हैंडसम लड़के के लिए....

मैथिल हैंडसम लड़का,बैंक,पिता अधिकारी,हेतु सुशिक्षित बधू चाहिए। स्मार्ट ब्राह्मण लड़का,आईआईटी,हेतु सुंदर प्रोफे.,नन प्रोफे.वधू चाहिए। श्रीवास्तव,मंगला,एमबीए,पिता राजपत्रित अधिकारी,हेतु लड़की लंबी,गोरी,सुन्दर और सुशिक्षित चाहिए। अम्बष्ट स्मार्ट बिहार सरकार में कार्यरत लड़का हेतु घरेलु लम्बी सुन्दर वधू चाहिए। अतिसुंदर नवाज़ी शेख लड़की हेतु आईटी, सरकारी अफसर,वर चाहिए। अतिसुंदर भूमिहार लड़की बीटेक एमबीए हेतु बीटेक वर चाहिए। कुर्मी अतिसुंदर दुधिया गोरी कॉन्वेटेड ग्रेजुएट हेतु वेलसेटल्ड वर चाहिए।


अख़बारों में हर रविवार को आने वाले शादी के विज्ञापनों का कई तरह से पाठ किया जाता रहा है। इन विज्ञापनों की भाषा बदल रही है। इनकी हिंदी काफी खोजी किस्म की है। लड़का और लड़की की खूबियों के बीच एक किस्म की प्रतियोगिता मची है। इन्हीं दावेदारियों की अभिव्यक्ति में समाज का चेहरा दिखने लगता है।


इन विज्ञापनों के लड़के हैंडसम और स्मार्ट हैं। तो लड़कियां गोरी,सुन्दर और अतिसुंदर दूधिया गोरी हैं। सुन्दर लड़की और अतिसुन्दर लड़की में फर्क नज़र आता है। बात लंबाई और रंग से आगे बढ़ चुकी है। लड़की अपनी खूबी बताने के साथ साथ पसंद भी बता रही है। जैसे अति सुंदर भूमिहार लड़की खुद भी बीटेक और एमबीए है और उसे लड़का भी इसे प्रोफेशन का चाहिए। साफ है इन विज्ञापनों से झलकता है कि मां बाप अपनी बेटी की पसंद को महत्व दे रहे हैं। जैसे एक विज्ञापन में कहा गया है कि अति सुन्दर राजपूत लड़की गोरी हेतु आईआटी या एमबीए वर चाहिए।

सांवले रंग की कोई कीमत नहीं है। अतिसुन्दर होने की शर्त है गोरी होना। इसलिए अतिसुन्दर लड़कियों के साथ गोरी है यह भी लिखा जाता है। कहीं कोई यह न समझ ले कि लड़की अतिसुन्दर तो है मगर सांवली तो नहीं। रंग को लेकर हमारी सोच साफ झलकती है। गोरी बधू लाने की होड़ मची है।

ऐसे में लड़के खुद को हैंडसम और स्मार्ट कह कर दूसरे लड़कों से अलग कर रहे हैं। क्योंकि कुर्मी एमबीए लड़की अतिसुन्दर और गोरी है। उसे स्मार्ट वर चाहिए। अब लगता है कि शादियां उन्हीं के बीच हो रही हैं जो नौकरी के बाद अतिसुन्दर और स्मार्ट होने की कसौटी पर खरे उतरते हैं। अतिसुन्दर होने की दावेदारी और पाने की ख्वाहिश हर जाति तबके में हैं। बढ़ई अतिसुन्दर बिहार में कार्यरत हेतु वर चाहिए। अतिसुन्दर फूलमाली लड़की हेतु एमबीए वर चाहिए।


लड़कों के विज्ञापन में एकलौता पर भी ज़ोर है। इकलौते बेटे का बाप अलग तेवर में होता है। सारी संपत्ति एक ही आदमी को ट्रांसफर होगी इसलिए उसका भाव ज़्यादा होता है। अब इन विज्ञापनों में ज़्यादातर युवक स्मार्ट हैं। लेकिन बात आगे बढ़ चुकी है। सिन्हा,अमेरिका में कार्यरत स्मार्ट,स्लीम युवक हेतु सुंदर,गोरी,शिक्षित,स्लीम वधू चाहिए। यानी अतिंसुन्दर,हैंडसम के साथ अब स्लीम होना भी नई शर्त है।

इन विज्ञापनों में नए नए शब्द जगह बना रहे हैं। वेलसेटल्ड,एजुकेटेड,प्रोफेशन का संक्षिप्त रूप प्रोफे,नन प्रोफे,कान्यकुब्ज की जगह का.कु और इंजीनियर की जगह इंजी.आदि का इस्तमाल हो रहा है। लड़के या लड़की के बाप के पास अपना मकान है, इसका भी ज़िक्र है। कमाई के अंक भी बताये जा रहे हैं। जैसे- चमार लड़का,एमए,अपना व्यवसाय,आय ५ अंकों में पिता अधिकारी रिर्टा.(रिटायर्ड का संक्षिप्त रूप)हेतु घरेलु सुन्दर लड़की चाहिए। स्थान का भी ज़िक्र है। स्वर्णकार अयोध्यावासी वर के लिए ग्रेजुएट गोरी स्लिम एवं ऊंचाई ५ फीट ५ ईंच स्वजातीय वधु चाहिए।

