क्या उनकी जान बच सकती थी?

१३ मार्च २००८। शाम के पांच बज रहे थे। बाबूजी का ऑपरेशन चल रहा था। डॉक्टर ने कहा था कि मामूली है। इसके बाद घर जा सकेंगे। दिल्ली से मेरी दोस्त का एसएमएस आ गया। ऑपरेशन थियेटर के बाहर बैठा मैं जवाब दे रहा था कि इसके बाद ठीक हो जाना चाहिए। रिप्लाई आया कि सब ठीक ही होगा। बीच बीच में मैं बाहर जाकर पानी ला रहा था। कई लीटर पानी का गैलन ले कर आया। आखिरी बार लेकर आ रहा था। निश्चिंत होने लगा था। इस आपरेशन के बाद घर ले जा सकूंगा।

तभी एक बार ध्यान हुआ कि बहुत देर हो गई है। ओटी का दरवाज़ा खुला नहीं है। थोड़ी देर बाद एक डॉक्टर निकला। चुपचाप। किसी पाकेटमार की तरह। जेब काट कर। मैंने पूछा कि क्या हुआ। कोई जवाब नहीं दिया। एक बार और पूछा कि बहुत लंबा चला ऑपरेशन। आपने तो कहा था कि मामूली है। डाक्टर अपनी कमीज़ पहन रहा था। इतना ही बोला कि नहीं सब नार्मल है।

थोड़ी देर बार ओटी का दरवाज़ा खुला। स्ट्रेचर पर बाबूजी। एक स्ट्रेचल को लिफ्ट तक ले जा रहा था। दूसरा पानी का बोतल हाथ में उठाये था। मेरी नज़र भी धोखा खा गई। दोनों ने कहा कि देख लीजिए। थोड़ी देर में होश आ जाएगा। मां ने देखते ही कहा सब खत्म। मैंने रोक दिया। बोला कि सब ठीक है। होश आएगा।

पंद्रह मिनट बाद अटेंडेंट चिल्ला रहा था। रवीश कुमार कौन है। मैं भाग कर पहुंचा। डॉक्टर ने कहा आपके फादर को कार्डियेक अरेस्ट हो गया है। हालत गंभीर हो गई है। बचाना मुश्किल है। मैं भाग कर बड़े भाई की तरफ आया। फिर आवाज़ लगी, रवीश कुमार। मैं फिर भागा। इस बार जवाब मिला,नहीं बचा सकते। जिनको बताना है इंफोर्म कर दीजिए। मैंने कहा क्या खत्म। तब बोला, नहीं। हम कोशिश कर रहे हैं। थोड़ी देर बाद बोला। अब नहीं बचा सकते।

मेरे सामने सबसे पहले उस डॉक्टर की तस्वीर घूम गई। जो चुपचाप निकला था ओटी से। हाथों को पोछते हुए। एक चोर की तरह। फिर बाद में लिफ्ट तक स्ट्रेचर पर लेटे हुए बाबूजी। प्राण तो तभी उड़ गए थे। दांत जकड़ गए थे। आंखें पलट गईं थी। उनकी मौत तो ओटी में ही हो चुकी थी। कई लीटर गैलन पानी का क्या किया होगा उन लोगों ने। मैं किस लिए भाग भाग कर लाता रहा। तब क्यों नहीं बताया कि ऑपरेशन नाकाम रहा। कार्डियेक अरेस्ट का नाटक क्यों। हमें मौत का समय भी गलत बताया गया। शाम छह बजे का। मुझे लगता है जिस वक्त मैं अपनी दोस्त को एसएमएस कर रहा था, उसी वक्त मेरे बाबूजी हमसे बहुत दूर जा चुके थे। कोरी आशाओं और बेकार निराशाओं के झंझटों से निकल कर।

