न्यूज़ चैनलों ने ज्योतिषियों को बदल दिया है। उनके मुंड से बाल ग़ायब कर दिये गए हैं। बेलमुंड हो गए हैं। आंखें ऐसी भंगिमा बनाती है जैसे मालूम पड़ता है कि रे मूर्ख घर निकलने से पहले चैनल देखता जा। एक चैनल का ज्योतिष महाकाल डॉन लगता है। कहता है कि तेरा कल्याण नहीं होगा अगर तूने बेडरूम में गुलाब के फूल नहीं रखे। फिर हंसता है फूल रख देना मैरिज एनिवर्सरी ठीक हो जाएगी। बाप रे। लगता है ज्योतिष वर्ग में भी टीआरपी को लेकर मार मच गई है। तभी ज्योतिषियों का हुलिया बदला जा रहा है। शुरूआत में साधारण साधु सन्यासी आए। बता गए कि कर्क राशि वालों आज ये होगा। मकर वालों दफ्तर में बास से मत झगड़ना परंतु बीबी को धमका देना। उसके बाद एक दौर आया महिला ज्योतिषियों का। ये महिला ज्योतिष सिर्फ कार्ड के ज़रिये भविष्यवाणी करती हैं। लगता है मर्द ज्योतिषियों का अभी भी शास्त्र कालगणना पर एकाधिकार बना हुआ है। इन मुस्कुराती चेहरों से टपकती आशंकाएं किसी ख़ूबसूरत समाचार की तरह नज़र आती है। आज आपका दिन अच्छा रहेगा। कहते ही महिला भविष्यवक्ता की आंखों की चमक और मुस्कुराहट राहत देती है। मुश्किल है मगर बच जाएंगे। इतने यकीन से कोई महिला कह दे तो कौन मर्द माई का लाल इस पर यकीन न करे।
नए अवतार में ज्योतिषी खूंखार हो गए हैं। रंगीन पापी संयासी भी लगते बेलमुंड भविष्यवक्ता नकली मोतियों के हार से लदे होते हैं। रामलीला से रावण का लिबास ले आए हैं। उन्हें पहन कर चिंघाड़ते हैं। चश्मे का फ्रेम बदला है। ज्योतिषी बदल गए हैं। वो राज ज्योतिषी जैसे लगने की कोशिश करते हैं मगर दिखते हैं काल ज्योतिषी की मानिंद। बच्चों जान बचाकर और दिल थाम कर इनकी आशंकाओं को सुनना। वर्ना आज का दिन तो खराब होगा ही आने वाला भी ख़राब हो जाएगा।
संदेश की गारंटी
भारत एक संदेश प्रधान देश है। हर संदेश कुछ कहता है। करता यही है कि अगले संदेश से पिछले संदेश को मिटा देता है। संदेशों के इस मुल्क में मगज़ की मेमरी चीप का स्पेस इतना भर जाता है कि आप डिलिट मारने लगते हैं। इन संदेशों के भी कई वर्ग हैं। एक संदेश वो है जो अखिल और अखंड भारतीय है। एक संदेश वो है जो पारिवारिक और स्थानिक है। एक संदेश वो है जो गुप्त है। आदि आदि। फ़ैशन के इस दौर में संदेश देती यह पट्टी भी कुछ कह रही है। पढ़िये और भुला दीजिए। फ़ैशन है ही भुला देने की चीज़। वरना नये फैशन का ज़माना कब आएगा।
गोवा किसका- परशुराम, लोहिया या शोभराज का
यह तस्वीर इन दिनों ब्राह्मणों के राजनीतिक प्रतीक परशुराम की है। परशुराम का ज़िक्र तुलसीदास के रामायण में भी है। जहां राम के धनुष तोड़ने पर परशुराम नाराज़ हो जाते है। राम तो चुप रहते हैं लेकिन लक्ष्मण और परशुराम के बीच जमकर संवाद होता है। रामलीला में देखा गया यह दृश्य आज भी याद है। लक्ष्मण का हर संवाद परशुराम पर भारी पड़ता है। श्रुति परंपरा के अनुसार परशुराम क्षत्रिय संहारक माने गए हैं। तमाम तरह के पूजनीय ईश्वर तो सभी जातियों के रहे हैं लेकिन ब्राह्मणों ने बहुत दिनों बाद परशुराम को अपना प्रतिनिधि प्रतीक बनाया है। उत्तर प्रदेश और मध्यप्रदेश में परशुराम जयंती की परंपरा और इस दिन सार्वजनिक अवकाश की मांग हर साल सुनाई देती है। इतनी भूमिका इसलिए कि पूरे प्रसंग में इस बात का ज़िक्र नहीं आता कि परशुराम गोवा के संस्थापक हैं।
