दक्षिण दिल्ली में नहीं रहते हो का जी..

कभी आपने इस सवाल का जवाब दिया है। कभी आपसे किसी ने ऐसा सवाल किया है। आए दिन होता रहता है। ठीक ठाक कपड़ों में और अच्छी खासी कार से भी उतरें तो पूछने वाला एक बार भरोसा कर लेना चाहता है कि दक्षिण दिल्ली के हैं या नहीं। अखबारों ने एक भ्रम फैला रखा है कालोनियों को लेकर। पॉश कालोनी लिख लिख कर दिमाग खराब कर दिया है। जो है जहां है के आधार पर अपनी कालोनी को पॉश कालोनी घोषित करने के चक्कर में रहता है।

मुझसे अक्सर लोग यह सवाल करते हैं। जवाब जैसे ही मिलता है कि गाज़ीपुर बार्डर से दो किमी आगे डाबर मोड़ से दायें मुड़ते ही वैशाली के सेक्टर पांच में रहता हूं। पता पूरा भी नहीं कर पाता सामने वाले की मुझमें दिलचस्पी खत्म हो जाती है। सहानुभूति के स्वर में कहा जाता ओह...इतनी दूर बाप रे। तुम इधर यानी दक्षिण दिल्ली में क्यों नहीं रह लेते। वहां का माहौल तो बहुत खराब होगा। मैं चाहता हूं कि जिन जिन लोगों ने मुझसे कहा है वो ये लेख पढें।


उत्तर और दक्षिण दिल्ली में क्या फर्क है। रिंग रोड दोनों ही तरफ बहती है। एटीएम और अग्रवाल स्विट्स पूरी दिल्ली में हैं। पीवीआर का ग्राम्यकरण पूरी दिल्ली में हो चुका है। सिर्फ दक्षिण दिल्ली में पीवीआर नहीं है। पैसे वाले यहां वहां सब जगह रहते हैं। दक्षिण दिल्ली में चिराग दिल्ली, कटवारिया, ओखला गांव, मदनपुर खादर, मदनगीर, अंबेडकरनगर, मुनिरका गांव हैं। आम लोगों की आबादी ज़्यादा है। कड़ी मेहनत लेकिन फिर भी दो पैसा कम कमाने वालों की आबादी फ्रैंड्स और ग्रेटर कैलाश से अधिक है। दक्षिण दिल्ली मूलत एक मेहनतकश और मध्यमवर्गीय लोगों का इलाका है। इसका मतलब यह नहीं कि मैं वैशाली का टाइकून हूं। पहले भी मुनिरका, चिराग दिल्ली और गोविंदपुरी में रह चुका हूं।

हुआ यूं कि गोविंदपुरी, डीडीए कालकाजी, शेखसराय, खिड़की एक्सटेंशन, आश्रम, भोगल मुनिरका, अंबेडकरनगर, कृषि विहार, मदनपुर खादर, गढ़ी में आम लोगों रहते थे। दक्षिण दिल्ली की आबादी में अस्सी फीसदी हिस्सा इनका है। फ्रैड्स कालोनी, जंगपुरा, डिफेंस कालोनी, साउथ एक्स, ग्रेटर कैलाश। यहां चंद अमीर लोग रहते हैं। गरीबों की झोपड़ी के बीच अमीरों की कोठी दूर से ही ऊंची दिखती है। अगर दक्षिण दिल्ली की पहचान ही बननी है तो इनसे नहीं बनती। दक्षिण दिल्ली कहीं से भी पॉश नहीं है। होती तो कैलाश कालोनी, फ्रैड्स कालोनी में साप्ताहिक बाज़ार नहीं लगते। यहां के मैक्स और फोर्टिस से आज भी एम्स और सफदरजंग की ज़्यादा तूती बोलती है।