विज्ञापनों के व्याकरण बदल रहे हैं। हिंदी पत्रकारिता के लिंग विशेशज्ञों ने द्वारा और तथा को खत्म करने के अध्यादेश कब से जारी किये हुए हैं। लेकिन इन विज्ञापनों में हेतु मौजूद है। हेतू और हेतु दोनों रूपों में। एक गलत है और एक सही। लेकिन अर्थ एक है। वधू और वधु दोनों तरह से लिखा जाता है।

जाति बंधन से मुक्त और दहेज रहित विवाह के प्रार्थी भी नज़र आते हैं। बहुत लोग उप जातियों के बंधनों को भी तोड़ रहे हैं। सभी जैन अग्रवाल मान्य तो कभी सुन्नी लड़के के विज्ञापन में लिखा होता है कि सभी मुस्लिम मान्य। दहेज नहीं और डिमांड नहीं जैसी अभिव्यक्तियां नज़र आती हैं। सुशील और संस्कारी जैसे शब्द हैं लेकिन कम हैं।

पूरे विज्ञापनों को देखिये तो सांवले,काले,कम सुंदर,चश्मेवालों,मोटे,छोटे आदि के लिए कोई जगह नहीं है। शादी के मामले में हम रंगभेदी हैं। समझ नहीं आता कि अतिसुन्दर वाली लड़की के नीचे जो एक और कायस्थ लड़की का विज्ञापन है लेकिन उसे गोरी और अतिसुन्दर नहीं लिखा है। तो क्या कोई उस परिवार से संपर्क नहीं करेगा।

शादियों को लेकर हम हमेशा से हिंसक रहे हैं। गोरी लड़की होती है तो मुहंदिखाई होती है। कई बार यह अफवाह भी सुनी है कि लड़की अच्छी नहीं है कि इसीलिए फलां बाबू ने रिसेप्शन नहीं किया। मुहं दिखाई का मतलब ही है अपनी रंगभेदी इच्छाओं का इनाम लड़की को देना। बाप रे। लड़कियों पर क्या गुज़रती होगी। औरतों की ठेलमठाली। सब घूंघट उठा कर देख रही हैं कि अच्छी है या नहीं। जहां अब मंच पर रिसेप्शन होता है वहां देखने का नज़रियां थोड़ा स्मार्ट और स्लिम होता है। इसीलिए इन विज्ञापनों को फाड़ कर फेंकिये और भाग कर शादी कीजिए। अपनी पसंद की लड़की और लड़के से। न कि गोरी, लंबे और स्लिम आदि शर्तों के हिसाब से। मूड खराब हो गया इसे पढ़कर।

( सोर्स- हिंदुस्तान अखबार में छपे विज्ञापन)

ज़रूरत है एक पांडे पार्क और मिश्रा मयखाने की....

बस सच समझ लेना

मेरी उन तमाम झूठों को
जब तुम इक दिन पकड़ लेना
कुछ और नहीं उन्हें
बस सच समझ लेना
इन्हीं झूठों के सहारे अक्सर मैं
कुछ घंटे देर और रूका रहा
कुछ बातें और करता रहा
कुछ नज़रें और फेरता रहा
बीच रास्ते से लौट आता रहा
सुना है कोई मशीन पकड़ लेगी
उन तमाम खूबसूरत झूठों को
जिनका इस्तमाल करता रहा मैं
प्रेम के तमाम पलों में
किसी अकाट्य सच की तरह
झूठ को बदनाम करने की तमाम साज़िशों के ख़िलाफ़
मैं खड़ा होना चाहता हूं
सच के पीछे तराई से उतर कर किसी गौतम की तरह
गया से लेकर कुशीनगर तक नहीं भटकना चाहता
सारनाथ के स्तूपों में बैठकर मैं
गेरूआ वस्त्रों से लैस सच का धर्म नहीं बनाना चाहता
तुम्हारे साथ झूठ का जीवन जीने की ज़ीद
किसी भागते समय में एक ठहरा पल बनाती है
वहीं तो हम अपने प्रेम का एक संसार रचते हैं
झूठ की दीवारों को ऊंची कर
अपना एक छोटा सा घर-बार बना लेते हैं
झूठ के पकड़े जाने के तमाम डरो से
आज़ाद होकर मैं एलान करता हूं
जब भी कोई मशीन पकड़ ले
मेरी उन तमाम झूठों को
कुछ और नहीं उन्हें
बस सच समझ लेना

क्या पतंगों को काइट कहते हैं?

