अविनाश काम्बले से मिलना चाहिए- दलितोदय कथाइजेशन



"मैं तो बारहवीं फेल हूं। अंग्रेज़ी भी नहीं आती। इससे बिजनेस में कोई फर्क नहीं " 6 करोड़ का बिजनेस कायम करने के बाद अविनाश काम्बले ने पूरे आत्मविश्वास से अपनी यह बात माइक पर उड़ेल दी। हंस दिया और कहा कि डीटीडीसी में मैं डिलिवरी ब्वॉय था। फ्रैचाइज़ी होती है न वही मिल गई। एक आदमी दुकान बंद कर जा रहा था तो उसने कहा ले तू चला ले। मैंने काम शुरू कर दिया। आज मेरे पास एक सौ बीस लोग काम करते हैं। अविनाश काम्बले बोले जा रहे थे। लेदर की महंगी कुर्सी पर ठाठ से बैठा चौंतीस साल का एक नौजवान अपने संघर्ष की कहानी को यूं बता रहा था जैसे सबकुछ किसी कवि की कल्पना में घट रहा हो। शोलापुर से भाग कर आ गया था। बुआ ने रहने की जगह दे दी। चौराहे पर गजरे बेचने लगा। जिस चौराहे पर गजरे बेचने लगा उसी से दस किमी दूर पचपन लाख रुपये का पॉश इलाके में फ्लैट खरीदा है।

उदारीकरण के बाद निजी क्षेत्र में आए दलित युवकों की कहानियों में उलझ गया था। चाहता था कि मेरा कैमरा वैसा ही देख ले जैसा उनका आत्मविश्वास उबल रहा है। अविनाश ने कहा कि पुणे में भी लोग हैरान होते हैं कि दलित ने इतना कमाल कैसे कर दिया। पूरे पश्चिम महाराष्ट्र का मैं एक बड़ा कुरियर वाला बन गया हूं। डेढ़ सौ कारोपोरेट कंपनियां ग्राहक हैं। उनको कभी कोई शिकायत नहीं होने दी। मेरी नज़र अविनाश की बातों से हट कर कंप्यूटर के स्क्रिन सेवर पर भकभुक कर रहे अंबेडकर पर पड़ रही थी। पूछा कि बाबा साहेब यहां क्यों। अविनाश भावुक हो गया। बोला इन्हीं की वजह से हम हैं। ये न होते हैं तो हम कहां होते आज। बाबा साहेब से इमोशनल रिलेशन है। तभी मैंने जब ग्यारह लोगों को ब्रांच मैनेजर बनाया तो शोलापुर से लाकर छह दलित लड़कों को भी ब्रांच मैनेजर बनाया। उनको ट्रैनिंग दी और मौका दिया। वो अच्छा काम कर रहे हैं। बाबा साहब ने सिखाया है कि समाज का भला करते रहना है।



अविनाश से अगला सवाल था कि छह करोड़ तक कैसे पहुंच गए। अविनाश ने कहा कि डीटीडीटी के काउंटर को स्मार्ट लुक दे दिया। सोफा लगा दिया। शीशे का दरवाज़ा लगा दिया और एसी लगा दिया। डीटीडीसी के आल इंडिया चेयरमैन को भी विश्वास नहीं हुआ कि मेरी कंपनी का ऐसा लुक हो सकता है। अब वो हर जगह अपने काउंटर को अप मार्केट लुक दे रहे हैं। मैंने कई स्कीम निकाली है। हम लोग बिजनेस अच्छे से कर सकते हैं। गांवों में तो बिजनेस या जिसे आज आप सर्विस सेक्टर कहते हैं वो तो हम दलित ही चलाते थे न। बारात निकलवाने से लेकर श्मशान पहुंचाने तक। आप इसे अब सर्विस सेक्टर के रूप में देखिये। मैं पूछना चाहता था कि शोषण के रूप में न देंखे तब लेकिन दिमाग से उतर गया। दलित अपने स्किल का इस्तमाल कर रहे हैं।

पुणे की कहानी रोचक होती जा रही थी। उन्नीस सौ नब्बे के बाद के नौजवान उद्योगपतियों से मिलने का अनुभव। चंद्रभान प्रसाद से बात होते ही अगले दिन पुणे पहुंच गया था। जिस किसी से मिलता एक नई गाथा से टकराने लगता। भारत की पत्रिकाओं के कवर पर ग्लोबलाइजेशन की पैदाइश कई महापुरुषों की तस्वीर छपी है। मित्तल,टाटा और अंबानी। अविनाश काम्बले की तस्वीर भी किसी पत्रिका के कवर पर होनी चाहिए। ऐसी कई कहानियों का कोलाज आप शुक्रवार रात साढ़े नौ बजे रवीश की रिपोर्ट के लिमिटेड एडिशन में देख सकते हैं। न देख पाएं तो रविवार रात साढ़े दस बजे भी देख सकते हैं। आप सबकी प्रतिक्रिया का इंतज़ार रहेगा।

मीडिया में बिहार की छवि.....

मीडिया ने बिहार की नकारात्मक छवि बनाकर उसका बड़ा भला किया है। आज जिसे हम नकारात्मक कह रहे हैं वो तो सकारात्मक छवि थी। पत्रकारों ने अपनी ईमानदारी से बिहार की सामाजिक पृष्ठभूमि को उजागर किया तो बिहार की भ्रष्ट छवि बन गई। लेकिन समाज तो वैसा ही था। छवि की चिन्ता करना मीडिया का काम नहीं है। पिछले बीस साल में मीडिया क्या छवि बनाता। सड़कें टूटी हैं,कानून है नहीं,आइये और अपहरण करवा लीजिए लेकिन बिहार बेजोड़ है। आप जिसे आज नकारात्मक बता रहे हैं वो अपने समय की सकारात्मक छवि थी। मीडिया में बिहार की बुराइयों को दिखाकर सकारात्मक काम हो रहा था। देखिये ऐसा है बिहार। छवियों का अतिरेक ही था कि जाति में बंटी यहां की जनता को समझ में आया कि खराब कानून व्यवस्था या आर्थिक हालात का नुकसान उसे ही उठाना पड़ रहा था। मीडिया ने बिहार को वैसा ही दिखाया जैसा था।

क्या था हमारे पास जो छवि बनती। कोर्स तीन तीन साल लेट चलते थे। हम सबको घरों से उजड़ कर दूसरे राज्य में जाकर रहना प़ड़ा,परिवार की जमा पूंजी गंवानी पड़ी। तमाम अवसरों को ठुकरा कर बिहार और बिहार के लोग जातियों के अहंकार में जी रहे थे। भोजपुरी में गाने बन रहे थे कि कैसे एमएलए बोलेरे लेकर चलता है,मनोज तिवारी गा रहे थे कि कैसे आईएएस की तैयारी इस उम्मीद से की जाती है कि सफल हुए दहेज की मोटी रकम मिलेगी। पिछले बीस साल में बिहार पतनकाल में जी रहा था। पतनकाल में सकारात्मक छवि न लोगों के मन में बनती है या न मीडिया बना सकता है। ये इसी नकारात्मक छवि का जोर था कि लोगों ने बदलाव का मन बनाया। प्लीज़ आप जिसे नकारात्मक कह रहे हैं उसी की बदौलत आप बिहार की सकारात्मक छवि को रंगने के लिए जमा हुए हैं हम सब।

अब सवाल है कि बिहार को अपनी छवि की चिन्ता क्यों करनी पड़ रही है? क्यों बिहार अपनी मामूली उपलब्धियों को भी छवि के पैमाने पर परखना चाहता है? साफ है बिहार को लगता है कि इन्हीं धारणाओं की वजह से नुकसान हुआ है। पहले बिहार के लोग अपनी छवि को लेकर गंभीर नहीं थे। अब गंभीर हो गए हैं। जो बिहार से बाहर गए,उनके पास तमाम उपलब्धियां तो हैं लेकिन राज्य की पहचान नहीं है। उनकी कामयाबी हर क्षेत्र में है। उन्हें लगता है कि बिहार से होने की वजह से उन्हें कमतर आंका जाता है। यही अहसास अब बिहार में रहने वालों को भी हो रहा है। इसलिए अब बिहार की छवि कई स्तर पर बनाई जा रही है। लोगों के स्तर पर, सरकार के स्तर पर और मीडिया के स्तर पर। आबोहवा बदली है तो सब अपने अपने हिसाब से बिहार को लेकर शाइरी कर रहे हैं। इस एक सवाल पर अब सबकी सहमति है। लेकिन यह सहमति टूटनी भी चाहिए। काम का मौहाल ठीक हुआ है लेकिन उसके आगे क्या, उसके आगे क्यों नहीं...।

बिहार की छवि क्या थी और क्या है इसमें अंतर आ गया है। बिहार की दो छवि है। एक जो दिखाई और बताई जा रही है, दूसरी छवि वो है जो छुपाई जा रही है या उसकी बात नहीं हो रही है। ये दो तरह का बिहार क्यों है? छुपाने वाली बातों पर चर्चा क्यों कम हो रही है? हमें छुपाने वाली छवियों पर सामने लाना चाहिए। डरते हैं कि आलोचना करेंगे तो सरकार के रजिस्टर में नाम खराब हो जाएगा। क्यों हो जाएगा? क्या सरकार को नहीं मालूम कि बिना साख वाली मीडिया से कोई लाभ नहीं होता। यही मीडिया जब लालू राज का आलोचक था तो लालू इसे सवर्ण और इलिट मीडिया कहते थे। यही मीडिया जब नीतीश का राज है तो वाह वाह कर रहा है,तारीफ कर रहा है। ये बात सही है कि नीतीश को मीडिया का समर्थन ज़रूरत से ज़्यादा मिला है। राज्य में एक माहौल बनाने में मीडिया की भी भूमिका है। चाहे वो जिस रूप में हो। या तो आप इस बात पर खुल कर हंस लीजिए या मन ही मन हंस लीजिए। हकीकत तो आप जानते हैं। मैं सिर्फ बाहर से महसूस कर सकता हूं।
देखिये जय बिहार जय बिहार के नाम पर किसी तरह का संकीर्ण क्षेत्रिय एजेंडा नहीं बनना चाहिए। आखिर वो गलत क्यों हैं,उसकी निष्ठा पर शक क्यों है जो सवाल खड़े कर रहा है। विकास की किसी भी स्थिति में आलोचना और सवाल की गुंज़ाइश तारीफ के बराबर ही होती है। मीडिया में आलोचना की गुंजाइश खतम हो गई है।

अब इस छवि बिजनेस में स्टेक होल्डर कौन है। बिहार और बिहार के बाहर जो एक कामयाब मेहनतकश मध्यमवर्ग बना है, जो सरकारी नौकरियों के साथ साथ साफ्टवेयर कंपनियों और बिजनेस में नाम कमा रहा है वो चाहता है कि बिहार के बारे में अब सकारात्मक बातें हों। वो ईमेल करता है। मिशिगन में बिहार को लेकर ईमेल ग्रुप बनाता है। सरकार की आलोचना बर्दाश्त नहीं करता। यह एक अच्छी शुरूआत है लेकिन इसे लेकर संकीर्ण होने का भी खतरा है। सम्मान के लिए ज़रूरी है कि छवि बेहतर हो। सिर्फ इमेज मैनेजमेंट से छवि ठीक करेंगे तो पोल खुल जाएगी। बिहार की छवि मीडिया के चलते ही नहीं बल्कि लोगों के चलते भी बदल रही है। लोग बिहार के बारे में सकारात्मक तरीके से बात कर रहे हैं। उन्हें यह नया वातावरण अच्छा लग रहा है। सिएस्ता टाइम है बिहार में। सब बढ़िया है चलो सो लेते हैं। शाम से काम करेंगे।

अब जब छवि ठीक हो रही है तो देखना होगा कि बिहार को लाभ क्या मिल रहा है। क्या टाटा बिड़ला और अंबानी अपना उद्योग यहां ला रहे हैं। नीतीश कुमार को सब अच्छा कहते हैं,उनको श्रेय मिलना भी चाहिए। लेकिन क्या सरकारी निर्माण के अलावा प्राइवेट सेक्टर में ऐसी भागीदारी दिख रही है। कैसा विकास हो रहा है और कैसा चाहिए इस पर बहस चली है? मुझे नहीं मालूम,मैं सिर्फ सवाल उठा रहा हूं। बिहार सरकार की वेबसाइट से तो लगता है कि कई हजार करोड़ का निवेश हुआ है। ज्यादातर चीनी मिलें हैं। नई भी हैं और उनका विस्तार भी हो रहा है। उसके बाद पटना में कई सौ करोड़ के अस्पताल बनाने की भी बात है। सारे निजी अस्पताल पटना में बन रहे हैं। कमाई के लिए। पावर जेनरेशन से जुड़ी कई योजनाओं को देख रहा था,सिर्फ कहलगांव में दस हज़ार करोड़ से अधिक के थर्मल और कोल पावर प्लांट लगाने के प्रस्ताव का ज़िक्र है। बांका में ११ हज़ार करोड़ का पावर प्लांट लगाया जाना है। हर बड़ी योजनाओं में से एक बाढ़ में है। मुख्यमंत्री बिहार के साथ साथ बाढ़ और नालंदा पर ज्यादा ध्यान दे रहे हैं। अब इनमें से कितने प्रस्ताव ज़मीन पर उतरे हैं या उतरने हैं इसके बारे में मैं दावे के साथ नहीं कह सकता। लेकिन जो वेबसाइट हैं उससे बिहार की कोई बड़ी औद्योगिक तस्वीर नहीं दिखती है। हां पावर जनरेशन को लेकर एक दृष्टि दिखती है जो अगले पांच साल में या पांच साल बाद शायद बिहार की तस्वीर बदलने में सहायक हो। कोई उद्योग क्यों आएगा,जब तक आप बिजली का इंतजाम नहीं करेंगे। लेकिन पटना में माल या वाटर पार्क बने उसका जिक्र सरकारी वेबसाइट पर क्यों हैं। माल या वाटर पार्क भी क्या अब विकास की नीति या तस्वीर में शामिल कर लिया गया है? मुझे नहीं मालूम। पटना में एलटीसी घाट में तेरह सौ करोड़ का वाटर पार्क बन रहा है। जो काम बाज़ार कर रहा है उसे आप सरकार की सूची में क्यों शामिल कर रहे हैं। मॉल को कैसे विकास की सूची में डाल सकते हैं? इसलिए कि मॉल के आगे कुछ सौ करोड़ की रकम जु़ड़ी है। मॉल निवेश नहीं है। वो धंधा है। आप नहीं भी बनायेंगे तो बन जायेगा।

