ज़हर खाये मरीज़ों का अस्पताल और भिवानी





















ज़हर खाये मरीज़ों के लिए आईसीयू की विशेष सुविधा। भिवानी के प्राइवेट अस्पतालों में ज़हर खाये मरीज़ों के लिए अलग से प्रचार के लिए जगह बनाई जाती है। ऐसे मरीज़ों को लेकर काफी प्रतिस्पर्धा है। इनसे कमाई काफी होती है। भिवानी में ऐसे मरीज़ों की संख्या भी कम नहीं। हमने वहां के एक डॉक्टर जे बी गुप्ता से पूछा कि ज़हर खाये मरीज़ों का अस्पताल कुछ समझ में नहीं आया तो गुप्ता ने जो बताया उसे यहां लिखना चाहूंगा।

भिवानी में हर दिन एक या दो केस ज़हर खाने के आते हैं। कुछ समय पहले तक दहेज की सताई महिलायें और कर्ज के मारे किसानों की संख्या अधिक थी। लेकिन अब बेवफा मर्दों के कारण पत्नियां सल्फास खा लेती हैं। विवाहेत्तर संबंध पारिवारिक तनाव का बड़ा कारण बन रहे हैं। सुसाइड करने वाली ज़्यादातर औरतें इसी मामले से जुड़ी होती हैं। डॉक्टर जी बी गुप्ता ने बताया कि हर दिन एक या दो केस आता है। यह वो संख्या है जिसे हम बचने लायक मान कर भर्ती करते हैं। वो संख्या नहीं है जिन्हें मृत मानकर वापस भेज देते हैं। ज़िला अस्पताल में भी सुसाइड के केस काफी आते हैं।

बस हमारी दिलचस्पी बढ़ने लगी। हम और जानना चाहते थे। इससे पहले किसी भी शहर में ज़हर खाये मरीज़ों के लिए अलग से सुविधा जैसी बोर्ड पर मेरी नज़र नहीं पड़ी होगी। मैं भिवानी को बिजेंद्र और जितेंद्र की कामयाबी की कहानी के पार जाकर देखने की कोशिश कर रहा था।

पता चला कि बेवफाई की मारी पत्नियों के अलावा कुंवारी लड़कियों का नंबर आता है। ये वो कुंवारी लड़कियां हैं जो इम्तहानों में फेल हो जाती हैं। इनकी पढ़ाई चौपट होती है। घर में मां बाप लाठी लेकर पिल जाते हैं क्योंकि फिर से खर्च करना होगा। इससे भी ज़्यादा तनाव इस बात को लेकर हो जाता है कि फेल होने से शादी में दिक्कत होगी। बिहार में हमने देखा था कि किस तरह से गार्जियन( मां बाप का एक संभ्रांत नाम) अपनी बेटियों को पास कराने के लिए कॉपी चेक करने वाले मास्टर के पांव पड़ते हैं। उनकी दलील होती है कि पास कर दीजिए नहीं तो शादी नहीं होगी। लड़के वाले को पढ़ी लिखी लड़की चाहिए। बेटी का बाप मास्टर पिघल जाता था।






















ख़ैर डॉ गुप्ता ने बताया कि इस दोहरे तनाव के कारण नतीजों के महीनों में रोज़ानो सुसाइड करने वाली लड़कियां लायी जाती हैं। हमने पूछा कि फेल करने वाले लड़के नहीं होते तो जवाब मिला नहीं होते। जबकि तीसरे नंबर पर नौजवान ही आते हैं। लेकिन इनका कारण फेल करना नहीं होता। बाप से मोबाइल या मोटरसायकिल नहीं मिलने के कारण नौजवान आत्महत्या तक की कोशिश कर लेते हैं। इस सामाजिक आर्थिक आकांक्षा का विश्लेषण किया जाना बाकी है। जिस शहर में एक भी सिनेमा घर न हो वहां इस तरह बंबईया शौक कैसे युवाओं को आत्महत्या की तरफ धकेल रहे हैं। भिवानी में तीन सिनेमा हॉल थे जो अब बंद हो चुके हैं। यहां के लोग पायरेटेड डीवीडी के भरोसे फिल्म देख रहे हैं। इनसे मनोरंजन का सार्वजनिक अधिकार भी छिन लिया गया है। मल्टीप्लेक्स दौर ने छोटे शहरों को सिनेमा से वंचित कर दिया है। इसके बाद भी मरने और जी कर कुछ कर जाने की तमन्ना को बड़े शहरों वाले अपने पैमाने से समझना चाहते हैं।