रविवार को पतंगों की दुकान में पहुंचा था। बेटी को पतंग चाहिए। वो उड़ाना चाहती थी। वैशाली के आस पास की दुकानों में पतंग बेचने वालों से पूछा कि फलां पतंग का नाम क्या है तो जवाब नहीं दे पाया। बहुत पूछा तो जवाब मिला कि काइट कहते हैं। मेरी बेटी ने भी कहा कि काइट ही कहते हैं पापा। मैं बोलने लगा कि नहीं हर पतंग का अपना एक नाम होता है। वो और हैरान हुई लेकिन तब भी दुकानदार ने कोई दिलचस्पी नहीं दिखाई। मैं अपने पुराने दिनों को याद करते हुए कहने लगा कि ये रूमाली है,घईली है,इसको टोपी कहते होंगे। मेरी बेटी काफी खुश हो गई कि सबके अपने अपने नाम होते हैं। बोली कि पतंग आदमी होता है क्या। मैंने कहा कि आदमी तो नहीं होता लेकिन आदमी का दोस्त होता है। हम अपने दोस्तों को अपनी पसंद के नाम से बुलाते हैं। इसीलिए पतंगों के पुकार के नाम होते हैं।

सोचने लगा कि ऐसा क्यों हुआ? दुकानदार ने दिलचस्पी क्यों नहीं हुई जानने में? गांवों से शहरों की ओर तेजी से माइग्रेशन हो रहा है। लोग नए नए पेशे अपना रहे हैं। अब वो बात नहीं रही कि मोहल्ले का एक दुकानदार पिछले पचीस साल से पतंगें बेच रहा है। उसे मंझे से लेकर लटाई तक की बारीक जानकारी है। एक पेशे में कई लोग आए तो उसका विस्तार हुआ मगर ये दुखद है कि उसकी बारीक जानकारियां लुप्त होने लगी हैं। ठीक है कि हम पतंग नहीं उड़ाते हैं लेकिन जो लोग उड़ाते हैं उनके बीच इन नामों का संचार तो होना ही चाहिए। पतंग उड़ाने के उत्साह के साथ साथ पुकार के नाम से एक रिश्ता बनता है।

दिल्ली जो एक शहर है। महेश्वर दयाल की यह किताब पढ़ने लायक है। दिल्ली को किस्सों की नज़र से कम देखते हैं। सारी बातें पराठों और इमारतों के आस पास आकर खत्म हो जाती हैं। इसमें पतंगबाज़ी पर एक पूरा चैप्टर है।

एक कहानी मैं कहूं, सुन ले मेरे पूत
बिना परों के उड़ गया बांध गले में सूत

जब किसी ने पहले बुझाई तो बच्चे चिल्लाने लगे- पतंग, पतंग। पुरवैया के बहते ही पतंग आसमान का रूख़ कर लेते हैं। पतंगों के अजीब नाम हुआ करते थे। अलफ़न,बगला,परी या परियल,दो-पलका,दो-बाज़,गुलज़मा,कलेजा-जली,मांगदार,
कुंदेखली,कलचिड़ा,भेड़िया,चांदतारा,अद्धा,अधेल,पूनिया,सांप,अंगारा,शकरपारा,नागदार और न जाने क्या क्या। सैंकड़ों तरह की पतंगें उड़ाईं जाती थीं। ऐसी भी पतंगे होती थीं, जिन पर बारीक कागज़ पर लिखे हुए इश्क-मुहब्बत के शेर लेई से चिपका देते थे। यह शेर उन दिनों आम देखने में आता था-

लड़ चुकीं आंखें अब उस क़ातिल से लड़ता है पतंग
डोर की फ़रमाइशें हैं यह भी सब पर डोर है।

महेश्वर जी ने पतंगबाज़ी के दौरान के शब्दों को भी खूब पकड़ा है। लिखते हैं कि यह काटा वह काटा सुनाई देता था। कोई इच्चम या खिच्चम से और कोई ढिल्लम से पेंच लड़ा रहा है या उसकी कोशिश कर रहा है।

शाहआलम के पड़पोते मिर्ज़ा चपाती मशहूर पतंगबाज़ थे। नवाबों के यहां पतंगबाज़ रखे जाते थे। महेश्वर जी की इस किताब से पता चलता है कि पतंगबाज़ी का दूसरा केंद्र लखनऊ था। वहां के उत्साद दिल्ली आकर दिल्ली के उस्तादों से पेंच लड़ाते थे। मीर कनकुइया लखनऊ के वाजिदअली शाह के पतंगबाज़ थे। पुरानी ईदगाह के मैदान में पतंगबाज़ी की प्रतियोगिता हुआ करती थी। दिल्ली में सलीमगढ़, नूरगढ़ में पतंगबाजी हुआ करती थी। जमना के किनारे की रेत पर पतंगबाज़ों का मेला लगता था।

पतंग को फारसी में काग़ज़-ए बाद (हवा) कहते थे। मांझा करने के अपने अपने गुर होते थे। इन्हें गुप्त रखा जाता था। तस्वीरों में कृष्ण को भी पतंग उड़ाते दिखाया जाता है। महेश्वर दयाल की यह किताब पढ़नी चाहिए। पतंगों के लिए भी और उस शहर के लिए भी जो शहर जैसा लगता है। फ्लाईओवर वाला शहर नहीं।

