आठवें जनम की आशंकायें

असंख्य किस्से सात जनमों के जब छूट जायेंगे
आठवें जनम के बाद, तब क्या करेंगे हम दोनों
जब स्मृतियों में भक से आ जाया करोगी तुम
कुछ याद नहीं आयेगा, चेहरा धुंधला हो जाएगा
उन छवियों में क्या तुम्हें देख पाऊंगा ठीक से
यही है वो जिसके साथ रिश्ता रहा है मेरा
एक नहीं, दो नहीं सात सात जनमों का
जब अमरीका में कोई रिसर्च कह देगा कि हां होता है
सात जनमों का हिसाब, रिश्ते होते हैं सात जनमों तक
इसका लगाया था हिसाब,गणित के एक प्रेमी मास्टर ने
प्रेम में जिसने एक जीवन को सात से कर दिया गुणा
वो हर लम्हे को सात गुना होते देखना चाहता होगा
या फिर ये किसी पंडित के दिमाग की उपज होगी
जो दक्षिणा की खातिर बढ़ाता चला गया फेरे
फिर क्यों रूक गया वो सात फेरों के बाद
क्या वाकई में हम सात जनमों तक के साथी हैं
क्या हर जनम में तुम और मैं बदल जायेंगे
क्या मैं स्त्री और तुम पुरुष बन जाओगी
क्या करेंगे हम दोनों हर जनम में अलग अलग
क्या तुम छठे जनम में भी वैसे ही याद आओगी
जैसे बेकरार हो जाता हूं इस जनम में तुमको याद करके
क्या पांचवे जनम में तुम बिल्कुल वैसी ही रहोगी
जैसे पहले जनम में भा गई थी तुम मुझको
क्या मैं तीसरे जनम में वैसे ही पसंद आऊंगा तुमको
जैसे पहले जनम में तुम मेरी कविताओं को पढ़ती थी
क्या क्या होता रहेगा हम दोनों के बीच,सात जनमों तक
इतना पक्का और गाढ़ा होने के बाद ऐसा क्या हो जाएगा
जब हम आठवें जनम में इस रिश्ते को बचा न सकेंगे
क्या करूंगा मैं आठवें जनम में,और तुम भी अकेले
क्या काफी नहीं है एक ही जनम में सात जनमों को जी लेना
क्या ऐसा नहीं हो सकता कि चौरासी लाख योनियों में हम दोनों
अलग अलग जीव बनकर जीते रहे चौरासी लाख जनमों तक
हम लौटते रहेंगे इसी धरती पर, हर जनम में तुम्हारे लिए
आठवें जनम में खत्म होने के फैसले पर कौन करेगा विचार
पंडितों का पंचाग या फिर चुनाव के बाद इस देश की संसद

प्रेम, पल और इतिहास

प्रेम के वे दो पल
जिनमें हमने सदियां गुज़ारी थीं
भग्नावशेषों के नीचे दबी ईंटों के बीच
हमारे ही वे दो पल थे
जो बचे रह गए इतिहासकारों के लिए
उन्हीं दो पलों में हमने बनाई थी एक इमारत
खिड़कियां और दरवाज़े लगाए गए
आंगन में मिली आसमान को झांकने की जगह
आहटों को छुपा लेने के लिए दीवारें खड़ी की गईं
सरगोशियों से छन कर पहुंचती रही हमारी धड़कनें
जिनसे जलते रहे तमाम वे पल
जो बिना प्रेम के गुज़रते रहे और गुम हो गए
इतिहासकारों को नहीं मिले जिनके निशान
जो भग्नावशेषों के बाहर हवाओं में घुल मिल गए
हमने बचा लिया अपने उन दो पलों को
अपने सपनों में,कविताओं में,शब्दों में,सांसों में
वो लिखती रही इंसानों के धड़कते दिलों की दास्तान
मैं लिखता रहा बनती मिटती सल्तनतों के फरमान
हुकूमतें फनां हो गईं,ज़मींदोज़ हो गए किले
हमारा मकान कैसे बचा रहा गया
शायद प्रेम के वे दो पलों पर टिका रह गया
हमारे बाद के पलों में बचे रहने के लिए
प्रेम का इतिहास लिखने के लिए

टीवी अख़बार जैसा लगता है

हिंदी न्यूज़ चैनलों के स्क्रीन एक जैसे लगने लगे हैं। भीमकाय फोंट वाले शब्दों से हमला करते हुए नज़र आते हैं। तस्वीरों के इस माध्यम में लिखे जाने वाले शब्द,बोले जाने वाले शब्दों से ज़्यादा महत्वपूर्ण हो गए हैं। मोटे मोटे अक्षरों के वाक्य मोतियाबिंद के मरीज़ों से लेकर पढ़े लिखे दर्शकों पर हमला करते हैं। कहते हैं कि देखो मत,पढ़ो। हर सूचना लिख कर आती है।

टीवी की भाषा में इन्हें सुपर या बैंड कहते हैं। टीवी स्क्रीन के ऊपर भी उलटते-पलटते बैंड होने लगे हैं। नीचे भी एक बैंड होता है। सबसे नीचे स्क्रोल होता है जिस पर प्रादेशिक ख़बरें सरकती रहती हैं। बीबीसी को देखिये तो तस्वीरें ही तस्वीरें होती हैं। लिखे हुए शब्दों की जगह कम है। सीएनएन में भी लिखे हुए शब्दों को नीचे के कोने में धकेला जा चुका है। अपने यहा भी एक अंग्रेज़ी का चैनल है न्यूज एक्स। जिसमें स्क्रीन पर शब्दों की धक्का-मुक्की कम रहती है। लेकिन बाकी अंग्रेज़ी के चैनलों में शब्दों ने तस्वीरों को धकेल दिया है। धमाका करते हुए दो शब्दों के स्टिंग आते हैं। ब्रेकिंग न्यूज़ हमला करता दिखता है। टाइम्स नाउ से लेकर सीएनएन आईबीएन और एनडीटीवी ट्वेंटी फोर सेवन में भी शब्दों से भरे स्टिंग और सुपर महत्वपूर्ण हो गए हैं। तरह-तरह की इन पट्टियों के बीच विज़ुअल के लिए जगह कम रह गई है। विज़ुअल आता भी है तो उसे कई तरह के बक्सों में बांट कर छोटा कर दिया जाता है। विज़ुअल के ऊपर या साथ साथ शब्द चिपका दिये जाते हैं।


यही कारण है कि टीवी अखबार की तरह लगता है। हिंदी न्यूज़ चैनलों के भीमकाय फोंट डराते हैं। अंग्रेज़ी चैनलों में शब्द अभी भी सामान्य फोंट में लिखे जाते हैं। लेकिन वहां भी विज़ुअल को तरह-तरह के बक्सों में खपा दिया जा रहा है। इनसे थोड़े अलग हिंदी चैनलों में अब हर बोला जाने वाला वाक्य लिख कर आता है। सचमुच काफी बड़ा। टाटा का ओके साबुन जैसा। वॉयस ओवर सुनने की चीज़ नहीं रहा। बोलने से पहले लिखे हुए शब्द आते हैं। भीमकाय फोंट के चलते वाक्यों को छोटा किया जा रहा है। तीन शब्दीय वाक्यों की खोज की जा चुकी है। कम लिखो लेकिन मोटा-मोटा लिखो। हर शब्द के नीचे बूम-बाम वाला धमाकेदार संगीत होता है।

यह सब पिछले दो साल में हुआ है। हिंदी न्यूज़ चैनल बहुत तेज़ी से बदलते हैं। शब्दों के फोंट साइज़ को लेकर जो बदलाव आया है उस पर गौर किया जाना चाहिए। जो टीवी के विद्यार्थी हैं उन्हें बताया जाना चाहिए कि ये एक नई प्रक्रिया है। जो कम से कम यह बता रही है कि टीवी अब तस्वीरों पर निर्भर नहीं रहा। वो दौर गया जब कैमरामैन और रिपोर्टर का न्यूज़ रूम में हीरो की तरह इंतज़ार होता था। अब तो इंटरनेट और मोबाइल से तस्वीरे डाउनलोड होती हैं। उन पर भीमकाय शब्दों को चिपका कर विज़ुअल या तस्वीरों की जगह चला दिया जाता है। इससे भी काम न चले तो हर तरह की दुर्घटनाओं की एनिमेटेड तस्वीरें झट से बना दी जाती हैं। रेल दुर्घटना से लेकर हेलिकाप्टर दुर्घटना की एनिमेटेड तस्वीरें बनी हुई हैं। बताती हैं कि टीवी ने तस्वीरें बटोरने के महंगे उपायों का आसरा देखना बंद कर दिया है या कम कर दिया है।

भीमकाय फोंट से बने शब्द कम से कम एक बार में और एक वाक्य में आ जायें, इसके लिए ग्राफिक्स डिज़ायनर और आउटपुट एडिटर में काफी मोलभाव होता है। एक शब्द की गुज़ाइश हो जाए तो बड़ी कृपा होगी। आउटपुट एडिटर शब्दों के बीच अक्षरों को स्पेस बार से ठेलते रहता है। जगह बनाते रहता है। हमारी शुरूआती ट्रेनिंग थी कि विज़ुअल के साथ जो ओरिजनल साउंड है उससे कोई छेड़छाड़ नहीं होनी चाहिए। अब तो विज़ुअल पर संगीत थोपा जाता है। नहीं थोपेंगे तो बोरिंग लगता है। दर्शक पसंद नहीं करते। या फिर ऐसा करना आसान है। मौके की आवाज़ को शूट करना एक मुश्किल और समय लगने वाला काम है। इतना वक्त किसी के पास नहीं है।

इसीलिए हर जानकारी जो पहले बोली जाती थी अब बोले जाने के साथ लिखी हुई आती है। दर्शक को समझाने और उसे आकर्षित करने का जुगाड़ है। अब तो दृश्यों को भी लाल डोरे से घेर और तीर मार मार कर बताते हैं कि पूरे स्क्रीन पर देखने की ज़रूरत नहीं,सिर्फ यही कोना देखो,जहां लाल वाला तीर ज़ोर मार रहा है। टीवी नहीं दिखता,बाकी सब दिखता है। इसका नुकसान कैमरामैन को उठाना पड़ा है। सन दो हज़ार में जब रिपोर्टिंग शुरू की थी तब कैमरामैन के सामने खड़े होने के हिम्मत नहीं होती थी। वो एक एक शाट ध्यान से लेते थे। सीक्वेंस के साथ। कैमरा टिल्ट अप होता था,टिल्ट डाउन होता था,पैन होता था,क्लोज़ अप के साथ शिफ्ट फोकस। शिफ्ट फोकस में तस्वीरें पहले धुंधली लगती थीं,धीरे धीरे साफ होती थीं। नए कैमरे के आने से न्यूज़ रिपोर्टिंग में शिफ्ट फोकस हमेशा के लिए ख़त्म हो गया। अनुभवी कैमरामैन की ज़रूरत कम रह गई। मिस्त्री का काम हो गया है। अब तो कोई ट्राइपॉड पर शूट नहीं करता। तस्वीरें हिलती डुलती अच्छी लगती हैं। एक्शन चाहिए। पहले ट्राइपॉड के साथ एक लाइट किट जाती थी। अब तो लाइट किट कार की डिक्की में ही पड़ी रह जाती है। सब फ्लैश से काम चलाते हैं। वो ज़माना गया जब एडिटिंग टेबल पर सफाई देनी पड़ती थी कि लाइट किट का इस्तमाल क्यों नहीं किया। अब तो जो है लाओ दो उसे बूम-बाम करो और शब्दों के नीचे दबा कर स्क्रीन पर लटका दो।

