ब्रह्म बाबा अपभ्रंश होकर बरहम बाबा हो गए थे। भोजपुरी में हर शब्द की अपनी तरह से ओवरहाउलिंग की जाती है। ज्यों का त्यों वाला सिस्टम नहीं हैं। गांव में बरगद और पीपल के संगम से बने थे बरहम बाबा। विशाल और कई पीढ़ियों से विराजमान। मेरे गांव में कोई बड़ा हो जाए और बरहम बाबा की डालों पर दौड़ा न हो मुमकिन नहीं। गंडक नदी और घर के बीच एक पड़ाव की तरह मौजूद बरहम बाबा किसी स्मृति चिन्ह की तरह विराजमान रहे।
बहुत पहले गिर गए बरहम बाबा। बूढ़े हो गए थे। किसी शाम की तेज आंधी ने बरहम बाबा को गिरा दिया। बाबूजी ने जब बताया तो ऐसे बता रहे थे जैसे उनके भीतर का एक बड़ा हिस्सा ढह गया हो। थोड़ा सा कह कर चुप हो गए। बाकी अपने भीतर ही कहने लगे। एक पेड़ के गिरने का नितांत व्यक्तिगत और सार्वजनिक दुख। बाप का ज़्यादा और बेटे का थोड़ा कम। लेकिन दोनों का साझा अनुभव था बरहम बाबा की मोटी मोटी डालो पर दौड़ना। डोला पांती खेलना। भारत के राष्ट्रीय खेलों की सूची में डोला पांती का भले कहीं नाम न हो लेकिन ग्रामीण अंचल कि स्मृतियों में यह खेल अब भी बचा हुआ है। नहीं मालूम कि अब कोई पेड़ की डाल पर दौड़ने और पकड़ने का खेल खेलता है या नहीं।
तेज दुपहरी में कहीं छांव की गारंटी होती थी तो विशाल बरहम बाबा के नीचे। सुबह सुबह गांव की भक्तिमय औरतें यहां जल चढ़ा जाती थी। दस बजते ही लोग अपनी गायों को इसके नीचे बांध देते। दोपहर होते ही सारे बच्चे इसकी डालों पर अपना ठिकाना बना लेते थे। शुरु हो जाता था दौड़ना। कुछ लड़के इतनी तेजी से इस डाल से उस डाल पर भागते कि लगता था कि कार्ल लुइस का जन्म मेरे गांव में क्यों नहीं हुआ। हम सबको मालूम था कि कौन सा घोंसला तोता का है और कौन सा मैना का। किस घोसलें में अंडा है और किस में नहीं। गांव में बहुत लोग मिलते थे जिनकी कमर से लेकर टांग की हड्डी डोला पांती खेलते वक्त गिरने से टूटी थी। पुरानी पीढ़ि के लोग नई पीढ़ि को शान से दिखाते। कहते कि देख हमरो टांग टूटल बा। मामूली खेलने बानी हम। तहनी के का खेल ब जा लोग।
बरहम बाबा का नहीं रहना बॉटनी के किसी विशेषज्ञ का दुख नहीं हो सकता। ये उन बेटियों का दुख है जो मायके आते वक्त सबसे पहले बरहम बाबा को देखती थी। तसल्ली के लिए और पुरानी बातों को याद करने के लिए। शादी के बाद विदाई के वक्त बहने डोली से झांक लिया करती थीं बरहम बाबा की तरफ। बेटियां जब लौटती थीं तो सामान रखते ही एक बार घर का मुआयना ज़रूर करती थीं। क्या बदला है और क्या नहीं का मुआयना। घर आंगने देखने के बाद अगला पड़ाव होता था छत पर जाने का। और छत पर जाने का एक ही मकसद होता था..बरहम बाबा को देखना। और खुद से कहना कि आज भी बच्चे खेल रहे हैं इस पेड़ के नीचे।
मेरे भीतर भी यह पेड़ बहुत दिनों तक खड़ा रहा। आज भी दिल्ली में रहते हुए याद आ जाता है। दफ्तर में काम करते हुए या गहरी नींद के बाद जब आँखें खुलती हैं तो एक झलक बरहम बा की गुज़र जाती है। सबके साथ होता होगा ऐसा। मुझे इस तरह के साक्षात्कार बहुत होते हैं। अचानक नोएडा मोड़ से गुज़रते हुए गांव के उस मोड़ पर अपनी कार मोड़ते हुए पाता हूं जहां से मेरा घर दिखने लगता था।