गोवा गया था। दक्षिण गोवा में बिग फूट नाम का एक सरकारी संग्रहालय है। यहां पर परशुराम की प्रतिमा लगी है। प्रवेश द्वार पर ही। नज़र पड़ते ही गाइड से पूछा कि भई धनुर्धर कौन हैं? जवाब मिला परशुराम। गोवा के संस्थापक। सह्याद्री के पहाड़ों में तप करते वक्त परशुराम ने तीर चला दिया। अरब सागर में तीर गिरते ही सागर का पानी पीछे हट गया और यहां धरती निकल आई। इसी भूखंड पर गोवा बसा है। मेरी आंखे खुली रह गईं। परशुराम ने तीर क्यों चलाई? क्या उनके निशाने पर कोई आदिम अरब था या यवन था? पता नहीं। फिर परशुराम को लेकर ब्राह्मण उत्तर प्रदेश और मध्यप्रदेश में ही क्यों सक्रिय हैं? काश यहां परशुराम ने तीर चला दिया होता तो बिहार और उत्तर प्रदेश के बाढ़ग्रस्त भूखंड पर गोवा जैसा रमणिक स्थल बन जाता। कहीं ऐसा तो नहीं कि यह प्रतिमा एक चिंगारी के रूप में यहां रखी गई है जो आने वाले किसी समय में भड़केगी। जब यह मांग होगी कि गोवा के फर्नांडिस, रोड्रिग्स और डिसूजा अपना नाम बदल कर शर्मा, पांडेय और मिश्रा रख लें। ख़ैर आशंका में अभी से क्यों मरें। बात इतनी सी है कि बड़ी हैरानी हुई।
यह तस्वीर गोवा की है। राममनोहर लोहिया की। फूल माला से लदी उनकी प्रतिमा। मुख्यमंत्री और मंत्री चढ़ा गए थे। दिन था १८ जून। गोवा हर साल १८ जून को गोवा क्रांति दिवस मनाता है। प्रतिमा के बाहर लिखी इबारत के अनुसार १८ जून १९४६ को युवा राम मनोहर लोहिया ने पुर्तगाली शासन के खिलाफ आज़ादी का नारा दिया था। हज़ारों गोवन की भीड़ जमा हो गई थी। भारत छोड़ो आंदोलन में हुई गिरफ्तारी के बाद लोहिया गोवा आए थे। अपने मित्र के यहां आराम करने। इतिहासकारों ने आज़ादी की लड़ाई में शामिल नेताओं के जीवन के दूसरे पहलुओं का अध्ययन नहीं किया है। इतने सघन संघर्ष में भी लोहिया गोवा पहुंचे थे आराम करने। मैं कुछ देर तक विस्मय से सोचता रहा। ख़ैर। ठीक १८ जून से एक दिन पहले १७ जून २००८ को समाजवादी पार्टी के महासचिव अमर सिंह ने इंडियन एक्सप्रैस में एक लेख लिखा। जिसमें अमर सिंह ने तमाम मनमुटावों को भुला कर कांग्रेस का साथ देने की दलील दी थी। लोहिया गैर कांग्रेसवाद के किसान नेता रहे हैं। मुलायम सिंह ख़ुद को लोहिया का चेला बताते हैं। लेकिन उत्तर प्रदेश में जन्मे राममनोहर लोहिया के नाम पर इस देश में कहीं सरकारी कार्यक्रम मनता है तो वह गोवा है। खुद उत्तर प्रदेश में सरकार बदलते ही लोहिया मैदान अंबेडकर मैदान हो जाता है। ख़ैर गोवा के इस सरकारी समारोह में मुलायम या अमर की मौजूदगी नहीं थी। विडंबना देखिये कि अमर सिंह कांग्रेस से रिश्ता तलाश रहे थे और गोवा में कांग्रेस के मुख्यमंत्री दिगंबर कामत लोहिया की प्रतिमा पर फूल माला चढ़ा रहे थे। उत्तर प्रदेश में शायद ही कोई कांग्रेसी नेता ऐसा कर दे।
यह तस्वीर भी गोवा की ही है। यहां एक मशहूर रेस्त्रां हैं। ओ कोकेरो। चिकन कफ्रील के लिए मशहूर है। लेकिन ओ कोकेरो में यह प्रतिमा चार्ल्स शोभराज की है। ओ कोकेरो के लिए चार्ल्स गुरमुख शोभराज ही इतिहास पुरुष हैं। क्योंकि इसी जगह पर इंस्पेक्टर झेण्डे ने शोभराज को गिरफ्तार किया था। शोभराज का यह बुत संगमरमर का है। बिल्कुल बेदाग़ सफ़ेद। कलाई में ज़जीर है। वैसे यहां शोभराज को रस्सी से बांधा गया था। और हाथ में होटल का मेन्यु ही होगा क्योंकि शोभराज खाने का बड़ा शौकिन था। हां इस प्रतिमा में आप शोभराज का काला जूता देख सकते हैं। यह संगमरमर का नहीं है बल्कि असली जूता है। शायद होटल वाले को लगा होगा कि शोभराज की तरह उसका बुत भी फ़रार हो सकता है। यहां पर शोभराज के अपराधों का मेन्यु कार्ड भी रखा है। बत्तीस हत्याओं का आरोपी नेपाल की जेल में उम्र क़ैद की सज़ा काट रहा है। और यहां गोवा में खुले आसमान के नीचे बुत बन कर शानदार व्यंजनों का रसास्वादन कर रहा है। इन तीन प्रतिमाओं के ज़रिये गोवा की कथा कुछ रोचक बनने लगी। अलग अलग जगहों पर कायम ये बुत हैं तो एक ही शहर में। एक ही शहर की पहचान बनाते हुए।
विज्ञापन की जलन
सीने में जलन, आंखों में तूफ़ान सा क्यों है
इस शहर में हर शख़्स विज्ञापन सा क्यों हैं
क्या कोई बात नज़र आती है हम सबमें
अपनी हर बात पर अपनी ही दाद क्यों हैं?