अब मैं बिहार का आर्थिक सर्वेक्षण देख रहा था। पिछले चार साल में जीडीपी ११.३५ फीसदी है। इसमें पैंतीस फीसदी हिस्सा तो निर्माण क्षेत्र का है क्योंकि सड़कें और पुल खूब बने हैं। बाकी हिस्सा संचार और होटल तथा रेस्टोरेंट का है। गाड़ियों का पंजीकरण बढ़ा है तो राजस्व बढ़ा है। इसके क्या कारण है। क्या सड़कें बेहतर हो गईं,कार स्कूटर छिन जाने का खतरा कम हो गया तो लोगों ने खरीदा या फिर राज्य में उद्योग धंधे इतने आ गए कि मैनेजर गाड़ी खरीदने लगे। पता नहीं। लेकिन बिहार एक ग्रामीण राज्य है। यहां शहरीकरण सिर्फ ११ फीसदी है। इससे पता चलता है कि सिर्फ सड़कें बनी हैं। शहरीकरण होना अच्छा है या नहीं ये अलग विषय है। फिर भी एक तस्वीर दिखती है। आधी से अधिक जनता गरीबी रेखा के नीचे हैं तो कैसे मान लें कि बिहार की छवि अच्छी होनी चाहिए। शिक्षा के क्षेत्र में बेहतरीन आंकड़े नज़र आते हैं। लेकिन गरीबी और शहरीकरण के रिकार्ड से लगता है कि बिहार को आत्मालोचना की ज़रूरत है। मैं व्यक्तिगत रूप से खुश हूं कि मेरे गांव में सड़क बन गई है। कानून व्यवस्था इतनी ठीक है कि लड़कियां साइकिल चला कर स्कूल जा रही हैं। पर ये राज्य का काम है। अहसान थोड़े न है। पहले इतना भी नहीं था तो इस बात पर ताली बजा दूंगा लेकिन लंबी ताली नहीं बजाऊंगा।

नीतीश कुमार को श्रेय मिलना चाहिए लेकिन नीतीश से सवाल भी होना चाहिए। पांच साल में कितनी गरीबी कम हुई। चौवन फीसदी का आंकड़ा दिया है। यह भी बताइये कि क्या साठ फीसदी से आपने चौवन फीसदी किया है या चवालीस फीसदी से चौवन फीसदी। यह भी नहीं भूलना चाहिए कि गांवों में काम हो रहा है तो बाहर बिहार के मज़दूरों को मनाया जा रहा है। यह अच्छा संकेत है,लेकिन क्या मजदूरों का पलायन रूक गया। मध्यमवर्ग के मैनेजर लाडलों का क्या होगा,क्या उन्हें बिहार में नौकरी मिलने लगी है।

बीस साल के ग्लोबलाइज़ेशन से बिहार दूर रहा है। क्या हमारी यूनिवर्सिटी ने इतना नाम कमाना शुरू कर दिया है कि छात्रों का पलायन रूकने लगे। हम इसी से राहत महसूस कर रहे हैं कि यूनिवर्सिटी चल पड़ी है। रूकी नहीं है। मगर हालत खराब है। पटना यूनिवर्सिटी के सामने रहने वाला छात्र भी दिल्ली और पुणे जाना चाहता है। कितने उद्योग यहां आप खड़े देख रहे हैं। कितनी चिमनियां नज़र आती हैं। यह सवाल भी देखना होगा कि क्या बिहार को उद्योगों का इंतज़ार करना चाहिए या फिर अपनी खेती और पानी के जरिये सप्लायर स्टेट बन जाना चाहिए। बिहार की वेबसाइट पर कोल्ड स्टोरेज या फूड प्रोसेसिंग प्लांट के लगाये जाने के प्रस्तावों का ज़िक्र तो है लेकिन पर्याप्त मात्रा में नहीं। बिहार को मानवसंसाधन राज्य बनना चाहिए। लगता नहीं कि बिहार की इस संभावना का इस्तमाल करने के लिए क्रांतिकारी प्रयास हो रहे हैं। उसके लिए खेती, पशुपालन और साग सब्जी को औद्योगिक बनाना होगा,कौशल के विकास का काम करना होगा। एक पेशेवर अंदाज़ में। बिहार की जनता अब मांग करें। सरकार से कहे कि भई ये दिल मांगे मोर।

मीडिया से नहीं। मीडिया इस भ्रम में न रहे। इससे तो सरकार का भी नुकसान हो जाएगा। जहां जहां भी सरकार ने मीडिया को कंट्रोल किया है वहां वहां सरकारें अच्छा काम करने के बाद भी हारी हैं। ये बात ध्यान में रखनी चाहिए। मीडिया मैनेजमेंट से एनडीए की सरकार चली गई थी। लोग मीडिया से दोनों तस्वीर की उम्मीद रखते हैं।

लेकिन यह एक शानदार मौका है बिहार को रफ्तार देने का। योगदान नीतीश का ही है लेकिन इच्छा तो लोगों की भी थी। लोगों का साथ मिला और नीतीश का प्रयास रहा तो नतीजा आ रहा है। लोग तैयार न होते तो बीस साल का लालू राबड़ी राज का चक्र नहीं टूटता। रेल मंत्री के रूप में लालू को भी अपनी अलग छवि बनानी पड़ी। उन्हें विकास पुरुष की छवि पर चलना पड़ा। लालू को आईआईएम अहमदाबाद तक जाना पड़ा। हालांकि तब तक देर हो चुकी थी। खैर बिहार के लोग तैयार हैं कि कुछ हो। मगर बात इस पर खतम नहीं होनी चाहिए कि कुछ ही हो और बाकी भूल जाए। अगर सरकार अपनी रफ्तार बढ़ाती है तो लोग अपनी रफ्तार दुगनी कर लेंगे। बिहार के श्रम,कौशल का फायदा इस राज्य को बेहतर बनाने के लिए होना चाहिए।

इसके लिए बिहार को दूसरी सामाजिक जड़ताओं से निकलना होगा। सामाजिक बुराइयां तो वहीं की वहीं हैं सिर्फ राजनीतिक प्रशासनिक माहौल बदला है। उसे तोड़ने का अभियान चले। वर्ना इस अच्छे माहौल का फायदा उठा कर लोग पटना में फ्लैट खरीद कर खुश हो जाएंगे। बिल्डर के फ्लैट बनने से डेवलपमेंट नहीं हो जाता है। एक नया बिहार दिख तो रहा है जिसका आत्मविश्वास जागा है। बिहार भी बदल सकता है इस पर सब हैरान हैं। लेकिन याद रखना चाहिए कि दूसरे राज्य कितना आगे जा चुके हैं। कहीं ऐसा न हो कि बदलाव का ककहरा पढ़ कर ही हम खुश हो जाएं। अभी बहुत कुछ करना बाकी है। डिमांड करते रहिए।

(ऐसा बोलना चाहता था लेकिन पढ़ कर नहीं बोल सका इसलिए यहां दे रहा हूं। अरुण रंजन ने बेहतरीन तरीके से अपनी बात कही। कहा कि माई की छवि कहां गई। महादलित की छवि आ रही है। ये भी चली जाएगी। छविओं को मत बनाइये। जंगल राज और सुशासन की छवि को टकराने दीजिए। इकहरी छवि मत बनाइये। काश उनके भाषण को लिख कर ब्लाग पर डाल देता तो सबको फायदा होता)

खोजवा का मतलब जानते हैं आप?

वक्त मिलता है तो अब मां से ज़्यादा बातें करता हूं। पहले बाबूजी से करता था। मां के किस्से बाबूजी के किस्सा संसार से बिल्कुल अलग हैं। बताने लगीं कि पचीस साल पहले गांव में किसी की बेटी पैदा हुई। खोजवा। खोजवा का मतलब हिजड़ा। परिवार के लोग उसे हिजड़े को देने का मन बना रहे थे लेकिन सहमे हुए थे। अचानक जब मां गांव पहुंची तो औरतों ने चुपके से बुला लिया। सुनते ही कि इसे कोई और ले जाएगा, मां बिगड़ गईं। बोली कि जाकर डॉक्टर से ऑपरेशन कराओ और इसे पाल पोस कर बड़ा कर दो। लड़की कैसे फेंक दोगे। परिवार को हिम्मत मिल गई। गांव की औरतों में मां की बड़ी साख है। वो परिवार चुपके से नवजात लड़की को लेकर गया और आपरेशन करवाया। लड़की ठीक हो गई और अब तो उसके तीन बड़े-बड़े बच्चे भी हैं। हिज़ड़ों की ग्लानी और मुश्किल भरी दुनिया में जाने से वो लड़की बच गई। छोटे-छोटे साहसिक फैसलों से ज़िंदगी कितनी बदल जाती है। गांव के लोगों की अफवाहों को मां झुठलाते रही। पचीस साल पुराना किस्सा पुराने चावल के भात की तरह सुगंधित लग रहा है। ऐसे कई किस्से हैं मां के पास।

यूपी,बिहार,झारखंड-अंड-भंड,अंड-भंड

पुणे शहर से लौटा हूं। आईटी उद्योगों और शिक्षा संस्थानों के कारण पुणे तेज़ी से बदल रहा है। मुंबई का बुनियादी ढांचा चरमरा रहा है। रहने की सुविधाओं की तंगी और पुणे-मुंबई एक्सप्रेस-वे ने पुणे की तकदीर बदल दी है। उत्तर भारत के छात्रों ने भी यहां की अर्थव्यवस्था में योगदान दिया है। उड़ीसा,बंगाल,बिहार और यूपी के मज़दूरों के बल पर पुणे की इमारती तरक्की तेजी से हो रही है। महाराष्ट्र का पचास फीसदी हिस्सा शहरीकरण हो चला है। मुंबई के अलावा नागपुर, नाशिक, पुणे जैसे बड़े शहर उभर कर सामने आ रहे हैं। जो किसी भी मायने में मुंबई से कम नहीं है।

बिहार,झारखंड,उत्तर प्रदेश में पटना,रांची और लखनऊ के अलावा ऐसा कोई दूसरा शहर नहीं है,जहां बुनियादी ढांचे का विकास तेजी से हो रहा है। इन राजधानियों की हालत भी कम खराब नहीं है। शिक्षा,व्यापार,आईटी के केंद्र के रूप में इनकी पहचान अभी तक नहीं बन पाई है। नतीजा इन तीन राज्यों के विद्यार्थियों और मजदूरों दोनों को पलायन करना पड़ रहा है। पिछले बीस साल के ग्लोबलाइज़ेशन में उत्तर भारत बुरी तरह पिछड़ कर रह गया। अब बिहार औ यूपी का विकास दर राष्ट्रीय विकास दर से अधिक हुआ है लेकिन हम मौका चूक गए हैं। हमारे शहर सिर्फ शहर के नाम पर मकान बनाने के काम आ रहे हैं।

झारखंड में रांची के अलावा जमशेदपुर एक ऐसा शहर था जिसका पुणे या बंगलुरू जैसा चरित्र था। इस शहर के पास टाटा की फैक्ट्री से लेकर क्रिकेट का स्टेडियम भी है। लेकिन जमशेदपुर अब शहरों की रेस में पीछे छूट गया लगता है। जमशेदपुर की शिल्पा राव बालीवुड की दुनिया में अपनी आवाज़ से नाम कर रही हैं लेकिन जमशेदपुर अतीत का शहर बन गया है। लखनऊ में सुधार हुआ लेकिन क्या यह सुधार किसी आर्थिक विकास के काम आएगा, अभी साफ नहीं है। पटना की हालत बहुत अच्छी नहीं है। पूरे शहर में तीन मुख्य चौराहे हैं। डाकबंगला, बोरिंग रोड और अशोक राजपथ। हर तरफ जाम है।

बात पुणे की कर रहा था। बहुत दुख हुआ। हमारे शहरों ने दम तोड़ दिया और हमारे बच्चे अवसरों की तलाश में दूसरे शहरों में दम तोड़ रहे हैं। काश उत्तर भारत के पास भी कोई ऐसा शहर होता जहां पुणे, नाशिक और चंडीगढ़ से आकर लड़के पढ़ते। शिक्षा तो हमारी पूंजी रही है। पढ़ने में और पढ़ाने में। फिर भी आज यूपी,बिहार और झारखंड का एक भी कालेज दूसरे राज्यों के बच्चों को आकर्षित नहीं करता। बीएचयू, पटना यूनिवर्सिटी और इलाहाबाद यूनिवर्सिटी का इतिहास ही है। वतर्मान में भी यहां इतिहास की बातें होती हैं। बाकी किसी यूनिवर्सिटी की कोई पहचान नहीं है। इलाहाबाद के बच्चे दिल्ली मुंबई पढ़ने जा रहे हैं। गोरखपुर के पास आज की तारीख में क्या है। इतिहास है। यहां के लड़के कई राज्यों में जाकर धक्के खा रहे हैं। दिल्ली के आस-पास कई संस्थान खुल गए हैं। इन संस्थानों के मैनेजर रांची से लेकर गोरखपुर तक में होर्डिंग लगाते हैं, सेमिनार करते हैं ताकि ये बच्चे अपनी कमाई उनके यहां गंवा दें।