भिवानी की कामयाबी पर जश्न के साथ साथ इन सवालों से भी टकराना होगा। पूछना होगा कि कहीं ओलिंपिक की कामयाबी के बहाने हम इन शहरों के यथार्थ से मुंह मोड़ने की कोशिश तो नहीं कर रहे। आखिर बिजेंद्र को मेडल दिलाने में इन शहरों ने क्या दिया होगा। कोच के अलावा। यहां की टूटी सड़कें, बिजली का न होना, बसों की छत पर सफर ये सब किसी कामयाबी का फार्मूला हैं या अरबों रुपये की पंचवर्षीय योजनाओं की नाकामी की तस्वीर। न होती तो ज़हर खाये मरीज़ों के लिए आईसीयू की सुविधा जैसे बोर्ड न होते।

कॉरपोरेट पूंजी से फैलता अंधविश्वास

बिल गेट्स का एक लेख दैनिक भास्कर में छपा था। बिल गेट्स ने कंपनियों से अपील की है कि वे सृजनात्मक पूंजीवाद को अपनायें। कुल मिलाकर उस लेख से यही समझा कि बिल गेट्स यह कह रहे हैं कि ठेले वाले,दिहाड़ी मज़दूर के अंटी में भी दस पांच रुपया रहता है। इनके लिए ज़रूरतें पैदा करों और फिर माल बना कर दस पांच पैसे को भी बटोर लो। बिल गेट्स उपभोक्तावाद को वहां तक ले जाना चाहते हैं जिसके पास उपभोग के नाम पर संतोष ही बचा है। इसी लेख में बिल गेट्स उन कंपनियों का भी ज़िक्र करते हैं जो अच्छा काम करती हैं। और लोगों से अपील करते हैं कि चूंकि ये कंपनियां अच्छा काम करती हैं तो इनका माल खरीद कर हौसला बढ़ाना चाहिए।

तालियां। वाह वाह। तो क्या बिल गेट्स की इस दलील को हिंदुस्तान की कंपनियों पर लागू कर दें। नोकिया,पैराशूट नारियल, सैमसन मोबाइल,अमूल दूघ और न जाने क्या क्या। ये किस नीयत से अपना विज्ञापन उन कार्यक्रमों में दे रही हैं जो अंधविश्वास को बढ़ावा दे रही हैं। अच्छा काम नहीं कर रही हैं। तो क्या उस बाज़ार से पूछा नहीं जाना चाहिए कि तुमने किस हक से ऐसे कार्यक्रमों का स्पांसर बनना तय किया जहां यह बताया जाता है कि एक ग्रह आपके पीछे पड़ा है। आपको कर सकता है बर्बाद। लेकिन बचने के हैं रास्ते। एक रत्न है ऐसा। तो कहीं यह बताया जा रहा था कि राखी के दिन कौन से कपड़े पहले। शाकाल से लगते बेलमुंड ज्योतिषियों को अगर कोई समर्थन दे रहा है तो वो है हिंदुस्तान के कॉरपोरेट जगत। इनकी सामाजिक ज़िम्मेदारी तय करने का वक्त आ गया है। मैं चाहूंगा कि ब्लॉगर अब ऐसी कंपनियों के नाम की सूची अपने ब्लॉग पर डाले जो भूत प्रेत या वहीशपन वाले कार्यक्रम को आर्थिक समर्थन देते हैं। इन कंपनियों के ब्रांड मैनेजर को ईमेल करें कि महोदय आप क्यों ऐसे कार्यक्रमों में अपना विज्ञापन देते हैं। बस टीआरपी की आड़ में चल रहे इस खेल का भंडाफोड़ हो जाएगा।


आखिर इन कंपनियों के ब्रांड मैनेजर सिर्फ टीआरपी का आंकड़ा ही क्यों देखते हैं। तो फिर ये करते क्या है। पढ़े लिखे घरों के ये लड़के लड़कियां आईआईएम अहमदाबाद जैसे संस्थानों से पास होते हैं। लाखों की नौकरी लेते हैं और करोड़ों का विज्ञापन देने के लिए सिर्फ पांच पन्ने की टीआरपी के आंकड़े देखते हैं। मुझे लगता है कि इनकी लापरवाही की वजह से ही समाज में मीडिया से ज़रिये गंध फैल रहा है। मार्केटिंग के एक व्यक्ति से बात हो रही थी। उन्होंने कहा कि विज्ञापन दाताओं के दफ्तर के लोग टीवी नहीं देखते। वे सिर्फ आंकड़े देखते हैं। जो हमारे आपके ईमेल पर उपलब्ध होता है। उसी के आधार से विज्ञापन दे देते हैं। उनके कमरे में न तो टीवी होता है न ही टीवी देखने का वक्त। यह एक तरह का आर्थिक घपला है।
यानी अरबों रुपये के विज्ञापन उद्योग में लापरवाह लोग भरे हुए हैं। जिन्हें नहीं मालूम कि उनका विज्ञापन कहां जा रहा है। वो सिर्फ इतना जानते हैं कि उनका विज्ञापन नंबर वन चैनल में जा रहा है। क्या विज्ञापन देने का कोई ज़िम्मेदार पैमाना नहीं होना चाहिए।