इस शहर में हर शख़्स विज्ञापन सा क्यों हैं
क्या कोई बात नज़र आती है हम सबमें
अपनी हर बात पर अपनी ही दाद क्यों हैं?
भुट्टे का नयाअवतारम
आजकल मेट्रोजहां में भुट्टा कोयले की आग और लोहे की जाली पर तपने के बाद दस रुपये में नहीं बिकता। गांव में तो दो रुपये का बिकता है। मेट्रोमॉल में भुट्टा उबल कर कार्न नाम से बिकता है। चाय की कप में बटर और मसाले के साथ मिलता है। बीस रुपये में। ग़ाज़ियाबाद के वैशाली में मेट्रो भुट्टे का फुटपाथी संस्करण लांच हो गया है। ठेले पर उबला हुआ भुट्टा मिलने लगा है। अब ये भी समझ गए हैं कि कोई जलभुनने के बाद भुट्टे को पसंद नहीं करता। जला भुना तो वह है ही। इसलिए उबले हुए का ज़माना है।
मीडिया एक अच्छा बच्चा
दो तरह के अच्छे बच्चे होते हैं। एक अच्छा बच्चा वह होता है जो डांट सुन कर दुबारा ग़लती न करने का फ़ैसला कर लेता है। एक अच्छा बच्चा वो होता है जो डांट पड़ते वक्त इस तरह बर्ताव करता है जैसे उसने अपनी ग़लती से सबक सीख ली हो। लेकिन डांटने वाले के हटते ही वो फिर से उसी पुराने काम को करने लगता है। यही हाल मीडिया का है।
गुरुवार दिनांक १२ जून २००८ को सीबीआई के निदेशक ने मीडिया को बुलाया और कहा कि सीबीआई यह करती रहेगी कि हमेशा मीडिया को उसकी सीमा की याद दिला दिया करेगी। यह वही सीबीआई है जिसके ख़िलाफ बोल बोल कर कितने पत्रकारों ने अफसरों की नींद उड़ा दी। आज इसी सीबीआई के प्रमुख ने जब मीडिया को नसीहत दी तो दूसरे अच्छे बच्चे की तरह बात मान ली गई। किसी ने इस पर नहीं सोचा कि यह कैसा दौर आ गया जिसमें हर कोई मीडिया को गरिया रहा है। लतिया रहा है। और मीडिया उसे गले लगा रहा है। गले नहीं लगा रहा बल्कि इग्नोर कर रहा है। दरकिनार।
कहीं मीडिया को जीवन का सार तो नहीं मिल गया। आलोचना होती रहेगी और ज़िंदगी चलती रहेगी का सार। यूपीए सरकार के आते ही मीडिया का यह भटकाव और बढ़ा। इस काल में मंत्री से लेकर अफसर तक मौज कर रहे हैं। जिस स्पेस में उनकी करतूतें उजागर की जातीं, उनकी नीति और नीयत पर बहस होती वहां राजू श्रीवास्तव के गजोधरमुखी किरदार ने कब्ज़ा जमा लिया है। वह जब चौकी से उठता है तो राखी सावंत आ जाती है। और जब राखी जाती है तो तरह तरह के पंडे, पंडित और पाखंडी आ जाते हैं।एनडीए काल में मीडिया ने सेक्युलर राजनीति का साथ साथ देते देते इसके नाम पर ख़ुद का राजनीतिकरण कर लिया। बल्कि अब तो बीजेपी के बड़े नेता भी मीडिया को गरियाने लगे हैं। राजनीतिक दलों ने मीडिया से ख़बरदार रहना बंद कर दिया है।
और तो और यूपीए के मंत्री प्रियरंजन दास मुंशी हर दिन मीडिया को भाषण देते हैं। अभी तक मीडिया सूचना प्रसारण मंत्रियों को शक की निगाह से देखता था। उसके हर कदम की पैनी आलोचना करता और बताता कि मंत्री चौथे खंभे पर बरसाती डालना चाह रहे हैं।मगर अब आए दिन मंत्री जी मीडिया को बुलाते हैं और भाषण देते हैं।मीडिया के लोग सुन कर चले आते हैं। उनको सुनाने के बाद मंत्री जी सभाओं और सेमिनारों में मीडिया को सुधरने की सलाह और चेतावनी देने लगते हैं।
लेकिन इस लेख के दूसरे अच्छे बच्चे की तरह मीडिया चुपचाप डांट सुन लेता है और फिर वही करता है जो उसे करना है। बिना इस बात के परेशान हुए कि जिस अफसर और मंत्री को वो रास्ता बताता रहा अब वही उसे रास्ता बता रहे हैं।मुझे लगता है कि अब सूचना प्रसारण मंत्रालय की भी ज़रूरत नहीं रही। इसके मंत्री भी अख़बारों में छपने वाले टीवी के साप्ताहिक आलोचकों की तरह बकने लगे हैं। क्यों नहीं सूचना प्रसारण मंत्रालय का नाम ही बदल दें। टीआरपी मंत्रालय। राजनेता हमें हमारी भूमिका की याद दिलायें इससे बड़ी सेवा कोई राजनेता नहीं कर सकता। अब तक मीडिया राजनेता को उसकी ज़िम्मेदारी की याद दिलाता था। वजह साफ है कि डांट सुनने वाला अच्छा बच्चा जानता है कि ग़लती तो की ही है। डांट तो पड़ेगी ही। वरना कोई उठकर कह नहीं देता कि मंत्री जी चुप रहो। हमें हमारा काम मत बताओ।