छात्रों के पास विकल्प नहीं है लेकिन हमें अब यह सोचना ही होगा कि आखिर कब तक हमारे ज़िले कलक्टर के लिए मुख्यालय का काम करते रहेंगे। उनका बुनियादी ढांचा क्यों नहीं बेहतर हो रहा है। वहां के कालेज और अस्पताल तीन नंबर के क्यों हैं। इन तथाकथित शहरों के लोगों को आगे आना होगा। अपने शहर की गुणवत्ता को लेकर आंदोलन करना होगा। किसी को सवाल तो करना ही होगा कि जब गोरखपुर यूनिवर्सिटी का नाम क्यों नहीं है, आखिर क्या कमी है कि इलाहाबाद यूनिवर्सिटी दिल्ली विश्वविद्यालय को टक्कर नहीं दे सकती। आईआईटी कानपुर और एक्सएलआरआई जमशेदपुर जब बन सकता है तो बाकी शहरों के कालेज क्यों नहीं नामी हो सकते।

शुरूआत कौन करेगा। वो युवा ही करेंगे जो ड्राफ्ट लेकर ट्रेन में सवार हो रहे हैं और घटिया किस्म के कमरों में रह रहे हैं। अपने घरों से बिछड़ कर बाहर के शहरों में औसत शिक्षा मगर रोज़गार के हिसाब से नामी शिक्षा हासिल कर रहे हैं। पुणे के एक बिल्डर ने कहा कि राज ठाकरे के कारण बिहार यूपी के मज़दूर भाग गए। उन्हें बुलाने के लिए एक लाख रुपये एडवांस के साथ अपने मैनेजर को भेजा। ऊंची इमारतों को बनाने का काम मराठी नहीं कर सकता। ये बिहार यूपी और उड़ीसा के ही गरीब लोग कर सकते हैं। सवाल पूछिये कि कहीं हमारी सामाजिक और राजनीतिक सोच की कमी तो हमें बर्बाद नहीं कर रही है। नहीं सोच सकते तो अपने बच्चे की एलआईसी पॉलिसी के साथ-साथ किसी पुणे, किसी दिल्ली या किसी चंडीगढ़ में एडमिशन कराने के लिए बचत खाता भी खोल लीजिए।
(यह लेख दैनिक जागरण के युवा अखबार आई-नैक्स्ट में छपा था)

मेट्रो मैन की लड़कियां



हमारे देश में टी-शर्ट साहित्य पर काम नहीं हुआ है। वक्त आ गया है कि टी-शर्ट पर लिखी सूक्तियों का सामाजिक अध्ययन किया जाए। पता चलेगा कि टी-शर्ट साहित्य भी लड़कियों को शिकार की तरह पेश करता है। मेट्रो में काम करने वाले मज़दूर के टी-शर्ट पर यह लफंगासंदेश छपा है। ज़रूर इन्हें मतलब नहीं मालूम होगा। लेकिन रीप्रिंट होते हुए इनके गले से आ लगा है। सारी लड़कियों को भोग लेने की ख्वाहिश।

एयरटेल का विज्ञापन तो आपने देखा ही होगा। थ्री इडियट के जोशी जी लड़की के भाई को फोन करते हैं। राव की किताब से सवाल आने का झांसा देकर उसकी बहन को फोन देने को कहते हैं। जब लड़कियों का ज़माना ही आ गया है तो कोई लड़की किसी लड़के की बहन को फोन क्यों नहीं करती और कहती कि सुन सुनीता ज़रा पप्पू को फोन देना। लफड़ा हो गया है मेरा उसके साथ। मस्त है तेरा भाई। झक्कास।

मर्द,सैक्स और कैमरा

लव,सेक्स और धोखा। पूरी फिल्म में कैमरा वैसे ही देखता है जैसे हमारे समाज में मर्दों की नज़र मौका देखकर लड़कियों को देखती है। इस नज़र को बनाने में कई तरह की परिस्थितियां सहायक होती हैं। कैमरा अलग-अलग एंगल से अपनी नायिकाओं को तंग नज़रों की ऐसी गहराई में धकेलता है जहां हास्य पैदा करने की कोशिश,मर्दवादी विमर्श को ही स्थापित करती है। धोखा कुछ भी नहीं है। सब हकीकत है। हिलता-ड़ुलता एमोच्योर कैमरा अपने बोल्ड दृश्यों को उलट कर लड़कियों की निगाहों से भी मर्दों को देखता तो बराबरी की बात सामने आती। लड़कियों को बेचारी और शिकार की तरह देखकर अब अच्छा नहीं लगता। फिल्म में वो सेक्स को अपने हथियार की तरह इस्तमाल करने की बजाय उसके साथ सरेंडर करती लगती हैं। फिल्म से यह उम्मीद इसलिए कि लव-सेक्स और धोखा बालीवुडीय सिनेमा और न्यूज़ चैनलों का क्रिटिक बनने की कोशिश करता है। निर्देशक की कोशिश है कि जैसा मर्द देखता है वैसा ही दिखा दो।

नीतीश कटारा हत्याकांड की झलक और डिपार्टमेंटल स्टोर में काम करने वाली लड़कियां और टीआरपी की कैद में फंसा एक ईमानदार पत्रकार। चालू गोरी लड़की शादी का कार्ड बांट कर निकल लेती है और सांवली लड़की अपने रूप के बेचारेपन का शिकार होकर यूट्यूब की गलियों में पहुंच जाती है। आत्महत्या से बचकर लौटी मिरिगनयना तू नंगी(बंदी) अच्छी लगती है गाने वाले लकी को फंसाने आती है। नहीं फंसा पाती। कैमरा सेक्स के मर्दवादी नज़रिये के हिसाब से ज़ूम इन होता रहता है। मर्दवादी नज़रिया अपने कैमरे के इस एंगल को जस्टीफाई करने के लिए कहानी का सहारा लेता है।

एक तरह से आप देख सकते हैं कि हमारे समाज में लड़कों की नज़र में लड़कियों को कैसे बड़ा किया गया है। रूप-रंग-अंग। उपभोक्तावादी नज़रिया। जिन पर मर्दों की आंखों का अधिकार है। दिवाकर इस तस्वीर को मुंह पर दे मारते हैं। समाज के इस चिर सत्य को यह फिल्म क्यों बदल दे। इसी विमर्श के हिसाब से एक सवाल उठता है कि सारी बेकार लगने वाली लड़कियां ही नायिका क्यों हैं। कोई सेक्स बम जैसी नायिका नहीं है। उनकी लाचारी ही फिल्म के घटनाक्रम को क्यों आगे बढ़ाती है। किसी का पिता मर गया है तो कोई भाग कर आई है। फिर ठीक है ऐसी लाचार शिकार लड़कियों की कथा क्यों न कही जाए।

कहानी के किरदार बीच बीच में लौट कर अच्छा प्रसंग बनाते हैं। स्टिंग आपरेशन की दुनिया में सरकार गिराने वाला पत्रकार खुद मीडिया के भीतर के स्टिंग में फंसा लगता है। चश्मा,मूंछ और उसका अनस्मार्ट लुक बेचारेपन के साथ मौजूद है। स्टिंग और ब्लैकमेल के विमर्श में अटका हुआ है। फिल्मकार ने संपादिका और चंपू का सही चित्रण किया है। आज मीडिया में जो भी हो रहा है वो इसी तरह के काबिल लोगों की देन है। न कि बाज़ार का दबाव। संपादिका अपने फार्मूले पर कायम है। फार्मूले से उसका विश्वास नहीं हिलता। फिल्मकार उसे जवाब देने की कोशिश नहीं करता। सिर्फ दो दिन का पेमेंट भरवा लेता है। वैसे ही जैसे सूचना मंत्रालय के नोटिसों का जवाब देकर पीछा छुड़ा लिया जाता है।

हिन्दी न्यूज़ चैनलों ने फिल्म कथाकारों को काफी खुराक दिया है। चर्चगेट की चुड़ैल। स्टिंग की दुनिया का सच। जिसे अब न्यूज़ चैनलों ने खुद करना छोड़ दिया है। पर मीडिया का मज़ाक उड़ाना अच्छा लगता है। मीडिया मिशन नहीं है। सत्ता के करीब दिखने के लिए संविधान का अघोषित-अलिखित चौथा स्तंभ बन गया। खुद ही बोलता रहता है कि हम वाचडॉग है। बिना वॉच का डॉग बन गया है मीडिया। ये एक चाल है मीडिया को सत्ता प्रतिष्टान के रूप में कायम करने के लिए। चंद पत्रकारों के मिशन और संघर्षपूर्ण जीवन को भुना कर मीडिया उद्योग बाकी करतूतों को छुपाने के लिए नैतिकता का जामा पहन लेता है। पत्रकार के लिए पत्रकारिता मिशन है। कंपनी के लिए नहीं। एकाध मामूली अपवादों को छोड़ दें तो इसका प्रमाण लाना मुश्किल हो जाएगा। पत्रकारिता सिर्फ और सिर्फ एक धंधा है। जैसे साबुन बेचने वाला अपने साबुन को गोरा कर देने के अचूक मंत्र की तरह पेश करता है वैसे ही मीडिया कंपनी अपनी ख़बरों को। वरना उन लोगों से पूछिये जो न्यूज़ रूम में फोन करते रहते हैं कि बिल्डर ने सोसायटी में ताला बंद कर दिया है। आप प्लीज़ आ जाइये और कोई नहीं जाता। अच्छा है कि अब इस कंफ्यूज़न को विभिन्न मंचों से साफ किया जा रहा है।

फिल्म बालीवुडीय सिनेमा का मज़ाक उड़ाती है। पिछले बीस सालों की एक बड़ी कथा राहुल और सिमरन का मज़ाक। उसे हास्य में बदलकर हमारे समय के सबसे बड़े नायक शाहरूख़ ख़ान के अभिनय क्षमता(जिस पर खुद उन्हें भी संदेह रहता है) का पोल खोल देती है। शाहरूख़ ख़ान बनना सिर्फ एक चांस की बात है। लव सेक्स और धोखा का एक मैसेज यह भी है। लुगदी साहित्य की तरह बनी यह फिल्म हमारे समय की तमाम लुगदियों की ख़बर लेती है। आदी सर का शुक्रिया अदा कर दिवाकर दिखा देते हैं कि फिल्मों का असर कल्पनाओं के कोने कोने में कैसा होता है। कैमरा का बांकपन ही बेहद आकर्षक पहलु है। यह एक बड़ा काम है। होम वीडियो सी लगने वाली कर्मिशयल फिल्म बनाना आसान काम नहीं। एक तरह से आप यह भी देख सकते हैं कि बंबई गए तमाम असफल फिल्मकारों,कथाकारों,नायक-नायिकाओं के सपने इस तरह की फिल्मों के पर्दे पर आकर सुपरहिट फिल्मों और फिल्मकारों को जूता मार रहे हैं। कहानी का नायक इंस्टीट्यूट के लिए फिल्म बना रहा है।

यह फिल्म नहीं है। अ-फिल्म है। किसी महान फिल्म की बची खुची कतरनों से बनाई एक फिल्म। बहुत अच्छा प्रयोग है। फिल्म लोकप्रिय नहीं हो सकती। इंटरवल में जब काफी मांगा तो लड़के ने कहा कि फिल्म ने पका दिया न। कोई देखने नहीं आ रहा। मैंने कहा कि ऐसी बात तो नहीं। तो जवाब मिला कि अच्छा आप पके नहीं। प्रयोग बनाम फार्मूला के बीच फिल्म फंस गई है। वैसे ही जैसे न्यूज टीवी की दुनिया में ईमानदार पत्रकार फंस गया है। वैसे ही जैसे हमलोगों से लोग पूछ देते हैं कि भाई साहब आपके शो की रेटिंग क्यों नहीं आती। इसका जवाब तो है मगर देकर क्या फायदा। जीवन एकरेखीय नहीं होता। कई तरह की धारायें साथ चलती हैं। कभी कोई धारा ऊपर आ जाती है तो कभी कोई नीचे चली जाती है।

कुछ लोगों को पसंद आने वाली फिल्म है। दिवाकर बनर्जी ने फिल्म पर आयोजित सेमिनारों में दिखाये जाने के लिए एक अच्छी फिल्म बना दी है। धीरजधारी लोगों को फिल्म पसंद आएगी। वर्ना न्यूज़ चैनलों के कबाड़ से पात्र उठाकर बनाई गई कहानियों का वही हश्र होता है जो रण से लेकर तमाम फिल्मों का हो चुका है। लगता है कि हमारे समय के कथाकार भी टीआरपी के झांसे में फंस कर अपना पैसा डुबा दे रहे हैं। उन्हें लगता है कि न्यूज़ चैनलों पर दिख रहा है, ज़रूर लोकप्रिय होगा तो बस उससे प्रेरणा लेकर फिल्म ही बना देते हैं। अख़बारों के कॉलमकारों ने इस फिल्म को चार-चार स्टार दिये हैं। फिर भी फिल्म को जनप्रिय बनाने में मदद नहीं मिल रही। कई बार निर्देशक शिकायत करते हैं कि उनकी फिल्म को रिव्यू नहीं मिली इसलिए नहीं चली। इस फिल्म के लिए यह शिकायत नहीं होनी चाहिए। वैसे चलने के लिए ही क्यों कोई फिल्म बनाये। दिवाकर का यही फैसला बड़ा लगता है।

