कार्टूनकार पवन की किताब आई है। कार्टूनों की दुनिया,प्रभात प्रकाशन से। दो साल पहले पटना में पवन से मुलाकात हुई थी। ज्यादातर लोग पवनवा बोलते हैं। पवनवा से मिलना है,रूकिये न,बढ़िया आदमी है,अपने आ जाएगा। वाकई में पवन आ गए। उनके कार्टूनों को और करीब से देखने का मौका मिला। दिल्ली लौट कर कस्बा पर लिख दिया बिहार का आर के लक्ष्मण। लिखने के बाद कई दिनों तक सोचता रहा कि उत्साह में तो नहीं लिख दिया। बाद में पवन के कार्टूनों पर विशेष नज़र रखने लगा। धीरे-धीरे यकीन होने लगा कि आर के लक्ष्मण एक मिसाल तो हैं ही,और पवन उसी तरफ बढ़ते हुए नज़र आते हैं। पटना में ही ख़बर मिली कि पवन के कार्टूनों को अमरीका के किसी विश्वविद्यालय में पढ़ाया जाएगा। मुझे बिल्कुल हैरानी नहीं हुई। पवन की भाषा पर आज न कल किसी न किसी भाषाशास्त्री की नज़र पड़नी ही थी।
सलाहियत होती तो मैं भी पवन के कार्टून की भाषा पर शोध लिखता। आर के लक्ष्मण के पास आम आदमी है कथा कहने के लिए। पवन के पास एक पूरा रंगमंच है जिसपर अलग-अलग किस्म के आम आदमी अपनी मिक्स ज़ुबान में मंचासीन होते हैं और कथा कह जाते हैं। पवन का आम आदमी की भाषा का कोई मानक नहीं है। जैसा कि जीवन में होता है,हम कई तरह के शब्दों,अशुद्धियों,शुद्धियों के हेर-फेर से संचार करते हैं। शायद इसीलिए उनके कार्टून ज्यादा बोलते हैं। लगता है कि बिल्कुल कोई पास में बैठकर बोल रहा है। एक ऐसा टोन है जिसे आप तभी समझ सकेंगे जब आप वहां की आबो-हवा में पले-बढ़े हों। बहुत सारी फिल्मों के संवादों में इस टोन की भद्दी नकल हुई है। मगर पवन उसे संचार के व्याकरण के रूप में प्रतिष्ठित कर देते हैं। उनके लिए यह कोई अपवाद स्वरूप मज़ाक नहीं है बल्कि नियम स्वरूप रोज़ाना की संचार साधना है।
'सउंसे देह भंभोरेवाला तइयार बानी लेकिन टिकट लेले बिना इहां से ना जाइम बुझलीं ना अध्यक्ष जी।'एक टिकटार्थी इस ज़बान में पार्टी अध्यक्ष के घर के बाहर ईंट पर चढ़ा है और झांक रहा है। गेट पर पवन ने कुत्ते का साइन बोर्ड लगाया है जिस पर लिखा है- कटाहा कुत्ते से सावधान। पवन सुनने वाले कार्टूनकार हैं। वो लोगों की ज़ुबान से शब्दों को झटक लाते हैं और अपने व्यंग्यों में पटक देते हैं। भंभोरना और कटाहा कुत्ते का इस्तमाल। ऐसी अनेक मिसालें हैं। एक और कार्टन है जिसका संदर्भ है पटना मेडिकल कालेज हड़ताल। पवन का एक फटीचर आम आदमी डॉक्टर को पकड़ लाया है और कहता है कि 'लात-घूंसा-फैट थिरैपी के बिना काम ना चली एक्कर, कैंटीन में बइठ के मरल मरीज़ के संख्या गिनत रहे।'