गुरुवार दिनांक १२ जून २००८ को सीबीआई के निदेशक ने मीडिया को बुलाया और कहा कि सीबीआई यह करती रहेगी कि हमेशा मीडिया को उसकी सीमा की याद दिला दिया करेगी। यह वही सीबीआई है जिसके ख़िलाफ बोल बोल कर कितने पत्रकारों ने अफसरों की नींद उड़ा दी। आज इसी सीबीआई के प्रमुख ने जब मीडिया को नसीहत दी तो दूसरे अच्छे बच्चे की तरह बात मान ली गई। किसी ने इस पर नहीं सोचा कि यह कैसा दौर आ गया जिसमें हर कोई मीडिया को गरिया रहा है। लतिया रहा है। और मीडिया उसे गले लगा रहा है। गले नहीं लगा रहा बल्कि इग्नोर कर रहा है। दरकिनार।
कहीं मीडिया को जीवन का सार तो नहीं मिल गया। आलोचना होती रहेगी और ज़िंदगी चलती रहेगी का सार। यूपीए सरकार के आते ही मीडिया का यह भटकाव और बढ़ा। इस काल में मंत्री से लेकर अफसर तक मौज कर रहे हैं। जिस स्पेस में उनकी करतूतें उजागर की जातीं, उनकी नीति और नीयत पर बहस होती वहां राजू श्रीवास्तव के गजोधरमुखी किरदार ने कब्ज़ा जमा लिया है। वह जब चौकी से उठता है तो राखी सावंत आ जाती है। और जब राखी जाती है तो तरह तरह के पंडे, पंडित और पाखंडी आ जाते हैं।एनडीए काल में मीडिया ने सेक्युलर राजनीति का साथ साथ देते देते इसके नाम पर ख़ुद का राजनीतिकरण कर लिया। बल्कि अब तो बीजेपी के बड़े नेता भी मीडिया को गरियाने लगे हैं। राजनीतिक दलों ने मीडिया से ख़बरदार रहना बंद कर दिया है।
और तो और यूपीए के मंत्री प्रियरंजन दास मुंशी हर दिन मीडिया को भाषण देते हैं। अभी तक मीडिया सूचना प्रसारण मंत्रियों को शक की निगाह से देखता था। उसके हर कदम की पैनी आलोचना करता और बताता कि मंत्री चौथे खंभे पर बरसाती डालना चाह रहे हैं।मगर अब आए दिन मंत्री जी मीडिया को बुलाते हैं और भाषण देते हैं।मीडिया के लोग सुन कर चले आते हैं। उनको सुनाने के बाद मंत्री जी सभाओं और सेमिनारों में मीडिया को सुधरने की सलाह और चेतावनी देने लगते हैं।
लेकिन इस लेख के दूसरे अच्छे बच्चे की तरह मीडिया चुपचाप डांट सुन लेता है और फिर वही करता है जो उसे करना है। बिना इस बात के परेशान हुए कि जिस अफसर और मंत्री को वो रास्ता बताता रहा अब वही उसे रास्ता बता रहे हैं।मुझे लगता है कि अब सूचना प्रसारण मंत्रालय की भी ज़रूरत नहीं रही। इसके मंत्री भी अख़बारों में छपने वाले टीवी के साप्ताहिक आलोचकों की तरह बकने लगे हैं। क्यों नहीं सूचना प्रसारण मंत्रालय का नाम ही बदल दें। टीआरपी मंत्रालय। राजनेता हमें हमारी भूमिका की याद दिलायें इससे बड़ी सेवा कोई राजनेता नहीं कर सकता। अब तक मीडिया राजनेता को उसकी ज़िम्मेदारी की याद दिलाता था। वजह साफ है कि डांट सुनने वाला अच्छा बच्चा जानता है कि ग़लती तो की ही है। डांट तो पड़ेगी ही। वरना कोई उठकर कह नहीं देता कि मंत्री जी चुप रहो। हमें हमारा काम मत बताओ।
इस मार्ग के प्रायोजक हैं वोडाफोन
दिल्ली से जालंधर जा रहा था। सोनीपत पहुंचते ही अहसास हो गया कि मुझे जो कुछ भी दिख रहा है उसमें कुछ चीज़ हैं जो बार बार दिख रही हैं। सफ़र के दौरान और अगले किसी शहर या उससे पहले आने वाले ढाबे तक पहुंचने से पहले वो चीज़ पहुंची होती है। यानी फिर नज़र आ जाती है। सड़क मार्ग से यात्रा करना कुछ चुनिंदा विज्ञापनों के साथ ही यात्रा पूरी करने के बराबर हो गया है।
आप कहीं भी नज़र दौड़ाइये। जो भी दिखेगा उसमें वोडाफोन का विज्ञापन ज़रूर दिखेगा। बहुत दूर खेत में हरियाली देखना चाहते हैं तो देखिये। लेकिन इस बात की पूरी गारंटी है कि खेत में खड़े मोबाइल टावर पर भी लाल रंग के बोर्ड पर वोडाफोन लिखा दिखेगा।अगर आप किसी ढाबे पर रुकना चाहते हैं तो बेशक ठहरिये। लेकिन अब अनमोल वैष्णव ढाबा का नाम नज़र नहीं आएगा। ढाबे का नाम वोडाफोन के बोर्ड से छिप गया है। दरवाज़े पर भी वोडाफोन लिखा मिलेगा। सड़क से लगी तमाम दीवारों पर वोडाफोन मिलता है। मतलब साफ है आप वोडाफोन के बोर्ड या होर्डिंग को बिना देखे, दिल्ली से जालंधर तक की कोई भी यात्रा पूरी नहीं कर सकते हैं।