(मूल लेख में कुछ बदलाव किया गया है। कुछ पंक्तियां बाद में जोड़ी गईं हैं)

माला महाठगनी हम जानी...सब नेतवन को धारत है,तौलत है

इक्कीस लाख की माला पहन ली है मायावती ने। जब मायावती यह माला पहन रही होंगी तब तमाम राजनीतिक दलों के कार्यकर्ताओं को अफसोस ज़रूर भी हुआ होगा कि वे अपने नेताओं को अठन्नी चवन्नी से तौलते रह गए,यहां तो बीएसपी वालों ने हज़ार के नोटों की माला ही बना दी। हंगामा होना लाज़िमी था। ख़बर चली कि बीएसपी ने इंकार किया है और कहा है कि ये असली फूलों की माला नहीं हैं। मैसूर में बनी है। लेकिन जब न्यूज़ रूम में तस्वीर को ज़ूम इन किया गया तो पांच सौ और हज़ार के नोट झलकने लगे। थोड़ी देर के बाद नसीमुद्दीन सिद्दीक़ी ने कह दिया कि लखनऊ के कार्यकर्ताओं ने यह माला दिया है।


हरियाणा में जब ओम प्रकाश चौटाला की सरकार थी, तब सभाओं में चौटाला को लाख दो लाख रूपये तक की नोटों की माला पहनाई जाती थी। न्यूज़ चैनलों पर खूब स्टोरी चलती थी। रक्त से लेकर लड्डू और सिक्के तक से नेताओं को तौलने की परंपरा बहुत पुरानी है। हमारे देश की राजनीतिक संस्कृति का यह भ्रष्ट रूप कैसे शुरू हुआ पता नहीं। लेकिन जब नेता संघर्ष के प्रतीक माने जाते थे तब कार्यकर्ता और उनसे इत्तफाक रखने वाले लोग उनके वजन के बराबर चंदा जमा करते थे। धीरे धीरे यह चमचागीरी और महत्वकायम करने का प्रायोजित कार्यक्रम में बदल गया। जिसका एक रूप आपने लखनऊ की रैली में देखा।

हम किस तरह की राजनीतिक संस्कृति चाहते हैं यह एक महत्वपूर्ण प्रश्न है। सारे दलों की रैलियों का कमोबेश वही स्वरूप होता है जो बीएसपी का था। इसका मतलब यह नहीं कि मैं बीएसपी की रैली की भव्यता के पीछे इस्तमाल सरकारी अमले और पैसे को न्यायोचित ठहरा रहा हूं। बिल्कुल नहीं। बीएसपी एक राजनीतिक पार्टी से ज़्यादा दलितों के सम्मान के लिए आंदोलन हुआ करती थी। अब कितनी है मैं नहीं जानता। मगर पचीस साल के सफर में पार्टी यहां तक आ गई है। जश्न का माहौल है। लोगों ने जश्न मना लिया। लेकिन ऐसा जश्न तो तब भी मनाया जब बीएसपी दस साल की थी। पंद्रह साल की थी। हर राजनीतिक रैली किसी न किसी किस्म के भ्रष्टाचार की बुनियाद पर बुलाई जाती है। आंदोलन अब नाटकीय लगते हैं। पहले आंदोलन जनता बनाती थी अब तो जनता के बीच जाने से पहले ही प्रेस कांफ्रेंस में कह दिया जाता है कि हम आंदोलन शुरू करने जा रहे हैं।

१२ अप्रैल २००४ को ट्रिब्यून की एक ख़बर है। गूगल जगत से निकाली है। अंबाला से बीजेपी के पूर्व सांसद रतन लाल कटारिया कहते हैं कि नेताओं को सिक्कों से तौलना राजनीतिक संस्कृति का हिस्सा बन गया है। कार्यकर्ता कहते हैं कि इससे नेता का सम्मान भी हो जाता है और चुनाव का खर्चा भी निकल आता है। इसी तरह आप नेट पर सर्च करेंगे तो ऐसे कई किस्से सामने आ जायेंगे। मैंने ही कवर किया था सोनिया गांधी का जन्मदिन। एक योग्य समर्थक(चमचा एक निष्प्रभावी शब्द और तेजहीन है)ने साठ किलो ग्राम का केक बनवाया था। बड़ी सी गाड़ी में केक लाद कर लाया गया और कटा। लूट पाट के सब खा गए। जन्मदिन मन गया।

मायावती की पार्टी के जश्न को समझना चाहिए। राजनीतिक संस्कृतियों का हिस्सा रहा है रैली में नाच-गाना,बैलून छोड़ना और सत्ता का दुरुपयोग करना। लेकिन आलोचना सबकी होनी चाहिए। अगर यह लोकतांत्रिक राजनीतिक भ्रष्टाचार है तो इसमें मायावती से लेकर बीजेपी कांग्रेस,समाजवादी पार्टी सब शामिल हैं। वैसे किसने कहा है कि राजनीतिक कार्यकर्ता जश्न नहीं मनायेंगे। कहीं लिखा है कि जश्न मनायेंगे तो ऐसे मनायेंगे। सब अपनी अपनी हैसियत से अपना जन्मदिन मनाते हैं। लेकिन हंगामा ऐसे हो रहा है जैसे मूर्तियों के ज़रिये दलित कल्याण के निकली मायावती ने कोई नया काम कर दिया हो। काम तो पुराना ही है बस ज़रा बड़ा कर दिया है। कई दोस्तों ने यह भी कहा कि बस इक्कीस लाख की माला। ये तो बहुत कम है। मायावती की अब ये नौबत आ गई कि वो करोड़ की जगह लाखों की माला पहनने लगीं।

मुझे चिन्ता मायावती की नहीं हो रही है। चिन्ता हो रही है मूर्ख टाइप लगने वाले उन दुल्हों की जो दस दस रुपये के नोटों की माला पहन कर शादी करने निकलते हैं। उन कमबख्तों ने अगर दस लाख की माला की डिमांड कर दी तो उत्तर भारत के सारे बाराती मैसूर में माला बनवा रहे होंगे।

त्रिवेदी ने सैयद को मार दिया..सैयद कहता रहा आतंकवादी नहीं है

दि इंडियन एक्सप्रेस की पहली ख़बर ने परेशान कर दिया है। एक नौजवान इस्पेक्टर की हंसती हुई तस्वीर छपी है। अंदाज़ा नहीं था कि भीतर की ख़बर इतनी बदसूरत होगी। इंस्पेक्टर शब्बीर अली सैयद,गुजरात एंटी टेररिस्ट स्क्वाड का सदस्य। वो चिल्लाता रहा कि सर मैं आतंकवादी नहीं हूं। फिर भी डीसीपी सुभाष त्रिवेदी उसे अपनी बाज़ुओं और अफसरी की ताकत से मरोड़ता रहा। यह सोच कर डर लगता है कि त्रिवेदी के भीतर ताकत का गुरूर और सांप्रदायिक पूर्वाग्रहों का ज़हर कितना भयानक होगा कि उसने सैयद पर गोली दाग दी। सैयद चिल्लाता रहा- सर मैं आतंकवादी नहीं हूं। मैं तो ऑब्ज़र्वर हूं। एक्सप्रेस के रिपोर्टर कमाल सैयद को इंस्पेक्टर बता रहा है कि मैं त्रिवदी की जकड़ से बाहर आने के लिए तेजी से छटपटाने लगा,तभी उसने अपनी सर्विस रिवॉल्वर निकाली और दो गोली दाग दी। मैं बेहोश हो गया।


चौबीस फरवरी की घटना है। शहर सूरत,राज्य गुजरात। देश का एक विकसित राज्य। मौका-मॉक ड्रील। डीसीपी त्रिवेदी इस ड्रील में डॉक्टर बना था। किसी अफसर को हथियार ले जाने की इजाज़त नहीं थी। ड्रील की पूरी योजना बनाई गई थी। सारे अफसरों को उनकी भूमिका के बारे में साफ-साफ बता दिया गया था। सैयद को काम दिया गया था कि वो देखे कि आतंकवादी ऑपरेशन के दौरान किस तरह की चूक होती है। डीसीपी सुभाष त्रिवेदी,जो बारोट का एसपी है और उनके कुछ साथियों को डाक्टर की टीम की भूमिका मिली। सीन तय हुआ कि आतंकवादियों ने बस यात्रियों को बंधक बना लिया है। सैयद बताते हैं कि त्रिवेदी बस में घुसता है और मुझे पकड़ लेता है। कंफ्यूज़न का सवाल ही नहीं पैदा होता क्योंकि ऑब्ज़र्वर बनने का काम सिर्फ मैं कर रहा था। डीसीपी को यह काम भी नहीं दिया गया था कि वो आतंकवादियों को पकड़ेगा। सूरत के पुलिस कमिश्नर शिवानंदन झा ने इसकी पुष्टि भी की है।

झूठी पुलिस कहती है कि ग़लती कैसे हुई फिलहाल इसका कोई जवाब नहीं है। हम इसकी निष्पक्ष जांच कर रहे हैं। इस मामले में किसी निष्कर्ष पर पहुंचना मुश्किल है। हमने कई लोगों का बयान ले लिया है। इसके अलावा शिवानंदन झा ने इंडियन एक्सप्रेस के संवाददाता को कुछ भी कहने से इंकार कर दिया। पुलिस ने सिर्फ शिकायत दर्ज की है। एफआईआर नहीं।


कमाल लिखते हैं कि शुरूआती जांच के बाद पता चला है कि यह एक दुर्घटना थी।जानबूझ कर नहीं किया गया। अंतिम रिपोर्ट का इंतज़ार हो रहा है।

दोस्तों, इस घटना से आप परेशान नहीं हुए तो और परेशानी की बात है। मुसलमानों को लेकर सुभाष त्रिवेदी के भीतर कितनी घृणा होगी जिसके भड़क उठने पर उसने सैयद का गट्टा पकड़ लिया। त्रिवेदी को सैयद आतंकवादी नज़र आ गया। त्रिवेदी ने सैयद को कितनी ज़ोर से जकड़ा होगा कि उसे अंदेशा हो गया होगा कि कुछ गड़बड़ है और वो चीखने लगा होगा कि सर मैं आतंकवादी नहीं हूं। इस बात पर त्रिवेदी और भड़क गया होगा। उसका गुस्सा पूर्वाग्रह के ज़हर से लाल होने लगा होगा। आप बस कल्पना कीजिए। त्रिवेदी के भीतर के ज़हर के उफान को। आप आसानी से समझ जाएंगे। शिवानंदन क्षा को इतनी सी बात समझ में नहीं आई है। पुलिस हिंसक होती है। हो जाती है लेकिन अपने ही अफसर के खिलाफ हिंसा और कुंठा ऐसी बर्बरता तक ले जाएगी कि उस पर गोली चला दें।

मेरी सांसें चलने लगीं इस ख़बर को पढ़ कर। बार बार आग्रह करता हूं कि ये हिन्दू मुस्लिम का पूर्वाग्रह छोड़ो। नरेंद्र मोदी की सरपरस्ती में इतने अंधे न हो जाओ कि किसी को मार दो। अगर आप सब के भीतर कोई सुभाष त्रिवेदी है तो प्लीज़ पहचानिये। उसे बाहर निकालिये वर्ना एक दिन आप अपने किसी मुसलमान दोस्त को इसी तरह मार देंगे। किसी मुसलमान पड़ोसी को यह कह कर गोली मार आएंगे कि आतंकवादी है। इसीलिए माइ नेम इज़ ख़ान एक साधारण फिल्म होते हुए भी असाधारण हो जाती है। वो हमारी पूर्वाग्रहों के ठिकानों का पता बताती है।

चौबीस फरवरी की घटना पर कोई हंगामा नहीं। देश का मुस्लिम नेतृत्व वाकई तीन नंबर का है। महिला आरक्षण को लेकर कई मुस्लिम नेताओं से बात हुई। सब सोनिया और नीतीश के साथ अपना जुगाड़ बिठा रहे हैं। वो इतने गिर गए हैं कि उनसे निजी राय भी नहीं कही जाती है कि हम तो चाहते हैं कि मुस्लिम औरतों को आरक्षण नहीं मिले लेकिन कोई साथ नहीं दे रहा। इतना भी नहीं कहा जाता। सब सत्ता की मलाई चाटना चाहते हैं। इन नेताओं को पता नहीं कि वे अपने ही समाज के भीतर हाशिये पर जा रहे हैं। मुस्लिम मध्यमवर्ग इन्हें उखाड़ कर फेंक देगा जैसी हालत बुख़ारियों की हुई वैसी ही हालत अनवरों और खुर्शीदों की होने जा रही है। और गुजरात का मुख्यमंत्री क्या कर रहा था। उसने क्या किया इस घटना पर। बीस दिन तक यह मामला सुर्खियों में आने से कैसे रह गया। यह एक संगीन साज़िश है।

अगर हम सहनशील समाज नहीं बनायेंगे तो हमारे बीच का कोई आदमी अपने भीतर दबी कुंठा को लेकर अफसर बनेगा और एक दिन इस तरह के किसी सैयद पर गोली चला देगा। टीवी से तो आप मत ही उम्मीद रखिये कि ऐसी ख़बरें आयेंगी क्योंकि टीवी के लोगों की रणनीति आप समझिये। वो गंदगी फैलाते हैं। गंदगी पर लेख लिखते हैं। गंदगी पर लिखे लेख का पैसा भी मिलता है वैसे। वहीं गंदगी पर होने वाले सेमिनारों में जाते हैं। वही गंदगी को रोकने के उपाय बनाते हैं। सबसे कम प्रसार संख्या वाले अख़बार की ऐसी झकझोर देने वाली ख़बर। पाठक को ऐसे हंगामे में फेंक देती हैं जहां सिर्फ सन्नाटा सुनाई देता है। आज आप इंडियन एक्सप्रेस खरीदिये और पढ़िये।