मंदी के दौर में यह तरीका कागगर साबित हो रहा है। तस्वीरें बटोरने का काम काफी महंगा है। मौके पर जाने के लिए पैसा खर्च होगा। इसलीए भीमकाय शब्दों और ग्राफिक्स एनिमेशन का सहारा लिया जा रहा है। टीवी एक महंगा माध्यम है। पत्रकार महंगे हैं। दोनों के बिना काम नहीं चलेगा। इसलिए बिना विज़ुअल के काम चलाने का तरीका खोज निकाला गया है। ये इसलिए भी हुआ क्योंकि अच्छे अच्छे रिपोर्टर ने विज़ुअल पर मेहनत नहीं की। अशोक रोड पर बीजेपी और अकबर रोड पर कांग्रेस के दफ्तर से निकले और टेप पटक कर खुश हो जाते थे। खबर ब्रेक करने की गिनती रखते थे। सीना चौड़ा करके घूमते रहे। लेकिन इस बात पर मेहनत नहीं कि हिंदी टीवी पत्रकारिता को खबर ब्रेक करने वाले पत्रकारों के साथ साथ खबरों को बेहतर बनाने वाले विज़ुअल सेंस की भी ज़रूरत है। इस मामले में ज़्यादातर रिपोर्टर नाकाम साबित हुए। माध्यम का काम तो चलना ही था तो बस डेस्क पर बैठे कल्पनाशील आउटपुट एडिटरों ने रास्ता निकाल लिया। आइडिया सोचना वाले एडिटर की पूछ बढ़ गई। खबर लाने वाले पत्रकार पीछे रह गए। पत्रकारों ने टीवी की ज़रूरत के हिसाब से अपनी रिपोर्टिंग शैली को विकसित की होती तो आज ये हालत नहीं आती।

उधर बाज़ार में बने रहने के लिए दर्शकों को अंधेरे में ढूंढा जाने लगा। इस बीच टीवी देखने का व्यावहार भी बदल गया। वैसे भी यह माध्यम हर पल बदलने वाला माध्यम है। लेकिन आप टीआरपी के पैटर्न को देखें तो पता चलेगा कि किसी तय वक्त में समाचार देखने की आदत खत्म हो चुकी है। न्यूज कभी भी उपलब्ध हैं तो कभी भी देख लेते हैं। टीआरपी की रेटिंग के अध्ययन से पता चलता है कि कोई भी दर्शक दिन भर में ज़्यादा से ज़्यादा चार से पांच मिनट ही न्यूज चैनल देखता है। उसमें भी वो ठहर कर नहीं देखता। रिमोट कंट्रोल से चैनल बदलते रहता है। इन भागते भुगते दर्शकों को रोके बिना काम नहीं चलेगा। इन्हें रोकने के लिए ये भीमकाय शब्द होर्डिंग का काम करते हैं। आवाक दर्शक रूक जाता है।

लिखा हुआ शब्द पढ़ने लगता है। तब तक वॉयस ओवर भी आ जाता है। सवाल नंबर एक से लेकर सवाल नंबर बीस तक गिनता हुआ। दुनिया दो साल में खत्म होने वाली है, का एलान करता हुआ। भकुआया दर्शक रूकता है और एक मिनट तक रूक गया तो टीआरपी का काम हो जाता है। उसके बाद सामान्य दर्शक चाहे उस न्यूज़ आइटम को जितनी गाली दे। एक मिनट तक आप रूक गए तो चैनल का मकसद पूरा हो जाता है। यही खेल है। सबको एक मिनट तक के लिए रोको। दर्शकों को बताया जाना चाहिए कि अगर कुछ पसंद नहीं है तो जल्दी बदलो चैनल। भागो वहां से।

लेकिन कोई भाग न पाये इसी कोशिश में शब्दों के ज़रिये स्क्रीन पर जाल बिछाया जाता है। जिसके लिए टीवी अख़बारों से अलग हुआ,अब वही टीवी अख़बार जैसा होने लगा है। विज़ुअल भी अब संपूर्ण नहीं हैं। एक फ्रेम के भीतर कई फ्रेम बना दिये जाते हैं। इसमें कुछ भी गलत नहीं है। इन्हीं सारे गुणों और अधिकारों से लैस होती हैं हमारी एडिटिंग मशीनें। टीवी और फिल्म में एटिडिंग की शैली एक ही है। किसी चीज को पेश करने के लिए इन गुणों का इस्तमाल होना ही चाहिए। ये सवाल अलग है कि इनका इस्तामल माध्यम को कितना विकसित करता है। ख़बरों को कितना प्रभावशाली बनाता है।


इतना ज़रूर है कि टीवी जैसा टीवी लगता नहीं। एंकर के पीछे एक दीवार बना दी जाती है। इन्हें वॉल कहा जाता है। अब इन पर भी भीमकाय शब्दों ने कबज़ा जमा लिया है। दर्शक की खोज में ही न्यूज़ चैनल बदल रहे हैं। बदलना भी चाहिए। अखबार के पन्ने भी बदलते हैं। बस थोड़ा अजीब लगता है कि कैमरामैन का शाट्स अब लगता ही नहीं है। रिपोर्टर की कलाकारी इन्हीं विज़ुअल के माध्यम से निखरती थी। ये मज़ा अब कम हो रहा है। विज़ुअल से पहले शब्द सोचे जाते हैं। पाकिस्तान का पाप या अमेरिका का अहंकार। अनुप्रास का महत्व बढ़ गया है। कभी किसी चैनल में अनुप्रास संपादक की भी भर्ती हो सकती है। जो अ और ब से शुरू होने वाले शब्दों का मिलान करेगा। तुरंत और सबसे बेहतर। न्यूज़ चैनलों में इन भीमकाय शब्दों को लेकर भी खासी प्रतियोगिता मची रहती है।

इस बदलवाल को रोकना मुश्किल है। हिंदी न्यूज़ चैनल अब कभी पीछे की ओर नहीं लौटेंगे। वो बहुत आगे जा चुके हैं। पत्रकारिता को पीछे छोड़ कर। टीवी में रहकर हम सब अख़बार का काम करने लगे हैं। नंबर तो आ जाते हैं लेकिन मज़ा नहीं आता। एक ज़माना था जब अख़बार टीवी जैसा होने लगे थे। अखबारों में बड़ी बड़ी तस्वीरें छपने लगी थीं। उन्हें टीवी से मुकाबला करना था। अब टीवी अखबार जैसा होने लगा है।

लालू को लू

लालू कैमरे के सामने बेचारे क्यों लग रहे हैं? हमारे पेशे की भाषा में आउट ऑफ फोकस लग रहे हैं। शुक्रवार को दरभंगा में बाबरी मस्जिद का ज़िक्र कर दिया। कांग्रेस को ज़िम्मेदार बता दिया। बाबरी का मुद्दा हर चुनाव में उठाया जाना चाहिए। क्योंकि उसका गिरना एक राजनीतिक गुंडई का परिणाम था। लेकिन जिस तरह से लालू इसका ज़िक्र कर रहे हैं उससे साफ है कि इस मुद्दे के बहाने वो मुसलमानों को बंधुआ समझते हैं। मुलायम की भी यही गत होने वाली है। पता नहीं क्यों लग रहा है कि लालू का वाटरलू हो चुका है। गए भाई साहब। लालू भले नेता बने रहे लेकिन वाकई अब आरजे़डी की कोई प्रासंगिकता नहीं बची है। लालू ने खुद कहा था कि २० साल राज करेंगे। बिहार और दिल्ली मिलाकर उनके २० साल हो गए हैं। बिहार में एक नई राजनीतिक धारा के उदय का इंतज़ार होना चाहिए। ब्रांड न्यू। इसका उसका मिलाकर नहीं। अप्रैल में ही लालू को लू लग गई है। वाटरलू तो मई में होगा।

हमारी सोसायटी का मंदिर

मैंने बचपन से देखा है किसी खास दिन लोग अपने घरों से निकल कर मंदिर जा रहे हैं। पटना के महावीर स्थान मंदिर में दूर दूर से लोग आते थे। आज भी आते हैं इस बात के बाद भी कि रास्ते में हनुमान जी के कई छोटे छोटे मंदिर हैं। अगर आप पश्चिम से आ रहे हों तो रास्ते में राजा बाज़ार का हनुमान मंदिर पड़ता है। अब यहां भी उतनी ही भीड़ होती है जितनी स्टेशन वाले महावीर स्थान मंदिर में। बाद में कई शहरों में इस तरह के सार्वजनिक और बड़े मंदिरों में गया हूं। दिल्ली आया तो दोस्तों को सीपी वाले हनुमान मंदिर और आईएसबीटी वाले हनुमान मंदिर जाते देखा। किसी मंगलवार को चार्टर्ड बस में जा रहा था, तभी आईएसबीटी के पास बस रूकी और कोई कोई भक्त बुनिया लेकर आ गया। सब एक साथ चिल्लाये- जय बजरंगबली। फिर बुनिया वितरण हो जाता था।

धीरे धीरे हनुमान जी को चुनौती देने के लिए कई दूसरे भगवानों के आकर्षक मंदिर बने। दिल्ली के मंदिर पैकेज की तरह हो गए। कोशिश की गई कि एक ही मंदिर में सभी देवताओं की प्रतिमा लगा दो। वैसे ही जैसे दर्शक को टाटा स्काई लगाने से सारे चैनल मिल जाते हैं। लेकिन यह व्यवस्था भी बदल गई। शनि महाराज और साईं मंदिर ने ऐसी चुनौती दी कि हनुमान और दुर्गा वाले मंदिरों की रौनक फीकी पड़ गई। कमलानगर मार्केट के पीछे एक मोहल्ले के मंदिर गया था। पुजारी ने कहा कि बाहर शनि मंदिर बना दिया है ताकि लोगों को दिख जाए कि हमारे यहां शनि मंदिर भी है। लोगों ने आना बंद कर दिया था और वो किसी और जगह जाने लगे थे जहां शनि का मंदिर था। इसी तरह से दिल्ली में कई शनि मंदिर खुल गए। काले कपड़ों वाले राजस्थानी टीवी एंकर भी बन गए। सब टीवी पर।

अब धीरे धीरे शनि के समानांतर साईं कृपा की धूम है। हर मोहल्ले में साईं मंदिर खुल रहे हैं। मेरे वैशाली में तीन चार साईं मंदिर पिछले तीन चार सालों में बने हैं। शाम को काफी भीड़ होती है। हनुमान मंदिर पर दीया जलता रहता है। कोई भीड़ नहीं होती। साईं ने लोकप्रिय दैनिक ईश्वरों में से चैंपियन रहे हनुमान को शिकस्त दे दी है। दिल्ली की बसों में पहले कई लोग हनुमान चालीसा पढ़ते मिल जाते थे। अब साईं कृपा बांचते रहते हैं। दुर्गा जी का साल में दो बार टाइम फिक्स है इसलिए वो कंपटीशन में नहीं हैं। शिव भक्तों ने भी अपनी एक संस्था बना ली है। शिव गुरू है का अभियान चल रहा है। लेकिन अब शिव मंदिरों की कोई बात नहीं करता। शिवरात्रि कब आती है,कब जाती है,पता नहीं चलता। यहां तक कि पुरानी दिल्ली में डिलाइट सिनेमा के किनारे एक मंदिर है। मंदिर की छत पर शिव की प्रतिमा बना दी गई है। पुजारी से पूछा तो जवाब मिला कि भाई लोगों को पता तो चले कि मंदिर है। दूर से दिखाई ही नहीं देता। बड़ी बड़ी इमारतें बन गईं हैं। इसलिए शिव की प्रतिमा छत पर लगा दी है। अपार्टमेंट के मंदिरों के साइनबोर्ड भी अब प्रायोजित होने लगे हैं।

पटना के बांसघाट के बगल में जब मैं हर दिन गंगा नहाने जाता था तो वहां के मंदिरों में काफी भीड़ देखा करता था। लेकिन गंगा के मलिन होने के बाद अब नदी का यह किनारा दाह संस्कार के ही काम आता है। नहाने वाले लोग कम हो गए। नदियों के किनारे नहाने का चलन लगभग समाप्त होता जा रहा है। बाथरूम ने काफी कुछ बदल दिया। वहां के मंदिर अब वीरान नज़र आते हैं। कोई पूछता नहीं। पुजारी की आंखें धंसी हुई लगती हैं। उसे समझ में नहीं आता कि क्या हो गया? लोग कहां चले गए? और गंगा जो इतने करीब थी, वो कहां चली गई?