इस बार के सफर में यह ख्याल आते ही मैं गौर करने लगा। देखने लगा कि हाईवे के दोनों तरफ किस तरह के विज्ञापनों का राज है। जल्दी है स्थिति साफ हो गई। खेत, सड़क, ढाबा और दीवार पर वोडाफोन को अगर कोई टक्कर देता है तो वो है- एयरटेल का बिलबोर्ड। बीच बीच में टाटा और सेल वन की होर्डिग याद दिलाते हैं कि भई हम भी हैं। हमें मत भूलिये या फिर आप वोडाफोन और एयर टेल को देख देख कर ऊब गए हों तो हमें भी देखिये। मोबाइल कंपनियों ने किस रणनीति के तहत हाईवे पर कब्ज़ा किया है पता नहीं। सरकार को भी नहीं दिखता कि इतने होर्डिग की वजह से दुर्घटना हो सकती है। किसी का ध्यान बंट सकता है।
मोबाइल कंपनियों के बाद नंबर आता है कोका कोला और पेप्सी का। यहां भी कोका कोला की मौजदूगी वोडाफोन की तर्ज पर सर्वाधिक है। हर दरो-दीवार पर कोका कोला का विज्ञापन दिखता है। पेप्सी का विज्ञापन टाटा और सेल वन के विज्ञापन की तरह कभी कभी आता है। साफ्ट ड्रिंक के विज्ञापनों ने ढाबों को अपना निशाना बनाया है। मोबाइल कंपनियों से भी ज़्यादा संख्या में ढाबे के बोर्ड और दीवार पर साफ्ट ड्रिंक यानी कोका कोला के विज्ञापन का राज है। इसके अलावा सीमेंट कंपनियों के विज्ञापनों का भी अच्छा खासा दबदबा है। अल्ट्रा टेक, बुलंद सीमेंट और जे के सीमेंट का विज्ञापन भी बार बार आता है। मोबाइल और साफ्ट ड्रिंक कंपनियों से खाली बचे जगह पर इनका ही कब्जा है। बुलंद भारत की तस्वीर पेश करते सीमेंट के ये विज्ञापन चमकते रहते हैं। सफर में आइडिया देते रहते हैं कि घर पहुंच कर बाथरूम की रिपेयरिंग अमुक शक्तिशाली सीमेंट से करवाऊंगा।
बीच बीच की दीवारों में मर्दाना कमजोरी का अचूक ईलाज करने वाले हकीम हसन और रहमत खान का भी नाम आता है। पेट्रोल पंप के नज़दीक आते ही मोबील कंपनियों के विज्ञापन शुरू हो जाते हैं। एक्स्ट्रा माइल, टब्रोजेट आदि के विज्ञापन। और जैसे ही कोई शहर आता है बैटरी के विज्ञापनों की अचानक बाढ़ आ जाती है। एक्साइ़ड बैटरी, बेस बैटरी और तेज़ बैटरी के विज्ञापन दिखे। सड़कों की हालत बेहतर होने से स्प्रिंग के विज्ञापन कम दिखते हैं। इक्का दुक्का ही।
अगर आपने शराब के विज्ञापन न देखें तो मेरा चैलेंज है कि कोई सफर पूरा हो ही नहीं सकता। ठेका शराब देसी या ठेका देसी शराब। हाईवे पर शराब की दुकानों का कब्जा हो चुका है। बीच बीच में शराब पीकर गाड़ी न चलाने का सरकारी विज्ञापन मज़ाक की तरह लगता है। सरकार को इतनी ही चिंता है तो इन दुकानों का ठिकाना बदल दे। बीच सड़क पर शराब उपलब्ध करा कर सफर में झूमने की तमाम सुविधाएं आसान हैं। ब्लेंडर्स प्राइड,किंगफिशर बीयर,ठंडी बीयर,शार्क टूथ,रायल चैलेंज,मैक्डोवल के विज्ञापनों की मार मची है।
इन सब का मतलब क्या निकाला जाए। क्या आप यह जानने के लिए हाईवे पर सफ़र करते हैं कि शराब,सीमेंट,मोबाइल और मोबील के कौन से नए ब्रांड बाज़ार में आ गए हैं। वैसे ज़्यादातर ब्रांड पुराने ही होते हैं। जिनका आप हाईवे पर आने से पहले शहर में कर चुके होते हैं। जो भी हो हाईवे पर सफर करने का रोमांच ख़त्म हो रहा है। ऐसा लगता है कि आप विज्ञापनों की तलाश में निकले हैं। दिल्ली से जालंधर पहुंच जाइये। कोई भी शहर या कस्बा एक दूसरे अलग नहीं लगेगा। हर तरफ इन्हीं कंपनियों के बोर्ड मिलेंगे। लगेगा ही नहीं कि पिछला शहर गुज़र गया है और अगला आ गया है। यही हाल तमाम हाईवे का हो गया है। अतिक्रमण की हद तक ये विज्ञापन हाईवे को घेरे हुए हैं। सरकार को चाहिए अब इनसे पैसे ले। हर हाईवे को प्रायोजित कर दें। यात्रियों के सर से टोल टैक्स का बोझ उतर जाएगा।