महुआ टीवी- महकती मिट्टी और सिसकती बोलियां

तू केकरा से प्यार करेलू हो....बोल न...काहे डेरा तारू....मनोज तिवारी प्रतियोगियों से इसी ज़ुबान में बोल रहे थे। प्रतियोगी सहमे हुए लेकिन सहज भी लग रहे थे। अपनों के बीच भी सहम जाता है। रांची की रीमा सिंह का वीडियो प्रोफाइल चल रहा था। बिस्तर पर उनके पांव बिखरे पड़े थे। कैमरा पांव पर था। वॉयस ओवर कहता है कि पांव पर ही फिदा हो गए थे रीमा के पति। शादी कर ली। अब चाहते हैं कि रीमा संगीत की दुनिया में नाम करे। अपने संबंधों की निजता को लेकर सार्वजनिक होने का मौका अपनी बोली में जितना मिलता है उतना किसी में नहीं। रीमा खुलने लगती हैं। पहली बार वैसे कपड़ो में मंच पर हैं, जो शायद उनके पहनावा का हिस्सा न होगा। लेकिन जैसे ही माइक हाथ में दी जाती है...उनका सुर भोजपुरी के शब्दों को स्मृतियों की ऐसी दुनिया में ले जाता है, जहां से लौटने के लिए भोजपुरी प्रदेश के लोग तीन सौ साल से बेकरार है। नौकरी ने हम सबसे कितना छीना है। हमारे सारे गानों में, कलकत्ता, मॉरिशस, अफ्रीका, वेस्ट इंडीज़, न जाने कितने प्रदेश और कितने मुल्क आते जाते रहते हैं। विस्थापन की सतत प्रक्रिया में रहने वाले भोजपुरी समाज को एक लिंक मिल गया है। महुआ टीवी का।


रीमा गा रही हैँ। छुट्टी ले कर घरे आईं तनि रहीं बलम जी। कुछ इसी तरह के बोल हैं। छुट्टी आने की बेकरारी और उसका इंतज़ार जितना भोजपुरी बोलने वाली औरतों ने किया है उतना शायद ही किसी भाषा बोली की औरतों ने झेला होगा। संगीत और शब्द की मिठास से इतना अच्छा माहौल बनता चला गया कि चैनल बदला ही नहीं गया। इसके तुरंत बाद जो संवाद होता है वो काफी बोल्ड हो जाता है। भोजपुरी समाज के उस हिस्से से टकराने लगता है कि जो रिश्तों को जात-पात के चश्मे से बिना देख ही नहीं सकता।


मैं सिर्फ प्रेम करने वाला पति नहीं हूं। संगीत में रीमा को सम्मान दिला कर रहूंगा। रीमा मुझसे कम जात की है। आज तक मैं उसे अपनी मौसी के अलावा किसी और रिश्तेदार के घर नहीं ले जा सका। उसे सम्मान नहीं दिला सका। रीमा के पति के ये अल्फाज़ टीवी से चिपके हुए भोजपुरिया क्लास को झकझोरने लगे। भावुक माहौल में एक पति समाज की बेहूदगी के आगे अपनी ही नाकामी स्वीकार कर रहा है। सुर संग्राम का मंच एक ऐसा आईना में बदलता है जिसमें दो चेहरे दिखने लगते हैं। एक पुराना और एक नया। नया चेहरा वो है जिसमें आज हम अपने संबंधों को लेकर सार्वजनिक तौर पर बात करने की हिम्मत दिखाने लगे हैं।

बीच बीच में मऊनाथ भंजन के चंदन-नंदन के गीत लाजवाब थे। मज़ा आ गया। गोपालगंज की लड़की ने भी खूब गाया। हमका हऊ चाहीं...हमका हऊ चाहीं और मिस्ड कॉल दे तारू...किस देबू का हो टाइप के तीनपतिया गाने नहीं हैं। सुर संग्राम में भोजपुरी के अच्छे गानों को जगह मिल रही है। पता चल रहा है कि संगीत को लेकर हमारे मां बाप कितना संघर्ष कर रहे हैं। भोजपुरी समाज में तमाम संस्कारों के गीत हैं। जिधर देखिये कोई गाता हुआ चला जा रहा है। मेरी बहनें कॉपी में गीत लिखती थीं। कहीं शादी में जाती थीं तो वहां से गीत बटोर लाती थीं। गीतों के ज़रिये भोजपुरी समाज आपस में बात करता रहा है। अब एक चैनल आया है तो उम्मीद की जानी चाहिए कि वो पेशेवर होगा। ईमानदार होगा, ठेकेदार नहीं बनेगा।