यहां से मंदिर व्यवस्था में एक और बदलाव आ रहा है। शहरों में अपार्टमेंट कल्चर ने पुराने मोहल्लों को विस्थापित कर नए तरह के मोहल्ले बना दिये हैं। एक मोहल्ले के भीतर कई मोहल्ले बन गए हैं। एक मोहल्ले में कई अपार्टमेंट हो सकते हैं। बदलाव एक और है। अब हर अपार्टमेंट का अपना एक मंदिर होने लगा है। मेरे अपार्टमेंट के सामने आशियाना सोसायटी में भी एक मंदिर है। मगध अपार्टमेंट में हाल ही में एक नए मंदिर का उद्घाटन हुआ। पटपड़गंज की कई सोसायटियों में भी अलग अलग मंदिर बने हैं। बंगलूरू में मेरा दोस्त रहता है। उसकी सोसायटी में जैन मंदिर है। इसलिए वहां मांस मछली बनाना मना है।

यह बदलाव हिंदू धर्म में ही नहीं है। पंजाब के मलेरकोटला में पिछली बार गया था। वहां के पुराने नवाब ने एक प्राइवेट मस्जिद बना रखी है। सजावट और डिज़ाइन में बेहतरीन। घर के अहाते में पहली बार मस्जिद देखी। जबकि मलेरकोटला की शाही मस्जिद इतनी खूबसूरत और बड़ी है कि शहर में और मस्जिदों की ज़रूरत ही नहीं। जामा मस्जिद या भोपाल,देवबंद और लखनऊ की मस्जिदों के टक्कर में मलेरकोटला की मस्जिद का जवाब नहीं। लेकिन प्राइवेट मस्जिद देखकर हैरान हो गया था।

हमारी सामाजिकता और सार्वजनिकता के ठिकाने बदल रहे हैं। मंदिर मस्जिद रोज़गार के एक बड़े केंद्र हैं। इनके प्रसार को मैं इसलिए भी अच्छा मानता हूं। इन्हें कभी अतिक्रमण के तौर पर नहीं देख सका। जब मेरे मोहल्ले में कोई मंदिर बनता है तो मुझे यही लगता है कि एक दफ्तर खुल गया है। आंशिक रूप से आस्तिक और नास्तिक होते हुए भी मंदिरों में मेरी दिलचस्पी रही है। पहले नदियों के किनारे पाप धुलते थे,अब नदियां नाली में घुल गईं तो पाप कर्म की वाशिंग के लिए भांति भांति के आकर्षक मंदिर बन रहे हैं। रिकार्डेड मंत्र तो कब से बज रहे हैं। पुजारी सिर्फ घंटी टनटनाता रहता है।

जल्द ही आप इस पर एक स्पेशल रिपोर्ट भी देखेंगे।

आ तू मेरे सामने बोल ज़रा

आडवाणी जी मनमोहन जी को ललकार ही नहीं बल्कि दुत्कारने भी लगे हैं। मनमोहन हैं कि दुत्कार प्रुफ होकर घूम रहे हैं।
मनमोहन टीवी पर बहस करने से मना कर देते हैं। आडवाणी अड़ जाते हैं। मनमोहन सिंह कहते हैं कि वे आडवाणी की तरह नहीं बोल सकते। बोलने को लेकर आडवाणी का यह आत्मविश्वास समझ में नहीं आता। इसी आत्मविश्वास के कारण जिन्ना विवाद में अपनी पार्टी के अध्यक्ष पद से हटा दिये गए थे। माफी मूफी मांगने के बाद वापस इन वेटिंग के पद पर लाए गए। आडवाणी खुद कह चुके हैं कि वे अटल जी जैसे अच्छे वक्ता तो नहीं है लेकिन मैं अच्छा भाषण देने की कोशिश करूंगा। सीख रहा हूं। इस टाइप से वे कई बार बोल चुके हैं। लेकिन अपने बोलने के कारण अपनी ही पार्टी में राजनीतिक दुर्घटना का शिकार सिर्फ आडवाणी ही हुए हैं। जब आप अटल जी टाइप तो बोल नहीं सकते,कहीं ऐसा तो नहीं मृदुभाषी मनमोहन की कमजोरी से प्वाइंट स्कोर करना चाहते हैं?

क्या बोलना चाहते हैं लाल कृष्ण आ़डवाणी मनमोहन सिंह से। क्या वाकई आडवाणी को लगता है कि दिल्ली विश्वविद्यालय के बेहतरीन संस्थानों में एक दिल्ली स्कूल ऑफ इकोनोमिक्स के क्लास रूम में मनमोहन बिना बोले पढ़ाते होंगे। सोनिया जी से पूछ कर अर्थशास्त्र की व्याख्या करते होंगे। इसी मनमोहन से पूछ कर नरसिंह राव ने नई आर्थिक नीति लागू की। इसी मनमोहन की बनाई आर्थिक नीति पर बीजेपी चलती रही। लाल कृष्ण आड़वाणी तब क्यों नहीं बोले जब जिन्ना पर बोलने के बाद संघ की डांट से कुर्सी छोड़ गए। बोलती बंद होने की मिसाल बन गए। मनमोहन तो बोलते ही नहीं हैं। कुछ प्रोफेसरों की आदत होती है।

और रही बात मनमोहन ने मना ही कर दिया तो कौन सी आफत आ गई। अमेरिका की इतनी नकल के लिए क्यों बेचैन हैं? अटल बिहारी वाजपेयी वक्ता थे। उन्होंने कभी नहीं कहा कि आओ मेरे साथ बोलने को लेकर मुकाबला कर लो। जबकि अटल जी के वक्त एक से एक वक्ता राजनीति में थे। आडवाणी जी क्या मनमोहन को कमज़ोर समझ कर दांव चला रहे हैं। यकीन दिला रहे हैं कि वही बोल सकते हैं, बाकी नहीं। क्या बोलना चाहते हैं? कांग्रेस के खिलाफ जो बोलना चाहते हैं, वो बोले न अपने मंच से। मनमोहन की किस आर्थिक नीति से अलग बोलना चाहते हैं,वो बोले न अपने मंच से। एऩडीए के समय स्वदेशी जागरण मंच की हालत देखी थी मैंने।

हमें बोल कर राजनीति में दबदबा बनाने वालों से सावधान रहना चाहिए। लालू प्रसाद यादव के मामले में धोखा खा चुके हैं। लालू अपने समय के बोलने वाले नेताओं में सबसे कारगर रहे हैं। लेकिन उनकी उपलब्धि भी यही रही कि वे बोलते ही रहे। काम नहीं कर पाये। टीवी की बाइट ने बीजेपी के कई नेताओं को इस भ्रम में डाल दिया कि वे ही कारगर बोलते हैं। अपने अपने इलाकों में धारधार भाषण देने वाले नेताओं की राष्ट्रीय स्तर पर चर्चा बंद हो गई। कांग्रेस ने भी बोलने के लिए दो वकील रख लिये हैं। वे भी बोलते हैं। चीख चीख कर बोलना राजनीति का अंग है। लेकिन बोलने से ही राजनीति का मकसद पूरा नहीं हो जाता। एनडीए के संयोजक जार्ज फर्नांडिस को पैदल कर दिया गया तब आडवाणी नहीं बोले। ममता चलीं गईं,तब आडवाणी नहीं बोले। नवीन पटनायक चले गए तब खुल कर नहीं बोले। अब भी यही बोलते हैं कि गलती हुई लेकिन संबंध इतने भी खराब नहीं हुए हैं। क्यों बोलते हैं बीच बचाव टाइप। बोलने वालों की श्रेणी में आना चाहते हैं तो आप भी अपनी मजबूरियों से निकल कर बोलिये न। अरुण जेटली बोलते हैं कि पार्टी में सुधांशु मित्तल टाइप लोग आ गए हैं। उन्हें हटाओ और पार्टी को दलालो से बचाओ। भैरों सिंह शेखावत बोल रह हैं कि पार्टी में दलाल आ गए हैं। इस पर तो आप बोल नहीं रहे। दूसरे के घर से किसी को बुलाकर बोलने की आदत छोड़िये। आप सिर्फ एक नेता हैं। पोलिटिकल बॉस नहीं हैं।

मनमोहन भी अपनी मजबूरियों के शिकार हैं। जैसे आप हैं। जैसे आप थे। जिन्ना के वक्त। कोई भी पार्टी लाइन से हट कर नहीं बोलता। बोल लेते न आडवाणी जी, एनडीए की मजबूरियों से हट कर कि हटो तुम,हम मंदिर बनाने जा रहे हैं। एनडीए के नाम पर क्यों बोली बदलते रहे? मनमोहन को भी यही बोला गया होगा कि पार्टी लाइन से हटकर नहीं बोलना है। आडवाणी जी एक बार बोल कर मिस्टेक कर चुके हैं तुम मत करना ऐसा। इसमें कमज़ोरी की बात कहां से आती है। हर नेता पार्टी लाइन पर बोलता है।


देश भर में ऐसे लाखों लोग हैं जो बिना बोले अपना काम करते हैं। उनकी यही शिकायत रहती है कि वे मेहनत करने के बाद भी आगे इसलिए नहीं जा सके क्योंकि उन्हें बोलना नहीं आता। फलां आगे निकल गया कि काम धेले का नहीं करता मगर बॉस को देखते ही बोलने लगता है। इम्प्रैस कर लेता है। ऐसे लोग ज़रूर आडवाणी से कुढ़ते होंगे। आडवाणी जी पब्लिक को इम्प्रैस करना चाहते हैं।

एक और बात है अमेरिका में सिर्फ एक या कोई दो बार ही ओबामा और मैक्केन आमने सामने हुए। उस भाषण से कुछ भी तय नहीं हुआ। अपने प्रचार के निन्यानबे फीसदी हिस्से में ओबामा ने अपने ही मंच से प्रचार किया। वो अपनी बात रख रहे थे और मैक्केन अपनी। लेकिन आडवाणी जी झांसा दे रहे हैं। जो आडवाणी की पार्टी की दलील है, उस पर कांग्रेस के छुटभैये बोल रहे हैं। जो कांग्रेस की दलील है, उस पर बीजेपी के छुटभैये बोल रहे हैं। कोई एकाध प्वाइंट बचाकर रखी हो आडवाणी जी ने तो अलग बात है। ये अलग बात है कि रैलियों में कष्ट हो रहा हो तो टीवी पर एक ही बहस कर चुनाव प्रचार निपटा देने का आइडिया बुरा नहीं। फालतू गांव गांव घूमने से क्या फायदा। भाषण तभी सुना और समझा जाएगा जब जनता बारी बारी से सबको सुनेगी। सोचेगी। अखाड़ा बूझे हैं का कि लंगोट कस के आडवाणी जी मनमोहन को बुला रहे हैं। हद हो गई है भाई।

सस्ती शायरी- अधूरी उदास नज़्में

1.
दुनिया की सारी बेवफाओं से आबाद है मेरी शायरी
रोते हुए आशिकों ने सींचा है मेरी नज़्मों का बागीचा

2.

सितारों को झिलमिलाने की ज़रूरत नहीं
मेरे चांद को इतराने की ज़रूरत नहीं
दूर से ही तुम लगती हो बहुत अच्छी
मेरे घर आकर इतराने की ज़रूरत नहीं

३.
इस बरस मोहब्बत से कर ली है तौबा
बाज़ार में मंदी है,दुकानदार से है तौबा
आंखों से होंगी बातें,मोबाइल से है तौबा
काल वेटिंग भी महंगी है,अल्फाज़ से है तौबा
चंद घड़ी मोहब्बत की है,दिलदार से है तौबा

४.

