श्रीनी तुम इस्तीफ़ा दो, कोई तुम्हारे साथ नहीं है

प्यारे श्रीनी,

लगता है मेरा सपोर्ट तुम्हारे काम नहीं आएगा । जो लोग तुम्हें बचा रहे थे वो अब गुर्राने लगे हैं वर्ना वे नहीं बच पायेंगे । जिन जिन दलों के बंदों को तुमने जुटा रखा था उनके आकाओं ने उनका खाका खींचने का मन बना लिया है । अब उनमें इस बात की होड़ मचेगी कि उनके कहने के बाद ही तुम्हारा इस्तीफ़ा संभव हो सका । ये तमाशा देखना है तुम्हें । तुमको सेट असाइड हो जाना था । स्टेप डाउन से तो वही अच्छा था । इस्तीफ़ा टाइप करते वक्त कोई मोरल और इमोशनल स्टैंड ले लेना । इस्तीफ़ा नार्मल है । 

अत: तुम रात-बिरात इस्तीफ़ा देकर छाता लेकर घनी बारिश में कही निकल जाओ । ये क्लब-कमेटी की पोलिटिक्स में ऐसा हो जाता है । समय ख़राब है ।  दुनिया अपने दामादों को बचाकर तुम्हारे दामाद को पीछे पड़ी है । बीसीसीआई तुम्हारे बाद इतना नैतिक और क्लीन हो जाएगी कि तुम दूर से ही देखकर दुख भरी साँस लोगे । अभी तक हिन्दी साहित्य में सुख भरी साँस थी लेकिन मैंने तुम्हारे लिए दुख भरी साँस लाँच किया है । अब तुम्हारी औकात हमेशा के लिए कम हो जाएगी । तुम सीमेंट बेचने ही लायक थे । वही बेचना । इंडिया में मकान बनाना और रन बनाना ये लाँग टर्म सपना है । चलेगा । थोड़ी रेत मिलाकर अपना घाटा पूरा कर लेना । 

आगे से एक बात का ध्यान रखना । बीसीसीआई में एमपी मत रखना । इनकी बहुत ज़्यादा वो नहीं होती है । वो बोले तो औकात । पार्टी अध्यक्ष को ही मेंबर बनाना । सांसदों को अध्यक्षों के हिसाब से चलना पड़ता है । वे जिस क्लब से होते हुए तुम्हारे क्लब में आते हैं उनके बाॅस की ज़्यादा चलती है । वर्ना वहाँ से बाहर हुए तो ज़ाहिर है तुम भी उन्हें नहीं रखोगे । 

टीवी मत देखना । तुम्हें बुरा लगेगा कि वहाँ इस्तीफे की घड़ी चल रही होगी । अब तुम्हें देना ही होगा । मुझे बहुत दुख है । तुम्हारे जाते ही सारे अनैतिक नैतिक हो जायेंगे । अपना प्लेन है न । ठीक है । एयरपोर्ट पर ज़्यादा प्रोब्लम नहीं होगी तब । 

दे दो जो तुम नहीं दे रहे थे । ये इस्तीफ़ा क्या चीज़ है तुम क्रिकेट से कुछ भी कमा सकते हो तो क्रिकेट के लिए कुछ कर भी सकते हो । साबित कर दो । कुछ ख़ुलासा तुभी कर दो । डरो मत । बक दो । शुक्ला जी और जेटली जी को छोड़ कर । इनसे बिगाड़ मत करना । चुनाव का टाइम है । बाद में दोनों में से कोई एक काम आ सकता है । बाक़ी की चिन्ता मत करो । उनको तो बीट रिपोर्टर ही निपटा देगा । 

श्रीनी तुम इस्तीफ़ा दो, कोई तुम्हारे साथ नहीं है । 

ये नया नारा है । 

तुम्हारे लिए । 

तुम्हारा एक प्रशंसक

रवीश कुमार 

तेंदुलकर ने बोला है भाई !

सचिन तेंदुलकर ने स्पाट फ़िक्सिंग पर बड़ी बात कह दी है । बहुत बड़ी बात । तभी मुझे लगा कि वे इतना टाइम क्यों ले रहे हैं । इस बड़ी बात को कहने के लिए उन्होंने क्लब से लेकर रणजी क्रिकेट प्लेयर का आह्वान किया है । आज के हिन्दुस्तान टाइम्स में राजदीप सरदेसाई का लेख पढ़ने के बाद(शायद) उनका यह बयान आया है । है तो तेंदुलकर का मगर अकेले तेंदुलकर नहीं हैं उस बयान में ा वैसे इस बयान में तेंदुलकर ने सभी क्रिकेटप्रेमियों की तरफ़ से बीसीसीआई में विश्वास जता दिया है । लो जी । सचिन अपने बयान के मुताबिक सिर्फ निराश और हताश हैं वैसे आईपीएल के फ़ाइनल में वे हताश बिल्कुल नहीं लग रहे थे । काफी गदगद थे । उसके बाद कोलकाता में उन्होंने टाइम्स ग्रुप की कोई पत्रिका भी लाँच की । उस आयोजन की छपी तस्वीरों में भी तेंदुलकर आहत नज़र नहीं आ रहे हैं । और माँगों इन बड़े खिलाड़ियों से बयान । मिल गया न । शोक संदेश वाला ।  एक शून्य, गहरा दुख और अपूरणीय क्षति टाइप । 

जब से राजीव शुक्ला को पेपरानुसार राहुल गांधी से कुछ पड़ी है तब से कांग्रेस के नेता श्रीनिवासन से इस्तीफ़ा मांग रहे हैं । राजीव शुक्ला की नक़ल में अनुराग ठाकुर भी बीसीसीआई की छवि को लेकर चिंतित हो गए हैं और आपात बैठक की मांग कर रहे हैं । अनुराग ठाकुर का भी विज़ुअल निकालो कोलकात फ़ाइनल का । कैसे राजीव शुक्ला के साथ बैठ कर कैसे खिलखिला रहे थे । क्या बढ़िया टीवी इवेंट बनेगा । वही लाल घेरा लगाकर तीर तीर वाला । 

नौटंकी है सब । आप भी कल काम छोड़ क्रिकेट देखेंगे । कोई आहत वाहत न है सर । अब एक से एक पकाऊ थकाऊ बयान झोलिये । 

आदम का आइफोन संस्करण

आइफोन आदम है । बाक़ी के फ़ोन उसकी संतानें । सब उसकी तरह दिखने लगे हैं । सारे ब्रांड के फ़ोन लंबे दुबले और चौड़े हो रहे हैं । बाज़ार में हर फ़ोन पतले हैं । आदमी मोटू है । तोंद बालकनी की तरह किनारे से लटके रहते हैं । पतला होना उसका सेल्फ़ है और स्मार्ट फ़ोन उसी सेल्फ़ का विस्तार । सब फ़ोन पर उँगलियाँ ऐसे रगड़ रहे हैं जैसे कोई माचिस की तीली सीमेंट की चिकनी सतह पर रगड़ रहा हो । 

विचित्र प्रकार से तमाम फ़ोनों का आइफोनीकरण हो रहा है । जैसे सारे चैनल एक से लगते हैं । उनका विवादीकरण हो गया है । हर तरफ डिबेट ही डिबेट । सारे शहर एक से लगते हैं । उनका अपार्टमेंटीकरण हो रहा है । आइफोन इसी प्रक्रिया की अभिव्यक्ति है । सारे शहर में गुमटियां एक सी हैं । वे भी छोटे माॅल की तरह लगते हैं । एयरपोर्ट एक से लगने लगे हैं । उनका सौंदर्यीकरण हो गया है । हर एयरपोर्र्ट में मामूली अंतरों के साथ चमकते टाइल्स के समंदर जगमगाते रहते हैं । 

सारे दल एक से लगने लगे हैं । उनका एकीकरण हो गया है । अलग नाम और नेता लेकर एक ही तरह का आचरण कर रहे हैं । शुक्ला जी और जैटली जी एक हैं । हर घर में ब्रेड अंडा नाश्ते में खाया जाने लगा है । इसी क्रम में फ़ेसबुक पर एक कमेंट के लाखों लाइक्स मिल रहे हैं । हमारी पसंद एक सी होती जा रही है । हम एक ही तरह से जंगली होते जा रहे हैं । एक ही तरह की पतलून और कमीज़ पहनने लगे हैं । अपने अपने 'एक' से तंग आने का समय आ रहा है । स्मार्ट फ़ोन ही ब्रांड है तो नोकिया ब्लैक बेरी और आइफोन का क्या काम ।

