबों कमाने वालों को भी सोचना चाहिए.
नमस्कार.
bahut acha laga sir ji padh kar... per wo Thakre pariwaar jo mumbai ko apne baap ka adda samjhta hai wo bhi toe prawashi hai...
mujhey aaj bhi yaad hai 2007 mein mai mukharjee nagar me rahta tha..waha ek dhhabey par baitha tha aur wahi pass me kahi ek bhajan chal raha tha, "Radhey radhey japo chale aayenge bihari" to pass me baitha ek aadmi jo pee kar pura talli tha bolta hai, abey ab aur kitne bihari aayenge delhi me , pehale se to itna bhadey parey hai....hahahhaa :) mujhey samjh me nai aa raha tha us time ki is par gussa karu ya hansu...:(( :))
Ravishji, Kafi umda likha hai. Aapko or tamam Pravasi Bihariyon ko ye Jankar sayad khusi ho ki Bihar Sarkar ne Pravasi Biharriyon ko apni zaron se jodne ke liye Bihar Foundation ka gathan kiya hai. Kam samay me hi humne kafi sakaratmak kadam uthaye hain. Agar samay mile to humari site www.biharfoundation.in jarur dekhen or humen batayen ki hum or kya behtar kar sakte hai. Agar accha lage to is muhim ka hissa baniye taki hum-aap sath milkar pravasi Bihariyon ke liye kuch sakaratmak kar saken.
Can contact me at satyajit@biharfoundation.in
91-9431424892
मैं प्रवासी हूं ये आलेख भी पढ़ा और उस पर पाठकों द्वारा की गई टिप्पणियों को भी पढ़ा। एक बात जो मन को विचलित कर रही है वो ये कि आपने उन पहलुओं को नहीं छुआ जिससे किसी बिहारी को अक्सर दो-चार होना पड़ता है। चूंकि आपने प्रवासी की बात उठायी है इसलिए ये कहना जरूरी समझता हूं। इसमें दो राय नहीं है कि सस्ता श्रम सिर्फ बिहारी ही उपलब्ध करवाता है। लेकिन इसके बदले में उसे क्या मिलता है अपमान। इसकी चर्चा करने से आप साफ बच निकले हैं। एक बिहारी इस दर्द को अच्छी तरह से समझ सकता है। आप बिहार का एक चेहरा हैं। आप पर पूरा भारत गर्व कर सकता है। जिस तरह से आपने भावनाओं के शब्द अपने आलेख में पिरोए हैं उसके आधार पर हम यही कहेंगे कि बिहार का जो चेहरा ठेले और रिक्शे वालों में देखा जाता है वो चेहरा अब आप जैसे कुलीन वर्ग के लोगों में भी देखा जाता है। बिहार की धरती से ऐसे कई लोग निकले हैं जिन्होंने बिहार की छवि को बदला है। बिहार से बाहर यदि बिहार की छवि खराब है तो इसके पीछे बिहार का शासक तंत्र जिम्मेदार है। आप दूसरे को सस्ता श्रम उपलब्ध करवा रहे हो, अपने यहां क्यों नहीं इसका सदुपयोग करते। आखिर ये भी तो आपके विकास की गति को तेज करेगा। क्या बिहार की सरकार इस दिशा में कुछ सोच रही है। प्रवासी होना कोई बुरी बात नहीं है। ये विकास का एक पहलू है। आप में उतनी काबिलियत है तो आप दिल्ली में टिके हैं नहीं तो आपका बिहार आपका इंतजार कर रहा है।
ravish ji, kabhi uttam nagar mein , kakrola ke paas unauthorized colonies mein bhi ghoom jaaiye.... madhu vihar ho aaiye... yahan makan tode jaa rahe hain..logon ko pata nahi, kyun????? hum toh aapki tarah white coller prvasi ho gaye hain...hume na koi poochta hai..na hum kisi ko poochte hain...lekin apno ke dekh kar dil, dil se hi poochta hai....
Ravish sir,
Kahte hai ki WO PATH KYA PATHIK PARIKSHA KYA, JIS PATH ME BIKHRE SHOOL NA HO, NAVIK KA DHARYVA PARIKSHA KYA, YADI DHARAYE PRATIKUL NA HO......bihari hone ka dansh pahle lagta the lekin ab lagta hai ki hum log nirarthak hi pareshan hoti hai. Akhir humne ye bhi to suna hai ki ASMAN PER THUKNE SE WO UKSE CHEHRE PER HI TO PADEGA...isliye wo hame bihari kahkar hame aur majboot karte hai,,,JAISHANKAR PRASAD JI KI WO BAAT TO APNE SUNI HI HOGI....MAHASHAKTION KE VEG ME RODE ATKANE SE UNKA VEG KUM NAHI HOTA BALKI WO DUGUNE VEG SE AAGE BADHTA HAI...MANISH MOTIHRI.