रिन से भी ज़्यादा सफ़ेद-हबीबगंज-भोपाल एक्सप्रेस

आपमें से कई लोगों ने हबीबगंज एक्सप्रेस में सफ़र किया होगा। निज़ामुद्दीन से चलकर भोपाल और हबीबगंज जाने वाली ट्रेन। इसकी सफाई मुझे हमेशा से आकर्षित करती रही है। गज़ब का अनुशासन दिखता है इस ट्रेन। रेल यात्रा का जितना अनुभव रहा है उसके आधार पर कह सकता हूं कि हबीबगंज किसी के बेडरूम से भी बेहतर साफ सुथरी और सुसज्जित ट्रेन है।

आप इस ट्रेन की फर्श को देखिये। चकाचक। जो चादरें मिलती हैं वो पटना कोलकाता राजधानी में दी जाने वाली चादरों से बेहतर और साफ सुथरीं। बाथरूम का फर्श भी चमकता है। लगता है कि मिनट मिनट पर कोई साफ करता रहता है। एक यात्री ने कहा कि जब आप सो जायेंगे तो अटेंडेंट पर्दा ठीक से लॉक कर जाता है ताकि रोशनी से परेशानी न हो और आप ठीक से सो सकें। पूरे सफर के दौरान नंगे पांव इस ट्रेन में चलता रहा। सफाई को महसूस करने के लिए।

रेल मंत्री ममता बनर्जी को अगर अपने काम से बेहतर छवि बनानी है तो हर ट्रेन को हबीबगंज एक्सप्रेस बना दें। तय कर दें कि रेलवे का हर अफसर एक बार हबीबगंज में सफर करेगा और देखेगा कि किसी ट्रेन को कैसे घर से भी ज्यादा साफ रखा जा सकता है। रेल मंत्री को भी एक बार इसमें सफर करना चाहिए।

यात्रियों से बातें होने लगीं तो किसी ने कहा कि इस ट्रेन में भोपाल के आईएएस अफसर चलते हैं इसलिए साफ है। लेकिन पटना राजधानी में भी तो आईएएस जाते होंगे। इसी महीने नई दिल्ली राजेंद्रनगर राजधानी से पटना गया। समय से पहले तो पहुंच गई लेकिन इतनी बदसूरत और गंदी थी कि पूछिए मत। वही हाल वापसी में संपूर्णक्रांति का रहा।

मगध एक्सप्रेस के दूसरे दर्जे में तो आप झांक नहीं सकते। लेकिन अगर आप हबीबगंज एक्सप्रेस के दूसरे दर्जे में जायेंगे तो हैरान रह जायेंगे। भारत के किसी भी ट्रेन का दूसरा दर्जा इतना साफ सुथरा नहीं होगा। कुछ साल पहले भोपाल गया था। पत्नी के साथ लौट रहा था। सोचा कि दूसरे दर्जे में तो काफी भीड़ होगी। लेकिन जब अंदर गया तो सीट से ज्यादा एक भी यात्री फालतू नहीं। सफाई देखकर दोनों हैरान थे। पटना की ट्रेनों का अनुभव था। इसलिए डरे भी हुए थे कि दूसरे दर्जे में सामान लेकर कैसे घुसेंगे,क्या करेंगे। लेकिन थोड़ी देर में लगा कि ये ट्रेन इतनी साफ सुथरी क्यों हैं। बस हम सब हबीबगंज के बारे में बात करने लगे। एक यात्री ने कहा कि भारत की अकेली ट्रेन है जिसके दूसरे दर्जे में सफर कर आपको एयरकंडीशन कोच से बेहतर लगेगा।

भोपाल में हिन्दुस्तान टाइम्स के संपादक ने बताया कि कर्मचारियों को बड़ा गर्व होता है कि उनकी ट्रेन साफ सुथरी है। किसी ने कहा कि भोपाल से कम ट्रेन है। जब भी नई बोगी आती है,हबीबगंज में लग जाती है। तरह-तरह की बातें। लेकिन सही जवाब नहीं मिला। कुछ तो सिस्टम होगा। कोई तो अफसर होगा। कुछ तो परंपरा होगी। जो इस ट्रेन को चकाचक रखती है।

मुझे तो इस ट्रेन पर किताब लिखने का मन कर रहा है। शोध किया जाना चाहिए और रेलवे के विशालकाय नेटवर्क के सामने हबीबगंज की कहानी पेश की जानी चाहिए कि आखिर कैसे ये ट्रेन साफ सुथरी रहती है। किस तरह से इस ट्रेन में घुसते ही यात्रियों का चरित्र बदल जाता है। रिन से भी ज्यादा सफेद-हबीबगंज भोपाल एक्सप्रेस। ये नारा कैसा रहेगा। यात्रियों को मिलकर इस ट्रेन से जुड़े सभी कर्मचारियों अफसरों,ड्राइवरों को इनाम देना चाहिए।

तो क्या फिर हार गया मुसलमान नेतृत्व

सबसे पहले तो महिला आरक्षण विधेयक के राज्य सभा में पास होने पर बधाई। पहली बार हिन्दुस्तान में जाति आधारित राजनीति की हार हुई है। जाति आधारित राजनीति बेचारी नज़र आई है। आरक्षण का मैं समर्थक रहा हूं। मानता हूं कि दुनिया में इससे बेहतर और कारगर कोई सामाजिक नीति नहीं है। लेकिन इसकी एक सीमा है जो प्राइवेट कंपनियों में आरक्षण की मांग के बहाने झलकती है तो महिला आरक्षण के बहाने खास जाति समुदाय के आरक्षण की मांग के बहाने झलकती है।

लेकिन नीयत पर सवाल की गुज़ाइश अब भी है। 1996 से इस बिल का ड्राफ्ट सबके सामने है। क्या कभी किसी राजनीतिक दल ने अपने पार्टी के स्तर पर महिलाओं की संख्या बढ़ाने की कोशिश की। नहीं की। क्या कांग्रेस ने मुस्लिम महिलाओं को टिकट देने में उदारता दिखाई। मर्द मुस्लिम उम्मीदवार तो छोड़ दीजिए। बीजेपी एक ऐसी पार्टी है जो नाम के लिए एक या दो लोगों को टिकट देती है। देश की एक प्रमुख विपक्षी पार्टी में मुसलमानों का कोई प्रतिनिधित्व नहीं है। इसकी वजहें भी साफ हैं। अगर मुसलमानों के लिए महिला आरक्षण के भीतर आरक्षण होता तो क्या बीजेपी वहां उम्मीदवार नहीं उतारती? उतारना पड़ता। इस बहाने कानूनी तौर पर हम बीजेपी को मजबूर कर सकते थे कि बीजेपी मुसलमानों को प्रतिनिधित्व देने के लिए बाध्य हो। क्या करती बीजेपी। सहारनपुर की सीट मुस्लिम महिला के लिए रिज़र्व हो जाती तो। कहती कि उम्मीदवार नहीं उतारेंगे या किसी बिजनेसमैन मुसलमान के घर जाती, हाथ पांव जोड़ती और कहती कि प्लीज़ आप अपनी बेग़म को समझाइये कि हमारी पार्टी का उम्मीदवार बन जाएं। इस तरह से महिला आरक्षण के बहाने सेकुलरिज़्म का एजेंडे में सबको समेट लेने का मौका मिल जाता। लेकिन दलीलें इसके ख़िलाफ़ दी जाती रही हैं। इसलिए बीजेपी कांग्रेस के इस प्रस्ताव पर सहमत हो गई। ये एक मौका था, बीजेपी को भी मजबूर करने का कि वो अपने भीतर मुसलमानों का प्रतिनिधित्व बढ़ाये।

मुसलमान का वोट सबको चाहिए लेकिन जब कोई आज़म ख़ान कल्याण सिंह को लेकर मुलायम सिंह यादव के ख़िलाफ़ खड़ा होता है तो सब मिलकर आज़म ख़ान की गत निकाल देते हैं। कोई दल उनका साथ नहीं देता। मायावती की पार्टी में मुसलमान विधायकों की संख्या तो है लेकिन उनका कोई स्वतंत्र वजूद नहीं। फिर भी वहां नसीमुद्दीन सिद्दीकी जैसे नेताओं की अहमियत दिखाई पड़ती है। शायद यही वजह रही होगी कि बीएसपी ने सदन का वॉकआउट किया।

राजनीति वो ज़रिया है जिसके सहारे सभी समाजों को समय के अलग-अलग चक्रों में आगे बढ़ने और अपनी भागीदारी बढ़ाने का मौका मिलता है। मुसलमानों को आज तक नहीं मिला। उनका वोट सबको चाहिए। नेता नहीं चाहिए। इस लिहाज़ से आप देखें तो सिर्फ मुसलमान हैं जो बिना किसी उम्मीद और शर्त के वोट करते हैं। मुस्लिम वोटर अपने चरित्र में ज़्यादा राष्ट्रीय है। यह नहीं कहता है मेरी इतनी संख्या भारी तो दो मुझको भी हिस्सेदारी। न ही जब मुसलमानों की बारी आती है तो पार्टियां ऐसा करती हैं। मुस्लिम मध्यमवर्ग तैयार हो रहा है। राजनीति की मुख्यधारा से सक्रिय रूप से जोड़ने का ये अच्छा मौका था। मान लीजिए मौजूदा मुस्लिम नेतृत्व का कोई स्तर नहीं है। चाहें वो किसी भी पार्टी में हों,उनका कोई वक़ार नहीं है। लिज़लिज़े हैं सब। किसी ने आवाज़ तक नहीं उठाई। ओवैसी जैसे एकाध सांसद चिल्लाते रहे लेकिन मुस्लिम सांसद अपनी मजबूरियों के ख़ौफ से इस ऐतिहासिक बिल को अपनी गली की तरफ मोड़ने में नाकाम रहे। जो मुस्लिम सांसद अपनी सांसदी नहीं छोड़ सकते वो क्या ख़ाक़ अपने क़ौम की बात करेंगे। मेरी यह दलील किसी काम की न होतीं अगर टिकट देने के मामले में बिना धर्म का ख़्याल किये पार्टियों को मुस्लिम नौजवानों में राजनीतिक नेतृत्व का कौशल नज़र आता।

इस आरक्षण विधेयक के कई पहलु हैं। ऐसा तो होगा नहीं कि सभी आरक्षित सीटों पर नेताओं की बीबीयां ही मैदान में उतरेंगी। ऐसा भी नहीं है कि किसी महिला कार्यकर्ता ने जगह नहीं बनाई। सुष्मा स्वराज या मायावती किसकी बीबी हैं। वो तो अपने ही दम पर आगे आईं हैं। मगर ऐसी महिलाओं की संख्या कम है। आरक्षण के बाद से ऐसी महिलाओं की संख्या बढ़ने लगेगी।

अब देश में कामयाब महिलाओं का दो समूह होगा। एक वो जो अपने दम पर अंतरिक्ष की यात्रा कर आती है और एक वो जो आरक्षण के दम पर संसद की यात्रा करेगी। दोनों प्रक्रियाओं से आधी आबादी को दुनिया के मंच पर आने की रफ्तार तेज होगी। हज़ारों सालों से जिन्हें कमरे में बंद कर रखा गया है,उन्हें बाहर निकालने के लिए घर के सारे दरवाज़े खोलने ही होंगे।


तीसरी बात है। क्या आरक्षण अब अपना राजनीतिक महत्व खोने की दिशा में जा रहा है? अति आरक्षण एक मजाक है। ग़रीब सवर्णों के नाम पर आरक्षण की मांग अभी बाकी है। बीएसपी इसकी वकालत करती है। आर्थिक, जाति और जेंडर के आधार पर आरक्षण को लेकर कोई प्रॉब्लम नहीं तो धर्म को लेकर क्यों होता है? इसलिए कि आरक्षण मुसलमानों को मिल जाएगा?