हमारा उद्योग जगत पूंजीवाद में यकीन रखते हुए आज़ादी की लड़ाई से भी जुड़ा रहा। बहुत सारे सामाजिक सरोकार के काम भी किये जाते हैं। मित्तल ट्रस्ट ने अभिनव बिंद्रा का खर्चा उठाया। ट्रेनिंग दिलवाई। क्या किसी टीवी चैनल की तरह अभिनव की टीआरपी देखकर ऐसा किया? अभिनव ने तो तब ओलिंपिक का पदक भी नहीं जीता था। ऐसी बहुत सी कंपनियां हैं जो नाम या क्या पता पैशन के लिए सामाजिक सरोकार से जुड़ी रहती हैं। लेकिन इन्हीं कंपनियों के विज्ञापन उन कार्यक्रमों में कैसे चले जाते हैं जो अंधविश्वास फैला रहे हैं। बिल गेट्स के सृजनात्मक पूंजीवाद की अवधारणा पर बहस फिर कभी लेकिन यह अब सोचा जाना चाहिए कि कंपनियां विज्ञापन के पैसे को कहां कहां खर्च कर रही हैं। अमेरिका में बहुत सी कंपिनयां अपने उत्पाद पर लिखती हैं कि वे अफरमेटिंग एक्शन में यकीन रखती हैं। फिर इनका माल खरीदने में वो लोग ज़रूर प्राथमिकता देते हैं जिनका इसमें यकीन होता है। तो क्या भारत में भी कंपनियों को अपने उत्पाद पर नहीं लिखना चाहिए कि उनके उत्पाद का इस्तमाल अंधविश्वास या पत्रकारिता के स्तर को गिराने वाले कार्यक्रमों के विज्ञापन में नहीं होता है। वर्ना तो लोग आसमान में एलियन की चपेट में आई गाय और न जाने क्या क्या दिखाते रहेंगे। सुना है किसी ने हवा में हनुमान की आकृति को भी दिखा दिया।

अब आलोचना बदलने का वक्त आ गया है। चैनलकर्ताओं ने यह कह कर अपना पल्ला झाड़ लिया है कि टीआरपी के आगे कुछ नहीं कर सकते। इसी के आंकड़ों पर टिकी होती है चैनल और उसमें काम करने वाले हज़ारों लोगों की ज़िंदगी। इसके अलावा उनके पास जवाब देने के लिए कुछ नहीं है। तो क्यों न अब उन कंपनियों पूछा जाए कि भई आप क्यों देते हैं ऐसे कार्यक्रमों को समर्थन। क्या हिंदुस्तान लीवर किसी ज्योतिष या ग्रह रत्न के कार्यक्रमों का प्रायोजक बनना चाहेगा या क्या उसे मालूम है कि वह किस तरह के कार्यक्रमों या चैनलों का प्रायोजक बन रहा है।

( लेख में जिन कंपनियों का नाम दिया गया है वो सिर्फ संदर्भ की पुष्टि के लिए हैं। आने वाले दिनों में पूरे शोध के साथ उनकी सूची दी जाएगी जो भूत प्रते, तंत्र मंत्र और तारे वारे जैसे कार्यक्रमों को प्रायोजित करते हैं।)

होस्टल चाहिए?





















यह तस्वीर ग्रेटर नोएडा की है। इस उपनगर को इतने विस्तार में बसाया गया है कि एक अपार्टमेंट से दूसरे अपार्टमेंट के बीच नदी जैसी चौड़ी सड़के हैं। यू टर्न का अभाव है इसलिए आपके पास सीधे चलते जाने के अलावा कोई रास्ता नहीं। ऊपर से जब कोई बसावट नई होती है तो वहां लोग कम होते हैं। बसने वाले लोगों को सारा वक्त लंबी दूरी तय करने में ही खप जाता है इसलिए मेलजोल का वक्त नहीं होता। ऐसे में विज्ञापन एक मुश्किल काम हो जाता है।

ग्रेटर नोएडा में सैंकड़ों कमरे खाली पड़े हैं। इन्हें किराये पर देने के लिए लोगों को कितनी मेहनत करनी पड़ रही है इसका नमूना है कार के पीछे लगा बैनर। इस इलाके में कई संस्थान खुल गए हैं। यहां पढ़ रहे लड़के ही इन खाली मकानों की उम्मीद हैं। इसलिए ग्रेटर नोएडा में कार के पीछे इस तरह के बैनर दिखाई देते हैं। मेरे मित्र मनहर ने बताया कि चाट की दुकान से लेकर परचून की दुकान तक का विज्ञापन इसी तरह किया जाता