राजनीतिक कार्टून ठेठ और जीवंत हैं। खूब हंसाते तो है हीं,साथ में असली तस्वीर भी पेश कर देते हैं। ऐसा लगता है कि बिल्कुल ठीक इसीतरह से नीतीश ने बोला होगा,लालू ने कहा होगा और पासवान ने टोका होगा। एक कार्टून में लालू को पवन ने कवि कबिलाठ बताया है। इस एक शब्द से उनके इस कार्टून स्ट्रीप में कई तस्वीरें जिंदा हो जाती है। जैसे ठीक इसी तरह से गांव या शहर के चौराहे पर पांच लोग खड़े हैं और किसी छठे के बड़बोलेपन पर टिप्पणी कर रहे हैं मगर छठा अपनी शान बघारे ही जा रहा है। एक ऐसे ही कवि कबिलाठ टिकटार्थी से लालू परेशान हैं। लालू कहते हैं कि 'का लिखा है रे कुच्छो बुझाइए न रहा है।' टिकटार्थी बोलता है कि 'बोयाडाटा छायावाद में लिखे हैं आ सिग्नेचर यथार्थवाद में किये हैं।'
ऐसी मिसालें देने लगूं तो पवन की पूरी किताब यहीं छप जाएगी। कोशिश करूंगा कि पवन से कुछ तस्वीरें लेकर यहां चस्पां कर दूं। बात पवन की भाषा की हो रही थी। पवन के कार्टून का हीरो उसकी भाषा है। वही नायक है। राष्ट्रीय अखबारों के कार्टून अपने हाव-भाव से इशारे करते हैं,बोलते कम हैं। पवन के कार्टून एक्शन में रहते हैं। दौड़ते-भागते,गिरते-पड़ते। उनका बोलना उस हाव-भाव को और मुखरित करता है। पवन के कार्टून में क्षेत्रियता के टोन हैं। वह अपनी सामाजिकता के अंतर्विरोधों से निकल कर आता है। सिर्फ एक घटना नहीं होती बल्कि उसके ईर्द-गिर्द का सामाजिक ताना-बाना निकल आता है। तभी आप जब समझते हैं तो पेट फाड़ कर हंसने लगते हैं।
भाषा के मानकीकरण के कारण स्थानीय फ्लेवर खत्म हो गए। पवन ने उन्हें ज़िंदा कर दिया है। पवन के शब्दों की अलग से मिमांसा होनी चाहिए। बउड़इले,बुरबक,हउवाना,मिजाजे,विभगवे,सइकिलिया,सुतल, लटपटिया,बइठले,ले लोट्टा जैसे अनेकादि ऐसे शब्द आपको ठठाते हैं। पटना की सड़कों पर लोग ऐसे ही बात करते हैं। तो कार्टून क्यों आगरा हिन्दी मानक प्रतिष्ठान के व्याकरण से प्रभावित हो? मैं नहीं कहता कि पूरा अखबार ही इस टोन में निकले लेकिन अखबार में एक कोने में इस तरह के फ्लेवर का इंतज़ाम तो किया ही जा सकता है।
इतना ही नहीं आप पवन की भाषा को ध्यान से देखें तो कई और दिलचस्प चीजे नज़र आएंगी। कैसे कंप्यूटर, इंटरनेट और नई तकनीकी जब एक समाज में प्रवेश करती है तो वहां की भाषा किस तरह से स्वागत करती है। रिएक्ट करती है। एक कार्टून है-सभी थाने में लगेंगे कंप्यूटर,इस न्यूज पर थाने में कंप्यूटर के सामने बैठा कॉलर खोल दारोगा बोलता है- 'देख,इन्टर मारब नू त कइसे गुलाम पलटी खाई।'एक कैदी बोल रहा है,'हई सीडिया लगाइए न मिजाजे बम हो जाएगा दरोगा जी',तो एक सिपाही आकर दारोगा जी को रिपोर्ट कर रहा है। दारोगा जी कंप्यूटर के सामने बैठे हैं। सिपाही बोलता है- 'गूगल के थ्रू बाईकर्स सर्च में लगा हुआ हूं सर...बस, किसी को लोकेट होने की देर है, मार माउस के दिमाग ठंडा नहीं कर दिया तो कहिएगा।' स्थानीय बोलियां फरनेस की तरह होती हैं उसमें बड़ी भाषाओं को खूब गलाया-पकाया जाता है। एक तरह से कहें तो अपनी गोद से निकल कर बड़ी भाषा बनी हिन्दी के खिलाफ बगावत भी है। मानक हिन्दी के पास ऐसे संदर्भों को व्यक्त करने के लिए कोई मुलायम शब्द नहीं है मगर बोलियों के पास है। इसीलिए पवन के कार्टून तकनीकि जटिलताओ को भी उसी मुलायमियत से पेश कर देते हैं।