कहीं मैं अपना फ्रस्टेशन तो नहीं निकाल रहा दक्षिण दिल्ली की अवधारणा पर। जब मैं मुनिरका गांव में रहता था तब मेरे दक्षिण दिल्ली के तथाकथित कुलीन दोस्त कहते थे कि कहां गांव में रहते हो। जब मैं वैशाली के ठीठ ठाक अपार्टमेंट में रहता हूं तो ऐसे बात करते हैं जैसे मैं उत्तरी ध्रुव में रहता हूं। बहुत छोटा नक्शा होता है दक्षिण दिल्ली वालों के दिमाग में। इतना छोटा कि पड़ोस के मेहनतकशों को भी शामिल नहीं करते। रहते तो वे भी हैं दक्षिण दिल्ली में। इसके बाद भी जब भी पता पूछते हैं और जवाब मिलता है उनके चेहरे का रंग बदल जाता है। बीच में क्लास आ जाती है। इसीलिए कहता हूं दक्षिण दिल्ली को आबाद मेहनतकशों ने किया है लेकिन मलाई हमेशा की तरह दो चार कालोनियां वाले खा रहे हैं।

बरहम बाबा

ब्रह्म बाबा अपभ्रंश होकर बरहम बाबा हो गए थे। भोजपुरी में हर शब्द की अपनी तरह से ओवरहाउलिंग की जाती है। ज्यों का त्यों वाला सिस्टम नहीं हैं। गांव में बरगद और पीपल के संगम से बने थे बरहम बाबा। विशाल और कई पीढ़ियों से विराजमान। मेरे गांव में कोई बड़ा हो जाए और बरहम बाबा की डालों पर दौड़ा न हो मुमकिन नहीं। गंडक नदी और घर के बीच एक पड़ाव की तरह मौजूद बरहम बाबा किसी स्मृति चिन्ह की तरह विराजमान रहे।

बहुत पहले गिर गए बरहम बाबा। बूढ़े हो गए थे। किसी शाम की तेज आंधी ने बरहम बाबा को गिरा दिया। बाबूजी ने जब बताया तो ऐसे बता रहे थे जैसे उनके भीतर का एक बड़ा हिस्सा ढह गया हो। थोड़ा सा कह कर चुप हो गए। बाकी अपने भीतर ही कहने लगे। एक पेड़ के गिरने का नितांत व्यक्तिगत और सार्वजनिक दुख। बाप का ज़्यादा और बेटे का थोड़ा कम। लेकिन दोनों का साझा अनुभव था बरहम बाबा की मोटी मोटी डालो पर दौड़ना। डोला पांती खेलना। भारत के राष्ट्रीय खेलों की सूची में डोला पांती का भले कहीं नाम न हो लेकिन ग्रामीण अंचल कि स्मृतियों में यह खेल अब भी बचा हुआ है। नहीं मालूम कि अब कोई पेड़ की डाल पर दौड़ने और पकड़ने का खेल खेलता है या नहीं।

तेज दुपहरी में कहीं छांव की गारंटी होती थी तो विशाल बरहम बाबा के नीचे। सुबह सुबह गांव की भक्तिमय औरतें यहां जल चढ़ा जाती थी। दस बजते ही लोग अपनी गायों को इसके नीचे बांध देते। दोपहर होते ही सारे बच्चे इसकी डालों पर अपना ठिकाना बना लेते थे। शुरु हो जाता था दौड़ना। कुछ लड़के इतनी तेजी से इस डाल से उस डाल पर भागते कि लगता था कि कार्ल लुइस का जन्म मेरे गांव में क्यों नहीं हुआ। हम सबको मालूम था कि कौन सा घोंसला तोता का है और कौन सा मैना का। किस घोसलें में अंडा है और किस में नहीं। गांव में बहुत लोग मिलते थे जिनकी कमर से लेकर टांग की हड्डी डोला पांती खेलते वक्त गिरने से टूटी थी। पुरानी पीढ़ि के लोग नई पीढ़ि को शान से दिखाते। कहते कि देख हमरो टांग टूटल बा। मामूली खेलने बानी हम। तहनी के का खेल ब जा लोग।

बरहम बाबा का नहीं रहना बॉटनी के किसी विशेषज्ञ का दुख नहीं हो सकता। ये उन बेटियों का दुख है जो मायके आते वक्त सबसे पहले बरहम बाबा को देखती थी। तसल्ली के लिए और पुरानी बातों को याद करने के लिए। शादी के बाद विदाई के वक्त बहने डोली से झांक लिया करती थीं बरहम बाबा की तरफ। बेटियां जब लौटती थीं तो सामान रखते ही एक बार घर का मुआयना ज़रूर करती थीं। क्या बदला है और क्या नहीं का मुआयना। घर आंगने देखने के बाद अगला पड़ाव होता था छत पर जाने का। और छत पर जाने का एक ही मकसद होता था..बरहम बाबा को देखना। और खुद से कहना कि आज भी बच्चे खेल रहे हैं इस पेड़ के नीचे।