एक और विज्ञापन आने लगा है । एक आदमी सोफ़े पर बैठ कर उँगलियाँ भांज रहा है । छूमंतर टाइप और सोफ़े के सामने रखे टीवी में चैनल बदलने लगते हैं । अभी तो टच का ज़माना है बाद में बिना टच किये ब्राह्मणवादी तरीके से टीवी फ़ोन का कर्मकांड किया जाने लगेगा । हम सब पहले से कहीं ज़्यादा एक हैं । 

नगरी नगरी दुकाने दुकाने



कोई चालीस साल से यह दुकान कोलकाता के लेक गार्डन में क़ायम है । दुकानदार के दिवंगत संस्थापक  नेता जी को दिल से पसंद करते थे । इसीलिए मिठाई की दुकान का नाम नेताजी के नाम पर रख दिया । दुकानदार मे बताया कि एक संदेश भी है जिस पर बांग्ला में नेताजी लिखा है । मिठाई की डिब्बा पर भी । हमने देश भर में चौराहों पर उँगली ताने नेताजी की अनेक मूर्तियाँ देखी है पर उनके नाम पर मुँह मीठा करने का यह आइडिया पसंद आया है । 






इस दुकान का नाम गासिप फ़ास्ट फुट क्यों हैं आप समझ सकते हैं । फ़ेसबुक और ट्वीटर काल में गासिप फ़ास्ट फुड की तरह है बल्कि गासिप का इस्तमाल हम फ़ास्ट फ़ूड की तरह ही करते हैं । भोजपुरी में गासिप के लिए एक शानदार शब्द है- कचुराई । 


इस दुकान में घटते या कहें तो डूबते हुए से इस सज्जन को देख हैरान होता रहा । कैसे और किस साधना के तहत ये अपना दिन काट रहे हैं । इनी दुकान में सिर्फ एक बेंच है जिस पर ये खुद ही बैठे रहते हैं । बाबा लोकनाथ की तस्वीर है । यूँ ही स्थिर मुद्रा में ग्राहकों का इंतज़ार करते रहते हैं । ऐसी गुमटियां आज के आईफ़ोन के ऐप्स की तरह लगती हैं । ये सिर्फ आर्डर लेते हैं और सीमेंट और ईंट की सप्लाई करते हैं । आप एक दिन इस तरह से स्थितप्रज्ञ बैठ कर दिखा दें तो मानूँ । 


इस तरह से सुबह सुबह ख़रीदारी करते लोगों को देख अच्छा लगा । दफ्तर जाने से पहले के वक्त में हरी हरी सब्ज़ियाँ फूल और मछली । उफ्फ । मारक ।

नेशनल वुड क्राफ़्ट ऐसा कुछ नाम था इस दुकान का । संस्थापक बनर्जी साहब के नहीं रहने पर उनके इकलौता पुत्र ने पिताजी की कुर्सी पर उनकी तस्वीर रख दी है । भरत के खड़ाऊँ इफैक्ट । 

किन्नरी ब्यूटी पार्लर । अच्छा लगा यह नाम । हो सकता है कि इसका कुछ और मतलब हो लेकिन आम लोग किन्नर का जो मतलब समझते हैं उस लिहाज़ से ये नाम ज़्यादा समावेशी लगा । लेडीज़ ब्यूटी पार्लर है । एक पाठक ने बताया कि किन्नरी गुजराती लड़कियों के नाम होते हैं तो निश्चित रूप से ये किसी गुजराती की दुकान होगी । फिर भी जो यह नहीं जानते होंगे वो इस नाम को देख कर मेरी तरह ही चौंकेंगे । 

श्रीनी के इस्तीफ़े की फ़िरनी

प्यारे श्रीनी, 

तुम इस्तीफ़ा मत देना । कोई  माँगे या किसी से मँगवाया जाए तुम अडिग रहना । तुम इस्तीफ़ा नहीं देते हुए ही क्यूट लगते हो । माँगने वाले पत्रकारों को भगाते हुए कूल । तुम टीवी में काफी आते जाते दिखते हो । कभी कोलकाता कभी मुंबई कभी चेन्नई ।  ये भी मुझे अच्छा लगा कि तुम्हें शर्म भी नहीं आती । अपना प्लेन है घूमो जेतना मन करे । तुम नहीं भाग रहे जो तुम पर आरोप लगा रहे हैं वो भागे भागे फिर रहे हैं । 

आरोप ही तो लगे हैं । बहुत हो चुका आरोपों पर इस्तीफ़ा देना । तुमने आरोपों को उनकी औकात दिखा दी है । जो तुम्हारे साथी हैं वे सब दलों के दलदल से आये हैं जहाँ हर आरोप प्रत्यारोप है । आरोप तटस्थ नहीं होता । एक आरोप के बदले या तो दूसरे आरोप का जन्म होता है या पहले से ही हुआ होता है । आरोप मैच करने के लिए होते हैं । इस्तीफा देने के लिए नहीं । उन दलों पर कितने आरोप है । क्या वे अपने दलों से 'सेट असाइड'हो गए हैं । बल्कि यही तुम्हारा योगदान है । तुमने 'सेट असाइड' होने की नवीन परंपरा की बुनियाद नहीं पड़ने दी । 'सेट'करने की यह कौन सी 'असाइड प्रथा ' है या तो डाउन हो जाइये स्टेप के साथ या डटे रहिये स्टेप पर । 

पवार तुमसे इस्तीफ़ा माँगे और तुम दे दो । ना श्रीनी ना । राजीव शुक्ला और अरुण जेटली के कहने पर इस्तीफ़ा । ना श्रीनी ना । मत देना । अख़बार और टीवी मत पढ़ो जिसमें तुम्हारे बारे में हर दिन अनाप शनाप लिखा होता है । तुम्हारे दामाद ने ऐसा क्या गुनाह कर लिया । इस्तीफ़ा माँगने वाले को शोले दिखाओ । अरे मौसी जी लड़का शरीफ़ है बस ज़रा कभी शराब तो कभी जुआ और कभी की तो । ख़ैर । क्या ये लोग धर्मराज युधिष्ठिर से इस्तीफ़ा माँगेंगे । जब जुआ खेलते हुए युधिष्ठिर धर्मराज हो सकते हैं तो  तुम अपने दामाद के सटोरिये होने पर बीसीसीआई प्रेसिडेंट क्यों नहीं हो सकते । ठीक है कि महाभारत काल में सटोरिया नहीं था । अब जुआड़ी भी तो उस लेवल के नहीं रहे जो राज्य से लेकर बीबी दांव पर लगा दें  तो परंपरा बचाने के नाम पर कुछ क्षुद्र परंपराओं की खोज तो करनी पड़ेगी न । वही काम तुम्हारे दामाद और बुकीज़ ने किया है । 'हाऊ फ़नी '!  तुमने दामाद को करोड़ों यूँ ही दे दिया होता तो वो लाख वाख का सट्टा नहीं खेलता । नालायक । ठीक किया उसे नौकरी पर रखा । प्रिंसिपल बनाकर । एकदिन स्कूल का पर्चा ही ग़ायब कर देना और कहना कि जब स्कूल यहाँ बना ही नहीं था तो ये नालायक प्रिंसिपल कैसे हो गया । 

अच्छा किया है तुमने 'स्टेप असाइड' की मांग करने वाले दुर्योधनों की बात नहीं मानी । यहाँ जनता ही धृतराष्ट्र है । आंख ही नहीं उसकी 'मेमरी' भी तो  गायब है रे । उसे कुछ नहीं दिख रहा इसीलिए लोकलाज की चिंता मत करो । याद भी नहीं रहेगा । इस्तीफ़ा मत दो । मैं जानता हूँ कोई तुम्हारे साथ नहीं है । पब्लिक में सब विरोधी हैं । प्राइवेट के साथी हैं । पर मुझे तुम्हारी औकात पसंद आई । किसी की मज़ाल नहीं हुई कि सीधे इस्तीफ़ा माँगे । वो तो टाइम्स आफ़ इंडिया का कमाल था कि सब पोज़िशन लेने लगे तुम्हारी पोज़िशन की 'कौस्ट' पर । पर चिंता मत करना । श्रीनी तुम डटे रहो । हिमाद्री तुंग श्रृंग से टाइप की कविता पढ़ते रहो । 

जो लोग तुमसे इस्तीफ़ा मांग रहे हैं उनकी नैतिकता किस स्कूल से प्रमाणित है । आजकल सब यही कर रहे हैं । तुमने न देने की मनमोहनी परंपरा को मज़बूत किया है । इस्तीफा न देने की । तुम अकेले क्यों शर्मिंदा हो । धोनी की अच्छी हालत की तुमने । हज़ारों करोड़ों कमा चुकने वाला यह ब्रांड बिना ज़ुबान के लग रहा था । हम सोचते थे कि इत्ता पैसा कमा लेंगे तब खुलकर दाँव पर लगाकर बोलेंगे । सबके ख़िलाफ़ बोलेंगे ।  इस मामले में मेरे जैसे प्लानिंग कर टाइम निकाल कर बोलने वालों को तुमने रास्ता दिखाया है । जब सचिन धोनी जैसे अमीर और पूजे जाने वाले खिलाड़ी मौन रहकर सम्मानित हैं तो हम और तुम क्यों नहीं । है न श्रीनी । पता चला न कि ये देश के लिए नहीं क्लब के लिए खेलते हैं । क्लब का बाॅस कौन ? भिखू म्हात्रे कि श्रीनी ! 