बिहार के सबसे लोकप्रिय अखबार को भी इसका श्रेय मिलना चाहिए। हिन्दुस्तान ने कम से कम ऐसा साहस किया। पटना यात्रा के दौरान संपादक अकु श्रीवास्वत से बात हो रही थी। चिंता कर रहे थे कि हिन्दी को ही ओनरशिप लेनी होगी। हम भोजपुरी या अन्य स्थानीय भाषाओं को नहीं छोड़ सकते। पवन को सहयोग मिला होगा तभी उनके कार्टून स्ट्रीप के अमरीका में पढ़ाये जाने की ख़बर दैनिक हिन्दुस्तान ने पहले पन्ने पर छापी थी। अखबार भी जानता है कि उसके पाठक अब कार्टूनकार और उसके नए-नए किरदारों से बतिया रहे हैं। बाकी अखबारों को भी ऐसा ही सोचना चाहिए। कई जगहों पर हुआ है मगर पवन जितना खुलकर नहीं।
पवन के कार्टून का कोई एक किरदार होना चाहिए या नहीं। यह सवाल अकु श्रीवास्तव का है। मेरे पास इसका ठोस जवाब नहीं। सरसरी तौर पर लगता है कि पवन के कार्टून सिनेमा के उस सीन की तरह है जो अलग-अलग रूपों में आगे बढ़ती चली जा रही है। कहानी बढ़ा ले जाती है,किरदार नहीं। एक किरदार का न होना शायद भेरायटी की अनंत संभावनाओं को जन्म देता है। एक किरदार की नजर से दुनिया दिखाने की बजाय अलग-अलग किरदारों से दुनिया की विविधता सामने आनी चाहिए। पर इस पर बहस चलती रहनी चाहिए। मैं इस किताब को शायद इसलिए भी पढ़ा कि हर पन्ने पर अलग-अलग आइटम टाइप लोग डांस कर रहे थे। खूब हंसा। खूब मज़ा आया। भाषा के स्तर पर इस शानदार और क्रांतिकारी प्रयोग को बढ़ावा देने में जिनका भी हाथ रहा है उन्हें बधाई। हिन्दुस्तान अख़बार और संपादक को खास तौर से। देखियेगा पवन एक दिन बिहार के आर के लक्ष्मण ही साबित होंगे। फिर कह रहा हूं। इस बार यकीन और गहरा हो चुका है।
वर्किंग स्कूल- मोबाइल मास्टर
जब ऑन रोड अंग्रेज़ी सीखी जा सकती है तो वर्किंग स्कूल भी होना चाहिए। काम छुड़ा कर इन बाल कामगारों को, जैसा की तस्वीर से प्रतीत होता है कि यह लड़की किसी की मज़दूरी नहीं कर रही है, स्कूल ले जाने का आंदोलन पूरी तरह से सफल नहीं हो सका है। हरियाणा के करनाल में भी देखा था कि वजीफा और सुविधा के बाद भी ढाई सौ बच्चे अपने मां बाप के साथ फेरी लगाने चले जाते हैं और औपचारिक व तकनीकी शिक्षा से वंचित रह जाते हैं। कई शहरों में मैंने ऐसी तस्वीर देखी है कि लड़की दुकान पर बैठी है मगर ध्यान किताबों में हैं। ऐसी ही एक तस्वीर ओरछा में ली थी। पांच मिनट तक क्लिक करता रहा लेकिन लड़की की नज़र ही नहीं उठी। भागलपुर में भी ऐसा ही हुआ। इस लड़की को पता ही नहीं चला कि कोई ब्लॉगर बेवकूफ फोटू खींच रहा है। शायद वो यही समझ रही होगी कि यथावत समस्याओं के इस देश में तुम खींचो,ब्लॉगर तुम फोटू खींचो, हम यहीं हैं। हम कल भी यहीं रहेंगे।