मेरे भीतर भी यह पेड़ बहुत दिनों तक खड़ा रहा। आज भी दिल्ली में रहते हुए याद आ जाता है। दफ्तर में काम करते हुए या गहरी नींद के बाद जब आँखें खुलती हैं तो एक झलक बरहम बा की गुज़र जाती है। सबके साथ होता होगा ऐसा। मुझे इस तरह के साक्षात्कार बहुत होते हैं। अचानक नोएडा मोड़ से गुज़रते हुए गांव के उस मोड़ पर अपनी कार मोड़ते हुए पाता हूं जहां से मेरा घर दिखने लगता था।

लेकिन किसी अफसोस के साथ नहीं। मैं यहां क्यों हूं और वहां क्यों नहीं। यह मेरा फैसला नहीं था। समाज और परिवार ने तय किया है कि बड़ा होकर कुछ करना है। कुछ करने के लिए कई प्रकार के खांचे बने हुए हैं। हम सब अपने आप को उन खांचों में फिट कर लेते हैं। एक खांचे से दूसरे खांचे में लौटकर मन बदल जाता होगा। हासिल वही होता है जो पहले खांचे में करने की कोशिश कर रहे होते हैं।


मगर बरहम बाबा की याद आती है। बरहम बाबा होते तब भी मुझे वापस आने के लिए नहीं कहते। न मैं वापस जाता। उन्होंने हमसे कभी कोई अपेक्षा की ही नहीं। अपने आप को सौंप दिया कि आओ मेरी छांव और डालों पर खेलो कूदो और चले जाओ। ये तो हम हैं कि उन्हें भूल नहीं पाते। आज सुबह बस एक पेड़ की याद आई है। बरहम बाबा की याद आई है। शायद इसलिए कि दिल्ली में दोस्त बने न किसी पेड़ से कोई रिश्ता कायम हो सका। ये शहर सिर्फ दफ्तर का पता भर है मेरे लिए। परमानेंट अड्रेस।

नेताओं के साथ खड़े लोगों से पूछो साधो

नेता को नहीं गरियाना चाहिए। कुछ लोग लोकतंत्र के नाम पर कहने लगे हैं। तो क्या मुंबई धमाकों से पहले नेताओं की आलोचना नहीं हो रही थी? गेटवे पर लाख लोगों की भीड़ क्या सिर्फ भीड़ है? क्या ये भीड़ सिर्फ फाइव स्टार में लोगों के मारे जाने से बेचैन है? क्या भीड़ की इस बेचैनी से लोकतंत्र नहीं बचेगा क्योंकि नेताओं को गरिआया जा रहा है? क्या हम ठीक ठीक जानते हैं कि यह भीड़ लोकतंत्र के खिलाफ है? या फिर लोकतंत्र का फायदा उठा कर नेताओं को गरिया रही है। उन पर दबाव बढ़ा रही है।

कुछ दल खास कर बीजेपी के नेताओं को इसकी बेचैनी हो रही है। क्योंकि इस हमले में उन्हें आतंकवाद पर ठेकेदारी करने का मौका नहीं मिला। बीजेपी ने दिल्ली में मतदान से एक दिन पहले अखबारों में विज्ञापन भी दिया कि आतंक के नाम पर हमें वोट दें। हम मज़बूत सरकार चलाते हैं। हम समझौता नहीं करते। झुकते नहीं आदि आदि। ठीक इसी वक्त ताज होटल में आपरेशन चल रहा था।

नेताओं को गरिआने से लोकतंत्र किस तरह खतरे में पड़ गया है? मैं समझ नहीं पा रहा हूं। क्या हम चुनावों में एक सेट नेताओं को बदल नहीं देते। जिसको बदलते हैं उसे गरियाते नहीं क्या। गरियाने का मतलब जनमत का दबाव और आलोचना है। तो क्या उसके बाद लोकतंत्र खतरे में पड़ जाता है।