दरअसल तुमने एक कमाल किया है । इस्तीफ़ा न देकर बाक़ी सबको इस्तीफ़ा देने लायक बना दिया है । वही ऐसी एक्टिंग कर रहे हैं जैसे इस्तीफ़ा उन्हीं से मांग लिया गया हो । तुम्हारे टीके में जो भभूत हैं उसी से भस्म हो जायेंगे सब नालायक । 

श्रीनी ओ प्यारे श्रीनी, देखना मेरे इस पब्लिक सपोर्ट के बदले कोई जगह हो तो । इस्तीफ़ा न देकर तुमने जो नैतिकता के नए मानदंड स्थापित किये हैं उससे प्रभावित हुए बिना नहीं रहा गया यार । मत देना । भगवान क्या हर माँगने वाले भक्त को दे देता है जो तुम इस्तीफ़ा दे दोगे । तुम्हारे इस्तीफे की सब फ़िरनी  बनाने के चक्कर में हैं । रसगुल्ला खिलाकर भगाओ सबको । 

तुम्हारा एक प्रशंसक रवीश कुमार । 


दोपहर, बारिश और कोलकाता का एक मोहल्ला

खिड़की से बारिश को देखे ज़माना हो गया । ज़माना तो अब टीवी में बारिश को देखता है । जो गर्मी से राहत  से शुरू होकर ट्रैफ़िक जाम और जलजमाव के आफ़त में बदल जाती है । अगले दिन बारिश में भींगती युवतियों की तस्वीरों से भरे अख़बार ( पहले भी बारिश की इन युवतियों पर लिख चुका हूँ ) । सबके अपने अपने मेघदूतम हैं । कालिदासों ने मिलकर बारिश का बेड़ागर्क कर रखा है । संवेदनाएँ भी फार्मेटेड खांचाबद्ध हो गई हैं । 


तो कोलकाता के अपने घर की खिड़की से बारिश की बूँदों को देखता रहा । पेड़ों की हरियाली और पेड़ों के नीचे घासफूस की मौज । याद नहीं गर्मी के बाद स्कूल खुलने पर मैदान कितने हरे भरे लगते थे । फ्लोरा-फोना । नज़दीक़ जाकर देखा तो सब के सब बावरे लगे । 


सड़कें भीग कर अलसा़़यी सी । ख़ाली सड़क है मगर बारिश से भरी हुई । छींटें उड़ती है । पतलून और साड़ी बचाये जाते हैं । चाय की तलब बढ़ जाती है । 


चलता रहता हूँ । एक गली की तरफ़ । कुछ लड़के लुडो खेल रहे हैं । काम से आराम का समय है । सब कुछ क्रिकेट या फ़ुटबॉल नहीं है यहाँ । कैरम और लुडो भी है । बिना टीवी और ब्रांड खिलाड़ी के । 


कोलकाता के मोहल्लों में हर दोपहर रविवार का नज़ारा होता है । ख़ाली सा । दिन का कोई तो वक्त ख़ाली होना चाहिए । काम करने वाले ज़िंदगी की शर्त पूरी करने जा चुके हैं । सड़कों पर कभी कभी छाता लिये माएँ दिखती है अपने बच्चों को ट्यूशन ले जाते हुए । ख़ाली सड़क पर भी रिक्शावाला हार्न बजा देता है । 


बारिश से उमंग है लेकिन यहाँ अलग अलग नलों पर दो बाल्टियों ने अपनी पोज़िशन ले ली है । हम भी तो ऐसे ही इंतज़ार करते हैं । पानी का । बारिश का । 

नो टीवी डे , इ का है बे

हमारे इनबॉक्स में मेलर आते रहते हैं । इसके ज़रिये लोग अपने कबाड़ टीवी कार्यक्रमों या ग़ैर मीडिया इवेंट की जानकारी देते रहते हैं । मेलर सबसे अनुपयोगी प्रचार तंत्र है और संचार क्षेत्र मे लगे लोगों को व्यक्तिगत रूप से भेजा जाता है । ख़ैर मुद्दा ये नहीं है । 

तो क्या है । वो ये है कि हिंदुस्तान टाइम्स एक नया डे निकाल लाया है । नो टीवी डे । टीवी कम देखिये या मत देखिये की वकालत तो मैं भी करता रहा हूँ । ट्विटर के उन दिनों में और टीवी शो के दौरान भी । किसी ने सुना नहीं वर्ना तो जो है वो चली जाती । ख़ैर । टीवी सचमुच तंग करने लगा है । मैं तो पूरे महीने में इतना कम देखता हूँ कि आप यक़ीन नहीं करेंगे । तो मेलर के अनुसार हिन्दुस्तान टाइम्स एक जून को मुंबई में नो टीवी डे मनवा रहा है । मनाया जाना ठीक नहीं क्योंकि ऐसे इवेंट हम मानते नहीं बल्कि तरह तरह के प्रलोभनों के ज़रिये हमसे मनवाया जाता है । 

तो फ़्री के पास मिलेंगे और कई लोग यूँ भी जमा होंगे और नो टीवी डे मनवा दिया जाएगा । अच्छा क़दम है । टीवी में रहते हुए फ़ुल सपोर्ट । एक दिन नो पेपर डे भी मनवाया जाना चाहिए जिसमें हम पेपर के टायलेट पेपर बन जाने से मुक्ति का आह्वान कर सके । कूड़ा पढ़ने से अच्छा है शहर को देखो । टीवी के कारण हमारी शाम खराब हो रही है वैसे ही पेपर के कारण सुबह । अखबार में आधा घंटा लगाने से अच्छा है टहल आइये । पेपर मे भी बुराई है । वहां कोई दैनिक स्वर्ण युग नहीं छप रहा है । तुलनात्मक रूप से ज़रूर पेपर टीवी से बेहतर है । ख़ैर । ये तीसरा ख़ैर है । 

शहर तो देखना ही चाहिए । फादर्स मदर्स डे फ्रैंड्स डे  बिना बाप माँ दोस्त से मिले ही मनायें जा रहे थे क्या । लल्लुओं बिना इनसे मिले कार्ड किसको दे रहे थे ? पड़ोसी के डैडी को ? अब टीवी बंद कर इन तीनों से मिलने का डे आ रहा है । नो टीवी डे । 

इसदिन टीवी बंद कर आप मुंबई देखने के लिए घरों से निकलवाये जायेंगे तभी तो मनवाये जायेंगे । देख लीजिये कि एक जून को पूरी मंुबई टीवी बंद कर बाहर न निकल आए । फिर उसके बाद एक दिन कोई पेपर नो मुंबई डे मनवायेगा । शहर में न निकलने के लिए पास देगा कहेगा कि घर पर रहें और शहर को बचायें । नो मम्मी डे, नो हब्बी डे, नो वाइफी डे नो जीजू डे का भी स्कोप खुल रहा है । फ़्री का पास मिले तभी मनवाना वर्ना एकादशी द्वादशी क्या कम है हमारे पास । लेकिन एक बात तो है शहर में यूँ ही घूमना चाहिए । ज़रूरी है । 

हिमसागोर , अल्फांसों या जर्दालु

हिमसागर ना तो हिमसागोर । आम का नाम पूछा तो एक जनाब भावुक हो गए और गर को गोर कर दिया । बंगाल के लोग हिमसागर आम पर वैसे ही फ़िदा होते हैं जैसे महाराष्ट्र के लोग अतिप्रचारित परंतु एक साधारण आम अल्फांसों पर । हुलिया दोनों का एक सा है । स्वाद में अंतर है । हिमसागोर में पल्प ज़्यादा होता है तो मैंगोशेक बनाने के काम भी आता है । 