लेकिन किसी अफसोस के साथ नहीं। मैं यहां क्यों हूं और वहां क्यों नहीं। यह मेरा फैसला नहीं था। समाज और परिवार ने तय किया है कि बड़ा होकर कुछ करना है। कुछ करने के लिए कई प्रकार के खांचे बने हुए हैं। हम सब अपने आप को उन खांचों में फिट कर लेते हैं। एक खांचे से दूसरे खांचे में लौटकर मन बदल जाता होगा। हासिल वही होता है जो पहले खांचे में करने की कोशिश कर रहे होते हैं।
मगर बरहम बाबा की याद आती है। बरहम बाबा होते तब भी मुझे वापस आने के लिए नहीं कहते। न मैं वापस जाता। उन्होंने हमसे कभी कोई अपेक्षा की ही नहीं। अपने आप को सौंप दिया कि आओ मेरी छांव और डालों पर खेलो कूदो और चले जाओ। ये तो हम हैं कि उन्हें भूल नहीं पाते। आज सुबह बस एक पेड़ की याद आई है। बरहम बाबा की याद आई है। शायद इसलिए कि दिल्ली में दोस्त बने न किसी पेड़ से कोई रिश्ता कायम हो सका। ये शहर सिर्फ दफ्तर का पता भर है मेरे लिए। परमानेंट अड्रेस।
57 comments:
sir, ye aapki hi nahin ham jaise bahut saare logon ki kahani hai. ham aate to hain apne sapno ko pura karne ke liye lekin unhi sapno main kho ker rah jaate hain. shayad issi ko jeevan kahate hain.
sir, ye aapki hi nahin ham jaise bahut saare logon ki kahani hai. ham aate to hain apne sapno ko pura karne ke liye lekin unhi sapno main kho ker rah jaate hain. shayad issi ko jeevan kahate hain.
"लेकिन किसी अफसोस के साथ नहीं। मैं यहां क्यों हूं और वहां क्यों नहीं। यह मेरा फैसला नहीं था। समाज और परिवार ने तय किया है कि बड़ा होकर कुछ करना है। कुछ करने के लिए कई प्रकार के खांचे बने हुए हैं। हम सब अपने आप को उन खांचों में फिट कर लेते हैं। एक खांचे से दूसरे खांचे में लौटकर मन बदल जाता होगा। हासिल वही होता है जो पहले खांचे में करने की कोशिश कर रहे होते हैं।"
अपने मन की भावनाओं को इन शब्दों से अधिक अच्छी तरह व्यक्त कर पाना सम्भव नहीं है | पुरानी यादों का नोस्टाल्जिया है और हमेशा रहेगा, जिन्दगी के खांचो में बैठकर यादों के झरोखों में उडती निगाह डालकर एक ईमानदार आह करके उन यादों को बार बार जीने का मन करता रहेगा ये एक सच है तो अपनी वर्तमान स्थिति दूसरा सच | दोनों एक दूसरे के पूरक हैं किसी एक के बिना दूसरे का अवमूल्यन ही होगा |
आपने ठीक ही कहा है की हम यहाँ दफ्तरों में डूब से गए हैं - (ये शहर सिर्फ दफ्तर का पता भर है मेरे लिए। परमानेंट अड्रेस।)
लेकिन यह भी सच है की हम ऐसे समय में थोड़ा वक्त निकलकर अंचल की और लौटें.. इस तरह हम ख़ुद में एक गावं को देख पाएँगे और समझ भी सकेंगे .
ये तो रेणू और नागार्जुन की लिखी पोस्ट लगती है - बाबा बटेसरनाथ तो याद है न, बस, कुछ उसी तरह की पोस्ट। बहुत उम्दा लेखन।
बिल्कुल सटीक कथन
ye gadya padh kar mujhe meri kavita "neem ka ped" yaad aa gayi..."Aaj man kuchh thik nahi
apne ghar ke bahar wala neem ka ped yaad aa raha hai
bada gahra rishta raha hamara
maa ki chaddi se usne kai baar bachaya
uski dalo ne mera bhari vajan uthaya
Anita mere bachpan ki saheli roz sham mujhse usi ped ke niche milne ati thi
mujhse baate karti jati aor apne nakhoono se ped ko kuredti thi.
bahra bua ko jab khujli hui to usi ped se patti tudwane ati thi
chabootre par baithti, khaini peetti aor mohalle bhar ko gariyati thi.