आप कहीं भी नज़र दौड़ाइये। जो भी दिखेगा उसमें वोडाफोन का विज्ञापन ज़रूर दिखेगा। बहुत दूर खेत में हरियाली देखना चाहते हैं तो देखिये। लेकिन इस बात की पूरी गारंटी है कि खेत में खड़े मोबाइल टावर पर भी लाल रंग के बोर्ड पर वोडाफोन लिखा दिखेगा।अगर आप किसी ढाबे पर रुकना चाहते हैं तो बेशक ठहरिये। लेकिन अब अनमोल वैष्णव ढाबा का नाम नज़र नहीं आएगा। ढाबे का नाम वोडाफोन के बोर्ड से छिप गया है। दरवाज़े पर भी वोडाफोन लिखा मिलेगा। सड़क से लगी तमाम दीवारों पर वोडाफोन मिलता है। मतलब साफ है आप वोडाफोन के बोर्ड या होर्डिंग को बिना देखे, दिल्ली से जालंधर तक की कोई भी यात्रा पूरी नहीं कर सकते हैं।
इस बार के सफर में यह ख्याल आते ही मैं गौर करने लगा। देखने लगा कि हाईवे के दोनों तरफ किस तरह के विज्ञापनों का राज है। जल्दी है स्थिति साफ हो गई। खेत, सड़क, ढाबा और दीवार पर वोडाफोन को अगर कोई टक्कर देता है तो वो है- एयरटेल का बिलबोर्ड। बीच बीच में टाटा और सेल वन की होर्डिग याद दिलाते हैं कि भई हम भी हैं। हमें मत भूलिये या फिर आप वोडाफोन और एयर टेल को देख देख कर ऊब गए हों तो हमें भी देखिये। मोबाइल कंपनियों ने किस रणनीति के तहत हाईवे पर कब्ज़ा किया है पता नहीं। सरकार को भी नहीं दिखता कि इतने होर्डिग की वजह से दुर्घटना हो सकती है। किसी का ध्यान बंट सकता है।
मोबाइल कंपनियों के बाद नंबर आता है कोका कोला और पेप्सी का। यहां भी कोका कोला की मौजदूगी वोडाफोन की तर्ज पर सर्वाधिक है। हर दरो-दीवार पर कोका कोला का विज्ञापन दिखता है। पेप्सी का विज्ञापन टाटा और सेल वन के विज्ञापन की तरह कभी कभी आता है। साफ्ट ड्रिंक के विज्ञापनों ने ढाबों को अपना निशाना बनाया है। मोबाइल कंपनियों से भी ज़्यादा संख्या में ढाबे के बोर्ड और दीवार पर साफ्ट ड्रिंक यानी कोका कोला के विज्ञापन का राज है। इसके अलावा सीमेंट कंपनियों के विज्ञापनों का भी अच्छा खासा दबदबा है। अल्ट्रा टेक, बुलंद सीमेंट और जे के सीमेंट का विज्ञापन भी बार बार आता है। मोबाइल और साफ्ट ड्रिंक कंपनियों से खाली बचे जगह पर इनका ही कब्जा है। बुलंद भारत की तस्वीर पेश करते सीमेंट के ये विज्ञापन चमकते रहते हैं। सफर में आइडिया देते रहते हैं कि घर पहुंच कर बाथरूम की रिपेयरिंग अमुक शक्तिशाली सीमेंट से करवाऊंगा।
बीच बीच की दीवारों में मर्दाना कमजोरी का अचूक ईलाज करने वाले हकीम हसन और रहमत खान का भी नाम आता है। पेट्रोल पंप के नज़दीक आते ही मोबील कंपनियों के विज्ञापन शुरू हो जाते हैं। एक्स्ट्रा माइल, टब्रोजेट आदि के विज्ञापन। और जैसे ही कोई शहर आता है बैटरी के विज्ञापनों की अचानक बाढ़ आ जाती है। एक्साइ़ड बैटरी, बेस बैटरी और तेज़ बैटरी के विज्ञापन दिखे। सड़कों की हालत बेहतर होने से स्प्रिंग के विज्ञापन कम दिखते हैं। इक्का दुक्का ही।
अगर आपने शराब के विज्ञापन न देखें तो मेरा चैलेंज है कि कोई सफर पूरा हो ही नहीं सकता। ठेका शराब देसी या ठेका देसी शराब। हाईवे पर शराब की दुकानों का कब्जा हो चुका है। बीच बीच में शराब पीकर गाड़ी न चलाने का सरकारी विज्ञापन मज़ाक की तरह लगता है। सरकार को इतनी ही चिंता है तो इन दुकानों का ठिकाना बदल दे। बीच सड़क पर शराब उपलब्ध करा कर सफर में झूमने की तमाम सुविधाएं आसान हैं। ब्लेंडर्स प्राइड,किंगफिशर बीयर,ठंडी बीयर,शार्क टूथ,रायल चैलेंज,मैक्डोवल के विज्ञापनों की मार मची है।