मेरे दिमाग में डॉ हेमन्त की आवाज़ गूंजने लगी। इन्हीं से बाबूजी इलाज करवा रहे थे। किडनी की बीमारी थी। बाबूजी भी लापरवाही बरतते थे। मगध अस्पताल में भर्ती कराया तो डॉ हेमन्त ने जाने से मना कर दिया। कई बार गिड़गिड़ाया कि आप लंदन से आए हैं। आपके लिए इगो प्रॉब्लम क्या। एक बार चल कर देख लीजिए कि इलाज ठीक हो रहा है कि नहीं। उन्होंने मना कर दिया। एक अहसान कर दिया कि अपने किसी जूनियर को फोन कर दिया। डॉ अमित। होंटा सिटी से आने वाला यह डॉक्टर पान पराग चबाता हुआ मेहनती लगता था।

१२ मार्च को मैं अपने बड़े भाई के साथ दस बजे रात को मिलने गया था। डॉ हेमन्त अपनी बात पर अड़े रहे। कहे कि अस्पताल से झगड़ा है। हमें उनसे कोई शिकायत नहीं है। मगर उनकी बात आज तक रातों को जगा रही है। बात बात में उन्होंने पूछा कि ऑपरेशन कौन कर रहा है। हमने नाम बताया तो बोल बैठे कि प्रवीणवा....अरे...उ का करेगा..। मैंने पूछा कि क्या वो ठीक डॉक्टर नहीं हैं। तब तक डॉ हेमन्त ने अपनी बात बदल ली। कहा कि नहीं मेरा मतलब वो नहीं है। पटना में दो ही लोग तो करता ही है।


तेरह मार्च को जब ओटी से निकले तो डॉ प्रवीण सहमे हुए से क्यों थे। क्यों उन पर एक डॉक्टर का विश्वास नहीं झलक रहा था। क्या वो अपनी नाकामी पर लीपापोती करने के लिए मुझसे पानी के गैलन मंगाते रहे। मैं भी मूरख की तरह भाग भाग कर गैलन ला रहा था। बिल्कुल भूल गया कि बाबूजी के आपरेशन में इतनी देरी क्यों हो रही है। आंधा घंटा बोला था, तीन घंटा क्यों लगा। क्या इस बार भी प्रवीणवा ने वही किया जो डॉ हेमन्त कहते कहते रुक गए थे। डॉ हेमन्त ने क्यों नहीं कहा कि कुछ भी हो जाए इस डॉक्टर से ऑपरेशन मत कराना। क्या डॉक्टर के लिए किसी का मरना सिर्फ जैविक प्रक्रिया भर है। क्या उनका अपने मरीज़ों से कोई नाता नहीं बनता। पता नहीं।

मैं नहीं जानता कि मेरे पिताजी बच सकते थे या नहीं। पर पता नहीं क्यों बार बार लगता है बच सकते थे। पटना के इस मगध अस्पताल का अनुभव अच्छा नहीं रहा। बीस रुपये लेकर दरबान आईसीयू में लोगों को जाने देता था। लगता रहा कि कहां फंसा दिए अपने बाबूजी को। मगर बार बार मेरा शक इस विश्वास के आगे हार जाता था कि डॉक्टर तो भगवान ही होता है।