Gangachran chacha ka ladka Madan ek bar mujhse wahi bhid gaya mujhe maar kar bhaga aor chabootre par hi gir gaya.
Dipawali me hum us ped ke neeche ghronda banate the
gobar se lipte fir usme diya jalate the
abki baar ghar gayi to wo ped kat chuka tha
chabootre par dekha to ek nahkoon,bua ki khaini,diye ka tukda aor mera Bachpan pada tha.
ye gadya padh kar mujhe meri kavita "neem ka ped" yaad aa gayi..."Aaj man kuchh thik nahi
apne ghar ke bahar wala neem ka ped yaad aa raha hai
bada gahra rishta raha hamara
maa ki chaddi se usne kai baar bachaya
uski dalo ne mera bhari vajan uthaya
Anita mere bachpan ki saheli roz sham mujhse usi ped ke niche milne ati thi
mujhse baate karti jati aor apne nakhoono se ped ko kuredti thi.
bahra bua ko jab khujli hui to usi ped se patti tudwane ati thi
chabootre par baithti, khaini peetti aor mohalle bhar ko gariyati thi.
Gangachran chacha ka ladka Madan ek bar mujhse wahi bhid gaya mujhe maar kar bhaga aor chabootre par hi gir gaya.
Dipawali me hum us ped ke neeche ghronda banate the
gobar se lipte fir usme diya jalate the
abki baar ghar gayi to wo ped kat chuka tha
chabootre par dekha to ek nahkoon,bua ki khaini,diye ka tukda aor mera Bachpan pada tha.
dukhti rag par haath rakh diya....
वॄक्षों और प्रकृति के अन्यान्य प्रतीकों में ही हमारी जातीय मानवीय संवेदना सहज हो पाती थी पुराने दिनों में, क्योंकि तब संवेदना को मारने के लिये यांत्रिकता नहीं थी.
तब ऐसे ही कोई बरहम बाबा हमारी सारी संचित संवेदनाओं के जाग्रत प्रतीक बन जाया करते थे. कितना निर्दोष होगा वह जीवन, कितने निष्कलुष होंगे लोग ? आह !
barham baba ko padhte hue jane kitne chere yaad aaye......yaadon ka silsila yun hi chalta hai
परदेस की नौकरी ने हमें क्या बना दिया?
हम न घर के रहे न घाट के।
अच्छी और सच्ची पोस्ट।
बरहम बाबा और बनसपती माई शायद ही किसी भोजपुरी गाँव में नहीं मिलेंगे. गाँव की याद ताज़ा हो गई.
"ये शहर सिर्फ दफ्तर का पता भर है मेरे लिए"
ऐसा क्यूं, इस शहर ने आपको बरहम बाबा तो नहीं दिया मगर मीडिया के बरहम बाबा तो आप बनते ही जा रहे हैं...आपके बरहम बाबा अब आपके बरक्स हो जायेंगे...
बहुत बढिया लिखा है....
bahut hi umda likha aapne ...
aapne jo bhojpuri line ka prayog kiya hai usne mujhe apne gawn ki yaad dila di ....
हमारे मुहल्ले में भी एक पीपल का वृक्ष था , वहां लगनेवाली भीड को देखकर दूसरे गांव के लोग पूछते कि क्या यहां के बच्चों की नाभिनाल को इसी पेड के नीचे गाडा जाता है ? गांव की याद दिलाने के लिए धन्यवाद।
Sir mere gaon mein bhi ek aisa hi ped hai jis par ham kuhaku khelte thae. tab bada maja aaa tha aapke blog ne puane dino ki yad dila di.
हमलोग आज जहाँ भी हैं, जो भी हैं समाज के बदौलत है। हम पर समाज का बहुत ऋण है, जिसे हम अपनी सदाशयता से कम तो कर सकते हैं पर चुका नहीं सकते। हमारा यह परम कर्तव्य बनता है कि जो भी बन पड़े, जितना भी हो सके हम हाशिये पर छूट गये भाइयों के उत्थान के लिये कुछ रचनात्मक काम करें। समाज में पिछड़े लोग चूंकि बौद्धिक रुप से भी तो काफी पिछड़े होते हैं, जिससे उन्हें अपने लिए चलायी जा रही बहुत सारी योजनाओं की जानकारी नहीं होती और वे उसका उचित फायदा नहीं उठा पाते। मैं यथासंभव प्रयास करता हूं इनके बेहतरी के लिए और करुँगा, साथ ही मेरा विनम्र आग्रह है सबसे कि सबलोग महसूस करें तथा अपने आसपास जरुरतमंद लोगों को हर तरह से सक्षम बनाने का प्रयास करें।
Raveesh ji,
Barham baba to matra ek prateek hain .Apne barham baba ke madhyam se poorvanchal kee sanskriti kee ek jhalak bhar dikhlai hai.Darasl Barham baba poorvanchal kee us pooree sanskriti,lok paramparaon,reetirivajon,lokgeeton ...aur dher sare moolyon ke sajheedar ya jyada spasht shabdon men kaha jay to gavah hain.