Thought provoking writing?
Q. What is difference between Thackereys & God?
A. God never claimed that he is Thackerey.
फिर भी कम से कम आप हिन्दुस्तानी मुसलमान तो नहीं न हैं रवीश जी...
Thought provoking writing?
Q. What is difference between Thackereys & God?
A. God never claimed that he is Thackerey.
फिर भी कम से कम आप हिन्दुस्तानी मुसलमान तो नहीं न हैं रवीश जी...
Thought provoking writing..
Ques. What is difference between Thackery & God?
Ans. God never claims that he is thackery..
फिर भी कम से कम आप हिन्दुस्तानी मुसलमान तो नहीं न हैं रवीश जी
छठ हो या दिवाली। ऐसी हूक उठती थी कि लगता था कि दीवार से सर दे मारे। कहां रोये और कब तक रोये। ....इस स्थिति से कई बार गुजरा हूं...
bahut achha likha hai aapne aap tension mat lijiye aap jo kar rahe hai bahut achha kar rahe hai,main aapko bahut pehale se jaanata hoon. mai aap se bahut jyada prabhavit hua hoon main aapka show ravish ki report dekhna kabhi nahi bhoolata hoon.aas pados ke logo ko batata hoon ki hindi media mein ravish aur vinod dua do aise naam hai jo such bolane aur dikhane ki himmat rakhte hai bakiyon ka zameer mar gaya hai. dheere dheere maine aapka fanclub bahut bada kar liya hai mera vishwas hai ki kuchh badalana hai to aas pados se badalana shuru karo badlav jaroor aata hai.ab mere aas pados ke logo ki soch badal rahi ab aapko jannewale log kehate hai sahi hai, such dikhata hai yeh aadmi.aur haan aapka yeh article bahut lajwab hai.waise raj thakre grassroot ki politics karta hai use pata hai ki maharashtra mein famous hone ke liye koi mudda nahi bacha hai isliye logon ka baki saare muddo se dhyan hatakr apani roti sekane mein laga hai. waise yeh baat usko bhi pata hai aur woh khud prawasi hai m.p ka rehanewala hai.is tarah ki rajniti bahut din tak nahi chalti kyonki uske follower jyada din tak is tarah ke mudde ke saath nahi rehate jiska solution nahi ho. naya naya party banaya hai isliye ufan par hai thoda ruk jaiye balasaheb thackrey ki tarah shhant ho jayega. kyonki balasaheb thackrey bhi pichhale pachaas saalon se gujrati, madrasiyon,uttar bhartiyon ko aur musalmano ko bhaga rahe hai jo aajkal khud hi bhul gaye hai ki unki party ka main agenda kya hai. once again best of luck and keep it up.
Ravish ji namaskaar.Aap ne ek bade he aache subject par baada he aacha likha hai.Sayad isko pad kar U.P. Bihar ke hamaare politicians sudhar jaye.Ye log jab aapne state ka bhalaa he nahi kar sakte hai to P.M. bankar desh ka kya karinge.Raj thakre jaise logo ko kahne ka mooka in politicians ke kaaran he milta hai.Ye log agar U.P. Bihar me industries lagaayenge to hum logo ko baahar jane ke kya jarurat hai.UPSC ke exam me sabse jyada U.P. bihar ke students he select hote hai iska matlab hai ke hum log talented hai par hame apne states me mooke he nahi milte hai.Hum logo ko baahar ja kar kaam karna padta hai kya kare iss peet ke aajeb maya hai.Isko to bharna he padta hai.Par hum to umeed he kar sakte hai ke kabhi to haalat sudh renge,kabhi to change aayega.Chalia hum aasha he karte hai.
dhanyabaad.