तुम को इस बरस नहीं ले जाऊंगा किसी फाइव स्टार में
शेयर बाज़ार में डूबे पैसे से, उधार की मोहब्बत नहीं होती

५.

इस चुनाव में जानम,तुम पिछले शिकवे छोड़ दो
टूटे दिल के किस्से हैं, तुम मोहब्बत छोड़ दो
मैं तो हूं ही बेवफा, तुम भी वफाई छोड़ दो
इस चुनाव में जानम, तुम रुसवाई छोड़ दो

६.
सारे अधूरे लिखे खत, अब भी वही पड़े हैं
पूरा करते हैं गुलज़ार, कब से वहीं खड़े हैं
हमारे टूटे दिलों के किस्से हैं, अब भी टूटे पड़े हैं
जोड़ते रहते हैं गुलज़ार, तब से वहीं खड़े हैं

७.

जब कोई पूछता है तुम्हारा नाम, मैं किसी और का बता देता हूं
जब भी कोई लेता है तुम्हारा नाम,मैं कहीं और देखने लगता हूं

जूता, कांग्रेस और अपराध बोध

प्रभात शुंगलू

नेता और जूता। क्या नेताओं को जूते की भाषा में तौला जायेगा। जो जरनैल ने किया वो कतई अशोभनीय था। पत्रकार की पहचान जूता नहीं कलम है। जरनैल अपने इमोशन पर काबू नहीं ऱख पाये इस पर उन्होने खेद भी जताया।

जरनैल का ये जूता चिदंबरम को भले न लगा हो मगर जनता भांप गयी जूता किस पर फेंका गया था। जूता चिदंबरम पर नहीं कांग्रेस की उस राजनीतिक सोच पर फेंका गया था जिसके तहत वो कुछ ऐसे लोगों को पाल पोस रही थी जिनपर 25 साल पहले दिल्ली में सिखों के खिलाफ दंगे भड़काने का आरोप लगा। 1984 के अक्टूबर नवंबर के उन चार दिनों में दिल्ली की सड़कों पर 3000 से ज्यादा लाशे बिछीं थीं। कत्लेआम का ऐसा घिनौना रूप की इसकी दर्दनाक कहानी जल्लाद बैतुल्ला महसूद भी सुने तो शर्मसार हो उठे।

सवाल ये उठता है कि चुनाव के ऐन वक्त सरकार के हाथ की कठपुतली कहे जानी वाली सीबीआई ने टाइटलर को क्लीन चिट क्यों दिया। आखिर कांग्रेस को टाइटलर को बचाने की क्या जरूरत आन पड़ी। मोदी की राजनीति को गरियाने वाली कांग्रेस, अपने आप को सेक्यूलरिज्म का चौकीदार बताने वाली कांग्रेस, वरूण के जहरीले बयान पर गीता का पाठ पढ़ाने वाली कांग्रेस को आखिर जगदीश टाइटलर को टिकट देने की क्या जरूरत पड़ गयी थी। सीबीआई के क्लीन चिट देने से क्या सिखों के दिलो-दिमाग से वो तस्वीरें पोछी जा सकती हैं जो वो अपने जहन में आरकाइव कर चुके हैं।

टाइटलर पर जब 2005 में दोबारा सिख विरोधी दंगो का मुकद्दमा खुला तो मनमोहन मंत्रिमंडल से उन्हे इस्तीफा देना पड़ा था। सीबीआई ने भले ही उन्हे क्लीन चिट दे दी हो मगर उनके खिलाफ दिल्ली की अदालत में आज भी मुकद्दमा चल रहा है। तो क्या इस देश में अब सीबीआई तय करेगी कौन अपराधी है और कौन निर्दोष। इसका मतलब जब सोनिया गांधी सीबीआई चलायेंगी तो वो तय करेंगी टाइटलर निर्दोष हैं और जब आडवाणी चलायेंगे तो वो कहेंगे माया कोडनानी निर्दोष हैं। लोकतंत्र का स्तंभ कहे जाने वाली ज्यूडिशियरी फिर क्या करेगी। दस जनपथ और 7 रेसकोर्स रोड में आने जाने वालों की प्रेस विज्ञप्ति जारी करेगी।

कांग्रेस ने मनमोहन को प्रधानमंत्री बना कर किसी हद तक अपनी गिल्ट फीलिंग पर काबू पा लिया था। मनमोहन सिंह ने संसद में 1984 के सिख विरोधी दंगो को 'नेश्नल शेम' करार दिया था। मगर हाई कमांड सोनिया बस अफसोस जता कर रह गयीं। दिल में सज्जन कुमार और टाइटलर की फांस कहीं न कहीं उसे इस अपराध बोध से उबरने में रूकावटें भी डाल रही थी। तो एक को जब अदालत ने बरी कर दिया तो उसे टिकट थमा दिया तो दूसरे को खुद ही दोष मुक्त बता दिया। ताकि पार्टी के अपराध बोध को किरपाण के एक झटके में खत्म कर दिया जाये और कांग्रेस फिर से सीना तान के अपनी राजनीतिक रोटी सेंके।

लेकिन कांग्रेस का ये अपराध बोध विरासत में मिला है। कांग्रेस पर एक हिंदुवादी पार्टी होने का आरोप पार्टी के जन्म के समय से ही लगता रहा है। मुस्लिम लीग के जन्म की एक वजह कांग्रेस का सॉफ्ट हिंदुत्व था। बाल गंगाधर तिलक हों या लाला लाजपत राय। तिलक मंदिर में आरती कराकर लोगों ( इसे हिंदुओं पढ़िये ) को अंग्रेजो के खिलाफ गोलबंद करते थें तो नेहरू 1939 के चुनाव में मुस्लिम लीग से सरकार में भागीदारी पर कन्नी काट लेते हैं। महात्मा गांधी की हत्या के बाद आरएसएस पर बैन लगाते हैं और चीन युद्ध के बाद आरएसएस को गणतंत्र दिवस की परेड में शिरकत करने का न्योता देते हैं। नेहरू 1949 में अयोध्या में राम लला की मूर्ति स्थापित करवाते है और लगभग चालीस साल बाद उनके नाती राजीव अयोध्या में मंदिर के ताले खुलवाकर अपने हिंदुत्व का प्रमाण पेश करते हैं। पुरषोत्तम दास टंडन हों या इंदिरा गांधी। देश में कांग्रेसी प्रधानमंत्रियों के कार्यकाल में अनगिनत देंगे हों या असम में 1983 के अख्लियतों की हत्यायें। मेरठ हो या मुरादाबाद के दंगे। अयोध्या में मस्जिद गिराये जाते समय नरसिंह राव का नीरो की तर्ज पर सोते रहना भी सॉफ्ट हिंदुत्व की कैटिगरी में ही तो आयेगा। और फिर चाहे वो 1984 का दिल्ली हो या कानपुर।

तो क्या जो राजीव नें तब बोला वो कतई सेक्यूलर था - जब बड़ा पेड़ गिरता है तो धरती कांप उठती है। यानि जगदीश टाइटलर, सज्जन कुमार और हरकिशन लाल भगत के खिलाफ सिखों के खिलाफ देंगा भड़काने के जो आरोप लगे, वो गलत थे ? देश में दर्जन भर कमीशनों ने 84 दंगों की तफ्तीश की क्या वो हवा में थी। चलो राजीव तो राजनीति में नये थे तो क्या उनकी सॉफ्ट हिंदुत्व की कांग्रेसी 'कोटरी' ने उन्हे ये बयान जारी करने की मुगली घुट्टी पिलायी थी। अल्लाह जाने।

लेकिन जरनैल के जूता कांड से पंजाब से लेकर दिल्ली और जम्मू तक सिखों के प्रदर्शन उग्र होने लगे। तब कांग्रेस को लगा शायद टाइटलर और सज्जन को टिकट देकर गल्ती हो गयी। इन राज्यो में करीब 20-25 सीटों पर सिख वोटर पार्टी की किस्मत तय कर सकते हैं। इसलिये कांग्रेस का अपराध बोध ने एक बार फिर उसका गिरेबान पकड़ कर कहा अब बच के कहां जाओगे बच्चू। इस अपराध बोध से बच निकलने का एक ही रास्ता दिखा। पब्लिक ने कहा ना तो ना। पब्लिक परसेप्शन के आगे झुकना पड़ा। क्योंकि सवाल तो है ज्यादा लाओगे तो ज्यादा पाओगे। गद्दी भी तो बचानी है।

कांग्रेस के अपराध बोध का एक हाथ उसके गिरेबान पर था तो उसके दूसरे हाथ में जूता था। जरनैल वाला नहीं। ये जूता पब्लिक परसेप्शन का था। ये जूता बड़ा सेक्यूलर है। ये जूता जनता जनार्दन के कान्शेन्स का है। जो सिर्फ उसपर पड़ता है जो राजनीति के नाम पर समाज को बांटता है।

लालू इज़ लॉस्ट

लालू यादव को इस चुनाव में बोलते सुन रहा हूं। अब न तो वे हंसाते हुए लग रहे हैं न ही गुस्से में। एक मिसफिट नेता की तरह बिहार में घूम रहे हैं। जिन टूटी सड़कों से वे ग़रीबों को रैलियों में ठेलते रहे,वो सड़के अब बनने लगी हैं। बिहार बदला है तो लालू भी बदल गए हैं। केंद्र में पांच साल तक वाहवाही( मीडिया प्रायोजित या असली?) लूटते रहने के बाद बिहार की जनता हावर्ड की पब्लिक की तरह इम्प्रैस नहीं है। लालू पांच साल तक विकास पुरुष बनते रहे लेकिन यह छवि बिहार में काम आती हुई नहीं लग रही है। उन्हें अब भी भरोसा है कि माई टाई समीकरण उनका जुगाड़ बिठा देगा।

बिहार में जिससे भी बात करता हूं,यही जवाब मिलता है कि इस बार दिल और दिमाग की लड़ाई है। जो लोग बिहार के लोगों की जातीय पराकाष्ठा में यकीन रखते हैं उनका कहना है कि लालू पासवान कंबाइन टरबाइन की तरह काम करेगा। लेकिन बिहार के अक्तूबर २००५ के नतीजों को देखें तो जातीय समीकरणों से ऊपर उठ कर बड़ी संख्या में वोट इधर से उधर हुए थे। यादवों का भी एक हिस्सा लालू के खिलाफ गया था। मुसलमानों का भी एक हिस्सा लालू के खिलाफ गया था। पासवान को कई जगहों पर इसलिए वोट मिला था क्योंकि वहां के लोग लालू के उम्मीदवार को हराने के लिए पासवान के उम्मीदवार को वोट दे दिया। अब उस वोट को भी लालू और पासवान अपना अपना मान रहे हैं।

बिहार की जनता खा पी के दोपहर की नींद सो रही है। वो बहुत जल्दी जागना नहीं चाहती। नीतीश को मौका देना चाहती है। इसी आत्मविश्वास के कारण नीतीश अब अपनी पार्टी और सहयोगी दल से भी लड़ रहे हैं। ये और बात है कि दोनों नेताओं को विकास पर पूरा यकीन नहीं है। इसलिए लालू पासवान और नीतीश भाजपा भी जातीय समीकरणों के दम पर ही चुनाव लड़ रहे हैं।

लेकिन इस चुनाव में लालू को देखना उनके बदले हुए रूप से ज़्यादा एक खोए हुए नेता को देखना लग रहा है। लालू अब सत्तू, लोटा, लाठी और ताड़ी की बात नहीं करते। वो अब गरीबों और पिछड़ों की अकेली आवाज़ नहीं रहे। इस आवाज़ को लगाने के लिए उन्हें पासवान रेडियो का भी सहारा लेना पड़ रहा है। लालू का करिश्मा उतार पर है। गरीब कट लिये हैं। पिछड़े आधे इधर तो आधे उधर हो चुके हैं। लालू ने हर स्तर पर राजनीतिक चूक की है। कोई पार्टी का ढांचा नहीं बनाया। विपक्ष की कोई भूमिका नहीं रही। दिल्ली में रेल मंत्रालय के सहारे बिहार को दिया तो बहुत कुछ लेकिन बिहार की जनता इससे इम्प्रैस नहीं है। उसे तो पहले से ही मिलता रहा है। पासवान और नीतीश के ज़माने से ही।