चौथी बात है। जिस मंडल की राजनीति ने मंदिर आंदोलन की हवा निकाल दी,वो महिलाओं के आगे निरस्त हो गया। मंदिर को हराने वाला मंडल,महिलाओं से हार गया है। यादव त्रयी बेचारे नज़र आए। उनकी बातों पर चर्चा किये बिना बाकी दलों ने किनारे ठेल दिया।

ये कुछ सवाल है जो मेरे मन में उभर रहे थे,बिल पास होने की खुशी के उतार-चढ़ाव में।

जबसे हमारे बीच बिजली आई है...पढ़िये..बिजली की यात्रा की कहानी


"दरबारी समाज के लोग ख़ुद को बुर्ज़ुआ वर्ग से अलग करने वाले फ़ासले को उजागर करने के लिए रात और दिन, कभी भी देर तक काम करते दिखायी देते थे। अब बुर्ज़ुआ वर्ग भी निम्न पूंजीपति वर्ग और कारीगरी से ख़ुद को अलग दिखाने के लिए ऐसा ही करने लगा। कोई व्यक्ति दिन की शुरूआत जितनी देर से करता उसकी सामाजिक हैसियत उतनी ही ऊंची मानी जाती। नतीजतन हर चीज़ देरतर शुरू होने लगी। पेरिस में लुई पंद्रहवें के समय थिएटर चार से सात बजे के बीच शुरू होते थे। अठारहवीं सदी में उनके खुलने का समय सवा पांच बजे निर्धारित कर दिया गया। रंगशाला में रंगमंचीय प्रदर्शन लगभग रात नौ बजे खत्म होते थे।"

और इस तरह अठारहवीं सदी के आखिर से और उन्नीसवीं सदी की शुरूआत से हमारे जीवन में शाम का मतलब बदल गया।शाम का अन्त सुबह के तीन बजे खत्म होने लगा जब मौज मस्ती कर लौटने वालों का सामना काम पर जाने वालों से होता था। क्योंकि हम नकली रौशनी यानी बिजली को खोज लाये। कभी हमने ध्यान दिया है कि बिजली के आने से हमारा जीवन कैसे बदला है। मुझे याद आता है कि मेरे कई दोस्त रात में जग कर पढ़ते थे। मुझे आज तक समझ में नहीं आया। लेकिन तब यह बात लगती थी कि ये लोग ख़ुद को बाकी लोगों(दिन में पढ़ने वालों) से अलग करने के लिए रतजगा करते थे। जब मैं आठवीं में था और बतौर फेलियर छात्र के रूप में प्रतिष्ठित था तो कई बार मेरे भाई पड़ोस की एक खिड़की की तरफ इशारा कर मिसाल देते थे,जिसकी खिड़की से बत्ती की रोशनी बाहर आती दिखाई देती थी,कि देखो रात भर पढ़ता रहा है। रात में पढ़ना तेज विद्यार्थी होने की निशानी बन गया। तब लगता था कि काश इस बल्ब का वजूद ही मिटा देता। बिजली कभी आती ही नहीं। लेकिन कभी सोचा नहीं कि यह सब बल्ब की वजह से हो रहा है और जो पटना में हो रहा है वो तो कोई डेढ़ सौ साल पहले पेरिस में हो चुका है। हमारे व्यक्तिगत से लगने वाले अनुभव कभी कभी इतने ग्लोबल और ऐतिहासिक लगते हैं कि पढ़-सुन कर हैरानी होती है।

आज भी रात जगने वाले विद्यार्थी एकांत के नाम पर अपनी अलग पहचान बनाते हैं। जुबली हॉल में जा कर पता कर लीजिए। ड्राइंग रूम में जब बातें होती थीं कि बंटी तो रात भर जग कर पढ़ता है तो दिल पर हाथ रख कर बोलिये आपका सीना चौड़ा हुआ था या नहीं। मैं जितने लोगों को जानता हूं,जो रात में पढ़ते थे,उनमें से कोई न्यूटन नहीं बना। सब बिजली के भरोसे इम्तहान पास करने की एक पुरातन टेक्निक पर ही चल रहे थे। उन्हें नहीं पता था कि उनकी यह शान क़ायम ही न होती अगर उनके जीवन में बिजली न होती।

बेतिलिस्म रातें। इस किताब को पढ़ना ज़रूरी है,यह समझने के लिए कि फ्रांस और पेरिस में बिजली की तलाश से पहले किस तरह गैस औऱ मिट्टी तेल से चलने वाले लालटेन का आगमन हो रहा था। किस तरह से इंसान और अधिक रोशनी की तलाश में प्रयोग कर रहा था। इन प्रयोगों के बेशुमार किस्से हैं इस किताब में। वर्ना आप इस पंक्ति से महरूम हो जायेंगे कि "कृत्रिम प्रकाश के सफ़र में बत्ती की वही क्रांतिकारी हैसियत है जो परिवहन के आविष्कार में पहिए की रही है।" हज़ारों साल पहले जिस लौ का विकास हुआ था,वह अठारहवीं सदी तक कमोबेश अपने उसी रूप में बनी रही। 1688 में अकेले वर्साई पार्क को रोशन करने के लिए 24,000 रौशनियां जलाईं गईं थीं। उजाले के लिए इस्तेमाल होने वाले पदार्थों की कीमत के कारण उनका इस्तेमाल काफी समय तक केवल बुर्जुआ परिवारों तक ही सीमित रहा(पेज-६)। अठारहवीं सदी तक एक कारखाने को रोशन करने के लिए हज़ारों दीयों की ज़रूरत पड़ने लगी थी। इस तरह से बेतिलिस्म रातें रोशनी के सफ़र के इतिहास को दर्ज करते चलती है।

निहायत व्यावहारिक कारणों से तापदीप फेल हो गया। "लेबों ने ऐसा एक लैम्प पेरिस स्थित अपने घर में लगाया और तीन फ्रैंक का टिकट लगा कर उसे सार्वजनिक प्रदर्शन के लिए खोल दिया।" यह वह दौर था जब लैम्प,बत्तियों,गैसलाइट और तापदीप को लेकर बिजली को धरती पर लाने के भागीरथ प्रयास चल रहे थे। बेतिलिस्म रातें इस प्रक्रिया में रोशनी के तलाश की नाकामी और कामयाबी की कई कहानियों को सामने लाती है। सोचा जा रहा था कि कैसे एक केन्द्रीकृत प्रणाली से तमाम घरों को रोशन कर दिया जाए। "विंसर ने अपने परचे में लिखा था कि जैसे अभी घरों और सड़कों पर पानी सप्लाई किया जाता है उसी तरह प्रकाश और ताप मुहैया कराने के लिए एक राष्ट्रीय गैस व ताप कम्पनी बनाई जानी चाहिए। लंदन में टोंटी के पानी की आपूर्ति अठारहवीं सदी की शुरूआत से ही की जा रही थी।"

इस किताब की हर पंक्ति रोचक जानकारियों से भरी है। हमारे शहरी जीवन के सफ़र में एक बल्ब की खोज की क्या भूमिका रही है,उसका लाइव टेलिकास्ट आप इस किताब में देख सकते हैं। अगर आप अपना वक्त न्यूज चैनल देखकर बर्बाद नहीं करना चाहते हैं तब। संदर्भ तो नहीं है लेकिन बताना ज़रूरी है कि डिस्कवरी के कार्यक्रमों को दर्शक किसी भी हिन्दी न्यूज चैनल के शो से ज्यादा देर तक रूक कर देखता है। कोई तुलना नहीं है। यह भ्रम भी यहीं ध्वस्त हो जाता है कि हिन्दी का दर्शक तुच्ची चीज़ों का आग्रही है। वर्ना बिना किसी प्रचार के डिस्कवरी हिन्दी प्रदेशों का नंबर वन चैनल नहीं होता। टाइम स्पेंट उसका सबसे अधिक नहीं होता। टीआरपी देखने वाले इस रहस्योदघाटन को परख लें।

खैर। अब यह किताब पहुंचती है 1880 और बताती है कि इस वक्त तक एडिसन ने बल्ब को एक रूप दे दिया था लेकिन बिजली की केंद्रीय आपूर्ति व्यवस्था नहीं हो पाई थी। 1882 में लंदन और न्यूयार्क में केंद्रीय बिजली घर चालू हो गए। यह किताब बताती है कि कैसे कोई भी प्रौद्योगिकी खतम नहीं होती। नई प्रौद्योगिकी पुरानी प्रौद्योगिकी से उधार लेती है। पुरानी प्रौद्योगिकी अपने में संशोधन करती हुई किसी न किसी रूप में जीवित रहती है। किताब बहुत सुन्दर तरीके से बताती है कि उस बल्ब की खोज के किस्से किस तरह घट रहे थे।

रात का मतलब अब बदल रहा था। किस तरह से सार्वजनिक प्रकाश व्यवस्था सोलहवीं सदी से होते हुई उन्नीसवीं सदी में आकर बदल रही थी। सड़कों के किनारे लालटेन लगे होते थे। जिनकी सुरक्षा पुलिस करती थी। प्रदर्शनकारी इन्हें सत्ता का प्रतीक मानकर तोड़ डालते थे। जिस तरह से राजठाकरे या किसी भी दल के लोग प्रदर्शन करते वक्त सरकारी चीज़ों को तोड़ डालते हैं। पेरिस में अठारवहीं सदी में प्रशासन ने आदेश जारी किया था कि सभी लोग अपने घर के बाहर एक बत्ती जलाएंगे ताकि घर की शिनाख़्त हो सके। धीरे धीरे ये लालटेन मकानों से अलग होकर सड़कों पर लटकाये जाने लगे। सार्वजनिक प्रकाश व्यवस्था का जन्म होने लगा। पूरी रात जलने वाली स्ट्रीट लाइटें अभी भी सौ साल से ज़्यादा पुरानी नहीं हैं।

रोशनी की कहानी बताती है कि कैसे बिजली के आने से सार्वजनिक और व्यक्तिगत जीवन का फर्क गहरा हुआ। घर के भीतर कमरों की व्यक्तिगत पहचान हुई। जैसे आज हम एक घर में दो से अधिक टीवी को व्यक्तिगत पहचान के मज़बूत होने की प्रक्रिया समझते हैं,उस दौर में एक घर में तीन बल्ब का लगना घर के भीतर व्यक्तिवादिता के बनने की प्रक्रिया रही होगी।

स्ट्रील लाइट की यात्रा में टावर लाइट के आगमन का बड़ा ही दिलचस्प किस्सा बयान किया गया है। कैसे ऊंचे टावरों के ज़रिये दूर-दूर तक अंधेरे सुनसान सड़कों को रोशन किया जाता था ताकि सब पर निगाह रखी जा सकती। इसी की प्रक्रिया में एक लेखक का ज़िक्र है जो लिखता है कि- अब एक निशाचर,भयानक,ग़ैर दुनियावी,मानवीय आंखों के लिए अप्रीतिकर नए किस्म का शहरी तारा रात भर चमकता है। दुस्वपन के लिए एक लैम्प। इसके जैसी रोशनी सिर्फ क़त्ल और सार्वजनिक अपराधों पर ही पड़नी चाहिए। दहशत को बढ़ाने वाली दहशत के बतौर। अन्त में मानव सभ्यता रात पर विजय प्राप्त कर लेती है। रात का मतलब बदल जाता है। रंगमंच की दुनिया रोशनियों से आबाद हो जाती है। रोशनी को लेकर तमाम प्रयोग होते हैं और ड्राइंग रूम के भीतर क्या बदलाव आता है,इन सब का बारीक अध्ययन किया गया है। किताब के पिछले पन्ने पर ठीक ही लिखा है कि हर अच्छे इतिहास की तरह ये एक साथ आर्थिक, तकनीकी, सांस्कृतिक और मनोवैज्ञानिक दास्तान है। बल्ब के बनने और इसके इर्द गिर्द समाज,सत्ता और उद्यम,नगर सबके संबंधों में आए बदलाव की कहानी। पुस्तक को पढ़ते वक्त संगीत निकलता है।

बेतिलिस्म रातें का अंग्रेजी नाम है- Disenchanted Night-The Industrialisation of light in the nineteenth century। मूल लेखक हैं वुल्फगैंग शिवेलबुश। जर्मन में ये किताब आई है। हिन्दी में अनुवाद योगेंद्र दत्त ने किया है और संपादन का काम किया है रविकांत ने। बढ़िया अनुवाद है और इसे भारतीय परिप्रेक्ष्य में पेश करने के लिए रामवृक्ष बेनिपुरी की कथा का इस्तमाल भूमिका में किया गया है। ताकि हिन्दी के पाठक पहला पन्ना खोलते ही बिजली के इस सफर को अनुभवों से जोड़ने लगें। बेनीपुरी 1949 में लिखते हैं कि मशाल ज्योति का प्रतीक है। वह ज्योति जो हमारी मुट्ठी में है। अकबर इलाहाबादी का एक शेर है-

बर्क़ के लैम्प से आंखों को बचाए अल्लाह।
रोशनी आती है और नूर चला जाता है।।

पढ़ियेगा इस किताब को। वाणी प्रकाशन ने छापा है। ढाई सौ रुपये की है। बढ़िया प्रोडक्शन है।

गुटका है बदन...जलता है बदन



पटना की यात्रा बिहार के आर के लक्ष्मण कार्टूनिस्ट पवन से हुई मुलाकात के कारण यादगार हो गई। पवन से बसंत बिहार में खूब बातें हुईँ। कॉफी विद पवन टाइप की। उनकी भाषा और स्टाइल को समझने का मौका मिला। पवन के हवाले से मुझे ये तस्वीर मिली जो आपके सामने है। उसी बातचीत में पवन ने कहा कि पटना आर्ट कॉलेज के अंतिम वर्ष के छात्र अमृत ने गुटका की खोलियों के साथ नया प्रयोग किया है। कैंसर से पीड़ित आदमी को गुटके की खोली(रैपर) ने जकड़ लिया है। मैं इस तस्वीर के लिए उतावला हो गया। शाम की ट्रेन पकड़ने से पहले ही पवन ने ईमेल से अमृत की बनाई इस बेजोड़ कलाकृति की तस्वीर भेज दी। कला का पारखी नहीं हुई लेकिन कला हर बार परखने के लिए नहीं होती। पहले देखने के लिए होती है। देख कर अच्छा लगा।

जाति टूटी शराब से


यह तस्वीर बिहार की राजधानी पटना के बेली रोड से ली गई है। बस अब शराब से ही कुछ होगा वर्ना नहीं।

बिहार के आर्थिक सर्वेक्षण की समीक्षा



बिहार सरकार पिछले चार साल से आर्थिक सर्वेक्षण पेश कर रही है। इससे पहले कभी राज्य का आर्थिक सर्वेक्षण नहीं होता था। खूब सारे आंकड़े हैं। इन्हें पढ़कर बिहार के बारे में एक अंदाज़ा लगता है कि राज्य किस दिशा में जा रहा है। नीतीश सरकार की अर्थव्यवस्था 2004 से लेकर 2009 के बीच 11.35 फीसदी की दर से बढ़ी है। सरकार अपनी रिपोर्ट में कहती है इसमें तीन प्रमुख क्षेत्रों का काफी योगदान रहा है। निर्माण(35.80%),संचार(17.68%) तथा व्यापार,होटल एवं रेस्टोरेंट(17.71&)