Kaheen inhen barham baba to kaheen Bhav singh baba to kaheen Baba kai Than(sthan)kaha jata hai.
Ek bat aur raveesh ji,hum kaheen bhee rahen desh men ya videsh men...bachpan kee smritiyan to ajeevan hamare sath rahengee hee.Aur ye smritiyan hee hamaree dharohar hain.Achchhe lekh ke liye badhai.
Kabhee mere blog par bhee aiye.Bachchon kee behtaree ke liye ek chhoti see koshish kar raha hoon.
Hemant Kumar
Bahut achchha prastutikaran!
Isi dilli mein 40-50 ke dashak mein (angrezi rajya mein, sarkari colonies mein!), jahan hum rahte the, semal ke perdon ki chhaon mein bachche khel ker barde hote the...Aur, kuchh bachchon ko uske Ma Kali ki jeebh jaise lal phoolon se der lagta tha, kyunki we jab khilte the aur uske beej hawa mein parachute ke saman rui ke sath urdne lagte the tab schoolon mein pariksha arambh hone ka samay ho jata tha...
बढ़िया पोस्ट है रवीश भाई
...कहानी सी...
रेखाचित्र सा खिंच गया। बेहतरीन अनुभूतिया...मार्मिक संवेदनाए...
यह सिर्फ़ अनुभूति नही है.पुराने यादों को फ़िर से ताज़ा करने का बहाना भर नही है रवीश. मन रुआंसा हो जाता है.यादों में वापस लौटता हूँ तो मेरे बचपन के तमाम दोस्त कहते हैं कि कब वापस आओगे?...
हमेशा के लिए. छुट्टियाँ मनाने भर के लिए नही.
ज़िन्दगी से उम्मीदें बहुत हैं.
वापस जा सकूंगा कभी ज़िन्दगी के पास..
khub likha aapne
bahut khoob sir..
ये बरहम बाबा क्या हर गाँव में पाये जाते हैं ? कम से कम भोजपुरी क्षेत्र के हर गाँव में तो होते ही हैं !
बरहम बाबा यानि गांव का कोइ ऐसा युवक जिसके उपनयन संस्कार हो गये हो लेकिन अविवाहित अवस्था में ही उसकी मृत्यु हो गइ हो ..तो जहां अंतीम संस्कार होता है वहीं पर उनके नाम पर पेड रोप दिया जाता है । वस बरहम बाबा स्थापित हो गये । बरहम बाबा खासकर भोजपुरिया गांव में अवश्य ही मिल जाएंगे । उसी तरह मेरे गांव में अचल बाबा है उनकी भी पूजा होती है । कहा जाता है कि उन्हें कुष्ठ रोग था ..समाजा की प्रताडना से तंग आकर उन्होने एक गढ्ढा बनाया उसमें घास फूस डाला , फिर जलाया और उसीमें कूदकर अपनी जान दे दी । उनके नाम पर भी एक पेड रोपा गया वस उस दिन से अचल बाबा की पूजा होने लगी । उसी करह आपको गांव गांव में सती मंदिर मिल जाएगा क्यूंकि १७२१ इ० के पहले तो सती होना आम बात थी । सतीत्व की प्राप्ति के बाद वहीं समाज जो सती होने के लिये प्रेरित करता था ..बाद में सती की मंदिर बनाकर पूजने लगा । और हां ये बरहम बाबा आपको ब्राह्ण और भूमिहार ब्राह्ण बहुल्य गांव में ही मिलेंगे । क्यूंकि बाकि जातियां तो इनकी ढकुरसुहाती में ही अपने को धन्य समझती थी । कहावत थी कि दुसाध को छुइयेगा तो हड्डी छुवा जाएगा । तो भला गरीब , पिछडे और दलित बरहम बाबा कैसे बन जाते ।
आप खुश किस्मत हैं आपने ब्रंहम बाबा को देखा भी और डोल पत्ता भी खेला ।
आलोक जी ने बढिया जानकारी दी...ये तो मुझे पता ही नहीं था...तब तो बरहम बाबा बनना आसान रहा होगा...और शायद इसीलिए ये हर गांव में होते होंगे....एक मेरे गांव में भी है जिसमें बड़ी-बड़ी शाखाएं है,ज़मीन चूमती हुई...