अगर हमारे सहयोगी अजय सिंह के शब्द सही हैं तो इस बार दिल और दिमाग की लड़ाई चल रही है। दिल यानी जात और दिमाग यानी विकास। मेरा मानना है कि बिहार की जनता दिमाग से सोच रही है। हर जाति में बड़ी संख्या में लोग जातिगत स्वाभिमान से ज्यादा प्रेरित होते हैं लेकिन इसी के बीच एक बड़ी संख्या वैसे लोगों की भी छिटक रही है जो दिमाग से सोच रही है. यही पब्लिक जीत तय करेगी। मुझे नहीं लगता कि लालू जीतेंगे। सिर्फ सेकुलर होकर और आडवाणी और वरुण को खदे़ड़ कर वो नहीं चल सकते। बिहार की पब्लिक ने अब बीजेपी का रूल देख लिया है। लालू ने अपना टच खो दिया है। वो रेल मंत्रालय की कामयाबी को अपने स्टाइल और मुहावरों में नहीं ढाल पा रहे हैं। यही लालू खोए खोए से नज़र आते हैं।

शायद यही वजह है कि लालू अपनी सभाओं में गलतियों के लिए माफी मांग रहे हैं। साधू यादव को धकिया के निकाल चुके हैं। लेकिन अब देर हो चुकी है। अब उन्हें नीतीश के पूरी तरह चूक जाने तक इंतज़ार करना होगा। फिलहाल वो रातों को ज़रूर बेचैन होते होंगे कि पंद्रह साल तक क्यों नहीं कुछ किया। केंद्र ने मदद नहीं दी तो खुद क्यों नहीं पहल की। क्यों बड़े बड़े पंडालों में शादियों का हंगामा होता रहा। अपहरण पर तो काबू पा ही सकते थे। एक बेहतर कम्युनिकेटर की यह दशा दिख रही है। लालू खुद गंभीर नज़र आते हैं। कैमरे के सामने सतर्क हो जाते हैं। अलग नहीं दिखते। लालू नहीं दिखते। लालू की तरह दिखते तो हो सकता था कि बिहार में मुद्दा कुछ गरमाता। टाइम चला गया साहिब। इस चुनाव मे कम बैक के आसार कम लगते हैं। किसी नेता को खारिज नहीं किया जा सकता क्योंकि नए दल और नया विकल्प बनने तक हमारे देश की राजनीति में वही नेता बारी बारी से आते रहते हैं।

कुछ लोगों ने नीतीश की नौटंकी पर लिखे मेरे लेख पर कहा कि मुझे पैसे मिले हैं। उन्हें शायद नहीं पता। पैसा देने और लेने वाले की औकात क्या होती है। जितना मौकापरस्त नीतीश है उतना तो लालू को आता भी नहीं है। यही नीतीश सूरजभान या आनंद मोहन में से किसी से समर्थन लेने गए थे। जब तक विकास करते हैं तब तक तो ठीक है लेकिन उनका अहंकार अब दिखता है। ओढ़ी हुई विनम्रता दो चार माइल सड़क बनाने के बाद उतर गई है। लालू तो लॉस्ट हो चुके हैं। रही बात लालू और नीतीश में बेहतर कौन है,तो जवाब यही है कि और विकल्प क्या है। नीतीश ने अच्छा काम किया है तो फिलहाल अच्छे हैं। देखते हैं कि कब तक अच्छे रहते हैं। कोसी बाढ़ में इनकी अच्छाई देखकर आया था। नीतीश की आलोचना ज्यादा होगी क्योंकि नीतीश से उम्मीद भी ज्यादा है। बिना पैसे के करूंगा।

ये फ्रंट क्रांति लायेगा..।

प्रभात शुंगलू

सुना है फिर से थर्ड फ्रंट बना है। सुना है इस थर्ड फ्रंट में लेफ्ट भी है। सुना है ये थर्ड फ्रंट बड़ा सेक्यूलर होगा। सुना है ये थर्ड फ्रंट सर्वजन है। सुना है ये थर्ड फ्रंट देश को नया प्रधानमंत्री देगा। सुना है एक बार फिर भारतीय राजनीति को नई दिशा देने की कवायद चल रही। सुना है देश की राजनीति में फिर क्रांति आने वाली है।

तो क्या थर्ड फ्रंट के इन क्रांतिकारियों से आप मिलना चाहेंगे। आइये इधर आइये। थोड़ा नीचे नजर डालिये। देखिये तो भारतीय राजनीति के इस विशाल समंदर में थर्ड फ्रंट की नाव में कौन कौन सवार कहां पर कैसे दाना डाल रहा।

ये हैं हरदनहल्ली डोडेगौड़ा देवेगौड़ा। एक्स पीएम। एक्स सीएम। एक्स प्रो सोनिया। एक्स प्रो बीजेपी। एक्स ऐन्टी लेफ्ट। मोजूदा एन्टी सोनिया। मौजूदा एन्टी बीजेपी। मौजूदा प्रो लेफ्ट। भावी पीएम इन मेकिंग। मौजूदा पीएम इन मेकिंग जैसे मायावती, जयललिता,चंद्रबाबू नायडू सरीखी लश्कर के लीडर। मुंह से किसान,कर्म से डेवलपमेंट के दुश्मन। एक्स एन्टी डाइनेस्टी। मौजूदा बेटे के अंध भक्त। सत्ता की लोलुपता है पिता-पुत्र डुओ की पहचान। बीजेपी से बेटे ने टाइ-अप किया। पिता श्री सोनिया के भरोसे 1996 में प्रधानमंत्री बने थे। लेकिन फिलहाल हठ ये कि कांग्रेस और बीजेपी दोनो से बराबर की दूरी। 16 मई बाद इनमें से किसी की सरकार बनती दिखी तो एक को बड़ा मैनेस बता कर दूसरे से सट लेंगे।

सीपीएम - इनके पब्लिसिटी मैनेजर ने पार्टी की पब्लिसिटी कम अपनी ज्यादा की। इसलिये आज राज्य सभा में हैं। इनकी पार्टी कहती कुछ है करती कुछ है। बंगाल में कुछ बोलती है,दिल्ली में कुछ। 86 साल के ज्योति बसु को बंगाल की सीएमशिप से विदा करती है,केरल के अछूतानंदन को 85 की उम्र में मुख्यमंत्री बनाती है। टाटा से हैंडशेक करती है। केन्द्र में एसईजेड का विरोध। मजलूम की राजनीति भी करते हैं। नंदीग्राम और सिंगूर में उनपर गोली भी चलाते हैं। इनके मुताबिक मोदी घोर कम्यूनल है। लेकिन बंगाल का मुस्लिम डेवलेप्मेंट इन्डेक्स अरसों से लुढ़का पड़ा है। अभी तक उठ नहीं पाया। सरकार बनवाते है। सरकार गिराते हैं। दूर बैठ के खेल का मजा लेते हैं। छोटे भाई सीपीआई को केन्द्रीय मंत्रिमंडल में घुसा देते हैं। खुद हिस्टॉरिक ब्लंडर कर देते हैं। सामने सामने पाक साफ मगर बैकसीट ड्राइविंग के उस्ताद। अब मायावती को स्टीयरिंग थमा कर सत्ता का रिमोट कंट्रोल अपने हाथ में रखने के मंसूबे बांध रहे।

जयललिता - इनके पास कभी बाटा के स्टोर से ज्यादा सैंडिलस्स और जूतियों की दुकान थी। यानि एक कमरे में अम्मा की जूतियां ही सजी थी। अम्मा अपने मूड के हिसाब से सैंडिल्स पहनती हैं। जितना सोना भप्पी लहरी अपने सीने पर लाद के चलते हैं उतना सोना तो जयललिता ने अपने खानसामे की बीवी को गिफ्ट कर दिया था। जयललिता खुद मैकेनास गोल्ड की वो गुफा जहां के सोने की रखवाली एक तीसरी शक्ति करती है। वो तीसऱी शक्ति भी खुद जयललिता ही हैं। इस गोल्ड से ऊबी तो तमिलनाडू के रियल एस्टेट गोल्ड पर नजर जमाती हैं। एक बार तो यें जबरदस्त फंस गयीं। जया अम्मा को अदालत नें तांसी जमीन घोटाले में पांच साल की सजा सुना दी। चुनाव भी नहीं लड़ पायीं। कभी हां तो कभी न। आडवाणी जी ने अंग वस्त्रम पहनाया तो अम्मा ने वाजपेयी के लिये रिटर्न गिफ्ट में ये गाना ब्लूटूथ किया --- खींचे मुझे कोई डोर, तेरी ओर... लेकिन साल भर बाद वाजपेयी जी ये गाते हुये नजर आये - तुम्हारी नजर क्यों खफा हो गयी..खता बख्श दो गर खता हो गयी। इस बार आडवाणी नहीं कांग्रेस पर डोरे डाल रहीं। थर्ड फ्रंट में हैं भी और नहीं भी। 16 मई बाद थर्ड फ्रंट से जुड़ कर यूपीए की शिप में कूदने का जुगाड़ भी तलाश रहीं।

सुश्री मायावती - मैं बन की चिड़िया बन के बन बन डोलूं रे...मास्टर कांशीराम से इस स्टूडेंट ने यही सीखा सत्ता के लिये कुछ भी करेगा। मन किया तो मुलायम से सटे, मन किया तो उसे दुतकार दिया। मन किया तो कल्याण से संधि। मन किया तो बीजेपी मनुवादी। मन किया तो बहुजन। मन किया तो सर्वजन। मन किया तो क्रिमिनल का सफाया। मन किया तो क्रिमिनल को चुनावी टिकट। मन किया तो हाथी को कांग्रेसी बन में दौड़ा दिया। मन किया तो रायबरेली में कांग्रेसी बन को रौंद दिया। मन किया तो मास्टर जी की याद में करोड़ो की मूर्ति तराश दी। मन किया तो सैंकड़ो करोड़ लगा कर अपनी मूर्ती और विशाल बनवा दी। मन किया तो 5 कालीदास मार्ग से ताजमहल के बीच करप्शन का एक्सप्रेसवे बनवा दिया। मन किया तो ब्लू। मन किया तो पिंक। अब बोल रहीं पीएम बनना है इसलिये, गिव मी रैड।

चंद्रबाबू नायडू - लेफ्ट वालों की तरह ये विदेशी ब्रांड की सिग्रेट नहीं पीते। लेकिन लेफ्ट से अलग शहरों के विकास और चकाचौंध पर बड़ा जोर देते हैं। मॉल कल्चर में घोर विश्वास है। सीपीएम की तरह सरकार को बाहर से समर्थन देते हैं। सीपीएम की तरह स्पीकर अपना बनाते हैं मगर सरकार से डिस्टेंस बना कर रखते हैं। कहीं अख्लियत छिटक न जाये। सीपीएम बैकसीट में माहिर तो बाबू केन्द्र से फंड निकलवाने में। वाजपेयी की इंडिया शाइनिंग में बाबू के मॉल कल्चर का भी योगदान था। फिर पब्लिक ने बाबू के मॉल और वाजपेयी के एनडीए कल्चर दोनों पर शटर गिरवा दिया। मन किया तो एनडीए मन किया तो अकेले। और फिर मन किया तो थर्ड फ्रंट जिन्दाबाद। बाबू कहते हैं पीएम नहीं बनना। ये चुनाव से पहले। चुनाव के बाद - वी विल क्रॉस द ब्रिज वेन इट कम्स।