मुझे नहीं मालूम की इनमें से संचार और व्यापार होटल और रेस्टोरेंट का प्रतिशत निकाल दें तो बिहार की आर्थिक प्रगति की असल तस्वीर कैसे नज़र आएगी। लगभग सत्तर फीसदी हिस्सा तो इन्हीं तीन क्षेत्रों से आ रहा है तो इसका मतलब है कि सड़कें और पुलों के बनने का हिस्सा ज़्यादा है। यह भी कोई मामूली बात नहीं है। लेकिन सवाल उठ रहा है कि खेती, उससे जुड़े उद्योगों का खास विकास नहीं हुआ है।

इसीलिए आर्थिक सर्वेक्षण के आंकड़ों को गौर से पढ़ा जाना चाहिए। राज्य सरकार बता रही है कि 1996 से लेकर 2005 तक(लालू राज) हर साल भ्रष्टाचार विरोधी औसतन 28.5 फीसदी मामले दर्ज होते थे, जबकि 2006 में 66 मामले,2007 में 108मामले,2008 में 110 मामले दर्ज हुए और 2009 में 62 मामले। इस मामले में मुझे कोई बड़ी उपलब्धि नज़र नहीं आती है। आम लोग भी कहते हैं कि खूब काम हो रहा है लेकिन कमाई भी चल रही है। ये लोगों की नकारात्मक सोच भी हो सकती है। लेकिन अगर आर्थिक सर्वेक्षण में विभागवार सूची होती तो पता चलता कि निर्माण क्षेत्र से जुड़े विभागों, ठेकेदारों के खिलाफ कितनी कार्रवाई हुई है। नीतीश सरकार के दौरान बिहार में तीन हज़ार किमी से भी ज़्यादा सड़कें बनी हैं। ज़्यादातर सड़कें मुख्यमंत्री ग्रामीण योजना के तहत ग्रामीण इलाकों में बनीं हैं। 2006 से 2010 के बीच मुख्यमंत्री ग्रामीण सड़क योजना के तहत 1913 किमी सड़कें बनीं हैं जबकि प्रधानमंत्री ग्रामीण सड़क योजना के तहत इसी दौरान 223 किमी बनी हैं। अब यहां यह नहीं बताया गया है कि प्रधानमंत्री ग्रामीण सड़क योजना में कितना पैसा आया था और उसका कितना प्रतिशत सफलतापूर्वक इस्तमाल हुआ है। चार साल में 1460 दिन होते हैं और इस दौरान गांवों में सिर्फ 2136 किमी सड़कें ही बनीं। यानी हर दिन एक किमी से कुछ ज़्यादा। नीतीश के अफसर आर के सिंह की कड़ाई और सीएम की सख्ती से इतना ही संभव हो सका। आर के सिंह ने पहली बार बड़े पैमाने पर ठेकेदारों को समय पर काम न करने की सज़ा दी।

आर्थिक सर्वेक्षण बताता है कि सरकार 520 बड़े पुल बनवा रही है। लगभग बारह करोड़ की लागत से 375 बड़े पुल बन चुके हैं और 1104 लघु पुलों का निर्माण हो चुका है। ज़ाहिर है सबसे अधिक प्रगति निर्माण के क्षेत्र में हुई है इसलिए यह जानना ज़रूरी हो जाता है कि इस क्षेत्र से जुड़े लोगों के ख़िलाफ भ्रष्टाचार मामले में कितनी कार्रवाई हुई है। वैसे लोगों ने जो अपने पैसे से चचरी पुल बनवायें हैं,उसका खर्चा भी शामिल होना चाहिए। मज़ाक कर रहा हूं।


इतना ज़रूर है कि सड़कों के बनने से राज्य की रफ्तार बढ़ी है। अच्छी सड़क और कानून व्यवस्था का फायदा उठाकर लोग अपना रोज़गार करने लगे हैं। इसीलिए होटल और रेस्टोरेंट का योगदान बिहार के सकल घरेलु उत्पाद में 17 फीसदी है और संचार का भी इतना ही। सर्वेक्षण बताता है कि बिहार में 2008-09 में 220.4 हज़ार नई गाड़ियों का पंजीकरण हुआ है। साल 05-06 में 80 हज़ार गाड़ियों का पंजीकरण हुआ था। इससे राजस्व संग्रह बढ़ गया है। साल 01-02 में 130.10करोड़ था जो 08-09 में 303.58 करोड़ रुपये हो गया। लोग गाड़ियां क्यों ख़रीद रहे हैं? अच्छी सड़कें बनी हैं और कानून व्यवस्था बेहतर हुआ है इसलिए। लूटमार और छीन लिये जाने का डर कम हुआ है। पहले लोग इस डर से कार नहीं खरीद रहे थे कि कहीं अपहरण गिरोह की नज़र न पड़ जाए। यह प्रगति भी नीतिश के एक ही काम के नाम जाती है। कानून व्यवस्था। नीतीश ने कानून राज के मनोवैज्ञानिक वातावरण को कभी नहीं टूटने दिया। इसका श्रेय तो मिलेगा ही। वे पिछले पचीस सालों में सबसे बेहतर मुख्यमंत्री हैं।


सबसे बेहतर प्रगति शिक्षा के क्षेत्र में नज़र आती है। 2002 से 2008 के बीच समग्र नामांकन प्राथमिक स्तर पर जहां 58.5 फीसदी बढ़ा है,वहीं उच्च प्राथमिक स्तर पर 159.4 फीसदी। अनुसूचित जातियों के मामले में उच्च प्राथमिक स्तर पर नामांकन 187.4 फीसदी बढ़ा है। सर्वेक्षण लिखता है कि फलत इनके लिए(अजा,अजजा)प्राथमिक स्तर पर नामांकन के आंकड़े क्रमश 66.3 और 76.3 फीसदी है। लेकिन सबसे अधिक लड़कियों की संख्या में वृद्धि हुई है। इंजीनियरिंग में पुरुष अनुसूचित जनजाति के विद्यार्थियों का नामांकन 5.5 फीसदी बढ़ा है वहीं महिला अजा विद्यार्थियों का 59 प्रतिशत। लड़कियों का सबसे अधिक नामांकन प्रतिशत मेडिकल में है 21 फीसदी, इंजीनियरिंग में 12 प्रतिशत और पोलिटेकनीक में 13 प्रतिशत। साक्षरता दर में भी तेजी से वृद्धि दर्ज की गई है।


बिहार एक ग्रामीण राज्य है। 38 में से 25 ज़िलों की 90 फीसदी से अधिक आबादी गांवों में रहती है। पटना और मुंगेर को छोड़ शेष सभी ज़िलों की 80 फीसदी आबादी ग्रामीण क्षेत्रों में रहती है। राज्य की आबादी लगभग दस करोड़ है। इसमें से अस्सी लाख की आबादी ही शहरी है। सर्वेक्षण कहता है कि भारत का यह दूसरा सबसे कम शहरीकृत राज्य है। यहां शहरीकरण सिर्फ 10.74 फीसदी है। सबसे नीचले पायदान पर हिमाचल प्रदेश है।


बिहारमें लिंग अनुपात सर्वाधिक सीवान में है(1,031),8 ज़िलों में 900 हैं लेकिन सर्वेक्षण में बाकी के 28 ज़िलों के लिंग अनुपात का कोई ज़िक्र नहीं है। शिशु मृत्यु दर 2005 के 61 से कम होकर 2009 में 56 हो गई जो बहुत बड़ी कामयाबी की तस्वीर नहीं लगती। मातृ मृत्यु दर 2001-03 के 317 से गिर कर 2004-05 में 312 रह गई। संदर्भ साल को लेकर गड़बड़ी नज़र आती है। कहीं 2004 को आधार वर्ष माना गया है तो कभी 2000 को आधार वर्ष मान लिया गया है। सर्वेक्षण को बताना चाहिए कि आधार वर्षों का चुनाव किस मापदंड से होता है। कहीं सुविधा के हिसाब से बढ़ोतरी दिखाने के लिए तो संदर्भ साल नहीं चुना जा रहा है।

बिहार की पूरी जनसंख्या के लिहाज़ से ग़रीबी का अनुपात 54.4 फीसदी है जबकि राष्ट्रीय औसत 37.2 फीसदी है। गत वर्षों में गरीबी दूर करने के लिए अनेक योजनाएं बनाई और क्रियान्वित की गईं हैं।(पेजxxxii) लेकिन सरकार यह नहीं बताती कि पिछले पांच साल में ग़रीबी की संख्या में कितनी कमी आई है। पांच साल के पहले ग़रीबी का अनुपात क्या था। जिन योजनायों के क्रियान्वयन की बात हो रही है उसका असर क्या रहा। सर्वेक्षण लिखता है कि अक्तूबर 2009 तक स्वर्णजयंती ग्रामीण स्वरोज़गार योजना के लिए उपलब्ध राशि का राज्य स्तर पर 26.6 फीसदी ही उपयोग हो पाया था। ऐसा क्यों? अगर प्रशासन इतना चुस्त है तो बाकी का 74 फीसदी इस्तमाल क्यों नहीं हुआ। सर्वेक्षण नहीं बताता है।

बिहार में उद्यमिता का विकास अभी भी नहीं हो रहा है। सर्वेक्षण बताता है कि बिहार में 2008-09 में कुल जमा राशि में गत वर्ष की तुलना में 18,000 करोड़ रुपये से अधिक की महत्वपूर्ण वृद्धि हुई है। वहीं ऋण राशि पिछले वर्ष की ऋण राशि 3712 करोड़ रुपये की तुलना में मात्र 3251 करोड़ रुपये बढ़ी है। इस प्रकार मार्च 2009 में देश के अनुसूचित बैंकों के कुल जमा में बिहार के कुल जमा का हिस्सा पिछले वर्ष के 2.1 फीसदी से बढ़कर 2.2 प्रतिशत हो गया लेकिन इस दौरान ऋण में कुल हिस्सा 0.9 फीसदी से घटकर 0.8 फीसदी हो गया।( पेज-xxxiii) यहां भी प्रगति का कोई बड़ा सूचकांक नज़र नहीं आता। बिहार में देश की कुल कंपनियों का एक प्रतिशत ही है। सरकार बताती है कि 2006-07 के दौरान राज्य में 566 नई कंपनियों का निबंधन हुआ जिनकी कुल पूंजी 398 करोड़ रुपये थी। मार्च 2007 तक, बिहार में कुल 3,110 लिमिटेड कंपनियां थीं जिनकी कुल चुकता पूंजी 1,061 करोड़ रुपये थी( देश की कुल चुकता पूंजी का 0.16 प्रतिशत)

राजस्व अधिशेष में काफी प्रगति हई है। चार गुना। 4,469४ करोड़। ऋण प्रबंधन बेहतर होने का दावा किया गया है। प्रभावी ऋण प्रबंधन और 48,864 करो़ड़ रुपये से भी अधिक बकाया ऋण पर वार्षिक ब्याज भुगतानों को गत वर्ष तक 4,000 करोड़ रुपये से काफी नीचे रोके रखने से काफी राजस्व अधिशेष सृजित कर पाने में मदद मिली है। बिहार के कुल व्यय का हिस्सा 67 प्रतिशत हो गया है। गैर विकास व्यय में बहुत मामूली वृद्धि हुई है। राज्य सरकार का अपना कर राजस्व 2004-05 के 3,342 करोड़ रुपये से बढ़कर 2009-10 में 8,139 करोड़ रुपये हो गया है। इससे पहले आपको इसमें विकास दिखे, सर्वेक्षण बताता है कि करों के मुख्य स्त्रोत बिक्री कर, स्टांप एवं निबंधन शुल्क,उत्पाद शुल्क,माल एवं यात्री कर तथा वाहन कर हैं।

खेती के बारे में सर्वेक्षण कहता है कि बिहार में फसल पैटर्न की बात करें तो दिखता है कि बिहार की कृषिगत अर्थव्यवस्था का रुझान अभी भी जीवन-निर्वाह कृषि की ही ओर है। यह एक बड़ी नाकामी है जिसे नीतीश सरकार को आने वाले समय में बदलना होगा। वर्ना अच्छी सड़क का लाभ ग्रामीण अर्थव्यवस्था को सिर्फ टैम्पो टैक्सी चलाने में ही मिलेगा। लोगों को स्टेशन पहुंचाने के लिए ताकि वे दूसरे राज्यों में मज़दूर बन कर जा सकें। फसलों के उत्पादन पैटर्न से कोई शुभ संकेत नज़र नहीं आता है। (पेज-३९)। अभी भी राज्य के सकल कृष्य क्षेत्रफल का दस प्रतिशत ही सब्जी उत्पादन के काम आ रहा है। यानी बिहार की जो सबसे बड़ी संभावना है, खेती, उसके लिए कम काम हुआ है। हो सकता है कि सिंचाई, सड़क और अन्य बुनियादी ढांचों के विकास के बाद सरकार का ध्यान इस तरफ भी जाए। बिहार को विकसित होना है तो खेती से ही होना होगा। पांच साल में कोई उद्योग नहीं आया। कोई का मतलब कोई बड़ा उद्योग। बिहार को उद्योग का इंतज़ार छोड़ देना चाहिए। बिहार को पूरे देश का खाद्य आपूर्ति राज्य बन जाना चाहिए और यह काम बिना किसी टाटा बिड़ला से एमओयू साइन किये आज से ही शुरू हो सकता है।