आशीष शर्मा जी,
आप का कहना सही है कि कम्पटीशन में यू पी बिहार के लोग ज्यादा आते हैं.....लेकिन इसके पीछे कुछ कारण भी है। उन्हीं कारणों की विवेचना करते एक पोस्ट लिखा था मैंने -
एक नजर मेरी इस पोस्ट के कंटेंट पर डालिए...वस्तुस्थिति समझ आ जाएगी.....
http://safedghar.blogspot.com/2008/10/blog-post_23.html
- सतीश पंचम
पोस्ट का अंश- दरअसल बिहार में कोई मजबूत मेन्युफैक्चरिंग या निर्माण उद्योग पहले से ही नहीं है,झारखंड मे जो कुछ था वह खनन आधारित ही ज्यादा था जिसके दम पर कभी बेस इंडस्ट्री बिहार में बनाने की कोशिश ही नहीं की गई। ऐसे में लोगों को नौकरीयों की उम्मीद सिर्फ सरकारी क्षेत्र से ही थी जिसमें कि जाने से पहले लोगों को प्रतियोगिता परीक्षा देनी जरूरी थी, और यही वो ट्रेंड था जिसने बिहार मे एक प्रतियोगिता परीक्षाओं को एक समानान्तर उद्योग का दर्जा दे दिया, कम्पटीशन पत्रिकाओं की खपत बढने लगी, कोचिंग संस्थाओं की संख्या बढने लगी, लेदेकर ऐसा माहौल बन गया कि लोकगीतों में भी कम्पटीशन का माहौल दिखाई देने लगा। आपको शूल फिल्म के उस गीत की याद होगी जिसमें विलेन बने नेता को एक कैसेट लाकर दिया जाता है , उसके बजाते ही जो बोल निकलते हैं वो होते हैं - M. A. मे लेके एडमिसन....कम्पटीसन.....देता SS......मतलब लोग यहाँ वहाँ जरूर अपने कॉलेज की पढाई पूरने के लिये एडमिशन लेते हैं लेकिन अपना लक्ष्य कम्पटीशन को ही मानते हैं.....कोई पूछता भी है कि आपका लडका क्या करता है तो लोग अक्सर यही बताते हैं कि कम्पटीशन दे रहा है......यानि तैयारी कर रहा है। और सबसे बडी बात तो ये है कि ये प्रतियोगिता परीक्षा मे जिस पद की कामना की जाती है वह हमेशा IAS, IPS, PCS जैसे पदों से ही शुरू होती है। लोगों का ये मानना होता है कि सबसे कडी परीक्षा यानि UPSC को साधो तो सब बाकी प्रतियोगिता परीक्षाएं अपने आप सध जाती हैं.......और काफी हद तक यह बात सच भी है.......छात्र परीक्षा की तैयारी IAS, PCS लेवल की करते हैं....एक साल- दो साल अपने को मांजते रहने के बाद इन छात्रों का स्वाभाविक है कि IQ लेवल कुछ हद तक उपर हो जाता है......लगभग वही सवाल जो UPSC में पूछे जाते हैं......कुछ सरल ढंग से रेल्वे आदि की परीक्षाओं मे भी पूछे जाते हैं......ऐसे मे चयन स्वाभाविक रूप से ऐसे ही छात्रों का होता है जो ऐसे परिवेश को लेकर चलते हैं। अब सवाल उठता है कि क्या बाकी राज्यों के छात्र कम काबिल हैं या उनमें वह माद्दा ही नहीं है.....नहीं ऐसा नहीं है....बाकी राज्यों के छात्र भी काबिल होते हैं....उनमें माद्दा भी होता है कि कम्पटीशन को भेद सकें.....लेकिन वह छात्र अपने राज्य से बाहर नहीं निकलते......उन्हें जरूरत ही नहीं पडती या पडती भी है तो कम, क्योंकि एक दो बार असफल होने पर वह बैकअप के तौर पर अपने ही राज्य में अन्य निजी/प्राईवेट नौकरीयों में लग जाते हैं जो कि सरकारी के मुकाबले थोडी आसानी से मिल जाती हैं......