राजनीति की ओलाचना राजनीति के खिलाफ नहीं होती। उसे चलाने वालों और नीतियों के खिलाफ होती है। राजनीति की धारणा के खिलाफ नहीं। नेताओं के करीब बैठे लोग इस तरह के बकवास करने लगे हैं। जनता को अधिकार है कि वो बीजेपी और कांग्रेस के खिलाफ हो जाए। दोनों को रिजेक्ट कर दे। अगर कर सके तो। इससे लोकतंत्र का घंटा कुछ नहीं बिगड़ेगा।

लोकतंत्र में स्थायी जनता है। जनता ही लोकतंत्र को चलाने के लिए नेता चुनती है। नेता कोई अहसान नहीं होता। लोकतंत्र में नेता भिखारी होता है और जनता दाता। बाबा साहेब आंबेडकर की किताब में सब बराबर बताये गए हैं। अमीर गरीब सब। सबको एक समान मतदान का अधिकार दिया गया है। अमीरों के विरोध को सम्मान से देखा जाना चाहिए। इनकी गोलबंदी का मज़ाक नहीं उड़ाया जाना चाहिए। कुछ लोग कह रहे हैं कि फिल्म स्टार तभी निकले हैं जब फाइव स्टार वाले मरे हैं। सतही बाते हैं।


सुनामी के समय मैंने खुद राहुल बोस को मीलों पैदल चलते देखा था। साहित्यकार अमिताव घोष को अंडमान की गलियों में चुपचाप खड़े होकर नोट्स लेते देखा था। हिंदी के संस्मरण छाप साहित्यकार नहीं दिखे थे जो हमेशा गरीबों के लिए लिखते हैं। उस दिन लगा था कि हिंदी के साहित्यकार फटीचर होते हैं। आखिर कोई क्यों नहीं अमिताव घोष की तरह इस मानवीय त्रासदी को करीब से देखने समझने की कोशिश कर रहा है। कोई कहेगा अमिताव को लाखों की रायल्टी मिलती है। मैं नहीं मानता कि हिंदी के सारे साहित्यकार दरिद्र ही हैं।


कोसी ने बीस लाख लोगों को ठेल दिया। हिंदी में विस्थापित कर दिया। कौन रोया। कौन निकला। मोमबत्तियां लेकर। इस तरह की बातें करने से उन लाखों लोगों का अनादर हो जाता है जो कोसी के पीड़ितों के लिए कुछ करने के लिए बेचैन हो गए। बिहार सरकार ने कोई रास्ता नहीं दिखाया। कई लोगों के फोन आए कि वे मुझे लाखों रुपये दे देंगे मगर सरकार को नहीं देंगे। सरकार वाले खा जायेंगे।

तो क्या इस अविश्वास के बाद लोगों ने लोकतंत्र में यकीन छोड़ दिया। तो क्या बिहार में लोकतंत्र मर गया? हम सब नेताओं से नफरत करते हैं लेकिन जो भी उनके करीब जाते हैं बहुत कम होते हैं जो उनसे चिढ़ते हैं। हो सकता है मैं भी इसमें शामिल हूं। पत्रकार नेताओं से नफरत नहीं करता है। सोहबत की तलाश कर लेता है। इस सच को बोल देने से क्या मुझे फांसी पर लटका देंगे और क्या उसके बाद लोकतंत्र को बचा लेंगे।

घेर कर मार दिये जाने के बाद

मुझे अब डर नहीं लगता है
घेर कर मार दिये जाने से
देखते देखते कितने मर गए
अपनी ही आंखों के सामने
जानता हूं मार दिए जाने के बाद
आना जाना होगा कुछ नेताओं का
कुछ कहानियां मेरे बारे में छप जाएंगी
मुआवज़ों की राशि कोई बढ़ा जाएगा
मेरे दोस्तों को बहुत गुस्सा आएगा
आतंकवाद और राजनेताओं की करतूत पर