अब शरद पवार भी दो नांव में सवारी करना चाहते हैं। यूपीए में कांग्रेस के पीएम मनमोहन हैं इसलिये पवार को ये बात खल रही। थर्ड फ्रंट में एन्ट्री मारने को बेचैन हैं। इन्हे भी पीएम बनना है। पांच साल में हजारों किसानों नें भुखमरी झेलते हुये खुदखुशी कर ली। मगर कृषि मंत्री पवार ने इन लाशों पर भी सपने देखने नहीं छोड़े। ये पीएम बनेंगे तो एक बाइब्रेंट कृषि प्रधान समाज बनायेंगे। गल्तियों पर पछतावा तब करेंगे जब पीएम बनेंगे। जैसे मोदी इन दिनो बोल रहे - भूल चूक लेनी देनी।

थर्ड फ्रंट की चुनावी नौका में या तो लोग प्रधानमंत्री रह चुके हैं या पीएम बनने की ऐम्बिशन पाल रहे। ठीक भी है। खुदा न खास्ता सरकार बनी भी तो हर एक शक्स रोटेशन से एक साल प्रधानमंत्री रह सकता है। जिनको प्रधानमंत्री नहीं बनना वो अपना अपना कस्बा लेकर खुश हैं। अलग राज्य मिलेगा तो मुख्यमंत्री बन ही जायेंगे। इस थर्ड फ्रंट में सभी के लिये कुछ न कुछ है। ये थर्ड फ्रंट सर्वजन है। ये थर्ड फ्रंट सेक्यूलर है। इस थर्ड फ्रंट में लेफ्ट है। इस थर्ड फ्रंट में बड़े बड़े क्रांतिकारी है। ये भारी भरकम थर्ड फ्रंट की नाव किस ओर जायेगी पता नहीं। मंजिल मिलेगी या नहीं पता नहीं। चुनावी थपेड़ों को साथ झेल पायेगी पता नहीं। चुनाव के बाद किनारा मिलेगा या नही पता नहीं। किनारा आते आते कहीं सवार बीच में ही कूद के दूसरी शिप पर सवार हो जायेगा, पता नहीं। मगर हिंदुस्तान की राजनीति में जब जब इलेक्शन आयेंगे, थर्ड फ्रंट की नाव दूर क्षितिज पर नजर आ ही जायेगी।

हैलो, मैं सेकुलर नीतीश बोल रहा हूं, मोदी शट अप

नीतीश कुमार ने एऩडटीवी इंडिया से कहा है कि नरेंद्र मोदी को बिहार आने की ज़रूरत नहीं। बिहार में बीजेपी के कई बड़े नेता हैं जिनकी बदौलत एनडीए फलफूल रहा है। अब इस बात से सब खुश हो गए कि नीतीश बाबू सेकुलर हैं। समाजवादी के साथ एक एडिशनल बेनिफिट भी है इनके साथ कि भाई जी सेकुलरो हैं। जब गुजरात में दंगे हुए तो ममता बनर्जी ने वाजपेयी मंत्रिमंडल छोड़ दिया। नीतीश कुमार ने नहीं छोड़ा। वे आज तक एनडीए में बने हुए हैं। फरवरी २००५ के विधानसभा चुनावों में नरेंद्र मोदी बिहार का एक फेरा लगा चुके थे। सिर्फ अक्तूबर के चुनावों से नरेंद्र मोदी को बिहार बदर कर रखा है। फ्राड नेता लोग और बुरबक सेकुलर लोग। मुसलमानों को भी ये नेता लोग अपने जैसा बुरबक बूझते हैं।

बिहार में बीजेपी किस तरह से नरेंद्र मोदी वाली बीजेपी से अलग है नीतीश बता देते तो अच्छा रहता और ये नरेंद्र मोदी,छद्म धर्मनिरपेक्षता के खिलाफ दुकानदारी चलाते हैं। नीतीश से पूछते न कि क्या ये आपकी छद्म धर्मनिरपेक्षता नहीं है। मेरी ही पार्टी के साथ सरकार चलाते हैं और उसी के एक बड़े नेता से परहेज़ कर सेकुलर बन जाते हैं। क्या सेकुलर बनना इतना आसान है।

नरेंद्र और नीतीश में कोई दुश्मनी नहीं है। सिर्फ दूरी है। नरेंद्र कोसी बाढ़ के बाद राहत लेकर बिहार आने चाहते थे, नीतीश ने कहा मत आना। बट सामान भिजवा दो। सो नरेंद्र ने नीतीश के बिहार को थरिया लोटा ट्रेन से भिजवा दिया। बिहार के पीड़ित लोगों ने राहत सामग्री को सहर्ष स्वीकार भी किया। नीतीश की तरह अनादर नहीं किया।

अब सवाल यह है कि मुसलमानों का वोट ही लेना है तो नौटंकी क्यों करते हैं? बीजेपी के साथ मत रहिए न। क्या बीजेपी ने कहा है कि नरेंद्र मोदी हमारे नेता नहीं है। नरेंद्र मोदी तो सबसे महत्वपूर्ण नेता हैं। दरअसल इन्हीं सब बातों के कारण सेकुलर पोलिटिक्स और इसे स्यूडो बताकर चुनौती देने वाले नरेंद्र मोदी टाइप के संघी नेताओं का तेल हो रहा है। सब एक दूसरे से मिले हुए और एक दूसरे के लिए एडजस्ट करते रहते हैं। नीतीश ने मना कर दिया और ताकतवर और गुजरात का शेर कहलाने वाला नेता पतली गली से कट लिया। मुंह छुपा कर भाग लिये कहेंगे तो ज़्यादा अपमान हो जाएगा।

अब सवाल यह है कि जिस दिन नरेंद्र मोदी बीजेपी में आडवाणी की जगह लेंगे उस दिन क्या नीतीश बिहार बीजेपी को बाय बाय कर देंगे या फिर उसी दिन के लिए इस तरह के बयानों से बुनियाद डाल कर छोड़ दे रहे हैं ताकि बाद में इमारत बनायेंगे कि देखिये हम तो शुरूवे से मोदिया के खिलाफ रहे हैं। बिहारवा में घुसने ही नहीं दिये न ओकरा रे। मोदी कोई अछूत नहीं है। उनसे डर लगा है का। आने दीजिए। ये अलग बात है कि नमो भाई नीतीश भाई से डर गए। ऊपरे ऊपरे उड़ीसा से निकल लिए। पता नहीं हवाई मार्ग के रास्ते में बिहार पड़ता है कि नहीं।

सड़क बनाकर विकास विकास कह कर नीतीश भी सुविधानुसार सांप्रदायिक राजनीति के साथ एडजस्ट कर रहे हैं और सड़क बनाकर दंगों के बाद शान से मोदी खुलेआम राजनीति कर रहे हैं। विकास के बहाने सांप्रदायिकता का यह चेहरा देखना होगा।
इसीलिए मेरी राय में नरेंद्र मोदी को लेकर नौटंकी करने की ज़रूरत नहीं। उन्हें बिहार आना चाहिए। भाषण देना चाहिए। फिर बिहार की जनता तय कर ले,गुजरात की तरह कि किसके साथ रहना है। प्रतीकों की भी सीमा होती है। इसी के सहारे राजनीति बहुत दूर तक नहीं चलेगी। नीतीश मुख्यमंत्री हैं। रोड वोड बनवाना काम तो है ही, राजनीति की दिशा भी तय करना एक काम होता है। नाली खडंजा बिछवा कर कोई अहसान थोड़े कर रहे हैं। लालू ने बिहार को धंसा दिया वर्ना सांप्रदायिकता को सड़क का सहारा लेने का मौका ही नहीं मिलता। बिहार की पब्लिक वैसे ही अपने वोट से नरेंद्र मोदी को खदेड़ देती। इसलिए नीतीश जी नौटंकी मत कीजिए। हम भी आपके सड़क और कानून व्यवस्था ठीक करने के कायल हैं मगर तारीफ करने का मतलब नहीं कि कपार पर कूदने लगियेगा। भागिये इहां से त।

दुनिया के बुरबक सेकुलर एक दिन जग गए न भाई जी उसी रोड से भागना पड़ जाएगा जिसे बनवा रहे हैं। विकास किये हैं तो इसी पर टिके रहिए न। बिहार की पब्लिक आपका साथ देगी न नीतीश बाबू। नहीं किये हैं तो और बात है। तब तो इ ड्रामा कर लीजिए। हम का कर सकते हैं। बौद्धिक जुगाली के अलावा। एसी इंटेलेक्चुअल हूं। चुअल बानी आसमान से। तू बाड़ नूं ज़मीन में। सेकुलर। मोदी के रोकले रहिए। ढुके मत दिए बिहार में।

चार कॉलम के नीतीश और सिंगल कॉलम के जॉर्ज

राजनीति और अपनी पार्टी में पतन की एक शानदार कथा हैं जॉर्ज फर्नांडिस। राजनीति में जिसकी जवानी हीरो की तरह रही हो, उसका बुढ़ापा ऐसे कटेगा, भारत के हर बुज़ुर्ग को अंदेशा तो रहता ही है, जॉर्ज को ये अंदेशा क्यों नहीं रहा। जॉर्ज फर्नांडिस घर से निकाल दिए गए उस बुज़ुर्ग की तरह हैं जिसके बच्चों पर कोई उंगली नहीं उठा रहा। सब बुजुर्ग को गाली दे रहे हैं। बच्चा कलेक्टर है तो उसकी बुराई तो कोई नहीं कहेगा क्योंकि उसके पास सत्ता है, पद है और नाम है। रही बात धकिया कर निकाले गए बाप जॉर्ज की तो उससे सहानुभूति जताने वाले ठोक बजा ले रहे हैं कि कहीं कलेक्टर बेटा देख न लें। बिहार में यही हो रहा है। कोई जॉर्ज फर्नांडिस की चर्चा नहीं कर रहा। बेचारे सिंगल कॉलम में भी जगह नहीं पा सके हैं। क्या पता उदारमना नीतीश के राज में मीडिया नीतीशमना हो रहा हो या फिर पत्रकारों के लिए जॉर्ज अब स्टोरी नहीं रहे। राष्ट्रीय मीडिया में तो जॉर्ज पर चर्चा भी हुई लेकिन बिहार की मीडिया जॉर्जविमुख हो चुकी है।

युवा वोटरों और युवा नेताओं की खोज के इस दौर में राजनीति में किसी बुज़ुर्ग नेता को लतिया देने की ऐसी मिसाल कहीं नहीं मिलेगी। भला हो बीजेपी का। कम से कम हर पोस्टर पर अटल जी अब भी जवान दिखते हैं। पार्टी अटल के अतीत से आगे निकल गई है लेकिन अटल को छोड़ नहीं सकी है। इन्हीं अटल को प्रधानमंत्री बनाने के लिए जॉर्ज जिस तरह से तमाम दलों के बीच संयोजन का काम करते रहे, अपने लिए एक भी ऐसा दल नहीं ढूंढ पाए जो कम से कम उन्हें नेता तो मानती। समाजवादी जॉर्ज नरेंद्र मोदी के राज में हुए दंगों के बाद भी अपने बागी तेवरों को म्यान में रखे रह गए। एक बागी और तेवर वाला नेता संयोजक बन गया। मीडिएटर। बिचौलिया। सबको एकजुट रखने वाला। कभी ममता को मनाता तो कभी नायडू को समझाता। उसके घर से तहलका के तार निकल गए। रक्षा सौदे में घोटाले का कथित आरोप लगा।


लेकिन तब तक जॉर्ज ने अपनी हैसियत बना ली थी। टिके रहे। अटल बिहारी वाजपेयी हटा नहीं सके। लेकिन जॉर्ज अपने ही घर में लतियाए जाने का संकेत न देख सके। नीतीश ने उन्हें खत लिखा कि आपको राज्य सभा भेज देंगे। आप बीमार हैं। नीतीश या शरद जॉर्ज के घर भी जा सकते थे। पता नहीं गए या नहीं। बाद में जॉर्ज नहीं माने तो अब कह दिया है कि वे पार्टी से बाहर हैं। जॉर्ज ने निर्दलीय चुनाव लड़ने का फैसला किया है।