सुर-संग्राम में कई मौके आए, जब मैं भावुक हो गया। आंखे छलक गईं। लोगों को फोन करने लगा कि देखो न इस चैनल को। शानदार प्रोग्राम आ रहा है। भोजपुरी ही मेरी मातृभाषा है। जब हम गांव से पटना आ गए तो हिंदी बोलते बोलते दांत बजने लगते थे। धीरे धीरे आदत होने लगी। गांव जाते थे तो हिंदी बोलने लगे। बड़ी अम्मा कहने लगती थी कि बड़का अइले अंग्रेज़ी बोले वाला। अंग्रेजी कम भांज ए बबुआ। हमने हिंदी को अंग्रेजी समझ कर सीख लिया, शायद इसीलिए अंग्रेज़ी सीख ही नहीं पाए। पहली बार मेरे दोस्त ने गंगा के किनारे वॉकमैन पर मैडोना या किसी का गाना सुनाया तो घबरा गया। सहम गया कि बाप रे कितने बड़े विद्वान होते होंगे। अंग्रेज़ी में गाना भी होता है। मेरी बात सुनकर अविनाश हंसने लगा था।

हिंदी ने इतने सालों में हमसे काफी भोजपुरी छीन ली है। बहुत सारे शब्दों को हटा कर अपने शब्द रख दिये हैं। अच्छा ही है कि दो भाषाएं आती हैं लेकिन दोनों समान रूप से नहीं आतीं, इसका कभी कभी अफसोस रहता है। कितना बदलता रहे कोई। और बदलने की परिभाषा में पुराने को खत्म हो जाना ही क्यों हैं। पुराना भी रहे और उसमें नया जुड़ जाये तो क्या उसे बदलना नहीं कहेंगे। पता नहीं।

कुछ साल पहले जब भोजपुरी पर स्पेशल रिपोर्ट बना रहा था तो इतना आनंद आया कि पूछिये मत। बहुत मन कर रहा था कि एक पीटूसी यानी रिपोर्टर संवाद में भोजपुरी बोल ही दूं। महुआ के रिपोर्टर जब भोजपुरी में साइन ऑफ करते हैं तो घोर जलन होती है। अच्छा लगता है। अपनी भाषा कभी कभी क्षेत्रिय बना ही देती है। अपनी बेटी को बांग्ला, हिंदी और फ्रेच( नाना सीखाते हैं) के बाद भोजपुरी के शब्द सीखाते रहता हूं। अंग्रेज़ी का नंबर बाद में आएगा। सरदार पटेल एक ऐसा स्कूल है जहां भोजपुरी को लेकर कोई दुराग्रह नहीं है। बल्कि जब पिछले साल सालाना जलसा हुआ तो नर्सरी के बच्चों ने भोजपुरी में गाना गया। मज़ा आ गया था। मेरी बेटी खुश हो गई और टीचर को बोली कि मेरे पापा भोजपुरी बोलते हैं।

बहरहाल रविवार की रात एक घंटे तक घोर भावुक हो गया था। हम और मां बहुत खुश थे। घनबाद से भाईसाहब ने फोन कर मां से कहा था कि महुआ ही देखा करो। मां घबरा गई कि भोजपुरी में चैनल आता है। कभी पूरा चैनल देखूंगा। एक ही बात कि चिंता रहती है कि कहीं महुआ भौंडा न हो जाए। लेकिन बिंदास और बोल्ड तो होना ही चाहिए, जैसा कि हमारा भोजपुरी समाज है।

ऊं प्रां प्रीं प्रौं स: शनये नम:





















ये शनि जी महाराज का मंत्र है। शनि चालीसा से साभार लिया गया है। इन दिनों चालीसाओं में दिलचस्पी हो गई है। लघुतम रूप में उपलब्ध ये चालीसाएं पूजा अर्चना की विधि को तुरंता बनाने में मदद करती हैं। दिल्ली के बुराड़ी गांव में मनोज पब्लिकेशन्स ने कई चालीसाएं छापी हैं। सबकी कथाओं और मंत्रों को पढ़ कर लगता है कि हम इन देव-देवियों का पूजन भजन इसलिए करते हैं क्योंकि लोग शत्रु,दुष्ट और गरीबी से भयाक्रांत हैं। इनमें स्पस्ट नहीं है कि जब शनि पूजन से शत्रु का विनाश हो सकता है तो हम सेना पर फालतू के लाखों रुपये ख़र्च क्यों कर रहे हैं। सेना के तीनों अंगों के प्रमुखों को शनि पूजन करना चाहिए,पाकिस्तान का हाल वैसे ही बुरा हो जाएगा। सवाल ये है कि अभी तक राष्ट्रीय शत्रुओं से निपटने के लिए कोई पूजन कथन चालीसा नहीं छपी है। प्रतीत होता है कि हमारे पढ़ाई, नौकरी सहित हमारे सामाजिक जीवन में व्याप्त शत्रुओं के समूल नाश के लिए चालीसाओं का कारोबार निर्बाध गति से चलायमान है।

इस लेख में शनि चालीसा का पाठ। मेरे पास जो चालीसा है उसके मुख पृष्ठ पर शनि की तस्वीर है। शनि जी के हाथ में एक ग्लोब भी है। जिसमें लगता है कि भारत का भी नक्शा बना है। श्री शनि चालीसा में सूर्यपुत्र शनि से प्रार्थना है कि आप लोगों की लज्जा की रक्षा कीजिए। आपका ललाट अत्यंत विशाल एवं दृष्टि टेढ़ी है और भौहें विकराल हैं। आपकी छाती पर मुक्तामणि की माला विराजमान है। शनि का वर्णन जारी रहता है।