करार के लिए बेकरार फिल्म पत्रकारिता

एम्बेडेड जर्नलिज़्म की चर्चा तब हुई थी जब इराक युद्ध में अमीरीकी टैंकों में टीवी रिपोर्टर ढूंस दिये गए थे। टैंक के बिल से गिरते गोलों की धमक को कैद करने के लिए। शर्त मामूली थी। जो टैंक वाला कहेगा वैसा ही लिखना है। वाह क्या गोले हैं। वाह इस गोले ने तो कमाल ही कर दिया। मार दिया पचास साठ लोगों को। जल्दी से टैंक को रोको। शाट्स को अपलिंक करो।

शांतिप्रिय मुल्क भारत में एम्बेडेड जर्नलिज़्म का अंदाज़ दूसरा है। इसका एक स्वरुप आप राजनीतिक पत्रकारिता में देखते हैं। खासकर अधिवेशन, महाअधिवेशनों के वक्त। दिल्ली से भर कर पत्रकार ले जाये जाते हैं। इस तरह के एम्बेडेड प्रयोजन का लाभ ज़्यादा दिल्ली के ही पत्रकारों को मिलता है। क्योंकि वो तो कहीं जाते नहीं हैं इसलिए ले जाए जाते हैं। पंचमढ़ी हो या कानपुर में आडवाणी की रैली। अब इतना तो चलता ही है कि लौटती ट्रेन में अच्छी शराब हो। अब तो यह इतना चलने लगा है कि कोई पर बात नहीं करना चाहता। इसलिए नहीं करना चाहता क्योंकि उसका विकल्प नज़र नहीं आता। इस मजबूरी के बहाने राजनीतिक पत्रकारिता किसी जेटली, किसी जैन और किसी तिवारी के भरोसे हो गई है। सौ पत्रकार हैं और पूरी पार्टी का एक ही सूत्र। होता यह है कि यह इकलौता सूत्र सौ पत्रकारों को नचा रहा है। वे नाच भी रहे हैं।


इन सबके बावजूद राजनीतिक पत्रकारिता में इतना तो बचा ही है कि रिपोर्टर किसी नेता की खिंचाई कर देता है। उसकी पार्टी को लताड़ देता है। कुछ घोटाला फोड़ देता है। वह दबाव से निकलने के अपने अंतिम रास्ते को बंद कर ट्रेन में सवार नहीं होता। कानपुर की रैली के लिए।

लेकिन फिल्म पत्रकारिता तो अब जूते चाटने की नौबत तक पहुंच गई है। टीवी में फिल्म पत्रकारिता अब प्रमोशन है। इंटरव्यू से पहले तय होता है सवाल कैसे होंगे, पर्सनल से नहीं होंगे, फिल्म के बारे में होंगे। हकीकत तो यह है कि रीलीज़ होने से पहले ऐसी कोई सुविधा भी नहीं कि एंकर फिल्म देख ले। तिस पर से चाहत ऐसी कि एंकर फिल्म के बारे में ही बात करे। और जब एंकर सवाल पूछ भी देती है तो जवाब जो मिलता है उससे पता चलता है कि दर्शकों का कितना बड़ा वर्ग मूर्ख है। एंकर पूछती है फिल्म की कहानी क्या है। निर्देशक बकता है बिल्कुल नई है। हा..हा...हा..।

और तो और फिल्म कंपनियों के पी आर एजेंट कुछ क्लिप बांटते हैं। मुफ्त। नेताओं की शराब की तरह। उस क्लिप में झांकिये और फिल्म को समझ लीजिए। आप ही बताइये कि कोई कैसे फिल्म के बारे में बात कर सकता है। लेकिन करना पड़ता है।

बात यहीं तक खत्म नहीं होती। ये पीआर एजेंट अब तो यह भी डील करने लगे हैं कि स्टार के स्टुडियो आने का किराया भी दीजिए। हर स्टुडियो में जाते हैं और कहते हैं हम आपको एक्सक्लूसिव इंटरव्यू दे रहे हैं। इंटरव्यू में होता है कूड़ा। बिपाशा आपको सलमान के साथ कैसा लगा? सलमान आपको कैसा लगा? निर्देशक से भी यही सवाल आपको कैसा लगा? बीच बीच में बिपाशा अपने बचे खुचे कपड़ों को तानती रहती है कि तन ढंका रहे। सलमान अपने बालों को झटकते रहता है। बात शुरू नहीं हुई कि फिल्म का क्लिप आ जाता है।