सफ़ेदा का अतिक्रमण इसी कारण से तो आम की तमाम क़िस्में पर हुआ है । मैं सफ़ेदा विरोधी हूँ । सफ़ेदा से इतनी नफ़रत है कि इसके कारण दिल्ली में मैंगोशेक पीना छोड़ दिया । जो लोग सफ़ेदा को आम समझ कर खाते या पीते है मैं उन्हें अविकसित मानव मानता हूँ । हा हा । सही में मुझे लगता है कि कितने मूर्ख हैं । ख़ैर ऐसा छोटा सोचना 'मेरा हक़ डिपार्टमेंट' के तहत आता है और मैं सोच सकता हूँ । 

हिमसागोर हिम युग से है पता नहीं । पर सागर किनारे के बंगाल में गर्मी के दिनों में कूल कूल फ़ील देने के कारण इसकी तुलना हिम से की गई होगी । 

हिमसागोर और अल्फांसों के बीच बिहार की एक किस्म मीलों पीछे रह जाती है । ये है जर्दालु आम । इसकी गमक का मुक़ाबला आम की कोई किस्म नहीं कर सकती । बेतिया भागलपुर साइड में जर्दालु होता है । अब क्या हालत है पता नहीं पर लंबे वक्त तक यह आम पटना की राजसत्ता के ख़ास कारिंदों के लिए विशेष उपहार होता था । लीची की तरह । कई लोग जर्दालु और लीची पटना के मंत्रियों और अफ़सरों को पहुँचाते रहते हैं । गिफ़्ट आइटम के रूप में और जैसे हम न लायें तो आपके पास कोई दूसरा सूत्र भी नहीं कि इस क्वालिटी की लीची और आम के दर्शन हो जायें । जर्दालु इतना क्षणभंगुर होता है कि डाल से उतरते ही कुम्लाहने लगता है । इसीलिए लंबी दूरी तय नहीं कर पाता । 

नोट: इस लेख के कुछ दिनों बाद हिन्दुस्तान टाइम्स में पढ़ा कि बिहार सरकार लीची और ज़र्दालु आम राष्ट्रपति, सोनियां गांधी समेत दिल्ली के छह सौ वीआईपी को भेजने वाली है । भागलपुर से पटना और पटना से दिल्ली । ओबामा को भी भेजो रे । 

सत्तू की मिक्सी

पिछली बार कोलकाता आया था तो सड़कों पर सत्तू की मिक्सी दिख गई । सत्तू गाढ़ा होता है । पानी पड़ते ही भारी हो जाता है इसलिए उसे ठीक से घोलना पड़ता है । इस काम में हाथ पर बल पड़ता है और वक्त लगता है । पहली बार किसी ने इस काम का अर्ध मशीनीकरण करने की सोची और नतीजा आपके सामने । कोलकाता में सत्तू का एक ब्रांड ऐसी मशीन बाँटता है शायद किश्तों पर या मुफ़्त में ही । जैसे आइसक्रीम की कंपनी ठेला बाँटती है कुछ पैसे लेकर । 




लेकिन यह बदलाव ग़ज़ब का है । सत्तू के वर्ग उत्थान का लगता है । इससे पहले तसले में दाल मथने वाली लकड़ी की 'रही' से सत्तू के घोल को बारीक किया जाता था । आज भी यही होता है । पहली बार सत्तू का संबंध मशीन से होते देखा है । 
बड़े बुज़ुर्ग कहा करते थे कि सत्तू पौष्टिक के अलावा ग़रीब लोगों का व्यंजन है । आप गमछे में सत्तू रखिये तालाब या नदी की ऊपरी सतह से स्पर्श करा कर तुरंत सान दे । प्याज़ नमक के साथ कहीं भी खा लें । गैस और स्टोव के आगमन के पहले हर वक्त चूल्हा फूंकना मुश्किल था तो सत्तू देसी समाधान बनकर आया होगा । हम सब पीतल की थाली में चना या मकई का सतुआ सान कर खा लिया करते थे । इससे औरतें वक्त बेवक्त खाना बनाने के काम से बच पाती थीं । सत्तू तब भोजन था अब गैस भगाने का पाचक हो गया है । 

लेकिन सत्तू को जनउपभोग के स्तर पर लाने का यह आइडिया अच्छा लगा । ठेले पर सत्तू के कई ब्रांड रखे हुए थे । सुबह सुबह टैक्सी वाले सत्तू पीकर काम पर । सत्तू पेट में देर तक ठहरता है । मशीन में घुलता देख उत्पाद में यक़ीन बढ़ जाता होगा । 

कोई सरकार चाहे तो यह मशीन जो दो हज़ार के क़रीब की है, ग़रीब लोगों में बाँट कर नाम कमा सकती है । दरअसल हमारे यहाँ तकनीक आयातीत है । उसका हमारी सामाजिक समस्याओं और उपभोग से कोई संबंध नहीं । इसीलिए आप देखेंगे कि जुगाड़ वाली गाड़ी, तरह तरह की ट्रैक्टर की टालियां इंनवर्टर दिख जायेंगे । वाशिंग मशीन में लस्सी बनती दिख जाएगी । सत्तू की मिक्सी भी देसी समाधान है । 

लाल राजधानी हरा बंगाल

बंगाल कितना हरा लगता है । लाल रंग की राजधानी जैसे ही आसनसोल पार करती है सबकुछ हरा होने लगता है । ताड़ के पेड़ किसी स्केच के कमाल लगते हैं । छोटी गायें और बकरियाँ और दीवारों पर लक्स कोज़ी के विज्ञापन । आसमान में बादल हैं और हवा पागल । घना हरा है बंगाल । दूर से किसी मोहल्ले में सिल्वर कलर के रबिन्द्रनाथ टैगोर की मूर्ति दिखी । मरे मरे से सरकारी स्कूलों के बीच तालाबों की श्रृंखला । कुछ जगहों पर मनरेगा के तहत तालाब की सफाई या खुदाई दिखी । सैंकड़ों मज़दूर जुटे हुए दिखे । मानसून लगता है बंगाल से आकर बंगाल में ही घूम कर चला जाता है । हम केरल ताकते रह जाते हैं । बंगाल का अपना लोकल मानसून है । केले के पेड़ क्या पीकर झुके जा रहे हैं । मोबाइल टावर काक तड़ुआ हो गए है ( स्केयर क्रो) । दुनिया से कटे ये गाँव नेटवर्क में हैं । 

मकानों की चमक उतर रही है । मकान अब पीढ़ियों के स्थाई पते नहीं रहे । अस्थायी हो गए हैं । कोई इन्हें छोड़ गया है । गुलाबी और पीले मकानों की तादाद ज़्यादा है । बैंगनी रंग का एक मकान बेहद ख़ूबसूरत लगा ।  कोच में स्टाफ़ तकिया कंबल  समेटने लगा है । बंगाल के खेतों में ट्रैक्टर की तादाद बढ़ गई लगती है । ट्रैक्टर का आना इस बात का सूचक है कि मज़दूर पलायन कर रहे हैं । कुछ जगहों पर बैल से भी जुताई चल रही है । टिन की छत लग रही है और उसके ऊपर पुआल । बंगाल में झोपड़ियां बची हैं । बिहार पूर्वी यूपी की तरह । बंगाल में अर्धशहरीकरण की प्रक्रिया शुरू नहीं हुई है । बिहार की तरह ग्रामीण लगता है । नेनुआ की खेती नज़र आ रही है । डैड अपने किड्स के साथ फिर से सैमसंग गैलेक्सी में घुस गए हैं । चेराग्राम शक्तिगढ़, धनियाखाली, बलरामबाटी जैसे हाल्टों से गुज़रती हुई राजधानी कस्बाई होने लगी है । महानगर से महानगर के बीच दौड़ है इसकी । बादल घने हो रहे हैं । मौसम अच्छा है । राजधानी में वाई फ़ाई ठीक है । उसी का लाभ उठा कर चलित ब्लागिंग की । 

राजधानी एक्सप्रेस: रात और रेल

रेल चल रही है । रात भी चल रही है । रेल और रात साथ साथ चल रहे हैं । साथ में एक तीसरा भी है । हिन्दी सिनेमा का गाना । "दो पल रूका ख़्वाबों का कारवाँ और फिर चल दिये तुम कहाँ हम कहाँ ।" वीर ज़ारा का गाना बजा जा रहा है । इस गाने की भव्यता में खो जाता हूँ । वायलीन की धुन भीतर तक गाने की लकीर खींच देती  है । 