मैं आराम से पड़ा रहूंगा कहीं पर
किसी स्टेशन या किसी मॉल के बीचों बीच
ख़ून से लथपथ, आंखें बाहर निकलीं होंगी
पर्स में अपनों की तस्वीरों के नीचे
दोस्तों के पते मिलेंगे और सरकारी नोट
एटीएम की दो चार रसीदें होंगी और
साथ में थैला,जिसमें होगा वो खिलौना
जो मैंने खरीदे हैं अपनी बेटी के लिए
मोबाइल फोन में आया वो आखिरी एसएमएस
मेरे दोस्तों का, तुम कहां हो, जल्दी बताना
मेरी बीबी का मिस्ड कॉल


दो लोग उठा कर रख देंगे मुझे
स्ट्रेचर पर और अपडेट कर देंगे
मरने वालों की संख्या और सूची
भेजा जाऊंगा पोस्टमार्टम के लिए
कितनी लगीं गोलियां और कितने बजे
पता लगा लिया जाएगा ठीक ठीक
मैं रवीश कुमार,दिल्ली के एक मॉल में
घेर का मार दिया गया आतंकवादी हमले में

तुम तो काम से गए नेता जी

आतंकवाद पर अनगिनत शब्द लिखे जा चुके हैं। अनगिनत नेताओं को गरियाया जा चुका है। आतंकवाद से हारने वाले मुल्क के तौर पर हम खुद को देखने लगे हैं। अभी तक आतंकवाद के नाम पर अपनी अपनी पसंद की पार्टियों को वोट देते थे। लगता है इस बार वो पसंद भी जाती रही। एक मामूली साध्वी के बचाव में राजनाथ सिंह से लेकर आडवाणी तक बावले हो गए थे। दिल्ली के विजय कुमार मल्होत्रा एटीएस के अफसरों का नार्को टेस्ट कराना चाहते थे। उसी एटीएस के अफसरों ने गोली खा ली। ज़ाहिर है आतंकवाद को वो भुगतते थे और वही कीमत भी चुका गए। बयान देने के लिए बच गए हमारे ओरिजिनल लौह पुरुष सरदार पटेल की फोटोकापी आडवाणी और मोदी। और एक खराब ज़ेरॉक्स पेपर की तरह बचाव के लिए बच गए मनमोहन सिंह। विलासराव देशमुख और आर आर पाटिल जोकर लग रहे थे।

आतंकवाद की राजनीति में इस बार नेता नंगा हो गया। टीवी चैनल और अखबारों में आ रही प्रतिक्रिया से लगने लगा कि इस हमले का सबसे अधिक शिकार इस बार नेता हुआ है। जिस वक्त नरेंद्र मोदी केंद्र के पांच लाख रुपये के मुआवज़े को एक करोड़ की राशि से छोटा बता रहे थे उसी समय आतंकवाद और राष्ट्र्वाद के महाप्रतीक इस महापुरुष को स्वर्गीय हेमंत करकरे की पत्नी अपने घर आने से मना कर रही थीं। मना कर चुकी थीं फिर भी मोदी पहुंचे। राज ठाकरे करकरे के अंतिम संस्कार की तस्वीरों में दिखे। कहीं कोने में दुबके हुए। बंगलौर में मेजर उन्नीकृष्णन के पिता ने केरल के मुख्यमंत्री को दरवाज़े से लौटा दिया। दिल्ली में महेश चंद्र शर्मा की पत्नी से बीजेपी के टिकट दिए जाने के प्रस्ताव को ठुकरा दिया।

हमारे नेताओं के लिए यह सबसे मुश्किल वक्त है। इस बार के हमले में किसी नेता को टीवी स्टुडियो में आकर भाषण देने का मौका नहीं मिला। वोट चाहिए था कि इसलिए जिस वक्त एनएसजी के जवान ताज होटल के अंदर लड़ रहे थे उसी वक्त दिल्ली में बीजेपी के रणनीतिकार स्लोगन रच रहे थे। दिल्ली के तमाम अखबारों में मतदान से एक दिन पहले छपा भी। भाजपा को वोट दो। वसुंधरा राजे ने आतंकवाद पर अपने विज्ञापन की बारंबारता बढ़ा दी। हमारा नेता सिर्फ वोट ही मांग सकता है। थोड़ा तो बता देती कि वसुंधरा ने आतंकवाद से लड़ने के लिए क्या किया है? क्या राज्य में पुलिस को अलग ट्रेनिंग दी है? क्या नए संसाधन जुटाये हैं? इत्तफाक और संयोग पर हमले की दुकानदारी चल निकली थी। बीजेपी को वोट मिल जाएंगे।