फिर वे अपनी नौकरीयों में ऐसा रम जाते हैं कि कम्पटीशन वाली परीक्षाएं लगभग न के बराबर अटेंड करते हैं, जबकि बिहार के छात्र अपने राज्य मे प्राईवेट नौकरीयों तक की कमी के चलते उसी कम्पटीशन वाले माहौल को लेकर चलते हैं। ऐसे मे आप अंदाजा लगा सकते हैं कि क्यों उन बिहारी छात्रों का ही चयन ज्यादा होता है सरकारी पदों पर। वैसे कई लोग सिफारिश या पहुँच को भी कारण मान सकते हैं लेकिन यह हालत तो हर राज्य मे है, अब हर जगह तो बिहारी ऐसे नहीं हो सकते कि सिफारिश, पहुँच या अन्य गलत तरीकों से ही नौकरी पा लें।
दूसरी बात, आरोप लग रहे हैं कि रेल्वे ने अपने विज्ञापन महाराष्ट्र के स्थानीय भाषा के समाचार पत्रों मे नहीं दिये जिससे कि यहाँ के लोगों को पता चल सके कि ऐसी कोई वेकेंसी निकली है। तो मैं ये कहना चाहूँगा कि ऐसे विज्ञापन कहीं निकले या न निकले, रोजगार समाचार या Employment News मे तो निकलता ही है, जिसे कि यहाँ और अन्य राज्यों मे कम ही पढा जाता है क्योंकि जब निजी क्षेत्र की जहाँ बहार हो वहाँ सरकारी क्षेत्र की कौन पूछे जिसके मिलने को अब सपना मानने लगे है लोग, यही कारण है कि जो रोजगार समाचार बिहार आदि राज्यों मे खूब मन से पढा जाता है, और लगभग हर न्यूज स्टॉल पर आसानी से मिल जाता है, वही मुंम्बई जैसे शहर मे लेने के लिये यहाँ- वहाँ ढूँढना पडता है क्योंकि उसकी यहाँ ज्यादा माँग नहीं है। वहाँ बिहार मे हालत तो ये हो जाती है कि लोग निजी तौर पर साइक्लोस्टाईल्ड फॉर्म दस रूपये में लिफाफे सहित जगह-जगह दुकानों पर बेचते हैं जबकि यहाँ मुम्बई मे वह केवल रेल्वे स्टेशनों पर ही उपलब्ध हो पाता है। ऐसे में आप सहज रूप से अंदाजा लगा सकते हैं कि बिहार और मुम्बई या देश के अन्य राज्यों के बीच Competitive Exams का माहौल कैसा है और किन लोगों का ज्यादा चयन हो सकता है।
उधर उत्तर प्रदेश मे भी कमोबेश हालत लगभग यही है लेकिन वहाँ कुछ हद तक निजी क्षेत्र की उपलब्धता के चलते Competitive Exams के प्रति माहौल बिहार के मुकाबले कुछ हद तक सीमित सा लगता है, या माहौल है भी तो उस हद तक जोश और जज्बे को बरकरार नहीं रख पाता जो बिहार के छात्र अपनी नौकरीयों की जरूरतों के कारण बनाये रखते हैं,और ऐसे मे जबकि लोकगीत तक Competition मुद्दे पर बनने लगे तो आप समझ सकते हैं कि वस्तुस्थिति क्या है।
a0namskar sir
is vishay par to sirf yahi kaha ja skta hai yahi bharat desh ki a-aadhunik aadhunikta hai. ham abhi bhi logo ko bada ya chhota smjhte hai, par kis aadhar par smjhte hai uska pata nahi shayad hmne kabhi koshish bhi nahi ki ......
a0namskar sir
is vishay par to sirf yahi kaha ja skta hai yahi bharat desh ki a-aadhunik aadhunikta hai. ham abhi bhi logo ko bada ya chhota smjhte hai, par kis aadhar par smjhte hai uska pata nahi shayad hmne kabhi koshish bhi nahi ki ......
babloo,
very nice, bahut accha lagal thhar report, munna patna
neev ke patthar hote hain ye up/bihar ke bhaiya ,jinki badaulat desh-videsh mein tarakki hoti hai aur kalash/kangoore ban kar shekhi doosre log marne lagte hain !