कई तरह की आवाज़ें हमसफ़र है । गहरी नींद में कुछ लोग चले जा रहे हैं । इतने सारे लोग पहुँच रहे हैं । धनबाद, आसनसोल, हावड़ा । मैं यश जी के इस गाने में चल रहा हूँ । 

तुम थे कि थी कोई उजली किरण 
तुम थे कि कोई कली मुस्काई 
तुम थे कि था कोई फूल खिला

रात आवाज़ों को सुनने की सबसे मुकम्मल घड़ी है । पटरी और पहिये की आवाज़ को सुनने ही लगा था कि मदन मोहन का संगीत । " एक भटके हुए राही को कारवाँ मिल गया तुम जो मिल गये हो तो ये लगता है कि जहाँ मिल गया ।" बहुत तमन्ना है कि हिन्दी सिनेमा के तमाम पलों को अपनी ज़िंदगी में जी जायें । ऐसी ही किसी बारिश और गरजते बादलों की रात हो और नवीन निश्चल की तरह कार घुमाते गाते निकल जाये । " क़िस्मत से मिल गए हो मिलके जुदा न हो । मेरी क्या ख़ता है, होता है ये भी, कि ज़मीं से कभी आसमां मिल गया ।" इस गाने का संगीत और मौसम । उफ्फ । रेल तुम मुझे लेके कहाँ जा रही हो । 

जैसों पहिये ने अचानक तेज़ हुई धुन को सुन ली है । रफ़्तार तेज़ हो गई है । इस गाने में मदन मोहन भी बादलों को सुनकर बेकाबू हो जाते हैं । बारिश की वो यादगार रात थी । भीतर कोच की चरचराहट सुनाई दे रही है । ऐसा लगता है कोच के पोर-पोर से दरकने की आवाज़ आ रही है । रात जा रही है । रेल जा रही है । रात और रेल साथ साथ जा रहे हैं । खूब सारी बातें करते हुए । मस्ती में झूलते हुए । बोगी झूमती है और पटरी संभालती है । ऐसा साथ मिला क्या आपको कभी । मुझे हासिल है । 

चलती रेल से ब्लाग लिखने का आनंद उठा रहा हूँ । जाने कौन सा गाँव और क़स्बा अभी अभी गुज़रा है ।
कोच के भीतर रात जाग रही है, सबको सुलाकर मेरे साथ । फिर कोई नया गाना बज रहा है । मधुबन में जो कन्हैया किसी गोपी से मिले राधा कैसे न जले ये गाना भी लाजवाब है । किस लिये राधा जले, किस लिये राधा जले । उफ्फ ये रात और बात । ऐ जाते हुए लम्हों ज़रा ठहरो...मैं कहीं भी रहूँ ऐ सनम...मुझकों है ज़िंदगी की क़सम, फ़ासले आते जाते रहें, प्यार लेकिन नहीं होगा कम । बार्डर के इस गाने की यह लाइन रूला देती है । सही में रो़या था । वर्दी पहनकर कभी सीमा की तरफ कदम बढ़ाइयेगा ये गाना ज़िंदगी देगा । सिनेमा की समीक्षा सब करते हैं और गीतकार और गानों की कोई नहीं । हमसफ़र कौन है । सिनेमा या संगीत । 

ओह राजधानी एक्सप्रेस, तुम क्लासिक हो । तुम रफ़्तार हो । तुम रेल नहीं मेरे साथ गुज़र रही एक अच्छी रात हो । 

राजधानी के भीतर का खाना और डैडी

कुछ पापा लोग अफ़्रीका से बैरिस्टर बनके आए लगते हैं । ये लुंगी धोती वाले बाबूजी नहीं है । हाफ़ पैंट पहनने वाले डैडी हैं जिनकी टी शर्ट पर अफ़्रीकी बानर बना हुआ है । ये डैडी लोग ट्रेन चलते ही किड्स के साथ सैमसंग गैलेक्सी पर गाना सुनने लगे हैं । एक किड आई पैड लेकर मम्मा से लड़िया रहा है । एंग्री बर्ड मम्मा खेल नहीं पा रही है । ट्रेन का सैंडविच नहीं खाया सब । मैक्डी का बर्गर निकाल चांपने लगा है । जैसे ही गाना बजता है किड्स रौक करने लगते हैं । डैडी का तोंद पहले से ही हिल रहा होता है । डैडी तोंद को सहलाते हुए टाँग फैलाने लगते है तभी एक फ़ोन बजता है और वे इंगलिस बोलने लगते हैं । इंडिया के पब्लिक ट्रांसपोर्ट को कंडेम करने लगते हैं । मम्मा शट अप बोलने लगी हैं । चेहरे की झुर्रियाँ बता रही हैं कि पैंतालीस साल में ही कारपोरेट सक्सेस ने डैडी को पचपन का बना दिया है । भला हो हाफ़ पैंट और टी शर्ट का कि पैंतालीस का लुक आ रहा है । 

सूप पी रहे हैं सब । सूप उनके नए क्लास से मैच करता है । पूरा जीवन बिना सूप के जीया । मुझे तो लगता है कि सूप सिर्फ होटल और बारात का तरल व्यंजन है ।  ब्रैड स्टीक तो भाई घर में देखा न बारात में । प्लेन और ट्रेन का खाना थोड़ी देर के लिए आपको नए वर्गानुभव में रूपांतरित कर देता है । आप अचानक वैसे खाने लगते हैं जैसे आप किसी सिनेमा में लड़की के बाप को खाते देखते हैं जिसमें खाना कम बर्तन की आवाज़ ज़्यादा होती है । ब्रैड स्टीक पर लिखा है गुड फूड गुड ट्रैवेल । जिस लघु ट्रे में स्टीक और सूप आये हैं उसमें एक काग़ज़ का टुकड़ा बिछा है । लिखा है कृपया बख़्शीश न दें । हाँ भाई बख़्शीश पर भी पहरा लगा दो । 

कुछ यंग भी हैं जो लैपटॉप लेकर सिल्लीकन भैली से कनेक्टेड हैं । उनके कान हेडफ़ोन से बंद है और भीतर जैक्सन के तड़पने की आवाज़ गूँज रही है । इसी बीच एक जनाब ने अपनी अटैची चेन से बाँध दी हैं । वे आश्वस्त नज़र आ रहे हैं । फ़ोन बजता है और ऊँ जय जगदीश हरे की आरती चालू । 

राजधानी की खिड़की से

राजधानी भागी जा रही है । हरे भरे खेत के बीच लाल लाल ईंट की बनी दीवारें और मकान दिख रहे हैं । हर यात्रा में ऐसे मकानों की संख्या बढ़ी हुई लगती है । मकान पर मकान बन रहे है । कच्चे मकान तो जैसे ग़ायब ही हो गए हैं । मकानों की हालत देख कर लगता है कि हर मकान के बनने में कई साल लगे है । बहुत कम मकानों की दीवारों पर पलस्तर है । शहर कमाने गए और स्थानीय स्तर पर कमाए गए पैसों को जोड़ कर ये अधूरे मकान बने हैं । अर्धशहरीकरण कह सकते हैं आप । मुकम्मल मकान नहीं है मगर छत पक्की है । टीवी इस भारत को नहीं दिखाता है । कहीं कुछ तो हैं इन सुर्ख मकानों में कि इनसे गहरी उदासी झलकती है । 

ख़ाली खेतों में लड़के देसी क्रिकेट खेल रहे हैं । उनकी पतलून अब धीरे धीरे रेडिमेड हो रही है । महानगर से बाहर शाम बची हुई है । बाग़ीचों तक में क्रिकेट की टीमें जुटी हुई हैं । खेती और क्रिकेट ये दो ग्रामीण पेशा हैं । नई बात कुछ नहीं कह रहा । बड़ी संख्या में खेत ईंट भट्टों में बदल दिये गए हैं । प्रधानमंत्री ग्रामीण सड़क योजना की सड़कें खुरदरी भुरभुरी होकर बची हुई हैं । जिन पर लोग चल ही रहे हैं । गाँव के गाँव उजाड़ लग रहे हैं । शाम होते ही उदारीकरण की औकात दिख जाती है । जब बिजली कहीं भागी हुई नज़र आती है । 

हावड़ा राजधानी अपने आप को स्मार्ट समझती है । रफ़्तार और समृद्धि की प्रतीक राजधानी धीरे धीरे चमक खो रही है । सुविधायें वहीं है । स्टाफ़ भी शालीन पर राजधानी को राजधानी हुए अब कई साल भी तो हो गए हैं । स्टाफ वही खाना सालों से खिला रहे हैं । घर का खाना जैसा लगता है । एक ही मेन्यू । राजधानी मार्डन से क्लासिक हो गई है । फिर भी इतने भ्रष्टाचार की ख़बरों के बीच रेल का अपना सिस्टम ठीक ठाक ही चलता है । सब काम करते हैं । 