लेकिन हर गांव में क्या एक ही बरहम बाबा होता है या....
aap reporting to achchhi karte hi hain,likh bhi badhiya lete hain.detail me phir kabhi....
aap reporting to achchhi karte hi hain,likh bhi badhiya lete hain.detail me phir kabhi....
Gita mein aadmi ko ulta vriksha kaha gaya...perd ki jard jameen mein hein to manav ki akash mein. Aj ke vaigyanik bhi kahte hain ki wohi chromosomes mein se ek perd ban gaya to ek aadmi! Hum oxygen grahan kar carbon dioxide banate hein aur vriksha iske vipreet co2 grahan ker o2 hamein dete hain...Raja Vikramaditya ki betal pachchisi kahaniyan kuchh vriksha ko bhooton ka niwas-sthan darshati hein...Yeh Hindu manyata sadiyon se aam dharanaon dwara bhi pradarshit hota aya hai...
सतीश और अपर्णा ने सही कहा-बाबा बटेसर नाथ और नीम का पेड़ इन्ही बरहम बाबा की कहांनियां हैं। और बरहम बाबा दरअसल अलौकिक और दैवीय बरहम बाबा नही है- वे गांव-समाज के सामूहिक अपनापन और निर्भीक अभिभावकत्व के प्रतीक हैं,जिसका वक्त के साथ लोप हो गया है। अब तो गांवों में भी लोग दूसरे के बच्चों की बदतमीजी चुपचाप सुन लेते हैं, डांट-फटकार नहीं करते।
मुझे याद है कि बचपन में गर्मियों में आधा घंटा से ज्यादा तालाब में नहाने पर गांव के एक बुजुर्ग किस तरह लड़कों पर छूटते थे और सारे लड़के उनके सामने भींगी बिल्ली बने रहते थे। यहीं लोग गांव के बरहमबाबा थे जिसको अमूर्त रुप में लोगों ने हर गांव के बरगद पर बिठा रखा था। शहरों में आज ऐसी बातें ताज्जुब भरी लगती हैं।
बरहमबाबा का अवसान दरअसल हमारी सामूहिक अपनापन की भावना का अवसान है जो कई रुपों में समाज में सामने आ चुकी हैं।
आदरणीय रवीश जी,
सादर अभिवादन
आपकी सारी रचनाये बहुत ही स्तरीय एवं सहज हैं। बरहम बाबा पढ़कर लगता है, जैसे अपने गाँव में टहल रहे हैं। अगर आप बुरा न मानें तो मैं आपके प्रोफाईल में लिखे गए विवरण में कुछ सुधार करने का सुझाव देना चाहूँगा। जैसे "ज़िंदगी के प्रति एक गंभीर इंसान हूं। पर खुद के प्रति गंभीर नहीं हूं।" के जगह पर अगर "ज़िंदगी के प्रति एक गंभीर इंसान हूं, पर खुद के प्रति नहीं।" लिखा जाता तो ज्यादा अच्छा लगता। फिर "इस ब्लाग में जो कुछ भी लिखता हूं वो मेरे व्यक्तिगत विचार है।" के जगह पर "इस ब्लाग में जो कुछ भी लिखता हूं वो मेरे व्यक्तिगत विचार हैं।" होना चाहिए था। मैं आपकी सारी रचनायें पढ़ता हूँ, और आपसे परम शुद्धता की आशा रखता हूँ।
आपका अनुज-
रजनीश कुमार
ग्राम-अरई, पोस्ट-अरई,
जिला-औरंगाबाद (बिहार)
bahut dino baad kuchh accha likhaa aapney.. nahi to uss likhaaye ke kadradaan nahi hai hum jo aap iss blog me likh rahey they..aisa he kucch likhtey rahey to acchha rahega
बरहम बाबा हो यां मेरे शहर की बरसाती नहर...