रविश जी कभी कभी सोचता हूँ की आखिर ये हो क्या रहा है..... फिर उद्देलित मन को शांत करता हूँ और उसे दिलाशा दिलाता हूँ की शायद ये कुछ बेहतरी के लिए हो रहा है , याद है जब पहली बार घर से बाहर पढाई के लिए निकला था. उम्र कोई चौदह या साढ़े चौदह रही होगी... पहली बार घर छोड़ने का गम. भी था और बंदिशों से आजाद होने की ख़ुशी भी... बहुत जतन से घर वालो का आशीर्वाद ले कर अपना घर छोड़ा....शहर छोड़ा या कहे राज्य ही छोड़ दिया बेहतर जीवन के सपने को लेकर.. आशावों को संजोए जब पडोश के राज्य के स्कूल में दाखिला लिया तो ये मालूम चला मेरा भारतीय होना ही काफी नहीं नही है मुझे अपनी एक और पहचान देनी पड़ेगी...राज्य स्तरीय स्थानानतरन प्रमाणपत्र के रूप में मेरे नए राज्य को मेरे पुराने घर से अनापत्ति प्रमाणपत्र की जरुरत थी, खैर नए घर की मांगे भी पुरी की गई. मन को शांति मिली की चलो अब तो कोई परेशानी नहीं है.. लेकिन ये भ्रम भी जाता रहा जब सहपाठियों ने मेरे राज्य के बारे में पूछा मई असमंजस में था की जवाब क्या दू ,, वो जिसे छोड़ आया था या जिससे अपनाया था पर ये उलझन भी शांत हो गई उन्हें मेरे पहले राज्य से मतलब था.. मैंने भी गर्व से उन्हें बताया " बिहार ". पर ये गर्व छू मंतर हो गया जब उन्होंने उपहास स्वरुप कहा " अच्छा तो बिहारी हो " इश्के बाद तो जैसे मैं मशहूर हो गया..लोग मुझसे मेरे राज्य के बारे में पूछते और मुश्कुरा देते..उस मुश्कुराह्त का रहष्य मई भी समझ रहा था पर शांत था...खैर कुछ साल बीते आगे की पढाई के लिए बड़े शहरों की और जाना हुआ...खैर यहाँ पर तो पहले जैसे अनुभव नहीं थे पर फिर भी एक खामोश सी मुश्कुराह्त हमेशा पीछा करती थी. पर यहाँ तो और ही बड़ा नजारा था यहाँ के गुरुजनो में से कुछ्ह की शिकायत थी की हम बिहारियों को बात नहीं करनी आती उन्हें हमारे हिंदी बोलने के बिहारी लहजे पर आपति थी.. पर हमे ये बात नहीं समझ में आती थी की जब एक बंगाली के हिंदी बोलने के बंगाली लहजे, पंजाबी के हिंदी बोलने के पंजाबी लहजे., मद्राशी के हिंदी बोलने के मद्राशी लहजे से उन्हें कोई आपति नहीं है तो फिर ये आपति बस हमारे साथ ही क्यों या यूं खाए ये ज्यादती हमारे साथ ही क्यों. ऐशी बहुत सी बाते है जो बस हम बिहारी ही समझ सकते है....अपने ही देश के अंदर ये अजीब सा भेद छेत्र के नाम पर......घ्हिन्न आती है ऐशी राजनिति के पालनहारो पर.......खैर आपका ब्लॉग पढ़ कर संतोष हुआ की कोई तो है जो इतनी गूढ़ समझ रखता है इस समस्या के बारे में....... आगे भी आपसे ऐशी ही चर्चा की उम्मीद रखता हूँ..
NAMASKAR!sir,aapka story mere dil ko chu gaya.Apne bihario aur poore pravasiye logo ki baat samne rakhi.sir mein apka fan ho gaya.THANK YOU SIR.
sir bilkul sahi kha parvasi hona hamare molik adhikar baan dena chahiye nahi to logo me faisla badh jayega !
एक और प्रवासी का शुक्रिया
यह मुददा उठाने के लिए
अलवर का रहने वाला जयपुर में हूं
हालांकि ये दोनों है राजस्थान में ही
lekh acha ya shandar tha...keh nahi sakti..bas itna pata hai ki..
Is lekh ko padkar laga mano..apne hi mann ke kisi kone se uthi aawaz ko kuch shabd mil gaye hon.
mujhe apne ghar se nikle 5 saal ka samay hi hua hai..par apni pehchan banane ki is talash me ghar,shahar piche chut gaya ..
lekin ab to lagta hai RAJYA se bhi nata toot jayega........
Agar Ram ko court ka verdict chahiye to chhat ko bhi...i am more secular than you koyki maine Chaat bhi bas ek baar maa ke kahne pe manaya tha(Apne hosh me)...lekin yaha pe aapki samvedena judi hai yaha pe woh aastha ban jaat hai baki sab andhvishwani yaa BJP waale ban jaate hai...Ram,krishna yaa chhat kisi ke ghar ki nahi hai but i wish some one should ban chhat as whole aur uske baad court se bole jaaye ki prove karo ki 500 saal pehele Chhat koi manata tha...i will feel bad as bihari as i am also a bihari but sayad in future you will understand my point....
रुला कर हीं मानेंगे क्या। जो त्रासदी हम झेलते है उस दर्द को एक बिहारी हीं समझ सकता है। क्या क्या नही झेला पुरखों ने। अब हम भी झेल रहे हैं। दोष क्या है समझ नही पाया। दिल के साफ़ है पर रहन सहन साफ़ नही या फ़िर दुनिया की बदलती रफ़्तार और तिकडमबाजी से ताल मेल न बैठा पाने की कमअक्ली ।
अत्यंत सुन्दर विश्लेषण।
sir, bahut achha laga padh kar...
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