तो दोस्तों ये कल वहीं तो रहें लेकिन पढ़ाई में ध्यान लगाने का जो जज़्बा है उसे थोड़ी सी मदद मिल जाए। मोबाइल मास्टर जी बना दिया जाए जो घूम-घूम कर पढ़ाता फिरे। हर शहर में पचास मोबाइल मास्टर हों। यह इंतज़ाम सांसद फंड से भी हो सकता है, नागरिक फंड से और सरकार से भी। मोबाइल मास्टर विषयों के दिन तय कर दे। गणित,अंग्रेजी और साइंस के हिसाब से। वो जाए और पढ़ा आए बजाए इसके कि कोई केंद्रीय कानून का रिजस्टर दिखाया, इसका झोंटा पकड़ा और क्लास रूम में पटक दिया लो अब दर्ज हो जाए। सर्व शिक्षा अभियान में। कुछ करो दोस्तों। आखिर की दोनों तस्वीरें ओरछा की हैं। सबसे आखिर में जो लड़की है वो अंग्रेज़ी में गांधी पर लेख लिख रही थी।
ऑन रोड अंग्रेजी
लखनऊ से हमारे फेसबुकिया दोस्त सैय्यद मोहम्मद सोबान ने भेजी है। सोबान भी पत्रकारिता से जुड़े हैं। उन्होंने मेरे फेसबुक पर ये तस्वीर पोस्ट की थी लेकिन मुझसे रहा नहीं गया सो आप सभी के लिए उधार मांग ली।
नाम की भाषा से काम की भाषा बनाने वाले इस अंग्रेजी प्रचारक का लख-लख नमन। एलिटिया भाषा से फुटपथिया भाषा बनाने का मौलिक आइडिया अन्वेषण करने वाले इस युग मर्द का नाम पता लगाया जाना चाहिए। चिनिया बादाम खाते जाओ,अंग्रेजी सीखते जाओ। ऐ भइया, ऐ दीदी। आते जाओ,सीखते जाओ। एक रुपया में एक अंग्रेजी। खुदरा दीजिएगा। चेंज नहीं है। हमारे यहां से अंग्रेजी सीखे हुए लोग ओबामा तक से बतियाते हैं। शर्तिया अंग्रेजी सीखें। भगन्दर बावासीर ठीक हो न हो,अंग्रेजी ठीक हो जाएगी। कुंठित मन मचलन की बीमारी से मुक्त होने का वक्त आ गया है, अंग्रेजी सीख लेने का सुनहरा टाइम आ गया है।
नाम की भाषा से काम की भाषा बनाने वाले इस अंग्रेजी प्रचारक का लख-लख नमन। एलिटिया भाषा से फुटपथिया भाषा बनाने का मौलिक आइडिया अन्वेषण करने वाले इस युग मर्द का नाम पता लगाया जाना चाहिए। चिनिया बादाम खाते जाओ,अंग्रेजी सीखते जाओ। ऐ भइया, ऐ दीदी। आते जाओ,सीखते जाओ। एक रुपया में एक अंग्रेजी। खुदरा दीजिएगा। चेंज नहीं है। हमारे यहां से अंग्रेजी सीखे हुए लोग ओबामा तक से बतियाते हैं। शर्तिया अंग्रेजी सीखें। भगन्दर बावासीर ठीक हो न हो,अंग्रेजी ठीक हो जाएगी। कुंठित मन मचलन की बीमारी से मुक्त होने का वक्त आ गया है, अंग्रेजी सीख लेने का सुनहरा टाइम आ गया है।
साग-चूड़ा-चाय-गोईंठा
एक कतार से साग की टोकरियां देखकर लगा कि इसका एलित नाम होना चाहिए। साग स्ट्रीट। बथुआ, खेसारी और चना के साग। चना बीस रुपये पसेरी भाव मिल रहा था। सुबह-सुबह सागों की ऐसी हरियाली दिखी कि दिल्ली का मल्टी सब्ज़ी मॉल ठेला याद आ गया। एक ही ठेला में सब ठूंसे रहता है। ऐसी एक तस्वीर ब्लॉग पर है भी। एक्सक्लूसिव आइटम का सिस्टम खत्म ही होता जा रहा है।बड़का सेम भी बीस रुपये पसेरी था।
दूसरी तरफ चूड़ा का कारोबार है। कतरनी धान का चूड़ा न खाये त का खाये। पैंतासील रुपये किलो। कतरनी के स्वाद भी गिरावट आ रही है। फिर भी यह बेतिया साइड के मिर्चा धान के चूड़े की बराबरी तो कर ही लेता है। एक चूड़ा का वेरायडी हज़ारा धान का भी थी। अच्छा नहीं था।