समाजवादियों से बड़ा कोई समझौतावादी नहीं रहा। जातिवादी नहीं होते तो समाजवाद की ढिबरी कब की बुझ गई होती। अपनी तमाम राजनीतिक संभावनाओं और कामयाबियों की कहानी के बाद भी समाजवादी एक विचित्र किस्म के राजनीतिक प्राणी बने रहे। मेरे लिए समाजवादियों का मतलब जनता दल या लोकदल टाइप दलों तक ही सीमित है। समाजवाद के नाम पर इनकी हैसियत जात पर ही टिकी रही। जार्ज बेजात रहे। फिर भी मुज़फ्फरपुर से जीतते रहे। वो सही मायने में समाजवादी नेता था। उनके जीतने के कारणों में जातिगत समीकरणों की चर्चा कम ही हुई है। नीतीश या लालू ऐसी जगह से लड़ के दिखा दें जहां उनकी जाति के वोट सबसे कम हों।


नीतीश ने जार्ज को निकाल दिया। कोई नीतीश का कुछ बिगाड़ नहीं सकता। देवीलाल ने कहा था कि लोक राज लोक लाज से चलता है। लेकिन गुजरात के बाद से यह खत्म हो गया। दंगा होने दो और अच्छी सड़कों को बनने दो। नेता कहने वालों की कमी न होगी। नीतीश भी इसी तरह की राह पर हैं। दिग्विजय सिंह तो जवान थे फिर उन्हें क्यों चलता कर दिया। जॉर्ज बूढ़े हो गए हैं तो मना लेते। बुढ़ापे में कोई भी सिर्फ सम्मान का मोहताज़ होता है। उन्हें मिला या नहीं भगवान जाने।


जॉर्ज फर्नांडिस एनडीए के संयोजक तो अब भी है। उन्हीं के पीछे कार्यकारी संयोजक बने हुए हैं शरद यादव। पहले भी नीतीश और लालू मिलकर जॉर्ज को संसदीय दल के नेता पद से हटवा चुके हैं। तब शरद यादव ही नेता बनाए गए थे। इस बार तो एनडीए ने भी नहीं रोया जॉर्ज के लिए। जिस एनडीए को वे बिचौलिया बनकर संयोजित करते रहे वहां भी जार्ज के लिए कोई नहीं बचा। किस्मत को मानने वालों को जॉर्ज को अभागा कहना चाहिए और नीतीश को कहना चाहिए कि वक्त किसी का नहीं होता। ये एनडीए का चरित्र है। अपने नेता को मक्खी की तरह निकाल कर फेंक दिया।

मीडिया के डार्लिंग रहे जार्ज यहां भी बेगाने हो चुके हैं। जॉर्ज ने अपना पतन तो किया ही, उससे ज़्यादा उनके चेलों ने भी जॉर्ज की कोई कसर नहीं छोड़ी। कांग्रेस या एक पार्टी की सत्ता को अकेले दम पर चुनौती देने वाले महान समाजवादियों की विरासत का यही हाल होना था। अब समाजवादी खेमे में वही प्रासंगिक है जो लोहिया का नाम लेता हो मगर लोहिया की जात का न हो। लोहिया की जात का होंगे तो बिहार में एक सीट नहीं जीत पायेंगे। जॉर्ज न तो जवान है न ही उनकी कोई जात है। घर से निकाले गए बुज़ुर्गों पर आंसू बहाने वाला कोई नहीं है। जॉर्ज फर्नांडिस के लिए बीजेपी भी नहीं रो रही। नीतीश क्यों रोएंगे, उन्हें तो हर दिन पेपर में चाल कॉलम मिल ही रहा है। जॉर्ज तो सिंगल कॉलम के ख़बर भी नहीं रहे।

अंतिम संस्कार की अंतिम बातें

रामनवमी के दिन हमारी एक मासी मां का निधन हो गया। किसी के जुड़ने का मतलब नहीं होता कि आप उसे कितने सालों से जानते हैं। दो तीन सालों से जानता था। उनका मुस्कुराना और हाल चाल पूछने में चिंता का अंदाज़, हमेशा लगा कि कोई मेरा ख्याल करना चाहता है। कम लोग होते हैं जिनके चेहरे पर हंसी खिल कर आती है। अस्सी साल की उम्र में भी उनकी हंसी उन्हें बेहद खूबसूरत बना देती थी। बांग्ला और हिंदी घुलती मिलती जब उनकी ज़बान से उतरती थी तो भाषा किसी नादान बच्चे की तरह हो जाती थी। रोबिस तुम कैसी है। फिर वो ठीक कर देती थी कि कैसा है। हंसने लगती कि बाप रे क्या करेँ। तुम ही बांग्ला सीख लो। अब नहीं हैं। हमेशा के लिए नहीं। जाने वाला सिर्फ यादें छोड़ जाता है।

लेकिन मैं यह लेख किसी और वजह से भी लिख रहा हूं। हिंदी न्यूज़ चैनलों ने जिस तरह से श्मशान को काली विधाओं का भयंकर गढ़ बना दिया है,उस छवि को लेकर श्मशान में जाएं तो एक डर पहले से मौजूद रहता है। लेकिन श्मशानों के बारे में लिखा जाना चाहिए। हम सब मासी मां को दिल्ली यूपी बार्डर पर गाज़ीपुर श्मशान घाट लेकर गए। वहां का इंतज़ाम देखकर मैं हैरान रह गया। हर बात का ख्याल रखा गया था ताकि आपको कोई और सांसारिक तकलीफ न हो। गेट पर ही चार लोग मिले और आखिर तक बिना पैसा लिये, मदद करते रहे। लकड़ी के लिए पूछा तो कहा जितना चाहिए उठा लीजिए, पैसा बाद में देंगे। साफ सुथरा इंतज़ाम। दिल्ली के कई श्मशानों को देखा है। जहां इस तरह के इंतज़ाम किये गए हैं। अंतिम संस्कार में लूट खसोट करने वाले पंडे पंडित का जोर नहीं चलता।

श्मशान घाट की दीवारों पर लिखे संदेश भावुक मन को हल्का कर देते हैं। जिस चबूतरे पर शव को रख कर पिंड दान किया जा रहा था, उसके सामने लिखा था- यहां तक लाने का बहुत शुक्रिया,आगे का सफर खुद तय कर लूंगा। हर दीवार पर इसी तरह की बातें जिससे मन हल्का होता रहा। किस काम में कितना पैसा लगेगा यह सब दीवारों पर लिखा था। उससे एक रुपया अधिक किसी ने नहीं माना। जहां शव को जलाया गया उसके द्वार पर लिखा था, मुक्ति द्वार।

मेरा ज़्यादातर अनुभव उत्तर भारत के भीषण सामंती गांवों का ही रहा है। वहां इस तरह के इंतज़ाम नहीं होते। श्मशान घाट तो होते हैं लेकिन इतनी गंदगी होती है कि मन और बेचैन हो जाता है। पैसे खसोटने के लिए नाई और पंडित परेशान कर देते हैं।
हमारी पौराणिक परंपराओं के नाम पर पैदा हुए डाकू गाज़ीपुर के श्मशान घाट में नहीं थे। अच्छा सा पार्क बना था। जीवन और मृत्यु के बेहतरीन संदेश लिखे थे। चार स्वर्गवासी माताओं का नाम लिखा था। मैं सोच ही रहा था कि इनके नाम क्यों लिखे गए हैं तभी नीचे लिखी एक लाइन पर नज़र गई। लिखा था- इन चारों माताओं की उम्र सौ साल थी। इन्हीं के बच्चों के नाम श्मशान घाट चलाने वाली समिति में थी। तभी समझा जिसने जीवन को इतना जीया हो वही समझ सकता है जीवन के बाद का जीवन। पंडित के खिलाफ कंप्लेन करने के लिए शिकायत पुस्तिका रखी गई थी। आप चाहें तो लिख कर आ सकते थे कि पंडित ने बदसलूकी की है। हमें श्मशानों के बारे में भी अपनी रचनाओं में जगह देनी चाहिए। वे औघड़ों के अड्डे नहीं है जिन्हें दिखाकर टीवी चैनल रेटिंग भकोसता है।

( एक मकसद और था इसे लिखने का। दिल्ली के विद्युत शवदाहगृह नौ बजे सुबह से पांच बजे शाम तक ही खुले रहते हैं। इसका तर्क समझ नहीं आया। परिवार चाहता था कि विद्युत शवदाहगृह का इस्तमाल करें लेकिन पांच बज जाने के कारण लकड़ी की चिता जलानी पड़ी। एक शरीर के साथ एक पेड़ की भी चिता जली। गाज़ियाबाद में तो है ही नहीं शायद। जब लोग नदियों के बिना दाहसंस्कार करने लगे हैं तो लकड़ियों के बिना भी किया जा सकता है। )

आइटम स्लोगन

१. लालू मिल गए पासवान से
कांग्रेस गई अब काम से

२. मायावती की बारी है
हाथी सबकी सवारी है

३. नीला रंग आसमान का
हाथी चला कांशीराम का

४. पंडी जी बोले राम राम
दलित बोला मैं हूं राम

५. अमर सिंह की सीडी में
फंस गए बेटा पोलटिक्स में

६. राजनाथ का है गुणा भाग
मित्तल अंदर, जेटली भाग

७. यूपी की इस पोलटिक्स में
मुलायम तगड़े सेटिंग में

८. मुन्ना मर्सिडिज़ की पार्टी है
पर नाम समाजवादी पार्टी है

९. मुलायम का है आखिरी दांव
पटको हाथी, झटको हाथ

१० बहन जी का भजन है
बहुजन अब सर्वजन है

११. सोनिया जी सोनिया जी
देखो कैसी दुनिया जी

१२, लेफ्ट हो गया अब लाल है
कांग्रेस का आ गया काल है

नवरात्रा का रिटर्न गिफ्ट




















आज मेरी बेटी को कन्या पूजन का प्रसाद मिला है। बड़ी होने के काऱण उसने जाना बंद कर दिया। लगता है कि बाकी लड़कियों ने कन्या पूजन का भोग खाना बंद कर दिया है। तभी अब नवरात्रि खत्म होते ही चना,हलवा और पूड़ी का प्रसाद घर आने लगा है। भिजवा दिया जाता है। आज भी पड़ोस की भाभी जी प्रसाद लेकर आईं तो मेरी बेटी ड्राइंग रूम से कमरे की तरफ भागी। वो दुलार पुचकार के बुला रही थीं लेकिन मेरी बेटी ने सुना ही नहीं। फिर वो मेज़ पर एक टिफिन बाक्स रख कर चली गईं और कह गईं कि बेटी को खिला दीजियेगा। पिछले साल भी प्रसाद घर आ गया था। तब पत्ते के प्लेट में आया था। इस बार रिटर्न गिफ्ट की तरह आया है। नए टिफिन बाक्स में। तस्वीर देख सकते हैं। कन्या भ्रूण हत्या पर तो कोई सोचता नहीं लेकिन कन्याओं को भोग खिलाने के लिए प्रसाद की पैकेजिंग कर रहे हैं। इस तरह से घर घर में बेटियों के मारे जाने का फायदा आज प्लास्टिक उद्योग को खूब हुआ होगा। न जाने कितने घरों में भक्तों ने पड़ोस की बेटियों को खिलाने के लिए प्लास्टिक के टिफिन बाक्स खरीदे होंगे। वैसे प्रसाद टेस्टी था। नवरात्रि के प्रसाद का इंतज़ार मैं करता हूं लेकिन मुझे तो कोई नहीं देता। जब पुत्रों के लिए इतना ही मोह है तो कन्या पूजन का ढोंग क्यों। पुत्र पूजन कीजिए न। कहा तो कि मुझे प्रसाद अच्छे लगते हैं। शुद्ध घी वाले। शुद्ध।