सड़क

लीक सी पतली थी जब तुम
सदियों तक कुछ लोग चलते रहे
लीक से हटकर
चौड़ी होती चली गई होगी
अपने आप
बहुत दूर दूर तक निकले होंगे
सफ़र पर, सड़क तुम्हारे साथ
कितने रिश्तों की तुम डोर बनी
गांवों को गांवों से जोड़ा तुमने
फिर मुल्कों के कब्ज़े की बागडोर बनी
बादशाहों के हुक्म से बनने के दौर में तुम
सत्ता और ताकत की छोर बनी
इसी बीच
कहारों के कंधे पर बैठी बेटियां
ससुराल जाने के रास्ते
भींगाती रही तुम्हें अपने आंसुओं से
याद है जब तुम
कब्ज़े में रहकर ज़मींदारों के
कितनों को आने जाने से रोका करती थी
कितनी लड़ाई लड़ी है सबने
कि तुम सबकी हो
दरअसल, तुम जब तक अपने आप बनी
तुम सड़क थी
जब से सत्ता तुम्हें बनाने लगी
हर लीक को मिटाने लगी
अब तुम उसी के कब्ज़े में हो सड़क
कितने नाम, हुक्मरानों ने दिये तुमको
जीटी रोड से जीबी रोड
सिंगल रोड
फिर
वन वे रोड
उसके बाद
टोल रोड
हर योजनाओं का हिस्सा बनी रही
तुम्हें बनाने के नाम पर
कितनों ने घूस खाये, पीडब्ल्यूडी में
तुम खाने कमाने के दौर में भी
फोर लेन से गोल्डन क्वाड्रेंगल होती रही
अब तो तुम बीआरटी कोरिडोर कहलाती हो
अंबेडकर नगर से आईटीओ पहुंचने के रास्ते में
डिफेंस कॉलनी फ्लाईओवर पर उड़ने लगती हो
ओबेराय होटल से पुराना किला होते हुए
प्रगति मैदान तक
तुम सिर्फ किसी की योजना का नमूना हो
गलियां भी साथ छोड़ गईं हैं तुम्हारा
जगदेव पथ से तुम केनिन लेन होने लगी हो
नाम तक तय करने का अधिकार नहीं तुमको
अकबर रोड,औरंगजेब रोड से होते हुए
रिंग रोड होने तक,तुम अंसारी और मेहता हो जाती हो
मरने वाले और नेताओं के नाम चढ़ेंगे तुम पर
तुम कौन हो सड़क
लीक से हटकर, क्या अब भी हो सड़क
तोड़ लिया है नाता तुमने
पगडंडियों औऱ फुटपाथों से
डिवाइडर से अपनी मांग बना ली है
बालों को संवारती ज़ेबरा क्रासिंग से
बिंदी सजती है माथे पर तुम्हारे
लाल,पीली बत्तियों से
नीचे भीख मांगते बच्चे
तुम्हारी औलाद लगते हैं
सड़क
तुम सरकारी योजनाओं से निकलना छोड़ दो
फिर से बनने लगो अपने आप
पहले लीक
फिर लीक से हटकर

भ्रूण हत्या

भ्रूण हत्या
कल तक जो ख़बर थी
उसी ख़बर की हो चुकी है
भ्रूण हत्या
चुपचाप किसी मां के अनचाहे गर्भ की तरह
पत्रकारों ने गर्भ गिरा दिया है
कुछ ने एक्स रे मशीन से ढूंढ कर
डॉक्टर और दाई से मिलकर किसी रात
पता लगा लिया है कुछ पैसे देकर
उस छोटे से भ्रूण को
जिसके बड़े होने के शुरूआती हफ्तों में
बेटी की तरह लगती है ख़बर
कहां से देंगे पढ़ाई का ख़र्चा
कहां से लायेंगे दहेज
और कहां कहां खोजेंगे दूल्हा
मार देना सबसे बेहतर विकल्प है
न्यूज़ चैनलों की दुनिया के लिंग अनुपात में बदलाव आ चुका है
एक हज़ार कूड़ा कड़कट के बीच
ख़बरों की संख्या दो रह गई है
भ्रूण हत्या करने वाले मां बाप
कभी रोते नहीं है उसके मार दिये जाने पर
बल्कि मार देने की योजना बनाते हैं
एक ऐसी मौत जिसके लिए
ब्राह्मणों ने भी श्राद्ध का प्रावधान जैसा
कोई कर्मकांड नहीं बताया है
न सर मुंडाया है न खिलाया है मोहपातर को
तसल्ली देने के लिए बाहर एक बोर्ड लगा है
हमारे यहां लिंग परीक्षण नहीं होता
भ्रूण हत्या कानूनी अपराध है