अब तो बकायदा हर फिल्म के हिसाब से मीडिया पार्टनर तय किये जाते हैं। सोच कर देखिये कल कोई राजनीतिक दल किसी न्यूज़ चैनल को अपना पार्टनर बना लें। कुछ चैनल तो हैं जिन्हें राजनीतिक दल ही चला रहे हैं। लेकिन फिल्म कंपनियों ने अपना कोई चैनल नहीं बनाया। वो दूसरे चैनलों को बता रहे हैं कि आप लालू यादव को गरिया सकते हैं, मायावती को गरिया सकते हैं लेकिन रणवीर को नहीं गरिया सकते। सैफ अली से तो आप वही सवाल पूछिये जिससे सैफ को गुदगुदी हो।

अब तो हिंदी के कई ब्लॉग बालीवुड पर लिख रहे हैं। अच्छा होता कि वहां इस पर बहस चलती। चवन्नी छाप हो या इंडियन बायस्कोप। ज़रूरी है कि इस तरह के एम्बेडड यानी गुलाम पत्रकारिता के बारे में लिखा जाए। जो पत्रकारिता कम है, रणनीति ज़्यादा।

राजेश रोशन की टिप्पणी

(कुछ टिप्पणियां ऐसी होती हैं जो अपने आप में एक लेख के बराबर होती है। तो उन्हें मेन पेज पर ही जगह मिलनी चाहिए।
फिर से आ रहा है पंद्रह अगस्त पर राजेश की इस टिप्पणी को मेन पेज पर जगह दी जा रही है क्योंकि इससे मुख्य लेख को काफी सहारा मिलता है बल्कि इस टिप्पणी से बहुत कुछ फिर से लिखने का मसाला मिलता है)

दिल्ली के अंग्रेजी अखबार वैसे ही रोज घर में कुछ ज्यादा कूड़ा भर देते हैं १५ अगस्त को कूड़ा और आता है.... सारे बैंक जो किसानो को लोन नही देते किसानो के हाथो में एक तिरंगा देकर बड़ा सा लिख देते हैं Happy Independence Day..

फिर से आ रहा है पंद्रह अगस्त

देश की धरती सोना उगले उगले हीरे मोती....ये देश है वीर जवानों का अलबेलो का मस्तानों का...इस देश का यारो क्या कहना....वतन की राह में नौजवां शहीद हो...नन्हा मुन्ना राही हूं देश का सिपाही हूं...बोलो मेरे संग जय हिन्द...जय हिन्द...जय हिन्द। वंदे....मातरम....वंदे मातरम...।

पंद्रह अगस्त आ रहा है। गांव गांव में ये सारे गाने फिर से गूंजने वाले हैं। इकसठ साल की आज़ादी के जलसे के दो तिहाई से भी ज़्यादा हिस्से में यानी पंद्रह अगस्त को देशभक्ति के ये गीत बजे होंगे। ये बजते हैं तो स्मृतियां भी अपनी कोठरियों से बाहर निकलने लगती हैं। झांकने लगती हैं। उस झंडे वाले को,जलेबी वाले को और पंतगबाज़ों को देखने के लिए। स्कूल दुकान,शराब से लेकर मांस तक दफ्तर सहित सब बंद। मुख्यमंत्रियों की सलामी और प्रधानमंत्री का राष्ट्र के नाम संदेश।

आज़ाद भारत बहुत बदल गया। नहीं बदला तो पंद्रह अगस्त। थोड़ा बहुत बदलाव आया भी तो पंद्रह अगस्त के जलसे के दायरे से बाहर। आज़ादी के हैंगओवर से मुक्त शराब के हैंगओवर या टीवी सीरीयल के हैंगओवर से जागे भारतीयों के लिए बिग बाज़ार का मेगा सेल। इंडिपेंडेंस धमाका। एक दो साल तो खूब भीड़ मची। सस्ते एक्सचेंजों में गैस के चूल्हे बदल गए। लेकिन इससे भी पंद्रह अगस्त नहीं बदला।

शायद इसीलिए हम सब के ज़हन में पंद्रह अगस्त तमाम तरह की यादों का दिन है। स्कूल की टीचर से जलेबी मिलने का दिन हो या पिता जी के साथ बजाज स्कूटर पर बैठकर शहर के बड़े मैदान में होने वाले जलसे में शामिल होने का दिन..या फिर खाली सड़क पर तेज साइकिल या स्कूटर चलाने का दिन। पंद्रह अगस्त देशभक्ति के गीतों के शोर में डूबा रहने वाला दिन है। अख़बारों के पन्नों पर आज़ाद भारत की तमाम कहानियों का दिन होता है। ग़रीबी की कहानी, कामयाबी की कहानी। विडंबना की कहानी।