फिर कहा गया है कि हे प्रमु,आप जिस पर प्रसन्न हो जाते हैं,उस दरिद्र को भी एक क्षण में राजा बना देते हैं।(आज के टाइम में राजपाट तो होता नहीं वैसे)। जब राजा राम का राजतिलक होने जा रहा था,उस समय आपने कैकेयी की बुद्धि भ्रष्ट करके श्रीराम को वन में भेज दिया।(यहां साफ नहीं है कि शनि जी को श्रीराम जी से क्या प्राब्लम थी)। हो सकता है होगी लेकिन लघुतम चालीसा में सारी बातों के लिए जगह भी तो नहीं होती। खैर बात आगे बढ़ रही है। वन में भी आपने(शनि) माया-मृग की रचना कर दी, जिसने माता जानकी का अपहरण हो गया। लक्ष्मण को शक्ति प्रहार से आपने व्यथित कर दिया, जिससे राम दल में हाहाकार मच गया। अब यह समझ में नहीं आया कि राम, लक्ष्मण और माता जानकी से शनि की शत्रुता की वजह क्या थी। शनि जी महाराज उन्हें सबक क्यों सीखाना चाहते थे।























ये कथा तो और भी ड़राने वाली है। पाठकों से अनुरोध करूंगा कि यदि वे जानते हों तो इसकी पुष्टि करें। चालीसा में लिखा है कि राजा विक्रमादित्य पर आपका चरण पड़ा और दीवार पर टंगा मोर का चित्र रानी का हार निगल गया। राजा विक्रमादित्य पर उस नौलखे हार की चोरी का आरोप लगा और उनके हाथ पैर तोड़ दिए गए। राजा को आपने अत्यंत निम्न स्तर पर पहुंचा दिया। उन्हें तेली के घर में कोल्हू चलाना पड़ा। जब उन्होंने दीपक राग में आपकी प्रार्थना की तब आपने उन्हें सुख प्रदान किया।
अब कथा का कैसे पाठ किया जाए। क्या वाकई में विक्रमादित्य पर अपनी रानी के नौलखे हार की चोरी का आरोप लगा था। उन्हें चोरी की सज़ा किसने सुनाई। किसने उनके हाथ पैर तोड़े। क्या रानी यह सब देखती रही। क्या रानी ने अपने चोर पति का त्याग कर दिया। यह सब सवाल मेरे हैं जिनका जवाब लघुतम चालीसा में नहीं हैं।

एक कथा और है। राजा हरिश्चंद्र पर आपकी( शनि) दृष्टि पड़ी और उनको अपनी पत्नी का विक्रय करना पड़ा। डोम के घर में रहकर उन्हें निकृष्ट काम करने पड़े। २४ पेज गुज़र चुके हैं और अभी तक सिर्फ इस बात का ज़िक्र है कि शनि जी ने किन किन को तबाह किया है। सबक सीखाया है और औकात बता दी है। यहां तक पेज २८ पर यह लिखा है कि पाण्डु-पुत्रों पर आपकी दशा होते ही उनकी पत्नी द्रौपदी निर्वस्त्र होते होते बची। कौरवों की बुद्धि का भी आपने हरण कर लिया, जो विवेकशून्य होकर महाभारत जैसा युद्ध कर बैठे।

महाभारत जैसा युद्ध? क्या कौरव पाण्डव से पहले भी कोई महाभारत हो चुका था? शनि किसकी साइड लेते हैं। बेचारी द्रौपदी को क्यों सज़ा देते हैं? कौरवों की बुद्धि भ्रष्ट वाली बात तो तर्क संगत लगती है लेकिन शनि पाण्डवों पर क्यों नाराज़ हो गए? क्या महाभारत या गीता में इसका कोई ज़िक्र है। अगर कोई सुधी पाठक जानते हों तो ज़रूर बतायें। भक्त लेखक अपनी अज्ञानता हर पल दूर करने के लिए तत्पर है। सारे ताकतवर पात्र शनि के कोप से हारे हुए हैं। जब इतने बड़े बड़े लोग मात खा गए तो सामान्य भक्तों की क्या बिसात।


शनि का आज कर काफी ज़ोर है। शनि पर एक स्पेशल रिपोर्ट भी की थी। कई मंदिरों के पुजारियों ने बताया कि शनि का मंदिर अपने कैंम्पस में जोड़ना पड़ा है। लोग वहीं जाते हैं जहां शनि का मंदिर है। हनुमान के भक्त बंट गए हैं। शनि से सब डरते हैं। एक अभियान भी चल रहा है जिसमें बताया जाता है कि शनि शत्रु नहीं मित्र है। दिल्ली के पुष्पविहार के पास एक हनुमान मंदिर था। नगर निगम वाले अक्सर हनुमान मंदिर तोड़ जाते थे। तो भक्त ने साइड में शनि का मंदिर बनवा दिया। अब डर के मारे कोई नहीं तोड़ता। जब बीआरटी कोरीडोर बन रहा था तब लगा कि इस बार तोड़ दिया जाएगा। लेकिन रास्ते में आना वाला शनि मंदिर बच गया। यह शनि मंदिर एक हिंदू और एक मुसलमान के पार्टनरशिप पर चलता है।