रिक्शेवाले का किराया

तुम्हारी पीठ दिखती रही
हांफते हुए
भागते हुए
कहां तो तुम जकड़े रहे
उसी सीट पर
हुमच हुमच कर
तुम्हारे पांव पैडल पर
दौड़ रहे थे
नीचे गुज़रती सदियां थी
दिन बदलने की आस में
आगे का पहिया निकला जा रहा था
पीछे का पहिया भागते हुए भी
इस दौड़ में छूटता जा रहा था
मंज़िल की तरफ....
पहुंच मैं रहा था
पहुंचा तुम रहे थे
इसी तरह पहुंचा है मानव
मानव की पीठ पर सवार होकर
कहीं राजा बन कर
कहीं घुड़सवार बन कर
कहीं हमलावर बन कर
कहीं कारोबारी बन कर
कहीं दिलदार बन कर
कहीं सेनापति बन कर
तुम्हारी भागती हुई पीठ
सिर्फ तुम्हारी नहीं है
रिक्शावाला
उन सबकी है
जिन्हें हर सवारी के बाद
दे दिया जाता है किराया
मंज़िल से लौट आने के लिए
हमारे पहुंच जाने के बाद

बातें बदल जाती हैं तुमसे मिलके

बहुत बातें अनकहीं रह गईं
दफ्तर से घर लौटते हुए
कहने का करते रहे अभ्यास
घर पहुंच कर बातें बदल गईं
उन बातों पर रोज़मर्रा एक चादर
चढ़ती चली गई, परतें मोटी हो गईं
कोई हवा आएगी एक दिन जब
उड़ा ले जाएगी उन चादरों को
बहुत सी बातें वहीं दबीं मिलेंगी
तब तुम पढ़ लेना, तफ्सील से
बहुत कुछ कहने की चाहत में
क्यों मैं हर दिन तरसता हुआ...
बातें बदलता रहता हूं तुमसे
बात चौदह फ़रवरी की नहीं है
बात है साल के उन हर दिनों की
कुछ कहने का अभ्यास करता हुआ
दफ्तर से जब भी घर आता हूं
बातें बदल जाती हैं तुमसे मिलके।

क्या ये जेंडर का प्रॉब्लम है?

मुंबई से मेरे एक मित्र के प्रोफेसर का फोन आया था। वो हिंदी न्यूज़ चैनलों की भाषा पर संवाद करना चाहते थे। बात तो हुई नहीं मगर उनकी बात को लेकर काफी परेशान रहा। वो जानना चाहते थे कि न्यूज़ चैनलों की भाषा उग्र क्यों होती जा रही है। हर लाइन पंच लाइन के नाम पर ऐसे लिखी या बोली जा रही है जैसे पेट में किसी ने चाकू मार दिया हो। आगे बात कहने से पहले ही लिख देना चाहता हूं कि यह दूसरों पर आरोप नहीं है। पूरी गुज़ाइश है कि मैं भी इस बीमारी का शिकार हो सकता हूं। ये इसलिए लिख रहा हूं कि ज़रा सी आलोचना कीजिए तो तीन लोग बंदूक लेकर आ जाते हैं कि आप कौन से दूध के धूले हैं। काम तो करते नहीं,भाषण देते हैं। हमारा समाज चूंकि मूलत एक बेईमान समाज है इसलिए ईमानदारी की एक पंक्ति की भी बात करें या आलोचना का एक सवाल भी उठाया नहीं कि कसौटी लेकर मुंह पर घिसने लगता है कि खुद तो कार पर चलते हैं और पर्यावरण और प्रदूषण पर बोलते हैं। ईमानदार होने की अग्नि परीक्षा हर बार जंगल में जाकर नक्सल होकर नहीं दी जा सकती।

हिंदी उग्र हो गई है। घुस कर मारो पाकिस्तान को। अबकी बार,आर या पार। संभल जाओ पाकिस्तान। ये उदाहरण इसलिए दे रहा हूं कि अभी इस्तमाल हो रहे हैं। इसी तर्ज पर और भी जुमले हम सबने बनाए और सुनाए हैं। बलाघात के नाम पर हम शब्दों पर ऐसा घात कर रहे हैं कि बल से ज़्यादा बलात मतलब निकल रहे हैं।