लेकिन पंद्रह अगस्त अपने आप में कहानी। अब तो हमारी हाउसिंग सोसायटी के चबूतरे पर चंद लोग झंडा फहराते हैं। कुछ गायक किस्म के बच्चे गाना गा देते हैं। लड्डू बर्फी मिल जाती है। आज़ादी को याद करने का रस्म भी है। मगर वो पंद्रह अगस्त नहीं जो हम सब के ज़हन में है। बिना बदले हुए । हर बार की तरह देशभक्ति गीतों के ज़रिये हुंकार भरता हुआ आता है। ऐ मेरे वतन के लोगों..ज़रा याद करो कुर्बानी...लता की यह आवाज़ जैसे जैसे मद्धिम होते हुए तेज होती है..पंद्रह अगस्त रोम रोम में उतरने लगता है।

जिसकी पार्टी उसकी टोपी

राहुल गांधी की पार्टी है तो टोपी उनकी क्यों न हों। सेवा दल की गांधी टोपी को हटा कर पी कैप को मान्यता दे दी है। पी टोपी यानी वो टोपी जो क्रिकेट खिलाड़ी या फिर शहर के कुछ आवारा या स्टाइलिश लड़के पहना करते हैं। गांधी टोपी वैसी भी क्यों बची रहे जब गांधी ही नहीं बचे रहे। कम से कम इन राजनीतिक दलों में। कांग्रेस के बड़े नेताओं की सेवा करने वाले इस संगठन सेवा दल में गांधी टोपी लगा कर खुशामदगीरी करना ठीक नहीं। गांधी की टोपी तो गांधीगीरी के लिए होनी चाहिए। सेवा दल के लोग गांधीगीरी कहां करते हैं?वो तो चमचागीरी करते हैं।

इस लिहाज़ से राहुल गांधी ने अच्छा काम किया है। गांधी की टोपी पहन कर खुशामदगीरी ठीक नहीं लगती। राहुल गांधी ने बापू का सम्मान किया है। सेवा दल के महेंद्र मिश्र ने कहा कि सेवा दल के लोगों को आपदा प्रबंधन करने में इस टोपी से सुविधा होगा।महेंद्र मिश्र को प्लीज़ बेवकूप मत कहियेगा। गांधी ने कांग्रेसी कार्यकर्ताओं के सर पर खादी की टोपी रखी तो वो जी जान से अंग्रेजी हुकूमत के खिलाफ जुट गए। जिन लोगों ने गांधी टोपी को एक बार सर पर रखा तो उस टोपी के लिए जान तक दे दी। इस कदर जुट गए कि अंग्रेजी हुकूमत को आपदा प्रबंधन की नौबत आ गई। अभी तक तो यही पता था कि गांधी के विचार,वस्त्र और अंदाज़ से बड़े से बड़े सार्वजनिक सेवा के काम हो जाया करते हैं।बल्कि सेवा करते वक्त लोग खुद को गांधी के समकक्ष ही समझने लगते हैं। उन्हें लगता है कि वे गांधी की तरह सेवा कर रहे हैं। मगर सेवा दल को लगता है कि युवाओं को आकर्षित करने के लिए कुछ बदलाव ज़रूरी है। नई टोपी हो और नई बंडी। युवाओं का एक टेंशन तो रहता ही है कि उनका हुलिया आकर्षक हो। इसमें भी सारे युवा शामिल नहीं है। खाते पीते घरों के युवा ही स्टाइल का टेंशन लेते हैं। बाकी तो विविध भारती ट्यून करते हुए,रिक्शा चलाते हुए और कपड़ा बेचते हुए रोज़गार गारंटी योजना में खप जाते हैं। ज़ाहिर है इस युवा को आकर्षित करने के लिए राहुल बाबा ने टोपी नहीं बदली होगी।

क्या इस देश का युवा इतना रद्दी और बेवकूफ है? या फिर राजनीतिक दल मूर्खतापूर्ण हो गए हैं? उन्हें क्यों लगता है कि बंडी, झंडी के बदल देने से युवा किसी पार्टी में आ जाएगा। हमारे देश का युवा चारों तरफ से खींचा जा रहा है। बाज़ार वाले उसे जूता खरीदने के लिए खींच रहे हैं,घर वाले उसे नौकरी करने या पढ़ाने करने के लिए खींच रहे हैं,मीडिया वाले उन्हें अपनी ओर खींच रहे हैं कि वे पढ़े, वो क्या पढ़े इसके लिए अलग से अखबार निकाले जा रहे हैं आदि आदि। हमारे देश का युवा बरमुडा त्रिकोण में फंस गया है। वो कई प्रकार की चुंबकीय शक्तियों के द्वारा खींचा जा रहा है। नतीजा यह हो रहा है कि सभी दिशाओं से आने वाली चुंबकीय शक्तियां एक दूसरे के प्रभाव को निरस्त कर रही हैं। इसका नतीजा यह हो रहा है कि युवा किसी की तरफ खींचा नहीं पा रहा। वो झूल रहा है या भटक रहा है। राहुल गांधी गांधी की टोपी बदल कर उन्हें ढूंढने निकले हैं।