विचारों का टुकड़ीकरण : सोशल मीडिया

फ़ेसबुक सरसरा रहा था यानी स्क्रोल कर रहा था । सरसराना इसलिए लिखा कि बचपन में हम स्लोप का मतलब जानने के लिए कोश देखने नहीं गए थे बल्कि खुद से ही सरसरऊआ शब्द का इस्तमाल करने लगे थे । कहीं किसी से सुनकर । अस्सी के दशक तक बनने वाले सरकारी और ग़ैर सरकारी घरों में दरवाज़े के सामने स्लोप होता था जो बाद में विलुप्त हो गया । तब आइडिया ये होगा कि इसके सहारे स्कूटर या सायकिल घर के भीतर लाया जा सके । तब तक स्कूटर को ड्राईंगरूम में ही पार्क करने का रिवाज बन गया था । सायकिल ड्राइंग रूम से होते हुए आँगन में । अब स्कूटर भी बाहर पार्क होता है । स्लोप ग़ायब है और चबूतरा जिस पर बैठ कर बातें होती थीं टूट चुका है । 

तो फ़ेसबुक को सरसराते हुए पाया कि कई लोग सोच परिवर्तन के काम में लगे हैं । कई लोग उन्हीं के स्टेटस के नीचे सामान बेच रहे हैं । मेरे पेज पर कोई नैना जैन हैं जो सत्रह हज़ार का रंगीन घाघरा बेच रही हैं । वैसे ख़ूबसूरत है । नैना जी बिना किराया दिये हमारे पेज के बैठकखाने में अपना घाघरा टांग गई हैं । फ्री में वो भी अनटचेबुल । कहीं कैंडी क्रश तो कहीं क्लियर ट्रीप वाला विज्ञापन ठेले हुए हैं । बाज़ार तो हमारे जीवन का अंग रहा ही है लेकिन जीवन बाज़ार हो जाए ऐसा कब रहा । हमारी सोच का विस्तार बाज़ार से घुलमिल गया है । ज़रा सोचिये कि घर में चार लोग बात कर रहे हों और एक बैग से घाघरा निकाल कर दिखा दे । दूसरा सेविंग क्रीम तो तीसरा जूता और कहे कि ब्रेक है यहाँ भी । जैसे बात को बीच में रोककर हम बिस्कुट खाने लगते हैं और ऐश ट्रे खोजने लगते हैं । हम सब किसी न किसी उत्पाद के एजेंट बन जायें और घर आए मेहमान को कंपनी का डमी उत्पाद दिखाने लगे । बाज़ार के स्पेस से हम बाहर नहीं रहे । हमारा मन बाज़ार में चलता है । 

दूसरी तरफ इस पन्ना(पेज) मार्केट में कई लोग सोच परिवर्तन में लगे हैं । हर घटना पर पचास एंगल है । इतने एंगल हो जा रहे हैं कि घटना ही बिला जा रही है । पर यह काम भी तो ज़रूरी है । लेकिन अपने अपने घर में तो हम फ़ेसबुक से पहले भी यही कर रहे थे । एक आदमी लेक्चर दे रहा है और ड्राईंगरूम में पाँच आदमी सर हिला रहे हैं । दो आदमी बात काट रहे हैं । चाय पर चाय चल रही है । बीच में चौकी या आसन पर बैठा मुख्य वक़्ता झाड़ा फिरने चला जाता है तो मौक़ा पाकर कई लोग मुख्य वक़्ता बनने लगते हैं । नई सामूहिक चेतना क्या बन रही है । मैं इस सवाल से क्यों टकराने लगा हूँ । क्यों अब स्टेटस पर कुछ लिखा हुआ देखकर घिसा हुआ लगता है । पर बात है कि करे क्या आदमी । बात करना भी तो ज़रूरी है लेकिन ये सारी बातें रूटीन सी क्यों लगती हैं । कई बार लगता है कि सहमति और असहमति गुटों में बँटकर बंटाधार हो गए हैं । 

ब्लाग ट्वीटर और फ़ेसबुक । हमारे अवचेतन का सार्वजनिक मंच । हर बात कहने की होड़ में मौन दाँव पर है । सोच परिवर्तन एक सीमित दायरे में हो रहा है । कई लोग एक ही फार्मेट में सभी घटनाओं को फ़िट कर रहे हैं । आलोचना या जागरूकता भी उसी तमाशे का हिस्सा लगने लगती है । इनदिनों ऐसी ही मानसिक अवस्था से गुज़र रहा हूँ । ख़ालीपन का अहसास भयानक है । हम क्यों अपना वक्त बर्बाद कर रहे हैं या इस बर्बादी का लिखित दस्तावेज आने वाले समय को सौंप कर जा रहे हैं । हर मुद्दे पर तुरंत लिख मारने की बौद्धिकता के प्रदर्शन की यह बीमारी हमें जागरूक और साहसिक होने का अहसास तो देती है पर क्या हम अपनी बातों का मट्ठा नहीं बना रहे हैं ।  चुप रहने से तो यही अच्छा है । 

कई बार लगता है कि फ़ेसबुक और ट्विटर ने विचारों को एक फार्मेट में ढालकर कतारबद्ध कर दिया है । सारे विचार एक ही मात्रा और लंबाई में सेना की क़तार में खड़े हैं और किसी घटना के आदेश मिलने पर क़दमताल करने लगते हैं । जहाँ पता नहीं चलता कि कौन सर पटक रहा है और कौन पाँव । बस परेड शानदार लगती है । कई बार इस लिहाज़ से भी बातें अच्छी लगती हैं । क़दमताल करती अभिव्यक्तियाँ भाती हैं लेकिन कई लोगों को लगातार पढ़ने और पसंद करने के बाद ऐसा लगता है कि वे अपने कुएँ में घूम रहे हैं ।कुछ नया पढ़ा नहीं और कुछ नया देखा नहीं अपितु हरपल निंदनीय टीवी को देखकर व्याकुलता झाड़ दी । बतंगड़ी सामाजिक अभिव्यक्ति है । हमारी ज़्यादातर बातों का टेकआफ प्वाइंट टीवी का कोई घटिया शो है और किसी नेता की करतूत । एकदम गाँव की चचेरा भौजाई की तरह रेडिमेड टापिक । हर बात में उसी को लसारे रहो । लसारे रहो का मतलब घसीटे रहो । करे भी तो क्या करे । 

क्या फ़ेसबुक ने विचारों का एकतरह से रेजिमेंटेशन किया है ? टुकड़ीकरण हिन्दी कैसी रहेगी ? सब अलग अलग वर्दी में । सेना भी तो लोकतंत्र का अंग है । वो क्या लोकतांत्रिक स्पेस से अलग है ? फ़ेसबुक ट्विटर ने आपकी हर सोच को मूर्त रूप दिया है जिसके कारण आप एक सैंपल की तरह कई तरह की रणनीतियों की निगाह में हैं । बाज़ार और सियासत दोनों की । इसके कारण आंदोलन अचानक हुए हैं तो इसी के कारण उन्हें मैनेज करना भी आसान हुआ है । इसी टुकड़ीकरण के कारण पार्टियों के दफ्तर में आईटी सेल बन रहे हैं । परेड तैयार है बस उन्हें जैसे किसी कमांडर का इंतज़ार है । अभिव्यक्ति मैनेजमेंट लोकतंत्र की मान्यता प्राप्त गतिविधि है । बस क़दमताल का आदेश देना पड़ता है । 

मैं खुद ट्वीटर और फ़ेसबुक का क़ायल रहा हूँ बस इन मंचों को दूसरे नज़रिये से समझना चाहता हूं ।  इससे हमारी सामाजिक राजनीतिक अभिव्यक्तियाँ कैसे बदल रही हैं । मूल प्रश्न ये है । हम भले ही नए मंचों की शक्ति का गुणगान कर रहे हैं लेकिन क्या नहीं लगता है कि उन्हीं पुराने मुद्दों और दलीलों के मोह और खोह में फँसे हैं । ये हैं तो यही कहेंगे, यह भी सही है पर क्या कोई नया नज़रिया नहीं है । यह कैसे हो सकता है कि हमारी बातों का बुनियादी या आसमानी ढाँचा एक सा ही है । सारे पोज़िशन फिक्स हैं ।  राजनेताओं की तरह निंदा प्रशंसा जारी करने से हमारी समझ समृद्ध हो रही है या रूटीन होती जा रही है । फ़ेसबुक और ट्विटर नया है पर बातें भी नईं हैं क्या ? क्या सारी बातें साहसिक तरीके से कही जा रही हैं ? और जो लोग कह रहे हैं उन्हें लाइक करने के बाद बाक़ी कहाँ भाग जाते हैं । 