शिवराज पाटिल अब कभी अपनी कार से उतर कर पान नहीं खरीद सकेंगे। अगर खाते हो तों। एक सबक भी मिला है। साईं कृपा से मठों की दुकानदारी चलती है। तकदीर और तदबीर नहीं बदलती। शिवराज को जाना पड़ गया। विलासराव देशमुख रात भर फोन करते रहे टीवी चैनलों को। रामगोपाल वर्मा को साथ लेकर ताज भ्रमण पर निकले देशमुख। कांग्रेस आतंकवाद से निपटने में एकदम फटीचर पार्टी निकली।


ज़ाहिर है अभी तक यही हो रहा था कि हर आतंकवादी हमले पर देश की एकता और अखंडता पर भाषण दिया जा रहा था। हम एक हैं। हम एक रहेंगे। लेकिन मरते रहेंगे। अभी तक लोग यही समझ रहे थे कि ये नेता ठीक नहीं।उस दल का नेता ठीक है। सख्त है। सख्त की परिभाषा यह थी कि उस दल वाले मुसलमानों के खिलाफ सख्त हैं। जब तक मुसलमान आतंकवादी है देश को पोटा चाहिए। जब साधु या साध्वी पकड़े जाएंगे उनके लिए यही नेता बचाव करेंगे। मुशीरुल हसन और लाल कृष्ण आडवाणी में यही फर्क है कि मुशीरुल पुलिस पर सवाल नहीं उठा रहे थे, सिर्फ बेकसूर साबित होने का एक और मौका देना चाहते थे।आडवाणी जी( या उनकी पार्टी) तो न्याय से लेकर एटीएस तक को नेस्तानाबूद करने में लगे थे। साध्वी हिंदू प्रतीक है। हिंदू आतंकवादी नहीं हो सकता। कह रहे थे कि इसे हिंदू आतंकवाद का नाम मत दो। बतायें तो वे साध्वी का बचाव किस लिए कर रहे थे। क्या इसलिए कि वो इस देश की नागरिक है या फिर इसलिए कि वो हिंदू है। इससे पहले भी पुलिस ने कई बेकसूर मुसलमानों को फंसाया। क्या उनके बचाव में आडवाणी कभी उतरे। कभी नहीं उतरेंगे। बाटला हाउस के बाद जिसतरह अमर सिंह लग रहे थे उसी तरह साध्वी का बचाव करने के कारण बीजेपी मुंबई हमले के बाद लग रही थी। किसी में कोई फर्क नहीं।


जब तक इस देश में मज़हब के हिसाब से राजनीति तय होगी हमारी दलीलें पुरानी पड़ेंगी। पब्लिक जान गई है मैं नहीं मानता। फिर भी मुंबई हमले की तुरंत प्रतिक्रिया से तो यही लगता है कि इस बार नेताओं की साख गिरी है। टीवी पर अरुण जेटली की बौखलाहट दिख रही थी।कह रहे थे कि आप ठीक नहीं कर रहे हैं। नेताओं के खिलाफ नैराश्य फैलाकर। जेटली त़ड़प रहे थे कि इस बार उनके सामने माइक इसलिए नहीं लग रहे थे कि वे नैतिक मास्टर की तरह आतंकवाद पर लेक्चर दें। इसलिए लग रहे थे कि वे नेता होने पर सफाई दें।

इस बार राजनीति का यह आइडिया पिट गया। आतंकवादी एक बार फिर कामयाब हो कर चले गए। नेताओं की दुकानदारी अभी बंद नहीं हुई है। लोकतंत्र में बंद भी नहीं होनी चाहिए। नेता एक ज़रूरी अंग है। सिर्फ खराब नेताओं और राजनीति की दुकान बंद कर एक नया शापिंग सेंटर बनाने की ज़रूरत है। जहां कुछ नया माल बिके। नई दुकान दिखे।