युवाओं से मेरी एक अपील है। वे किसी रास्ते पर न जाएं। भटकें। आवारा बनें। ज़िंदगी का मज़ा लें। कुछ नया खोजते रहे। पहले से पड़ी बेकार हो चुकी चीज़ों की तरफ ने खींचे। टोपीवाला आएगा,टोपी पहनाएगा मगर तुम टोपी पहनना नहीं। शिकारी आएगा..जाल बिछाएगा मगर जाल में फंसना नहीं। मैं भी एक गलत काम कर रहा हूं। तोतो को रटना सीखा रहा हूं।

क्या भारत नपुंसक है?

इस बार के इंडिया टुडे का शीर्षक है यह। पत्रिका ने धीरज खोते हुए लिख दिया है कि इंडिया नपुंसक है। लेकिन शीर्षक व्यापक बहस की मांग करती है। आतंकवाद को खुल कर मज़हबी नाम देते हुए कहा गया है कि भारत में इस्लामिक आतंकवाद से निबटने के लिए राजनीतिक इच्छाशक्ति नहीं है। पत्रिका के लेख में एक किस्म की बेचैनी दिखती है जो कई लोगों की भी हो सकती है। खासकर ऐसे वक्त में जब हर धमाका हमारे आपके बीच से किसी अज़ीज़ को अपाहिज़ बना देता है,मार देता है। लेकिन एक भी धमाका ऐसा नहीं गुज़रा जो इस्लाम के नाम पर हुए इस आतंकवाद के खिलाफ जनता में हिंदू और मुसलमान के हिसाब से फर्क कर दे। हर धमाके का दर्द दोनों समुदायों ने बराबरी से भुगता है और मिलकर एक दूसरे की मदद की है। संवेदनशील कहे जाने वाराणसी से लेकर मालेगांव और आर्थिक प्रगतिशील कहे जाने वाले हैदराबाद से लेकर बंगलूरु तक में धमाके के बाद कहीं हिंदू मुस्लिम की बात नहीं हुई।

इस्लाम के नाम पर आतंकवाद और इस्लामी आतंकवाद में क्या फर्क है बहस करने वाले तय करेंगे। लेकिन एक ऐसे वक्त में नपुंसकता का एलान करना कहां तक ठीक है। जब देश का हर मुस्लिम नेता या मौलाना यह कह रहा हो कि इस्माल का संबंध आतंकवाद से नहीं है। देवबंद से लेकर अहमदाबाद और दिल्ली तक में रैलियां निकाल कर इसका एलान किया गया कि इस्लाम के नाम पर आतंक फैलाने वालों की इस्लाम में क्या दुनिया में कोई जगह नहीं है। जयपुर धमाके बाद जब ईमेल आया तो उसमें कुछ मौलानाओं को भी निशाना बनाने की बात कही गई जो आतंकवाद का विरोध करते हैं। साफ है मुस्लिम समाज खुल कर इसकी निंदा कर रहा है। पहले भी शामिल नहीं था लेकिन सार्वजनिक निंदा इसलिए कर रहा है ताकि याद रहे कि मुसलमानों ने इसकी निंदा की है। याद रहे कि अहमदाबाद के धमाके के बाद लखनऊ में आतंकवादियों के लिए बददुआ पढी गई। ज़ाहिर है कोई व्यक्ति या छोटा सा समूह किसी के इशारे पर चलने पर कामयाब हो रहा है। मगर यह कहना कि इसके पीछे मुसलमान हैं या इस्लाम हैं इसकी ठीक से पड़ताल होनी चाहिए।

रही बात इंडिया के नपुंसकता की तो नपुंसक कौन है। क्या भारत के लोग नपुंसक हैं। या फिर सरकार नपुंसक है या फिर वो जनता नपुंसक है जो ऐसी सरकार चुनती है या फिर नपुंसक जनता ने तो मोदी की सरकार भी चुना। जो एलान करते रहे कि गुजरात से आंतकवाद का नामोनिशान मिटा दिया। आतंकवाद के नाम पर खास समुदाय को आतंकवाद समर्थक बता कर ज़लील करते रहे। और जब दुखद घटना हुई तो वहीं के अखबारों ने लिखना शुरु कर दिया कि बम निरोधक दस्ते से लेकर खुफिया एजेंसियों तक में लोग नहीं हैं। न अफसर न जासूस। तो फिर मोदी किस तैयारी के दम पर कह रहे थे कि उन्होंने आतंकवाद को मिटा दिया। अब क्या जवाब है उनके पास। पोटा नहीं है तो पुलिस तो है। और जनाब ने तो उस पुलिस का भी बंटाधार कर रखा है। क्या हर चीज़ को मर्दानगी और नपुंसकता के पैमाने पर देखा जा सकता है। क्या मोदी की मर्दानगी काम आई या फिर ऐसा मर्द चुनने में किसका कसूर था जिसने अपने शानदार कार्यकाल में कोई सशक्त एजेंसी तैयार नहीं की जो ऐसे आतंकवादी मंसूबों को कामयाब ही न होने दे। क्या पोटा के रहते जसवंत सिंह अज़हर मसूद को लेकर कंधार नहीं गए। क्या पोटा के रहते संसद सुरक्षित रह सकी। क्या किया गुजरात की सरकार ने। उनके मंत्री के इस बयान के अलावा कि आतंकवादी हमेशा एक कदम आगे सोचते हैं।