ख़ैर प्रोफेसर साहब का सवाल था कि ऐसा क्यों हो रहा है? इसका जवाब तो नंबर भी है। जब चीखने से उत्तेजना पैदा हो और उत्तेजित दर्शक टीआरपी दे दे तो क्या हर्ज है। टीआरपी बुरी नहीं है। हम शायद टीआरपी का बुरा इस्तमाल करने लगे हैं। वैसे ही जैसे किसी गुरु ने कह दिया कि झूठ मत बोलो। किसी कीमत पर। जवाब में चेलों ने सच की ऐसी तस्वीर बनाई की गुरु का ही बंटाधार हो गया। हम सब टीआरपी के दायरे में काम करने वाले पत्रकार हैं। इससे बाहर कोई नहीं।

कहीं ऐसा तो नहीं कि ज़्यादातर कापी लिखने वालों में सिर्फ लड़के होने की वजह से भाषा ऐसी हो रही है? मुझे ठीक ठीक ज्ञान नहीं है। पर लगता है कि हर चैनल में कॉपी लिखने की कमान लड़कियों के हाथ में नहीं हैं। होंगी भी तो एक या दो। हिंदी पत्रकारिता आज भी पुरुष प्रधान पत्रकारिता है। मुझे मालूम है कि एंकर में ज़्यादातर महिलाएं हैं। जब आप पुरुष प्रधान पत्रकारिता की बात करें तो तुरंत इसकी मिसाल दी जाने लगती है। लेकिन किसी और संदर्भ में बात करें तो इन्हीं महिला एंकरों और पत्रकारों के बारे में तमाम तरह की अपुष्ट कहानियां बनाईं जाने लगती हैं। ज़्यादातर झूठी होती हैं मगर इसलिए बनाई जाती हैं क्योंकि महिलाओं की हर नई जगह को अपनी(पुरुष) जगह पर अतिक्रमण के रूप में देखा जाता है।

बहरहाल कहना यह चाह रहा हूं कि महिला एंकरों की भाषा भी उनकी नहीं है। कोई लिख देता है और उन्हें बोलना पड़ता होगा। चीख चीख कर। घुस कर मारो पाकिस्तान को,क्या कोई लड़की लिखती? हो सकता है मैं ग़लत हूं। लेकिन हमारी भाषा में उग्रता हम पुरुष प्रधान प्रत्रकारों की वजह से आ रही है। जिस दिन हिंदी पत्रकारिता में लड़कियों की संख्या ज़्यादा हो जाएगी और वो तय करने लगेंगी,उस दिन से भाषा में आ रहे मोहल्लेपन का असर कम हो सकता है। किसी भी चैनल को सुनिये, सुन कर यही लगेगा कि किसी मोहल्ले के छंटे हुए लड़के ने लिखी है। उसका गुस्सा,प्रतिकार हर पंक्ति में निकलता है। इस तरह से हम भी लिखने लगते हैं। पर क्यों लिखते हैं? ये कहां से आ रहा है?

क्या कभी हमने ध्यान दिया है कि उग्र भाषा लिखते वक्त हमारी मनस्थिति कैसी होती है? पाकिस्तान पर स्क्रिप्ट लिखते समय कौन से पूर्वाग्रह सामने आ जाते हैं? नफरत। और नफ़रत की बुनियाद में क्या क्या है? कहीं पाकिस्तान और उसके बहाने मुसलमानों के प्रति हिंसक सोच तो नहीं? मैं कोई निष्कर्ष पर नहीं पहुंच रहा? बस समझने की कोशिश कर रहा हूं। ख़ुद भी कभी कभी बोलने लगता हूं। हो सकता है अपनी तर्कबुद्धि से हम शालीन ही हों लेकिन गहरे अंतर्मन में बैठी हिंसक भावना ऐसी पंक्तियों से निकलने का रास्ता ढूंढ लेती हो।