बचपन की यादें..निशानियां,समय के साथ और गहरी होती जाती हैं..मन को जकड़ती सी जाती हैं..जिंदगी के साथ संघर्ष करते..जीते-हारते..खोते-पाते,बनते-बिगड़ते...हम आगे तो बढ़ जाते हैं..बढ़ना पड़ता है..जरूरत और मजबूर दोनों है...लेकिन बरसाती नहर का मटमैला पानी..आज भी वैसा का वैसा ही है..खालीस..बिना मिलावट का..पहाड़ से पत्थऱों के बीच से रास्ता बनाकर..मटमैला होता..शहर पहुंचता...स्कूल से आते-जाते...पहले पैदल, फिर साईकिल..फिर कॉलेज की मोटरसाईकिल..सड़क एक छोर बहती बरसाती नहर..का वही मटमैला पानी..नहीं बदला..बदलेगा भी नहीं..जिंदगी का वेग..कभी तेज कभी मध्यम,कभी शांत,हर हाल में चलते रहने-बहते रहने का सबक..वाह बरहमबाबा..बिन बारीश..बरसाती नहर का पानी पलकों पर आकर रूक सा गया है..ठहर सा गया है..लेकिन ये बहेगा नहीं..दुनियादारी का चक्कर है..मंदी की मार है,छोटी सी नौकरी अगर चली गयी तो..आंखों को पानी की जरूरत पड़ेगी..
ki ek acchi smriti jo humko-hum sabke bachpan mai base bargad se samvad karati hai
Kya ajab aarzoo ghar ke boorhon ki hai,
Shaam ho to koi ghar se baahar na ho
Jai Ho Barai Usdaad Ki....Kubh Sadha.
जय बाबा रवीशनाथ..जय 'बाबा बटेसरनाथ'..
बाबा नागार्जुन याद आ गये ......
मुझे याद है तीन महीनों के लिए जब मैं गांव जाता था तो पक्के (छत) पर सोते वक्त मेरी बुआ मुझे घर के पिछवाड़े लगे एक विशाल पीपल का पेड़ दिखाकर कहती कि बरहम बाबा यहीं बैठते हैं...झूठ बोलोगे तो बरहम बाबा बीमार कर सकते हैं...आम तोड़ने के लिए पेड़ पर चढ़ोगे तो पटक सकते हैं.....ठंड में जब आग जलती है तो तापते भी थे बरहम बाबा...और कभी गॆमी की दोपहरिया में अपने गंवई दोस्तों के साथ जब उस पीपल पेड़ के नीचे जाता तो सांय..सांय की आवाज के साथ मन में एक डर समा जाता कि गलत करुंगा तो बरहम बाबा यहीं पटक देंगे...पीपल का पेड़ घर के पिछवाड़े सात बिस्वे की ज़मीन पर आज भी है..पूजा भी होती है...लेकिन नहीं है तो वह बुआ जो बरहम बाबा का डर दिखाकर..शैतानी करने से रोकती....गलत करने पर बरहम बाबा का वास्ता देती..आज जब भी मैं गांव जाता हूं पीपल का वह पेड़ देखकर कभी बरहम बाबा की याद आती तो कभी बुआ के सांवले चेहरे और कठोर हाथों की सिहरन...बरहम बाबा को गांव के बच्चे भी शायद भूल गए...याद है गांव की तारकोल सड़क पर वह पान की गुमटी जहां से बरहम बाबा आड़े में छिपे होते हैं......
एक मंझे हुये टिप्पणीकार की तरह लफ़्फ़ाजी नही करुंगा कि आपने मानवीय संवेदना को नयी आवाज दी पर्यावरण पर आवाज बुलंद की वैगेरह वैगेरह...
सिर्फ़ इतना कहुंगा कि आपने अपने दिल की बात कही है मै भी कभी-कभी मेड पर उगता सुरज सपने मे देखता हुँ !!
kya ye nastalgia nakli nahi hai?
sir.
aap ne bush ko jo juta mara hi us per kuch nahi likha . aapki tippadi ka intjar hi.
babloo
itne aansu kiyo?