इन सब का मतलब क्या निकाला जाए। क्या आप यह जानने के लिए हाईवे पर सफ़र करते हैं कि शराब,सीमेंट,मोबाइल और मोबील के कौन से नए ब्रांड बाज़ार में आ गए हैं। वैसे ज़्यादातर ब्रांड पुराने ही होते हैं। जिनका आप हाईवे पर आने से पहले शहर में कर चुके होते हैं। जो भी हो हाईवे पर सफर करने का रोमांच ख़त्म हो रहा है। ऐसा लगता है कि आप विज्ञापनों की तलाश में निकले हैं। दिल्ली से जालंधर पहुंच जाइये। कोई भी शहर या कस्बा एक दूसरे अलग नहीं लगेगा। हर तरफ इन्हीं कंपनियों के बोर्ड मिलेंगे। लगेगा ही नहीं कि पिछला शहर गुज़र गया है और अगला आ गया है। यही हाल तमाम हाईवे का हो गया है। अतिक्रमण की हद तक ये विज्ञापन हाईवे को घेरे हुए हैं। सरकार को चाहिए अब इनसे पैसे ले। हर हाईवे को प्रायोजित कर दें। यात्रियों के सर से टोल टैक्स का बोझ उतर जाएगा।
शोक सभा पार्ट-२
उड़न तश्तरी जी ने पूछा है कि कितने विद्यार्थी परीक्षा में बैठे थे। दसवीं में पचीस लाख सत्तर हज़ार के करीब। इसमें से पंद्रह लाख फेल हो गए हैं। इंटर का रिज़ल्ट भी निकला है। इसमें भी पांच लाख विद्यार्थी फेल हुए हैं। इस वक्त उत्तर प्रदेश में कोई बीस लाख विद्यार्थी फेल हो कर घूम रहे हैं। अगर कोई इनकी राजनीति कर ले तो इस मुद्दे के ज़रिये पूरे प्रदेश में एक करोड़ लोगों तक पहुंच जाएगा। हर फेल करने वाले के घर में पांच सदस्य होंगे। गुणा करें तो संख्या एक करोड़ पहुंच जाती है। यानी एक करोड़ लोग इस वक्त शोक में डूबे हैं। इनके लिए न तो कोई हेल्पलाइन है न किसी एनजीओ का बयान।
ख़ैर इंटर के रिज़ल्ट के बाद मैंने अमर उजाला के लिए लेख लिखा था। सिर्फ तृतीय श्रेणी में पास होने वाले विद्यार्थियों का प्रतिशत बढ़ा है। तृतीय श्रेणी में ग्यारह प्रतिशत की वृद्धि दर्ज की गई है। प्रथम और द्वितीय श्रेणी में कमी आई है। लड़कों का पास प्रतिशथ तीस फीसदी कम हो गया है। पिछले साल की तुलना में सिर्फ चौवन फीसदी छात्र पास हुए हैं। लड़कियों का पास प्रतिशत पिछले साल और इस साल भी अस्सी फीसदी के करीब रहा है। यानी चोरी पर सिर्फ लड़के निर्भर है। इस बार चोरी नहीं हुई तो सिर्फ लड़कों का पास प्रतिशत क्यों कम हुआ? लड़कियों का क्यों नहीं? क्या मास्टर लोग सिर्फ लड़कियों को पढ़ाते हैं? या लड़के पढ़ते नहीं है। क्या मां बाप आवारा बेटों को पास कराने के लिए कुछ भी करने के लिए तैयार है। लड़कियों को पीटते होंगे कि खाना भी बनाओ और पास भी करो। यही वजह है कि मजबूरी की मारी हमारी लड़कियां मेहनत के रास्ते से सफल होने लगी हैं। उन्हें मेहनत ही तो करना है। खाना बनाने के बाद थोड़ी और मेहनत कर ली। नकल का समाजशास्त्र लिंग आधार पर तय हो रहा है। शोक सभा के पहले लेख में आगरा के एक पत्रकार ने कहा है कि एटा ज़िले में सिर्फ २२ फीसदी छात्र पास हुए हैं। यह मुलायम सिंह वाला इलाका है। पिछली बार सरकार की थी तो अस्सी फीसदी पास हो गए थे। आज ये सारे मुलायम सिंह को कितना याद कर रहे होंगे।
ज़ाहिर है सवाल सिर्फ शिक्षा व्यवस्था का ही नहीं,मास्टरों की लापरवाही का ही नहीं बल्कि समाज का भी है। जो बेटों को पास कराने के लिए नकल पर पैसे खर्च कर रहा है।निराश होने की ज़रूरत नहीं है। यूपी की बेटियां अपने प्रदेश का ख्याल रख लेंगी।मैं मायावती की तारीफ नहीं कर रहा बल्कि अस्सी फीसदी पास प्रतिशत वाली बेटियों की कर रहा हूं। इन ईमानदार बेटियों की कामयाबी पर आइये हम सब खड़े होकर सलामी दें। और दुनिया को बतायें कि देखा हमरे यूपी की बेटियां चोरी से पास नहीं होती है। इस बार नकल नहीं हुई तब भी वो पास हुई हैं। पिछली बार भी अस्सी फीसदी। इस बार भी अस्सी फीसदी।
उम्मीद की किरण दिख गई यहां।
तो एलान यह किया जाता है कि यूपी की सामाजिक और शिक्षा प्रणाली की मौत पर होने वाली शोक सभा में सिर्फ बेटे बुलायें जाएंगे। उनके बाप और मां को भी बुलाया जाए। फिर मास्टर भी आएगा। बेटियों को कहीं और भेज दिया जाए, कामयाबी की नई नई कहानी लिखने। उत्तर प्रदेश का यह चेहरा किसी ने देखा है