यह सही है कि हर दौर में भाषा बदलती है। लिखने का अखबारी तरीका टीवी में बिल्कुल नहीं चलेगा। लेकिन क्या हमने सही विकल्प पा लिया है? पता नहीं। मैं यही सोच रहा हूं कि पाकिस्तान या तालिबान पर कोई भी स्क्रिप्ट कोई लड़की लिखती तो कैसे लिखती? क्या ये किसी स्त्री की भाषा हो सकती है? क्या कभी हमने सोचा है कि हमारे बोलने की शैली पर किसका असर ज़्यादा होता है? पिता की शैली का या फिर मां की शैली का?

मैं ख़ुद के बारे में कह सकता हूं। मेरे बोलने के अंदाज़ पर पिता का असर ज्यादा है। मेरी मां के बोलने का असर बिल्कुल नहीं हैं। ऐसा कैसे हो सकता है कि मेरे तमाम भाई बहनों में से किसी के बोलने में मां के बोलने का असर नहीं है। हम सब बाबूजी की तरह बोलते हैं। उसमें उग्रता है। यह भी नहीं कहना चाहता कि पिताओं की बोली अक्सर उग्र ही होती है? मगर उनमें एक किस्म की अथॉरिटी तो होती ही है।

तो मैं प्रोफेसर साहब से यही कहना चाहता था हिंदी पत्रकारिता में जेंडर का प्रॉब्लम है। जितनी तरक्की हम लड़कों की होती है, उतनी लड़कियों की कम देखी है। आईआईएमसी गया था। मैं अपने भावी सहकर्मियों से सवाल पूछ रहा था,हमें अलग से क्यों लगता है कि कोई लड़की ज़्यादा तरक्की कर रही है? जवाब खुद ही देने लगा। दरअसल हम सबने यही देखा है कि मां मिठाई पहले मुझे यानी बेटों को देगी,फिर बेटियों को। हमारी सोशल कंडीशनिंग ऐसी है कि हम मान कर चलते हैं कि लड़कियों को बाद में मिलेगा। वही जब दफ्तर में पहले मिल जाता है तो हम हैरान हो जाते हैं। कहने लगते हैं किसी और वजह(सुंदरता) से आगे गई है। क्योंकि पुरुष अंहकार मान कर चलता है कि आगे जाने का हक उसी का है। इन्हीं सब कहानियों को आधार बनाकर लड़कियों को कम आंका जाता है।

ऐसा भी नहीं कि लड़कियों के लिए काम करने का माहौल नहीं है। कई जगहों पर बेहतर माहौल है। मगर निर्णय लेने और लिखने के अधिकार से वे अभी भी दूर नज़र आती है। हिंदी न्यूज़ फ्लोर पर एक किस्म का सांस्कृतिक सामाजिक टकराव चल रहा है। एक दिन हिंदी न्यूज़ चैनलों में काम कर रहीं लड़कियों को आगे आना ही होगा। दावा करना ही होगा। उन्हें लिखने के लिए कीबोर्ड पर जगह बनानी होगी। इतना आसान नहीं है,लेकिन यही एक रास्ता बचा है। वर्ना टीआरपी के नाम पर पुरुष प्रधान पत्रकारों की मनोग्रंथियों से निकलती भाषा तेजाब की तरह लगती रहेगी। मैं लड़कियों को शालीनता का दर्पण नहीं बनाना चाहता। न मानता हूं। मगर आज जो भाषा है उसमें उनका दखल कम दिखता है।

यह भी हो सकता है कि दो घंटे ट्राफिक जाम में फंसे रहने के बाद,कम सोकर दफ्तर में टाइम बिताने के कारण भी हमारी भाषा उग्र हो जाती हो। पत्रकार तनाव में तो है। तो क्या उसकी वजह से भाषा ऐसी हो रही है या ये जेंडर का प्रॉब्लम है।