अब मैं पेज नंबर ४२ पर पहुंच चुका हूं। यहां लिखा है कि स्वामी आश्चर्यजनक लीलाएं दिखातें हैं और शत्रुओं की नसें और बल क्षीण कर देते हैं। यदि कोई व्यक्ति सुयोग्य पंडित बुलाकर विधिवत शनि ग्रह की शान्ति करवाता है तो उसे सुख मिलता है। पेज संख्या ४६ पर दिलचस्प बात लिखी है। भक्त ने इस शनि चालीसा को तैयार किया है। इसका चालीस दिनों तक पाठ करने से भवसागर को पार किया जा सकता है। पाठ शनिश्चर देव को, कियो भक्त तैयार। करत पाठ चालीस दिन, हो भवसागर पार।।

यानी इसका लेखक कोई भक्त है। संस्कृत के श्लोक जैसा लगे इसलिए अवधि जैसी भाषा का इस्तमाल लगता है। वैसे आखिरी श्लोक को दोहा लिखा गया है। दोहा शब्द तो शायद मध्यकाल का होगा। शनि महाराज का डर है या उनके प्रति श्रद्धा। लेकिन इन चालीसाओं के पाठ से पता चलता है कि हम किसी देव की पूजा क्यों करें। सारे देवों में इसी तरह के भयादोहन करने वाले प्लॉट हैं। पढ़कर रातों की नींद ख़राब हो जाए और अच्छा भला आदमी चौदह हज़ार जाप करने के संकल्प में फंस जाए। वैसे शंकर जी का सपना देखकर लालू जी मांस मछली खाना बंद कर दिए थे। चुनाव में ज़मीन पर आ गए तो फिर से खाने लगे हैं। भक्त भी अपने हिसाब से एडजस्ट करते रहते हैं। भक्ति फ्लेक्सिबल है।

बजट कवित्त

आज बजट की बात न करो सखी
टैक्स पर ऐसो दिल टूटो है
कतरा कतरा जोड़े साल भर
प्रणब जुल्मी लूटो है
दियो गांव घर को भर भर लोटा
मुखिया बीडीओ झूमो है
हम तो पावत खावत हैं
जो उगावत है वो बोलत है
कौन लेवत है सुध बुध गांव की
पीतर तक तर गयो प्रणब जी
भर भर झोली मिलै गांव को
फिर काहे को जी रोवत है।

वैभव लक्ष्मी व्रत का पाठ

मुझे नहीं मालूम कि कब से वैभव लक्ष्मी व्रत कथा लोकप्रिय हुआ है लेकिन इस व्रत कथा का पाठ रोचक लगा। कई समृद्ध परिवारों में यह कथा चल रही है। इक्कीस हफ्ते तक इसका व्रत रखा जाता है। मेरे घर में कथा-वथा नहीं होती है लेकिन पड़ोसी से ही श्री वैभव लक्ष्मी व्रत कथा की किताब प्रसाद के रूप में मेरे घर में आ गई।

इस कथा में तीन कहानियां हैं। पहली कहानी महाराष्ट्र के शहर मुंबई की है। मनोज और शोभा के परिवार की कहानी। मनोज क्लर्क है। अच्छा इंसान है। शोभा भी। सब मिसाल देते हैं। अचानक मनोज बुरी संगत में पड़ जाता है। नशे की लत में घर बर्बाद हो जाता है। शोभा और उसका बच्चा भूखा है। एक सुंदर स्त्री घर आती है। वैभव लक्ष्मी व्रत रखने की सलाह देती है। सब कुछ अच्छा हो जाता है। मनोज बुरे से अच्छे रास्ते पर आ जाता है।


इस व्रत में नए वस्त्र पहनने के अलावा एक रोचक शर्त भी है। जो स्त्री व्रत रखेगी वो सारा दिन किसी की चुगली नहीं करेगी। चुगली एक बड़ी व्यावहारिक सामाजिक समस्या है। शोभा भी किसी की चुगली नहीं करती है। मन में मां लक्ष्मी का रटन करती है। इक्कीस शुक्रवार तक व्रत रखने के बाद सब सामान्य हो जाता है। एक शर्त और है। व्रत के बाद कथा पुस्तिका सात या इक्कीस औरतों के बीच प्रसाद के साथ वितरित करनी होती है।


दूसरी कहानी अशोक सक्सेना की है। जो कम्प्यूटर में पूरा कोर्स कर लिया था। अर्थशास्त्री( अर्थशास्त्र नहीं) विषय में एम. ए कि शिक्षा प्रथम श्रेणी में पास करने के पश्चात बेचारे अशोक सक्सेना को कहीन नौकरी नहीं मिल सकी। वो रोज़ परेशान रहता है। उसकी मां वैभव लक्ष्मी का व्रत रखती है और नौकरी मिल जाती है। अशोक इक्कीस पुस्तकें बांट देता है।