एस टेल के इस पोस्टर को प्रतीक के रूप में लगाया है। कंपनियां भी बिहार की असली आर्थिक ताकत को पहचानती हैं। (इस कंपनी पर हाल ही में सरकार ने रोक भी लगाई है।)आर्थिक सर्वेक्षण को पढ़ा जाना चाहिए। कम से कम बिहार के बारे में एक तस्वीर तो मिल ही रही है। पटना में मकानों के दाम आसमान छू रहे हैं। स्विमिंग पूल का सपना वहां भी बेचा जा रहा है। दो रूप का फ्लैट चालीस लाख रुपये में मिल रहा है। एक दोस्त ने बताया कि पूरे बिहार में यही एक शहर है। सब यहीं मकान बनाना चाहते हैं। ज़मीन कम है। जो बिहार से बाहर है वो भी अब मकान खरीदना चाहता है इसलिए मकान निर्माण तेजी से फल फूल रहा है और फ्लैटों के दाम बढ़ रहे हैं। बिहार में स्थानिय लोगों को निवेश बढ़ रहा है। नीतीश जब दुबारा आयेंगे( आयेंगे ही) तो उम्मीद की जानी चाहिए कि बिहार गुणवत्ता के मामले में भी प्रगति करे। जिसका अहसास उन्हें है। वर्ना उनकी कोशिशों का लाभ बिल्डरों को ही मिलेगा,आम जनता को नहीं।


नोट- पटना में जिस भी पत्रकार से मिला,सबने यही कहा कि ख़िलाफ़ ख़बर लिखियेगा तो नीतीश जी विज्ञापन रोक देते हैं। अगर उनके साथ रहिये तो सरकारी विज्ञापनों का पेमेंट जल्दी मिल जाता है। सरकार विरोधी मामूली ख़बरों पर भी दिल्ली से अख़बारों के बड़े संपादकों और प्रबंधकों को सीएम के सामने पेश होना पड़ा है। पंद्रह साल के जंगल राज को खतम करने में पत्रकारों की संघर्षपूर्ण भूमिका रही थी। नीतीश को नहीं भूलना चाहिए। अभिव्यक्ति की आज़ादी का ही लाभ था कि उनकी सरकार बन पाई। समझना मुश्किल है कि जिस सीएम को जनता सम्मान करती है,लोग उसके काम की सराहना करते हैं, मीडिया भी गुणगान करती है, उसे एकाध खिलाफ सी लगने वाली खबरों से घबराहट कैसी? कोई अच्छा काम करे तो जयजयकार होनी भी चाहिए लेकिन आलोचना की जगह तब भी बनती है जब बिहार में कोई स्वर्णयुग आ जाएगा। पटना के पत्रकार कभी इतने कमज़ोर नहीं लगे।

एक मुलाक़ात नीतीश कुमार के साथ....

बिहार विधानसभा। दनदनाते अंदर प्रवेश कर जाइये। मुख्य दरवाज़े से दायीं तरफ है मुख्यमंत्री का कमरा। दरवाज़ा खुलता है और हम बिना किसी औपचारिकता के भीतर प्रवेश कर जाते हैं। सामने नीतीश कुमार बैठे हैं। दीवार पर लगे रेडिये सेट से विधानसभा के भीतर चल रही बहस की आवाज़ आ रही है। राजद के नेता आंकड़ों का सहारा लेकर सरकार पर हमला कर रहे हैं। अंदर कमरे में नीतीश कुमार आंकड़ों के सहारे सामने बैठे सभी लोगों को बताने लगते हैं कि बिहार बदल रहा है। मैंने अपना काम कर दिया है। पहले साल में लड़कियों को डेढ़ लाख साइकिलें दी थीं लेकिन धीरे धीरे पांच लाख से ज़्यादा हो गई। लड़कियां स्कूल जाने के साथ-साथ घरों का काम करने लगी हैं। नीतीश बताते हैं कि लड़कियों का आत्मविश्वास लड़कों से ज्यादा बढ़ गया है। वो एक साथ ई लर्निंग कार्यक्रम के उदघाटन के दौरान पांच स्कूलों के लड़के-लड़कियों से बात करने का अनुभव बताते हैं। कहते हैं कि जितनी भी लड़कियां थीं वो दनादन सवाल पूछ रही थीं। लड़कों को जब मैंने कहा कि आप भी पूछिये तो जब तक वो अपने सवाल तैयार करते, उनके पीछे बैठी लड़की ने सवाल कर दिया। अब यह साफ नहीं हो सका कि यह आत्मविश्वास उनकी साइकिल योजना के कारण आया या फिर बिहार के बदले माहौल के कारण पनपा है। लेकिन नीतीश सामाजिक स्तर पर आ रहे हैं बदलावों से खुश हैं। बताने लगे कि मुझे लगा कि कहीं लड़के मायूस न हो जाएं इसलिए छह लाख साइकिल लड़कों के बीच भी बांटी जाएगी। छोटे बच्चों को स्कूल यूनिफार्म दे रहा हूं। सभी जाति और समाज के लोगों को। एक बच्चा नहीं पहनता है तो बाकी सवाल करने लगते हैं कि तु्म्हे यूनिफार्म मिला नहीं या फिर किसी और को दे दिया। सेलेक्शन लीड्स टू करप्शन। नीतीश ने कहा कि इसीलिए सारी योजनाएं सबके लिए हैं।

कमरे का वातारवरण क्लास रूम जैसा हो गया था। नीतीश ही बोल रहे थे। उनके बोलने के साथ-साथ सहमतियों के सर हिल रहे थे। विधायक,मंत्री और पत्रकार कमरे में बैठे हैं। द वीक के कन्हैया भेल्लारी,टाइम्स नाउ के प्रकाश कुमार और महुआ टीवी के ओमप्रकाश। बीच में मैंने भी कहा कि हां मेरे गांव में सड़क आ गई है। बिजली नहीं आई है। मुख्यमंत्री तुरंत बिजली बोर्ड के चेयरमैन को फोन कर देते हैं। जितवारपुर गांव में बिजली कब तक आएगी, तुरंत रिपोर्ट दीजिए। जवाब तो नहीं आया लेकिन एक झटके में लगा कि वाह मुख्यमंत्री तो वाकई सहज हैं। उन्होंने ऐसा कोई संकेत नहीं दिया कि वो मुझे किसी रूप में जानते हों। फिर भी फोन किया। थोड़ी देर के लिए अच्छा लगा लेकिन बाद में मन कई सवालों से घिर गया। अफसोस हुआ कि मुझे भी सिर्फ अपने गांव की चिन्ता नहीं करनी चाहिए थी। सबके गांव के बारे में बात करनी चाहिए थी। नीतीश बताने लगे कि हर गांव में बिजली जा रही है। एक बत्ती कम से कम जल जाए। लेकिन डर है कि ट्रांसफार्मर से ज्यादा कनेक्शन लिए गए तो आप लोग स्टोरी लिखेंगे कि गांव-गांव में ट्रांसफार्मर फूंक गए।

इसके तुरंत बाद नीतीश यह कहने लगते हैं कि इस टर्म में मेरा सारा ज़ोर संख्या पर है। मैं हर चीज़ ज़्यादा से ज़्यादा जगहों पर पहुंचा देना चाहता हूं। अभी गुणवत्ता नहीं सुनिश्चित कर सकता। राज्य की हालत ख़राब थी। समय कम था। अब क्वालिटी पर जोर दूंगा। इस बीच वो विधानसभा की कैंटिन से लाई गई गाजा मिठाई बढ़ा देते हैं। खाइये। ये एक चीज़ है जिसके बारे में दावे के साथ कह सकता हूं कि उच्च स्तरीय है। नीतीश ही बोल रहे हैं। कोई विरोध नहीं करता। सब हां में हां मिला देते हैं। नीतीश इस हां में हां को खूब समझते हैं। आंखों से कन्हैया भेल्लारी से बात करते हैं और हंस देते हैं कि क्या तारीफ हो रही है। रेडियो से फिर से शकील अहमद ख़ान की आवाज़ आती है। आंकड़े। बिहार में अब बात आंकड़ों के आधार पर होने लगी है। नीतीश कहते हैं कि मैंने विकास इतना किया तो विपक्ष कहता है कि आपने इतना नहीं किया। बिहार की राजनीति का एजेंडा बदल गया है।

इस पूरे अहसास के बाद जब कमरे से बाहर निकला तो डाकबंगला चौराहे पर दो पोस्टर नज़र आए। एक पोस्टर रामविलास पासवान के मुस्लिम रैली की तो दूसरा पोस्टर एक और मुस्लिम सम्मेलन का जिस पर नीतीश की तस्वीर है। अगले दिन हिन्दुस्तान अख़बार में सबसे ऊपर नीतीश कुमार की तस्वीर छपी है। हाईकोर्ट के पास के मज़ार पर उर्स है और नीतीश चादर चढ़ा रहे हैं। नीचे रामविलास पासवान की मुस्लिम रैली की तस्वीर है। ठीक एक दिन पहले इसी डाकबंगला चौराहे पर नीतीश के समर्थकों ने अपने नेता का एक होर्डिंग लगाया था। इसमें नीतीश की तीन तस्वीरें थीं। एनडीटीवी, सीएनएनआईबीएन और एक और किसी संस्था से श्रेष्ठ राजनेता,मुख्यमंत्री का पुरस्कार लेते हुए। लेकिन इसी पोस्टर को उनके किसी और समर्थक ने मुस्लिम सम्मेलन के पोस्टर से अगले दिन ढंक दिया था। लगा कि नीतीश रामविलास की मुस्लिम रैली का जवाब देना चाहते हैं। किसी जानकार ने कहा कि नीतीश की महादलित रैली के जवाब में पासवान ने मुस्लिम रैली की है। बिहार के नेता अभी नहीं बदले हैं। थोड़ा वक्त लगेगा लेकिन ये भी बदलेंगे।

इस बीच पटना की सड़के बेतरतीब आंकड़ों में दर्ज विकास को ढहाती हुई नज़र आती हैं। लोग हॉर्न को लेकर हिंसक हो गए हैं। सड़कों पर अब कोई मां-बहन नहीं करता। यह लालू राज की निशानी थी। अब लोग पंद्रह लाख की गाड़ी में बैठे हैं और हार्न बजा-बजा कर गाली दे रहे हैं। यह नीतीश राज के विकास की निशानी है। सड़कों पर कोई अनुशासन नहीं है। लेकिन किसी को कोई परेशानी नहीं है। सब अपना रास्ता खोज रहे हैं। एक किस्म की बेचैनी है।

पटना की सड़कें बेहतर हो गई हैं। सीमेंट खूब पसरा है। पंद्रह साल में बिहार शून्य के नीचे था। पांच साल में शून्य के ऊपर आया है तो सब राहत महसूस कर रहे हैं। विधानसभा के अपने कमरे में नीतीश निश्चिन्त हैं। समर्थक आते हैं और बैठ कर चले जाते हैं। कोई उनकी बात को काटने का साहस नहीं करता। किसी आयोजक को कहते हैं कि बच्चों का कार्यक्रम है। जब मैं पूरा समय नहीं दे सकता तो नहीं आऊंगा। वीआईपी की तरह आ कर गया और उनके बीच वक्त नहीं बिताया तो बच्चों पर बुरा असर पड़ेगा। वो सीएम से नीतीश अंकल बनना चाहते हैं। नीतीश अपनी छवि बना तो रहे हैं लेकिन सजग भी हैं कि पब्लिक बदल गई है,उसके साथ अब खिलवाड़ नहीं किया जा सकता। इसीलिए जब नीतीश ने शरद यादव से अलग लाइन लेकर महिला आरक्षण बिल पर यूपीए का साथ देने का एलान किया तो मुझे कोई हैरानी नहीं हुई। नीतीश कुमार बीस साल पहले की राजनीति की हर छाया से बाहर आना चाहते हैं। बिहार दिखता तो वैसा ही है लेकिन महसूस ऐसा होता है कि दिल्ली से भी बेहतर हो गया है। जिन लोगों ने जंगल राज देखा है वो आंकड़ों के उन्नीस बीस के फेर में नहीं पड़ेंगे। कहेंगे कि इतना ही काफी है।

कमरे से निकल विधानसभी की कैंटिन में आ गया। मटन बहुत स्वादिष्ठ था। सस्ता था। बाहर माली ने बहुत सुन्दर तरीके से विधानसभा की सजावट कर रखी थी। एक किस्म का अनुशासन नज़र आया। बिहार विधानसभा के अध्यक्ष ने कहा कि नीतीश के टर्म में मार्शल का इस्तमाल कम करना प़ड़ा है। सदन की कार्यवाही ठीक चलती है। सुनकर अच्छा लगा। ये एक मुलाकात और एक दिन का अहसास है। जो लगा वही लिखा। इसलिए नहीं लिखा कि गांव में नीतीश के फोन करने से बिजली आ जाएगी। आज तक मैंने अपने गांव में किसी को बिजली के लिए बेचैन नहीं देखा। किसी को बिजली का इंतज़ार करते नहीं देखा। दरअसल बिहार बिजली के बिना जी लेगा। लेकिन बेहतर सड़क और कानून व्यवस्था के बिना नहीं। लोगों ने ट्रैक्टर और बाइक की बैट्री से मोबाइल फोन चार्ज करना सीख लिया है। टीवी ट्रैक्टर की बैटरी से चला लेते हैं। लेकिन नीतीश ने अगले टर्म में गुणवत्ता सुधारने की बात क्यों की? सोच रहा हूं।