ye shuruat hai. abhi aur bahut kuchh badlega aur badalna bhi chahiye
magar davand to rahta hai, hum sachme kitna badal gaye "magar chalta hai"
life goes on
मेरे गृह राज्य हिमाचल में इस तरह का कुछ नहीं है। इस वजह से मैं खुद को इस पोस्ट से जोड़ नहीं पाया। लेकिन अन्य पाठकों को आपकी पोस्ट ने अभिभूत कर दिया है। बढ़िया प्रस्तुति
बरहम बाबा की कहानी पढ़ कर दिल प्रसन्न हो गया। मेरे जैसे अधिकतर लोग जो बिहार युपी से हैं अपने अपने गावं के बरहम बाबा या उसी तरह के देवता या बाबा को मन मे लाने लगे। हमारे क्षेत्रों के ग्रामिण परिवेश कमोबेस एक समान ही है। एक बात बतान चाहुंगा कि ये बरहम बाबा दुसरे प्रदेसो मे कुलदेवता के नाम से जाने जातें हैं। इसलिए
ये बरहम बाबा एक जाती (चाहे वो किसी भी जाती के हों) के लोगो द्वारा पुजे जाते हैं। इसका कारण ये है कि उस गावं के लोग कमो बेस एक हि परिवार के ट्री(पेड़) होते हैं।
एक मुरख आलोक के बात को यहां मैं काटना चाहुंगा की उसे केवल दो जाती के बरहम दिखते हैं। ऐसा नहीं है। ये तुम्हारे अधकचरे ग्यान का बेहुदा टिप्पड़ि है.
हर जाती के कुलदेवता होतें हैं। और चुकी जब परिवार बढ़ जाता
है तो वो समाज के देवता हो जातें हैं।
जब मैं दक्षिण भारत (बंगलोर) मे आया तो अक्सर रात के ९ बजे के बाद ढोल बाजे और जुलुस दिखाई पड़ते थे।
एक दिन मैने पता लगाने कि कोशिश कि ये कौन भगवान को अक्सर रात मे झुला-जुलुस, ढोल नगाड़े के साथ घुमाते रहते हैं लोग। किसी ने बताया कि ये ग्राम देवता हैं। मैने बोला कि भाई काहे का ग्राम? ये तो अब महानगर है। उन्होने बताया कि भाई साहब महानगर है तो क्या हुआ। ये जगह ग्राम का पार्ट था और हमलोग अपने
कुलदेवता को भुल नहीं सकते। खैर समय के साथ पुजा पाठ खतम होने लगा।
मेरे विद्वान दोस्त उपाध्याय ..कुल देवता और बरहम बाबा दोनों दो चीज है । कुल देवता प्रत्येक जाति में ही नही बल्कि हर परिवार में होती है । परिवार का विभाजन होता है तो देवता भी बंटते है । मानलिया कि राम और श्याम दो भाइ है ..राम के यहां अगर देवता प्रतिष्ठित है तो उस देवता के अंश का मिट्टी श्याम के यहां जाएगा और वहां फिर वहीं देवता पदस्थापित हो जाते है । संसार में हिंदू ही एक ऐसी जाति है जहां देवता का भी बंटवारा होता है ।
ब्रह् यानि ब्राह्ण ..तो बरहम बाबा की कहानी अलग है जो मैं अपनी पहली टिप्पणी में तफसील से बता चुका हूं । कहीं भोजपुरी बाहुल्य गांव में विदेशी ब्रह् यानि विदेशी बरहम बाबा भी मिल जाएंगे । इसका मतलब ये हुआ कि कोइ बाहर का परदेसी उस गांव में रहा और अविवाहित अवस्था में उसकी मृत्यु हो गइ तो वैसे जगह में विदेशी बरहम बाबा स्थापित हो जाते है । और उपाध्याय भाइ कहीं भी अगर बरहम बाबा है और वो ब्राह्ण या भूमिहार ब्राह्ण नही है तो मैं तुम्हारी गुलामी करुंगा । और हां कुल देवता और बरहम बाबा में फर्क मालूम करने के लिये बंगलोर जाने की जरुरत नही है ।
Ganimat Hai Ki Aapke Barham Baba Apni Umar Ji Kar Gaye Magar Aaj Kal Barham Babaaon Ki Kya Kahen Babies Bhi Mafiyaaon Ke Aare Ke TALE Apne Din Gin Rahen Hain.Maanav Vraksh Kaat Rahaa Hai.PRYAAVARAN ko KAAT Rahaa HaiAur ULTE VRAKSH Arthat SWAYAM Ko KAAT Rahaa HAi.