चाय की दुकानों में भीड़ सुबह चार बजे से ही काबिज़ हो जाया करती है। ऐसा लगता है कि चार बजे न उठे त दोकनिये बंद हो जावेगा। पूरब के शहर पहले जागते हैं। स्टेशन से टांय टूईं की आवाज़ रात भर जगाए रखी। यात्रीगण कृप्या ध्यान दें टाइप की कान फोड़ू ध्वनियों से ये खामोश तस्वीरें अच्छी है। पांचे बजे भांग की गोली बिकते हलऊ। फोटो न लेवे देलक। बोला चोरी नहीं कर रहे हैं न। कमा खा रहे हैं। जीय राजा। क्या लॉजिक दिहीस है। मैगजीन-पेपर के स्ट्रीट कार्नर पर भी गए। जलती जवानियों को बुझाने वाली पत्रिकाएं बिक रही हैं। कुछ पत्रिकाओं पर ज़ूम इन किये ही थे कि बिहार सरकार के राजपत्रित वाले कलेंडर से ढंक दिया। कहां दिल्ली में विजय माल्या के कलेंडर का क्लासी स्वाद और कहां तीन रुपये वाला ई कलेंडर।
लास्ट में ई फोटो गोईंठा का है। चूल्हे के संसार में गैसागमन से पहले के आधुनिक भारत की रसोई में कोयले का दोस्त गोईंठा। गैस आज पाइपलाईन से बह रही है,गोईंठा आज भी बिक रहा है। कल भी बिकेगा। बीस रुपये का सैंकड़ा मिलता है। हमारे बचपन में डेढ़ रुपये सैंकड़ा हुआ करता था। हमी नहीं बुढ़ाये हैं खाली, इन्फेसनवा भी तो बढ़ा है न जी। भागलपुर तस्वीरों का शहर है। अभी माल खत्म नहीं हुआ है। अपलोड करेंगे। धीरे-धीरे।
जुगाड़ ठेला
एक लीटर में डेढ़ घंटा। मैं चौंक गया सुनकर। सवाल यही था का कि माइलेज कितना है। बोला कि ये होंडा पंप के इंजन से बना है। अस्सी सीसी का इंजन लगा है। किलोमीटर में नहीं घंटे में चलता है। जुगाड़ ठेले में मीटर नहीं है। पानी पटाने के काम आता था अब इसे लगाकर ठेला को हमने टैम्पो बना दिया है। तस्वीर में देखेंगे कि पेट्रॉल भरने के लिए ऊपर से कैप लगा है। नीचे पानी वाले पंप का इंजन कार बन कर सो रहा है। चालीस हज़ार पांच सौ रुपये का है ये जुगाड़ ठेला। कहते हैं कि गुजरात से प्रेरित होकर यहां आया है।
इस ठेले ने ठेले वालों की ज़िंदगी बदल दी है। रिक्शा गाड़ी खींचने में उनकी जान जा रही थी। अब वो सामान लादकर बस चल देते हैं। तस्वीर में आप देखेंगे कि आलना की तरह बीच में डंडी लगी है। गाड़ीवान ने बताया कि औरतें या सवारी सामान लादकर इसे पकड़ लेती हैं। पटना से लेकर भागलपुर तक में जुगाड़ ठेला दौड़ने लगा है। बड़ी कंपनियां ग़रीबों के लिए सवारी नहीं बनाती। बनाएंगी भी इतना महंगा कर देंगी कि कर्ज के बोझ से लाद देंगी। टेक्नॉलजी पर ग़रीबों ने विजय प्राप्त करने के लिए अपनी तरकीब निकाली है। पश्चिम उत्तर प्रदेश में जुगाड़ गाड़ी भी अपनी तरह का अनोखा कमाल है।
लुंगियां ही लुंगिया