आतंकवाद का मसला है तो राजनीति होगी। अमेरिका में भी राजनीति होती है इंडिया में भी होगी। इस्लामी आतंकवाद होता तो मालेगांव की मस्जिद से लेकर हैदराबाद की मक्का मस्जिद तक में धमाके क्यों होते? क्या अजमेर शरीफ में धमाका होता? कट्टर इस्लाम मस्जिदों को पाक साफ करने की हिदायत देता रहता उन्हें मिटा देने की साहस उसमें भी नहीं है। वो कितना भी कट्टर क्यों न हो जिस दिन अल्लाह के ख़िलाफ हो जाएगा,उसकी इबादत की जगह के खिलाफ हो जाएगा,इस्लाम के नाम पर मरने वाले दो चार लोग भी न मिलेंगे। फिर ऐसा क्यों हुआ कि सभी आतंकवादी हमलों में हिंदू मुसलमान दोनों मारे गए।

आखिर नपुंसक कौन है। अगर इंडिया को नपुंसकता मिटानी है तो क्यों न वो दूसरी चीजों में भी मिटाये। भ्रष्ट नेता संसद की देहरी तक आ जाते हैं,भ्रष्ट नेता पार्टी के अध्यक्ष पद पर रहते हुए पैसा ले लेते हैं,बीजेपी को अपने आठ आठ सांसदों को बिक जाने के आरोप में निकालना पड़ता है,कांग्रेस को चुप रहना पड़ता है कि उसने पैसे दिये या नहीं दिये। मनमोहन सिंह इस दाग पर चुप्पी साध जाते हैं। क्या भारत की जनता नपुंसक इस बात के लिए नहीं है कि वह हर दिन टूटी सड़क देखती है लेकिन राम के नाम पर या पगड़ी के नाम पर या जाति के नाम पर उसी विधायक को वोट दे देती है जो घूस खाने के लिए सड़क को खराब हाल में छोड़ देता है। क्या पूरे भारत को नपुंसक कहना ठीक है। सरकार नपुंसक हो सकती है, पुलिस हो सकती है,कोई नेता हो सकता है लेकिन पुरा इंडिया। कहीं भड़काने का तो खेल नहीं चल रहा।

सवाल यह नहीं कि हम नामर्द हैं। सवाल यह है कि हम क्या कर रहे हैं। और कैसे तय करें कि कौन ठीक कर रहा है इसके लिए तो लोकतांत्रिक प्रक्रिया से बेहतर रास्ता क्या हो सकता है। सुषमा स्वराज अपना बयान वापस ले लेती हैं कि यूपीए के घूस कांड से ध्यान बंटाने के लिए अहमदाबाद में धमाके हुए। जब निंदा हुई तो व्यक्तिगत विचार कह कर उस बयान पर बनी रहती हैं। बदलाव इतना आया है कि यह बयान अब बीजेपी का नहीं है लेकिन सुष्मा स्वराज का है जो बीजेपी की हैं।
ऐसा भी नहीं है कि भारत के लोगों ने आतंकवाद का मिल कर सामना नहीं किया है। इस्लाम से पहले इस देश में आतंकवाद सिख धर्म के नाम पर आया। तब इस हिसाब से सिखों को सबक सिखाने के लिए दिल्ली में जो कत्लेआम हुआ क्या उसे ठीक कहा जा सकता है। क्या उसे कहा जा सकता है कि ये रही हमारी मर्दानगी। हम जल्दी भूल जाते हैं। आतंकवाद का मसला व्यवस्था के फेल होने का मसला है। भारत की नपुंसकता का मसला नहीं है। व्यवस्था यूपी से लेकर आंध्र और अब गुजरात में भी फेल हुई है। अच्छा है मिल कर राजनेता कुछ करें। वर्ना सुष्मा स्वराज की तरह व्यक्ति बयानों के दम पर या नपुंसकता या मर्दानगी की हुंकारे भरने से समस्याएं दूर नहीं होती।