Ganimat Hai Ki Aapke Barham Baba Apni Umar Ji Kar Gaye Magar Aaj Kal Barham Babaaon Ki Kya Kahen Babies Bhi Mafiyaaon Ke Aare Ke TALE Apne Din Gin Rahen Hain.Maanav Vraksh Kaat Rahaa Hai. PRYAAVARAN ko KAAT Rahaa Hai. Apnaa BACHAPANKo KAaT Rahaa Hai Aur ULTE VRAKSH Arthat SWAYAM Ko KAAT Rahaa HAi.
Alok
Sab ek hi hain, naam badal jaate hain. brihat rup me meaning samajhane ki koshish karo dosht. Bhai Ravish ne ek example rakha hai ki kis prakar se gaon dehat me chhote devi devta puje jaate hain. Deshi barham more or less kul devta hi hote hain. Lekin tumhari problem ye hai ki tum apni jaati se bahar nikal nahin paate ho. Main gulam bhi dekh kar banata hun, tumhare jaise logo ko nahin.
उपाध्याय भइया मेरी क्या जाति है और मैं कितना जाति के चशमें से देखता हूं इसका प्रमाण मैं आपसे नही लूंगा । मेरा मत था मैने कहा । बुरा लगा हो तो माफ कर देंगे ..क्यूंकि आप किस नजरिये और चश्में से अपने तर्को को रखते है ये मुझे पता है ।
Yehi Hindu manyata thi jo shabdon mein pracheen kintu gyani logon ne manav jivan ka satya khud samjha aur samjhaya bhi, "Pasand apni-apni/ khyal apna-apna." (or 'Hari ananta/ Hari katha ananta...')...Manav ko nirakar karta ka bhautik model jana (shunya se ananta roopon ka) aur manav jivan ko ek natak matra...apne uddeshyapoorti hetu - jise koi (manav) nahin samajh paya...jis karan drama aur vichar bhi anant hain!
हमारें हिमाचल में और खासकर मंडी में प्रत्येक घर के आंगन में एक छोटा मंदिर बना रहता है जिसमें बाबा बालक नाथ जी को स्थापित किया जाता है। कुल देवी या देवता अलग भी हो सकते हैं। और प्रत्येक परिवार के लिए अलग देवता जिसे कई लोग ग्राम देवता कहते हैं, हमारे यहां बास्त्रू नाम से जाने जाते हैं।
नई फसल से बना पहला भोजन उन्हीं को चढ़ाया जाता है।
Bharat ko sampoorna brahmand ka darpan jana gaya, jis mein vibhinna prani ke pratibimb ubharte aur lope hote jaise anadi kaal se dikhai pardte rahte hain...kaun kahan ka hai yeh pata lagana kathin lagta hai apne chhote se jivan kaal mein hi...aur Hindu manyata ke anusar manav roop pane hetu atma 84 lakh roopon mein iske pehle gujar chuki hai!
Udaharan ke liye mera janma Shimla, 'Himachal' mein hua jab wo 'Punjab' mein tha. Kintu mere mata-pita Kumaon (Kurmachal) mein paida hue the (jab wo UP mein tha, kintu ab Uttarakhand mein hai. Aur kuchch itihaswkaron ke anusar hamare poorvaj Maharaswtrian the, Shivaji Maharaj ke rajyakal mein) - kintu papi pate ki khatir mere babuji us samay Shimla mein lagbhag 16 varsh se karyarat the...kintu vishwayuddha ke karan unka sthanantaran varsh '40 mein Dilli (Indraprastha) ho gaya jahan hamara adhik samay vyateet hua hai...
Uprokta ke anusar, mein kabhi-kabhi sochta hoon mein kahan ka rahne wala hoon? Aur, pracheen gyani Hindu dwara poochha prashna, mein kaun hoon? Maharashtrian/ UP ka/ Punjabi/ Himachali/ Dilliwala, ityadi-ityadi?
Mein is karan kewal ek, Nirakar Brahma ko man-na saral pata hoon - kyunki kewal wohi anant hai!
बडे तय करते हैं कि बडा होके क्य बनना है.
बहुत उम्दा लिख है आपने.
अंदर चल रहे यादों को शब्दों का अच्छा जामा पहनाया है आपने.
'Barham Baba, har gaon mein hain. Bihar ke kai bhagonmein inhe dekha hai maine. Kisi jati ka inse judav itna mahatwapurn nahin, jitna inse judi yaadein har vyakti mein.
(gandhivichar.blogspot.com)
Ravish jee ,
apne fir se bachpan ke dinon me dubo diya.
fir yad aayi wo bite pal....
wo ped ki chaw.....
umda lekhan.
keep it up
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