जब से हमारा बरमुडाकरण हुआ है,देहाती से शहरी बने लोग लूंगी को भूल रहे हैं। दिल्ली आए प्रवासियों ने लूंगी का त्याग किया है। ट्रैक सूट,हाफ पैंट या बरमूडा। पटापटी का पजामा(धारीवाला) या अंडरवियर तो ग़ायब ही हो गया। इसके बाद भी लूंगी बड़ी आबादी का दैनिक पहनावा है। पिताजी बहुत शौक से पहना करते थे। गांव से कोई आता था तो बताते थे कि आपके लिए भी लाया हूं। एकदम फैन्सी और यूनिक। चेक वाला चलल बा त ब्लूका में हरिअरका लाइन वाला। लूंगी पर बहुत आख्यान चलता था। जब से हम महानगरीय हुए हैं,कपड़ों के एक्सक्लूसिव दुकान भूल गए हैं। मॉल में जाते हैं और सेल में लगे ट्रैक सूट को ले आते हैं। घर में हर वक्त स्मार्ट और दौड़ चलने की मुद्रा में खूद को बकलोल बनाए घूमते रहते हैं। भागलपुर में मदीना लुंगी स्टोर पर नज़र पड़ी तो सोचा कि लूंगी का हाल-चाल लेते हैं।
आम लोगों की लूंगी अस्सी से नब्बे रुपये की आती है। दुकानदार ने बताया कि ज्यादातर लुंगियां मद्रास से बन कर आती है। मुसलमान ज्यादा पहनते हैं मगर हिन्दुओं में गरीब या साधारण लोग। उसके पास सबसे महंगी लूंगी ५०० रुपये की थी। तस्वीर में जो हरी वाली ब्लू वाली लूंगी है वो चार सौ नब्बे की है और सफेद वाली दो सौ नब्बे की। कोलकाता से एक लूंगी आती है जिसे बड़ा लोग पहनता है,वो नौ सौ रूपये की है। मगर भागलपुर में हम नहीं रखते हैं। खरीदार नहीं है उसका।
मल्टीस्टोर पान की दुकान
बेगूसराय रूकना ही था। बरौनी में रूकने का मौका मिला। दही-चूड़ा खाने के लिए रूका और कुछ क्लिक करने के लिए भी। सलाहियत होती तो बेगू जगत पर एक किताब लिखता। मुझे बेगूसराय के किस्से, आबो-हवा और धारायें बहुत आकर्षित करते रहे हैं। लंठई , विद्वता और वैचारिकता का इतना महीन ब्लेंड और ठेठपन कहीं और नहीं दिखने को मिलता। इसके समानांतर एक और भौगोलिक क्षेत्र है बलिया। ज़ीरो माईल पर रूका था मैं।
ख़ैर मैं बात पान दुकान में आ रहे बदलावों की करना चाहता हूं। देश भर में पान की गुमटियां क्रांतिकारी ढंग से मल्टीस्टोर से लड़ने के लिए खुद को बदल रही हैं। इस पान की दुकान में आप सैनिट्री नैपकिन और ब्रेड एक साथ बिकते देखेंगे। ऐसी जगहों और दुकानों पर मर्दों का ही दबदबा रहता है। वहां सैनिट्री नैपकिन देखकर अच्छा लगा। वर्ना भारत में इसका प्रचार तो खुलेआम होता है। टीवी से लेकर फिल्म तक में, मगर बिक्री ठोंगे और काले पोलिथिन बैग में होती है। पता नहीं क्या और किससे छुपाने के लिए। यह सोच कर अच्छा लगा कि दोनों बातें हो सकती हैं. या तो मर्दों की इस गुमटी पर औरतें भी नैपकिन खरीदने आती होंगी या फिर मर्द ही खरीद कर ले जाते होंगे।
पान की गुमटियां स्टोर बन रही हैं। ब्रेड,दही,की रिंग,नारियल तेल, रूमाल कम से कम सौ से ज्यादा किस्म के आइटम बिक रहे थे। पान जर्दा के अलावे। जब तक पान बन कर तैयार हो, तब तक अख़बार में सुशासन की ख़बरें भी बांची जा रही हैं। सामूहिक अख़बार पढ़ने के दृश्य बिहार को पेटेंट करा लेने चाहिए। इतना क्या मिलता है इनको अखबारों में। एक खरीदेगा, बीस पढ़ेगा। वाह। कुछ तस्वीरें अख़बार पठन के सार्वजनिक माहौल पर भी पेशे ख़िदमत हैं।
भाषा में भक्रमण