हमारे यहाँ शोध की परंपरा नहीं है । होती तो अभिव्यक्तियों के सामाजिक आचार व्यवहार पर कई अलग अलग तरीके के ठोस अध्ययन सामने आते । वक्त आ गया है कि थोड़ा डिटैच होकर इन अभिव्यक्तियों को समझें । ख़ासकर हिन्दी लोकजगत में ब्लाग फ़ेसबुक और ट्वीटर ने बदलाव भी किया है या पुरानी टूटी मेज़ की जगह नई मेज़ और माइक लगा दी गई है । जिस पर शारदा रेडियो एंड कंपनी की जगह फ़ेसबुक लिखा है । ये टाइमलाइन है या असेंबलीलाइन दोस्त । 

रागदरबारी का आईपीएल संस्करण

अगर किसी को शक है कि हिन्दुस्तान में भ्रष्टाचार एक लोकसंस्कृति नहीं है सिर्फ कुछ कुलीनों का आपसी बंदरबाँट है तो उसे कोलकाता के इडेन गार्डन में बैठे कई हज़ार दर्शकों के उल्लास को सुनना चाहिए । लाखों प्रिंट और घंटों कवरेज़ के धड़ाम से गिरने का इससे बड़ा प्रमाण क्या हो सकता है । हफ़्ते भर से चैनल और अख़बार नैतिक पोज़ीशन लेते रहे कि आईपीएल को बंद कर देना चाहिए, इंडियन एक्सप्रेस में शेखर गुप्ता ने लिखा कि मामूली बातों पर संसद नहीं चलती है मगर जेटली शुक्ला मोदी और पवार के बीच बीसीसीआई में मतभेद नहीं होता । टाइम्स नाउ, आज तक सहित कई चैनलों ने अभियान चलाया कि आईपीएल बंद होना चाहिए । क्रिकेट की कालिख से लेकर क्रिकेट के कलंक और दर्शकों के साथ धोखा जैसे नारे झपिंग झपाक झंपक झंपक हो गए । 

इस देश में आप भ्रष्ट होकर सामाजिक हो सकते हैं । अव्वल तो हर किसी की सामाजिक पृष्ठभूमि किसी न किसी रूप में इतनी भ्रष्ट तो होती ही है कि कोई भी आराम से किसी व्यक्ति की ईमानदारी को संदिग्ध बता सकता है । इसीलिए कहता हूँ कि भारत में भ्रष्टाचार की सामाजिक सहमति पहले हैं और राजनीतिक असहमति बाद मे और वो भी सीमित रूप में । ऊब जाते हैं तो कांग्रेस की जगह बीजेपी या बीजेपी की जगह कांग्रेस । इन दोनों की पूँछ पकड़ कर बाक़ी भी वैतरणी पार । 

इस तादाद में  लोगों का स्टेडियम आना क्या सिर्फ क्रिकेट के प्रति प्रेम है  या उन तमाम नारेबाज़ियों के प्रति तिरस्कार है जो आईपीएल को जुआ से लेकर अनैतिक क्रिकेट का जमावड़ा बता रही थीं । शर्म आ रही है स्टेडियम की गूँजती आवाज़ सुनकर । बल्कि उन्हीं चैनलों पर फ़ाइनल के टास से लेकर टीम के बारे में फ़्लैश भी चलने लगे है । 

आईपीएल प्रेमी नहीं हूँ । इस सीज़न का पहला मैच देखा था और अंतिम इसलिए देख रहा हूँ ताकि पता तो चले कि हम जिस भ्रष्टाचार को अनैतिक समझते हैं उसे पब्लिक किस नज़र से देखती है । क्या लोगों ने क्रिकेट को क़सीनो में बदलने का स्वागत किया है ? आख़िर आज के उत्साह का सामाजिक मनोवैज्ञानिक विश्लेषण कैसे किया जाए । बदनाम आईपीएल के कारण पेप्सी की ब्रांड चिन्ता की तमाम ख़बरें पत्रकारीय अय्याशी के अलावा कुछ नहीं लग रहीं । हो सकता है ये मेरी अतिप्रतिक्रिया हो । 

हम सबसे अच्छी समझ श्रीनिवासन की निकली । तमाम टेलीविजनीय नारेबाज़ी के बीच आकर कह दिया कि कुछ इस्तीफ़ा विस्ताफा नहीं दूँगा । कर लो जो करना है । भ्रष्टाचार सिर्फ पकड़े जाने पर मुद्दा है । किये जाने तक कोई मुद्दा नहीं है । मैक्स के एंकर ऐसे सजकर आये हैं जैसे कुछ हुआ ही नहीं । ऐसा लगता है कि लोगों ने मीडिया की नारेबाज़ियों और रिपोर्टिंग को ही झूठा क़रार दे दिया है । मैच शुरू हो चुका है । आज के मैच पर कोई क्रिकेटप्रेमी फेसबुकीय विश्लेषण से आगे जाकर टिपप्णी करे तो तो देखना चाहूँगा कि कैसे हम इतनी आसानी से खेल के प्रेम और खेल में भ्रष्टाचार को अलग कर लेते हैं । अगले हफ़्ते एक आँकड़ा ये भी आएगा कि आईपीएल फ़ाइनल को इस बार सबसे अधिक दर्शकों ने देखा और इसे बंद कराने वाले अभियानी चैनलों को भी खूब टीआरपी मिली । अंत में तमाशा ही जीता । मीडिया तमाशा है ।  

और हाँ अगर धोनी जीत गए तो वही मीडिया इनके क़सीदे भी पढ़ेगा कि इतने विवाद के बीच मिस्टर कूल ने टीम को संभाले रखा । ये होती है लीडरशिप  । फिर धोनी आईआईएम और हावर्ड में लेक्चर भी देंगे । सीएसके को आईपीएल से बाहर की मांग करने वाले लोग बेटिंग को विधिसम्मत बनाने की बहस में खो जायेंगे । आप देख रहे थे रागदरबारी का आईपीएल संस्करण । सब हो रहा है जैसे सब होने के लिए निर्धारित है । सब अपने अपने हिस्से में हुआ जा रहा है । सत्य न विजयी है न झूठ पराजित । तमाशा है और तमाशा दोनों का होता है । सत्य का भी असत्य का भी । 

( ये छोटी सी निराशा थी जो साझा किया । स्टेटस लिखना अगर सामाजिक ज़िम्मेदारी है तो ये भी है ) 


लभ इन बर्लिन वाया रभीस कुमार


बर्लिन के कनाट प्लेस यानी अलेक्जेंद्रप्लात्ज की तरफ़ बढ़ते इस जोड़ी की घुड़चढ़ी देख मन पुलकित हो गया । हमारे साहित्य और मूर्तिकला में प्रेम चाहे जितना हो सार्वजनिक अभिव्यक्तियाँ कम हैं । हम ताकाझांकी खूब करते हैं । इस उम्र में अपनी दोस्त प्रेमिका अथवा पत्नी को पीठ पर लादे चला जा रहा यह प्रेमी कमाल का लगा । कोई शर्त लग गई होगी या दिल्लगी का इरादा कर लिया गया होगा । हमारे यहाँ के पति और प्रेमी अपनी पत्नी या प्रेमिका का पर्स ही उठा लें तो लाज के मारे नज़र दौड़ाने लगेंगे कि कोई दोस्त न देख ले । पीठ पर उठाने की बात तो दूर । हाँ नालायक सब होली मे ज़रूर उठाने का मौक़ा तलाशते रहते हैं । इसीलिए हमारे यहां ऐसे दृश्य की मान्यता सिर्फ श्रवण कुमार टाइप केस में मिली है । जैसा कि आप इस तस्वीर में देखेंगे कि कोई इनकी घुड़दौड़ ये हैरान नहीं है । एक मै ही बिहारी इन बर्लिन हूँ जो ऐसे पलों की तस्वीरें उतार रहा हू । बेहूदा नंबर वन कहीं का । 



ऐसा नहीं कि बर्लिन में सब अच्छा ही है । बेहद ख़ूबसूरत शहर में भी लड़कियों को रात अपनी करने के लिए सामूहिक दौड़ लगाना पड़ती है । दिन के स्पेस में औरतों को लेकर ऐसा कोई भेदभाव तो नज़र नहीं आया मगर एक अपार्टमेंट के कोने में लगे इस पोस्टर से दिमाग़ ठिठक गया । दिल्ली की याद आ गई । कुलमिलाकर औरतों की दो बड़ी समस्याएँ हैं । एक मर्द और दूसरी रात । 