ख़ैर इंटर के रिज़ल्ट के बाद मैंने अमर उजाला के लिए लेख लिखा था। सिर्फ तृतीय श्रेणी में पास होने वाले विद्यार्थियों का प्रतिशत बढ़ा है। तृतीय श्रेणी में ग्यारह प्रतिशत की वृद्धि दर्ज की गई है। प्रथम और द्वितीय श्रेणी में कमी आई है। लड़कों का पास प्रतिशथ तीस फीसदी कम हो गया है। पिछले साल की तुलना में सिर्फ चौवन फीसदी छात्र पास हुए हैं। लड़कियों का पास प्रतिशत पिछले साल और इस साल भी अस्सी फीसदी के करीब रहा है। यानी चोरी पर सिर्फ लड़के निर्भर है। इस बार चोरी नहीं हुई तो सिर्फ लड़कों का पास प्रतिशत क्यों कम हुआ? लड़कियों का क्यों नहीं? क्या मास्टर लोग सिर्फ लड़कियों को पढ़ाते हैं? या लड़के पढ़ते नहीं है। क्या मां बाप आवारा बेटों को पास कराने के लिए कुछ भी करने के लिए तैयार है। लड़कियों को पीटते होंगे कि खाना भी बनाओ और पास भी करो। यही वजह है कि मजबूरी की मारी हमारी लड़कियां मेहनत के रास्ते से सफल होने लगी हैं। उन्हें मेहनत ही तो करना है। खाना बनाने के बाद थोड़ी और मेहनत कर ली। नकल का समाजशास्त्र लिंग आधार पर तय हो रहा है। शोक सभा के पहले लेख में आगरा के एक पत्रकार ने कहा है कि एटा ज़िले में सिर्फ २२ फीसदी छात्र पास हुए हैं। यह मुलायम सिंह वाला इलाका है। पिछली बार सरकार की थी तो अस्सी फीसदी पास हो गए थे। आज ये सारे मुलायम सिंह को कितना याद कर रहे होंगे।
ज़ाहिर है सवाल सिर्फ शिक्षा व्यवस्था का ही नहीं,मास्टरों की लापरवाही का ही नहीं बल्कि समाज का भी है। जो बेटों को पास कराने के लिए नकल पर पैसे खर्च कर रहा है।निराश होने की ज़रूरत नहीं है। यूपी की बेटियां अपने प्रदेश का ख्याल रख लेंगी।मैं मायावती की तारीफ नहीं कर रहा बल्कि अस्सी फीसदी पास प्रतिशत वाली बेटियों की कर रहा हूं। इन ईमानदार बेटियों की कामयाबी पर आइये हम सब खड़े होकर सलामी दें। और दुनिया को बतायें कि देखा हमरे यूपी की बेटियां चोरी से पास नहीं होती है। इस बार नकल नहीं हुई तब भी वो पास हुई हैं। पिछली बार भी अस्सी फीसदी। इस बार भी अस्सी फीसदी।
उम्मीद की किरण दिख गई यहां।
तो एलान यह किया जाता है कि यूपी की सामाजिक और शिक्षा प्रणाली की मौत पर होने वाली शोक सभा में सिर्फ बेटे बुलायें जाएंगे। उनके बाप और मां को भी बुलाया जाए। फिर मास्टर भी आएगा। बेटियों को कहीं और भेज दिया जाए, कामयाबी की नई नई कहानी लिखने। उत्तर प्रदेश का यह चेहरा किसी ने देखा है
शोक सभा
उत्तर प्रदेश में किसी एक दिन प्रादेशिक स्तर पर शोक सभा का आयोजन होना चाहिए। दसवीं क्लास में पंद्रह लाख बच्चे फेल हो गए हैं। क्योंकि इस बार स्वकेंद्र प्रणाली ख़त्म कर दी गई थी। इस प्रणाली के तहत अपने मौजूदा स्कूल में रह कर पुराने परिचित मास्टरों के निर्देशन में चोरी करने की व्यवस्था हुआ करती थी। मायावती को पसंद नहीं आई। सरकारी सख़्ती के बाद भी ये बच्चे इम्तहान देने का साहस जुटा पाए। वो जानते थे कि उनके मास्टर ने वैसा नहीं पढ़ाया न ही उन्होंने ईमानदारी से मेहनत की। फिर भी ये इंटर के उन पैंसठ हज़ार कायर छात्रों की तरह नहीं थे जिन्होंने चोरी के डर से परीक्षा छोड़ दी। अब सब फेल हो गए हैं। गीता भी तो यही कहती है। परीक्षा तय है परिणाम नहीं। तुम परिणाम यानी फल की चिंता मत करो,परीक्षा दो। फेल होने वाले ये छात्र किसी एक जगह पर जमा हो जाए तो क्या होगा। यह सोच कर मैं डर गया। इसलिए यूपी की मर चुकी शिक्षा प्रणाली की शोक सभा के आयोजन में लगा हूं। आप भी आइयेगा। उन बेपरवाह और बेवकूफ मास्टरों को भी बुलाइयेगा जो अपने छात्रों को पास करने लायक भी न बना सके। ब्लाग के कई पाठक यूपी के हैं,वो बतायें कि पंद्रह लाख फेल होने की नौबत के लिए कौन ज़िम्मेदार हैं। कोई तो यह काम करे। पंद्रह लाख में से किसी फेल होने वाले छात्र से मर्सिया लिखवा लाए। पोस्ट कर दे। आप सभी इस शोक सभा में आमंत्रित हैं।
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