मुंबई में कम पैसे पर क्लर्की,बर्बादी,अशोक सक्सेना का कम्प्यूटर कोर्स करना और नौकरी न मिलना। ये सब आज के समय के संकट हैं। दूसरा संकट जो कथाओं में आम होता है,निसंतान होने और विवाह का संकट। इस व्रत के रखने से दोनों दूर हो जाते हैं। चमनलाल को हार्ट अटैक हो जाता है। उसके साथ खांसी बुखार का भी रोग लग जाता है। कोई दवा काम नहीं करती है।ग्यारह शुक्रवार वैभव लक्ष्मी का विधि पूर्वक व्रत रखने से चमनलाल ठीक हो जाते हैं।

बड़े शहरों में इस तरह की कथा काफी लोकप्रिय हो रही है। मां संतोषी मां का व्रत अब कम औरतें करती हैं। आर्थिक उदारीकरण के साथ समृद्धि बनाये रखने के लिए लोग वैभव लक्ष्मी का व्रत रखते हैं। एक महिला से फोन कर पूछा तो उन्होंने कहा कि हाल ही में सुना है इसलिए करती हूं।

भुटानी पब्लिकेशन ने व्रत कथा छापी है। पहले पेज में लिखा है कि यह तुरन्त फल देने वाली व्रत कथा है। इस पुस्तक के पाठ द्वारा आपके भाग्य में परिवर्तन होगा। परन्तु इसके लिए हर प्राणी को व्रत करने की शास्त्रीय विधि एवं व्रत कथा का पाठ ठीक नियमानुसार करना होगा। व्रत करने के साथ एक मात्र पुस्तक भुटानी पबिल्केशन(यही छपा है)में प्रकाशित कथा ही है जो आपके लिए धन के वैभव,ऐश्वर्य,सन्तान सुख व समृद्धि के द्वार खोल सकती है। हस्ता- संपादक।

संपादक का आदेश जारी रहता है। आगे लिखते हैं- पुस्तक खरीदने से पहले पुस्तक पर छपा भुटानी पब्लिकेशन का नाम अवश्य पढ़ लें। वैधानिक सूचना- इस पुस्तक का समस्त अधिकार प्रकाशकाधीन है। कोई भी सज्जन इसका कोई भी अंश घटा कर या तोड़ मरोड़ कर छापने की चेष्टा न करें। अन्यथा समस्त हर्ज़े खर्चे व कानूनी कार्यवाही के लिए ज़िम्मेदार वह स्वयं होंगे।


इस व्रत कथा की लेखिका आशा रानी गुप्ता हैं। अब उनसे संपर्क करने की कोशिश करूंगा कि उन्होंने वैभव लक्ष्मी कथा के लिए ये कहानियां किस आधार पर चुनी है। अशोक सक्सेना की कहानी उनके दिमाग की उपज है या सत्य कथा है। आशा रानी गुप्ता ने लिखा है कि वैभव लक्ष्मी मां का पूजन देव काल से अब तक निरन्तर होता आ रहा है।

पूजा पाठ की कथाओं का अध्ययन खूब हुआ है। लेकिन कथायें कैसे बदल रही हैं। फिर से देखने का टाइम है। कथाओं में पात्रों की चिंतायें आधुनिक हो रही हैं। कंप्यूटर कोर्स वाला बेरोज़गार तो समुद्र मंथन के समय पैदा नहीं हुआ होगा। संदर्भ बदल रहे हैं मगर मौलिक चिंतायें वही हैं। संतान,नौकरी,बर्बादी,रोग और विवाह। हमारे समाज ने इन मुद्दों पर लोगों का जीवन नरक करने में कोई कसर नहीं छोड़ी है। शायद इसी हकीकत को समझ कर आशा रानी गुप्ता ने कथा का प्लाट तैयार किया है। हर कथा के बाद कम से कम सात और अधिक से अधिक एक सौ एक घरों में पहुंचने वाली आशा रानी गुप्ता की यह कथा किसी प्रेमचंद की तुलना में अधिक रफ्तार से पहुंच रही है। दस रुपये की यह पुस्तिका है। एक कथा के बाद बंटने वाली पुस्तिका की शर्त से भुटानी प्रकाशक के घर में लक्ष्मी खूब आती होंगी। किस पुराण में किस ऋषि मुनी ने आदेश दिया है कि पुराण का पाठ करो और पांच कॉपी बांटों। हमारे डर का अच्छा आध्यात्मिक इस्तमाल है। मैं पूजा पाठ का विरोधी नहीं हूं। जिसे शांती मिलती है वो खूब करे। मगर कर्मकांड बाद में जोड़े जाते हैं। यह हमेशा ध्यान रखा जाना चाहिए। कर्मकांड सिर्फ कारोबार के लिए होता है।