कुछ मित्रों ने ताकीद की थी कि बर्लिन का बीयर चख के आ जाना । ऐसे जैसे गंगोत्री से बीयर निकलती हो । लेकिन शहर आया तो एक कोने में सुबह सुबह बोतल हाथ में लिये नशे में धुत एक लड़की को चीख़ते चिल्लाते और रोते देख मन दुखी हो गया । रात के नशे ने उसे दिन के उजाले में बिखेर दिया था । लोग बची हुई बीयर सड़क किनारे भिखारियों को दे जाते है । वे भी रात भर टुन्न । कई पोस्टर नज़र आए जो ड्राईवर शराब पीये था मोड में लगे थे । अपनी सीमा को जानों इन पोस्टरों का मूल भाव था । शराबखोरी वहाँ एक समस्या है । 


शहर के खंभों पर छोटे छोटे स्ट्रीकर चिपके मिले । मतलब तो समझा नहीं पर बर्लिन की गुप्त गलियों को क़िस्सों की झलक मिली । शहर की लोकसंस्कृति भी खूब फलफूल रही है । कुछ मज़ाहिया तो कुछ बंगाली बाबाओं टाइप स्ट्रीकर चिपके दिखे । यह स्ट्रीकर किसी प्ले का लगा । 

ये तस्वीर एक रेस्त्रां के दो दरवाज़ों की है । पता बताने के संकेतों को लेकर दुनिया इतनी प्रयोगधर्मी है जानकर अच्छा लगा । 



एक सुबह किसी फ़ोटोग्राफ़ी स्कूल के छात्र शहर की वास्तुकला को उतारते दिख गए । जिज्ञासावश निकट जाकर पूछा तो बताया कि ये एनालाग कैमरा है । छात्रों ने बताया कि  इमारतों की मुकम्मल तस्वीर लेने में इसका आज भी कोई सानी नहीं है । हमारे यहाँ काँठ के बक्से में यह कैमरा कचहरियों के बाहर दिखता है । तकनीकि कैसे कैसे चुपचाप लौट रही है । 


ऐसी आँखें तो होती नहीं मगर औरतों के लिए टोपी की इस दुकान में गर्दनकट यह प्रतिमा अच्छी लगी । अजीब भाव है । तमाम लड़कियाँ दोस्त हैं मगर किसी को ऐसे प्लास्टिक की तरह देखते नहीं देखा । ज़रा नज़रों से कह दो जी ये गाना गूँजने लगा ।

इसे देख अपने राजकपूर की याद आ गई । राजकपूर ने इतना रपेटा कि अब लगता है यही लोग राजकपूर की नक़ल कर रहे हैं । 


साइकिल का समाज

साइकिल पर बहुत पहले अपने पूर्व सहयोगी अनवर की कमाल की स्टोरी पढ़ी थी । यूरोप के किसी शहर से की गई थी । पब्लिक ट्रांसपोर्ट की संस्कृति में अनायास ही दिलचस्पी पैदा होती चली गई । हमने साइकिल सीखी साइकिल चलाने के लिए नहीं बल्कि दिखाने के लिए कि साइकिल के बाद जल्दी ही बाइक और उसके बाद कार चलायेंगे । साइकिल हमारे लिए कुंठा की सीढ़ी है जिससे आज़ाद होने के तरह तरह के सपने देखते रहते हैं । विज्ञापनों में कार सपना है साइकिल नहीं । इसीलिए हम बड़े होकर साइकिल नहीं चलाते । हमारे शहर साइकिल विहीन लगते हैं । फ़िल्मों ने ज़रूर शुरू में साइकिल को महिमामंडित किया( मैं चली मैं चली देखो प्यार की गली) 
( इस साइकिल को टेप से लपेट दिया गया है ताकि चोरी करने वाले को आसानी से हाथ न लगे । बीच सड़क पर कोई बाँध कर कहीं चला गया होगा) 

भारत में आज भी साइकिल सरकारी उपकार की योजनाओं, मेहनतकश लोगों के इस्तमाल में आती है । सरकारों ने साइकिलें बाँट दी लेकिन ये हमारी संस्कृति का हिस्सा बनी रह जाए इसके लिए सड़क पर कोई इंतज़ाम नहीं किया । हमारे शहर बनते चले गए । अपने आप होने वाली जैविक क्रियाओं की बदौलत । बहुत बाद में यूरोप घूमने वाले नेताओं और अफ़सरों ने वहाँ की सड़कों से साइकिल किराये की योजना तो ले आये लेकिन रोज़ाना अपने दफ्तर के पीछे देखता हूँ तमाम साइकिलें स्टैंड से बंधी लेरूआई हुई निढाल पड़ी हैं । शायद ही कोई चलाता है । 



बर्लिन में ऐसा नहीं दिखा । साइकिल उनके जीवन का हिस्सा है । साथ चल रहीं मानसी ने बताया कि यहाँ साइकिल पुलिस होती है । जो सुनिश्चित करती है कि साइकिल ट्रैक ख़ाली रहे उस पर कोई न जाए । साइकिल ट्रैक पूरी तरह से समतल और ग़ज़ब तरीके से मेट्रो और ट्राम से संयोजित । हिन्दुस्तान में बिना साइकिल को मेट्रो के कोच में लाने की अनुमति दिये कैसे मान सकते हैं कि इससे लोकपरिवहन जनसंस्कृति फैलेगी । आप आराम से साइकिल लेकर मेट्रो के एक ख़ास कोच में जा सकते हैं । ट्राम में चल सकते हैं । किसी को साइकिल से परेशान और शर्मिंदा होते नहीं देखा । हमारी तरह साइकिल का मतलब नहीं कि आप बाक़ी परिवहन की योजनाओं से काट दिये गए हैं । आपको सड़क पर जगह जगह साइकिल स्टैंड दिख जायेंगे । 








कुछ बातें और । बर्लिन में साइकिल वही नहीं चलाते जिनका सपना कार ख़रीदना है । वे भी चलाते हैं जिनके पास कार है । बड़ी तादाद में माँओं को साइकिल चलाते देखा । पीछे की सीट पर ऊँची बेबी
सीट पर बच्चे सीट बेल्ट से मज़बूती से बँधे हुए । साइकिल के आगे और पीछे नाना प्रकार से इस्तमाल होने वाले बेहतरीन बास्केट नज़र आए । ऐसा लग रहा था कि साइकिल उनके लिए फ़ैशन स्टेटमेंट है । वहां की साइकिलों को लेकर जो शोध और विकास की प्रक्रिया है उसके नतीजे में साइकिल में तरह तरह के गैजेट दिखते हैं । हमने भी किया है । कीचड़ के छींटे से बचने के लिए रबर के फ्लैप बनाए । वहां की साइकिलों में मडगार्ड के नीचे पांक रोकने वाला नहीं दिखा । खैर हम पहले फुटपाथ ही बना ले वही बहुत है । 



बर्लिन की एक बस

बर्लिन की सड़क पर यह बस दिख गई । रंग और रूप में इतनी ख़ूबसूरत लगी कि रहा नहीं गया । पूछताछ करने लगा और निहारने लगा । गाढ़ा पीला रंग और ह्रष्ट पुष्ट बस बाहर से किसी अमरीकी स्कूल बस की तरह दिखने का दावा कर रही थी । रेट्रो लुक । अंदर गया तो स्कूल बस के भेष में पार्टी बस नज़र आई । बार, डाँस फ़्लोर और चलती बस में पीने और यारबाज़ी का सारा इंतज़ाम । टूटी फूटी अंग्रेज़ी में जर्मन चालक ने बताया कि बस रात भर के लिए बुक होती है । रात भर पार्टी होती है । हम तो दिल्ली में बस, रात और पार्टी के नाम से ही सिहर जाते हैं लेकिन अच्छा लगा देखकर कि एक शहर को अपनी संस्कृति के निर्माण के लिए कितने जतन करने पड़ते हैं । सोच रहा था कि कोई ऐसा इंतज़ाम हमारे यहाँ भी करता । रात भर दोस्तों का मजमा,कुछ कविता कुछ फ़िल्में  और ढेर सारी बातें । फ़िलहाल इस बस को आप भी निहारिये । नंबर प्लेट के नीचे डब्ल्यू डब्ल्यू डाँट काम देख कर हैरान मत हो जाइयेगा । यही अब पता है और नंबर है ।