साज़िश इन सियासत

सियासत और साज़िश का अन्योन्याश्रय संबंध हैं। सियासत में कई तरह की साज़िशें होती हैं। एक साज़िश वो होती है जो की जाती है। दूसरी वो होती है जो नहीं की जाती है लेकिन किये जाने की बात कही जाती है। एक साज़िश वो होती है जिसके सबूत होते हैं, दूसरी वो होती है जो साबित नहीं की जा सकती। पार्टी से निकाला जाना हमेशा किसी साज़िश के तहत होता। विवाद भी साज़िश की ज़मीन पर पनपते हैं। साज़िश न हो तो सियासत में सारे आरोप अनाथ हो जाएं। सारे आरोपों का एक ही मां बाप है- साज़िश। साज़िश का खानदान काफी बड़ा है। हरा देने की साज़िश का अलग रोल है। सियासत में भी साज़िशों का गठबंधन होता है। जैसे वरुण गांधी पर एनएसए लगने के मामले में सापा का आरोप है कि बीजेपी और मायावती की साज़िश है। बीजेपी का आरोप है कि कांग्रेस और मायावती की साज़िश है। अब इन तीनों में आपसी बातचीत नहीं है लेकिन साज़िश ये मिल कर कर रहे हैं। साज़िश का अलायंस हो सकता है। कुछ साज़िशें विदेशों में रची जाती हैं। कुछ साज़िशें देश में रची जाती हैं।
आज कल कुछ साज़िशों की वीडियो रिकार्डिंग भी की जाती है। हंसराज भारद्वाज अपने बेटे सरीखे संजय दत्त से साज़िश करने गए तो रिकार्डेड हो गए। संजय दत्त ने भी कह दिया कि मैं क्यों न करूं साज़िश। बिल्कुल सही बात है। संजय को हक है कि वो साज़िश करे, वर्ना सियासय छोड़ दे। साज़िश से बिल्कुल न घबराये। ये होते रहने वाली बीमारी है। कहीं न कहीं होती रहती है। वो शख्स कभी साज़िश नहीं करता जो खुद के खिलाफ साज़िश होने का आरोप लगता है। जो आरोप लगाता है उसे भी लगता है कि साज़िश को सामने लाना उसका राष्ट्रीय कर्तव्य है। चुनाव के समय साज़िशें बढ़ जाती हैं। चुनाव खत्म होते ही रेस्ट पर चली जाती हैं।

इलेक्शन के आइटम स्लोगन

((जैसा कि मैंने कहा कि जब से पत्रकार होने का बोझ सर से उतर गया है मैं सस्ता शायर से होते हुए चीप टाइप स्लोगन राइटर भी बन रहा हूं। टीवी में काम करने से प्रतिभाओं को निखरने का बहुआयामी एभेन्यु मिलता है। गौर फरमाएं। फ्री है। इस्तमाल कर सकते हैं। सारा माल फ्री टू एयर है। अब आप कहेंगे कि क्या ये मेरा काम है? क्यों नहीं है? इलेक्शन में मजा लेने और उसका आनंद लेने का हक मुझे भी है। कृपया चीप स्लोगन की रेटिंग ज़रूर करें ))

पूरे बिहार के लिए कामन स्लोगन

१. बाबाजी न ठाकुर न हउवें इ बनिया
चलले ओबामा इलेक्शन लड़े पूर्णिया

२. बिहार का इ माइनस फैक्टर है
डेबलेपमेंट नहीं कास्ट फैक्टर है

३. जात-पात है खरपतवार
काटो इसको, बचाओ बिहार

४. इलेक्शन में अब यही काम बच गया है
लालू का एंटी था कांग्रेसी हो गया है


लालू के लिए स्लोगन

१. लालू पासवान का है रेल सेल
नीतीश को मिलके देंगे ठेल

२. देगा सबको तगड़ा फाइट
लालू करेगा सबको टाइट

३. आलू नहीं ये चालू है
लड़ने आया लालू है

४. हार्वड में जाकर आया है
लालू बदल कर आया है

५. एमबीए में होती पढ़ाई
लालू ने कैसे रेल चलाई

6. लालू में आया चेंज है
बढ़ गया इसका रेंज है

नीतीश के लिए

१. रोड बनाकर,लाइट लगाकर
नीतीश जीतेगा काम दिखाकर

२. चल बिहार तू छोड़ जात
नीतीश अपना ज़िंदाबाद

३. तू जात जात
मैं विकास विकास

४. नीतीश बाबू नीतीश बाबू
कहां गए चोर डाकू

कांग्रेसियों के लिए

१. राहुल बाबा का है ज़ोर
कांग्रेस पार्टी का है शोर

२. नीतीश का तगड़ा सेटिंग है
आडवाणी पीएम वेटिंग हैं

३. बचे खुचे हैं हम सारे
ज़ोर लगाके दम मारे

४. डूबते को तिनके का सहारा
कांग्रेस को राहुल का सहारा

रेल-सेल देंगे नीतीश को ठेल ?

जब से पत्रकारिता से दूर गया हूं, एक भूतपूर्व पत्रकार की तरह राजनीतिक ख़बरों को लेकर बेचैनी हो रही है। पिछले कई दिनों से बिहार के पत्रकारों,विद्वानों,जातिवादी नायकों और रिश्तेदारों को फोनिया रहा हूं। बाबा जी लोग गुस्सा में है। राजपूत लोग कबाड़ देगा। नीतीश के साथ सिर्फ भूमिहारे बच गया है। फलां सीट पर मियां जी बंट गए हैं और पंडी जी का सीन बन रहा है।

किसी ने कहा अभी सिनेरियो बना नहीं है। बिहार के लोगों के राजनीतिक विश्वेषण में सिनेरियो और माइनस फैक्टर का ज़िक्र खूब आता है। सारा भाषण देने के बाद भाई साहब लास्ट में माइनस फैक्टर भी बताते हैं। देखिये उनके साथ माइनस फैक्टर ये है कि कंडीडेट के मामले में कमज़ोर पड़ जाते हैं। जात तो है साथ में लेकिन नीतीश का सपोर्ट नहीं है।

बिहार को इस बार फैसला करना होगा। जाति के साथ जाना है या विकास के साथ रहना है। केंद्र की राजनीति में लालू ने तथाकथित रेल की कामयाबी का झंडा गाड़ा है। हावर्ड वाले भी आके देख गए हैं। नीतीश ने तथाकथित स्टेट लेभुल पर विकास का काम किया है। सब विकास की बात कर रहे हैं लेकिन सेटिंग जात के आधार पर कर रहे हैं। यह एक बड़ा और रोचक सवाल है कि बिहार की पब्लिक लोकल भर्सेस नेशनल में कास्ट का क्या करती है।

इसके लिए यह भी देखना होगा कि विकास की राजनीति के साथ नीतीश के अति दलित और अति पिछड़े की राजनीति की चर्चा क्यों हो रही है? क्या नीतीश विशुद्ध विकास की राजनीति करने में नाकाम रहे? या फिर उनसे इतना परफैक्ट उम्मीदीकरण उसी तरह की नाइंसाफी है जैसे टीवी के लखटकिया पत्रकारों से पत्रकारिता की उम्मीद। नीतीश क्यों कहते हैं कि कास्ट फैक्टर है। वो क्यों एक झूठा महादलित आयोग बनाने निकले? वो जाति के हथियार से काउंटर कर रहे थे। पासवान और मायावती को। एक नेता के तौर पर उनको यही करना भी चाहिए था लेकिन क्या सिर्फ इसी वजह से बाबाजी लोग एंटी होकर घूम रहे हैं। हो सकता है कि सब अनालिसिसि सही हो लेकिन कहीं ऐसा तो नहीं कि हम इसके आगे की तस्वीर नहीं देख पा रहे हैं?

पिछले विधानसभा में क्या जातिगत गठजोड़ की जीत हुई थी? क्या उसमें जाति से ऊपर उठकर विकास के लिए फैसला नहीं था? कुछ हद तक था लेकिन विकास का एजेंड़ा तभी जीत पाया जब एक खास तरह का जातिगत गठजोड़ बिखरा था। लालू और पासवान अलग हुए थे। अब दोनों एक साथ हैं। लालू की रेल छवि है। पासवान की सेल छवि है। सेल पीएसयू कंपनी का नाम है। रेल सेल मिलकर नीतीश को ठेल देना चाहते हैं।

वरिष्ठ पत्रकार श्रीकांत कहते हैं कि बिहार को तय करना होगा। जाति के साथ जाना है या विकास के साथ। एक पत्रकार ने कहा कि जादो जी टाइट है। सत्ता से हटने के बाद समझ में आ गया है कि विकास के साथ जीना और पावर के बिना जीना अलग बात है। बेतिया में साधू यादव के साथ जादो जी और कान्यकुब्ज बाबाजी मिलकर प्रकाश झा की घंटी बजा देगा। बिहार के जितने लोगों से बात करता हूं, सब कहते हैं कि कानून व्यवस्था के मामले में काफी सुधार है। विकास के नाम पर कई जगह काम हो रहे हैं। तो क्या इस पर वे फैसला करेंगे। जवाब निश्चित हां में नहीं मिलता। लोग यही कहते हैं देखिये का होगा। कुछ कहते हैं नीतीश भी जात पात की पोलिटिक्स क्यों कर रहे हैं? लालू पासवान और नीतीश सब वही कर रहे हैं। एक सज्जन ने कहा कि किसने कहा है कि जात पात पर जीत कर आए सांसद या बनी हुई सरकार विकास के काम नहीं करते? फिर बात बात में जाति को लेकर क्यों गरियाते रहते हैं? इ तो कंबिनेशन है न भाई जी। हर जीत में कंबिनेशन बनता है।

तो फिर पब्लिक के पास क्या विकल्प है? जाति के हिसाब से वोट देने का या विकास के नाम पर? बिहार पर मेरा यह लेख कंफ्यूज़िग है? जिससे भी बात करता हूं वो कंफ्यूज़ है। बाबाजी इसी बात से नाराज़ है कि नीतीश ने एक्कोगो बाबाजी जी को टिकट नहीं दिया। ये कौन सी नाराज़गी है भाई? क्या बाबाजी भी यही चाहते हैं कि नीतीश जात पात की राजनीति करें? और क्यों न चाहे जब नीतीश एमबीसी की राजनीति कर सकते हैं तो बाबाजी की क्यों न करें? लेकिन बाबाजी ने पिछली बार क्या विकास के लिए नीतीश का साइड नहीं लिया था या फिर विकासहीन बिहार से कम बाबाहीन बिहार से ज़्यादा पीड़ित थे?

जाति हमारे लोकतंत्र की धुरी रही है। इसकी भूमिका न होती तो अन्य जातियों का लोकतंत्र में स्टेक न बढ़ता। जाति ने लोकतंत्र को गतिशील बनाया है। कई तरह के समीकरण जो बनते हैं वो जात को लेकर ही बनते हैं। जाति हटा दें तो इलेक्शन सिंपल हो जाएगा। तब तो कोई ओबामा भी मोतिहारी से जीत जाएगा। अभी तो ओबामा के पांचो गो भोट न मिली। बाबा जी न ठाकुर न बनिया,चलले ओबामा लड़े पूर्णिया। लेकिन फिर जार्ज फर्नांडिस किस जात के दम पर मुज़फ्फरपुर से जीतते रहे हैं?

शायद हम इसलिए भी कंफ्यूज़ हो रहे हैं कि हम जनता के फैसले से नतीजों को जान लेना चाहते हैं। सिनेरियो को नहीं समझना चाहते। आज सुबह एक वरिष्ठ पत्रकार ने कहा कि सिनेरियो बनने दीजिए। चार पांच रोज़ लगेगा। लेकिन सीट का नंबर मत पूछिये। अगर राजनीति को समझना है तो सिनेरियो को पकड़ना होगा। तो आप लोग सिनेरियो बताइये। देखिये और वेट कीजिए कि बिहार की जनता जाति के साथ जाती है या विकास के साथ। तो तीन चार शब्द है बिहार की पोलिटिक्स को समझने के लिए। माइनस फैक्टर, सिनेरियो, कंबिनेशन, कंडिडेड आदि।