बिहार में व वर्ण पर भ वर्ण का दबंग किस्म का अतिक्रमण होता रहा है। जनबोली में भ ने हमेशा व को विस्थापित किया है। कई ऐसे शब्द हैं जो उत्पन्न हुए व के साथ लेकिन प्रचलन में रहे भ के साथ। भागलपुर में भेरायटी चौक है। इस पर नज़र पड़ते ही भक्रमण (भ के अतिक्रमण से बनाया गया नया शब्द) के मारे तमाम शब्दों को होर्डिंग पर खोजने लगा। भेलकनाइज,भेल्भेट,भेजीटेबल,इनभौलमेंट,भेलेएबुल,भौलीबौल,कभर। किसी शब्दशास्त्री को भक्रमण पर अलग से पर्चा लिखना चाहिए। भोजपुरी में भोकार पार कर रोना एक अद्भुत क्रिया है। वैल्यू भी भैल्यू हो जाता है। एक दिन हम बिहार को भी भिहार कहने लगे हैं। शायद इसलिए बच गया है कि बिहार व से नहीं ब से शुरू होता है। सरसरी शोध से लगा कि भ की दुश्मनी सिर्फ व से है ब से नहीं। भाषा में भदेसपन कहीं है तो यहीं है, यहीं है। इस भक्रमण ने हिन्दी की बोलियों को बैले डांस का ट्रिक दे दिया है। व्याकरण के अनुशासन का राज चलता तो भाषाएं कैंटोनमेंट की तरह नीरस लगतीं।
भागलपुर की खंडहर होती धर्मशालाएं
घूमते-टहलते एक धर्मशाला में पहुंच गया। दल्लू बाबू का धर्मशाला। बीसवीं सदी के चार साल हुए थे तब खेमका परिवार के लोगों ने इस धर्मशाला को बनवाया था। अब मुकदमेबाज़ी में फंस गया है। बत्तीस कमरे हैं। बड़ा सा आंगन। एक चापाकल। रखरखाव एकदम खराब। रंगाई-पुताई इक्कीसवीं सदी में तो नहीं ही हुई है। बरामदे में कुछ यात्रियों को देखकर पूछने लगा कि यहां कौन लोग ठहरते हैं। मैनेजर बासुदेव घोष ने बताया कि यहां गरीब लोग ठहरते हैं। गांव से जब शहर में आते हैं, तो उनके लिए होटल मुश्किल है। बरामदे का किराया तीन रुपये है। रूम का तीस रूपये। जिसमें से दस रूपये बासुदेव बाबू अपनी सुविधा सप्लाई और वेतन के लिए रख लेते हैं। सुविधा में दो रुपये की बोरी की चट्टी मिलती है। बस। बाथरूम नरक से भी बेहतर था। गंध से एनिस्थिसिया का असर पैदा हो रहा था।
अब कोई धर्मशालाएं नहीं बनवाता। पुण्य के नए इदारे बन गए हैं। ये सारी धर्मशालाएं गंदगी का अंबार बन गई हैं। बासुदेव घोष ने बताया कि किशोर कुनाल इन सब मामलों के कर्ता-धर्ता हैं। उनके पास समय की कमी है वैसे वे नेक काम कर रहे हैं। घोष बंगाली हैं मगर शारीरिक हाव-भाव से बंगालीपन लुप्तप्राय हो चुका है। एक किस्सा बताया कि लालू के राज में जब यहां के डीएम गोरेलाल यादव ने खटाल खोलने की बात की तो उन्होंने कब्ज़ा होने के डर से धर्मशाला के पीछे की जमीन को कूड़ेदानी में बदल दिया। कब्जे से बचाने के लिए यहां कूड़ा फेंकवाने लगे।
यह एक और धर्मशाला है। यहां भी एक सज्जन ने कहा कि देखिये। ये खींचीये न। पीछे के हिस्से में कूड़े की छंटाई हो रही थी और सामने खंडहर। यहां ट्रांसपोर्ट यूनियन का दफ्तर चलता है। भागलपुर के पत्रकारों और ब्लागरों को धर्मशालाओं के इतिहास, योगदान और स्थिति पर लिखना चाहिए। ट्रस्ट की यह ज़मीन समाज के काम आ सकती है।
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