अंग्रेजो वाली रौब नहीं रही अंग्रेजी की


उदारीकरण के बीस सालों में हिन्दुस्तान के मध्यमवर्ग का जो नवीनीकरण और विस्तार हुआ है उसने इसकी भाषा में बड़ा बदलाव किया है। एक ऐसा दुभाषिया मध्यमवर्ग बन गया है जो अपने खानपान और रहनसहन से लगता तो अंग्रेज़ी वाला है मगर वो हिन्दी वाला भी है। उदारीकरण से पहले हिन्दी और अंग्रेजी का मध्यमवर्ग अलग अलग था।  अंग्रेजी वाले मध्यमवर्ग की पहचान सत्ता, अमीरी और बोर्डिंग स्कूल से पढ़कर आई पीढ़ी के खानदान वाली थी तो हिन्दी की पहचान विश्वविद्यालयों के हिन्दी विभाग,अकादमियों,दफ्तरों में  खपाये गए बाबुओं के विशाल मध्यमवर्ग से होती थी। लेकिन अब क्या कोई अंग्रेजी भाषी और हिन्दी भाषी मध्यमवर्ग में फर्क कर सकता है। क्या दोनों मध्यमवर्ग की आकांक्षाओं में कोई अंतर रह गया है।

मुझे लगता है अंग्रेजी और हिन्दी की दीवार टूट गई है। अंग्रेजी अब गोरों की भाषा नहीं रहे। अब आप अंग्रेजी बोलकर अंग्रेज़ नहीं कहलाते। अंग्रेज़ी का उपनिवेशवाद वाला केंचुल उतर गया है। अंग्रेजी माध्यम वाले पब्लिक स्कूल की प्रकृति भी बदल गई है। ब्रिटिश सेना की कैंटोनमेंट इलाकों में बने इंगलिश मीडियम स्कूलों, रजवाड़ों के छोड़े गए महलों या भव्य इमारतों वाले स्कूलों, दार्जीलिंग शिमला या नैनिताल की पहाड़ियों वाले स्कूलों का वर्चस्व टूट गया है।  इस दायरे से निकालने में मिशनरी कावेंट स्कूलों का बड़ा हाथ रहा। जब ऐसे स्कूल बेतिया,गोरखपुर से लेकर रांची और दिल्ली के उन इलाकों में चलते हुए कई दशक पूरे कर चुके थे जहां से अंग्रेज़ी बोलने वाला वो मध्यम वर्ग बन रहा था जो अंग्रेजी की सत्ता की दुनिया के दूसरे दर्जे के काम में खपाया जा रहा था। इनका ज्यादातर संबंध मैनेजर वाले कामों से रहा।

इसके बाद दौर शुरू हुआ पब्लिक स्कूलों का जो धीरे धीरे एक व्यापारिक श्रृंखला में बदलता हुआ एक ही नाम से देश के कई शहरों में खुलने लगा। जिनसे निकलने वाले लोगों को अंगेजी की सत्ता की दुनिया में तीसरे पायदान पर खड़े होने का मौका मिला। अब इन तीनों पायदानों में काफी कुछ बदल गया है। बदलाव इतना तेज था कि तीसरे पायदान का अंग्रेजी भाषा कब पहले पायदान पर पहुंच गया पता ही नहीं चला। जानकार इसे छोटे शहरों की कामयाब कहानियों से आगे देख ही नहीं सके। व्याकरण और शेक्सपीयर जैसी शुद्ध अंग्रेजी का दंभ टूट गया । आप किसी भी तरह से और कितने भी प्रकार से अंग्रेजी बोल सकते हैं। गांवों में इंग्लिश मीडियम स्कूलों के बच्चे भले ही पूरी अंग्रेजी न जानते हों, सही तरीके से नहीं बोल पाते हो मगर उन्हें यह पता लग गया है कि अंग्रेजी क्या है। इसीलिए वे होटल,शापिंग माल से लेकर डिस्को के बाहर दरवान बन कर खड़े होते हैं और आराम से दो चार लाइन अंग्रेजी बोल जाते हैं। यह धारणा टूट गई है कि कोई अंग्रेजी बोलेगा तो आप यही सोचेंगे कि किसी शाही खानदान का होगा।

यहीं वो बिन्दु है जहां हिन्दी और अंग्रेजी का मध्यमवर्ग एक दूसरे मिलता जुलता लगने लगता है। उदारीकरण के दौर में सरकारी सिस्टम के बाहर जो अवसर पैदा हुए उसमें एक ऐसा मध्यम वर्ग पैदा हो गया जो दुभाषिया था। उसने काम अंग्रेजी में किया लेकिन मनोरंजन हिन्दी में। अपने गांव से निकल कर पब्लिक स्कूलों से हासिल अंग्रेजी के सहारे वो बंगलुरू से लेकर अमेरिका तक गया मगर उस समृद्धि से पीछे अपने परिवार की हिन्दी को भी समृद्ध करता रहा। इस प्रक्रिया से कई भारतीय भाषाओं के पास आर्थिक शक्ति आ गई। हिन्दी वाला मध्यमवर्ग भी वही होंडा सिटी कार रखता है जिसे अंग्रेजी वाला चलाता है। वाशिंग मशीन से लेकर एलसीडी टीवी तक के उपभोग में समानता आ चुकी है। पहनावे से आप हिन्दी अंग्रेजी टाइप में फर्क नहीं कर सकते। वो जमाना जा चुका था जब उपभोग की ऐसी वस्तुओं पर उन्हीं का एकाधिकार था जो अंग्रेजी की सत्ता से आते थे और विदेशों से स्मगल कर लाते थे। यही वो दुभाषिया मध्यमवर्ग है जो अंग्रेजी को बाहर और हिन्दी को भीतर की भाषा मान कर जीता है। जिस तक पहुंचने के लिए हिन्दी के तमाम सीरियलों की बोलियों में आई विविधताओं को गौर करना चाहिए। किसी में गुजराती टोन है तो किसी में बिहारी तो किसी में अवधी। जन माध्यमों में मनोरंजन का हिस्सा सबसे बड़ा है। इसलिए पहले का यह सिद्धांत टूट गया कि जनमाध्यम होने के कारण मनोरंजन की एक स्टैंडर्ड भाषा होनी चाहिए। इस प्रक्रिया ने हिन्दी और अंग्रेजी के तनाव को कम कर दिया। दोनों के अहंकार को तोड़ दिया।

लिहाज़ा दोनों को आपस में घुलना मिलना था ही। हिन्दी फिल्मों के गानों में अंग्रेजी हिन्दी की तरह आ गई है। उनके नाम अंग्रेजी हिन्दी युग्मों के होने लगे हैं। कई बार पूरी तरह से अंग्रेजी के ही होते हैं। आम जीवन में हम इसी तरह से दोनों भाषाओं को टर्न कोट की तरह बरतने लगते हैं। अदल बदल कर पहन लेते हैं। दूसरी बात यह भी हुई कि यह धारणा टूट गई कि रोज़गार के अवसर से ही भाषा का विकास जुड़ा है। मैथिली की पत्रिकाओं का वितरण इसलिए बढ़ा है क्योंकि इस भाषा को बरतने वाले अमरिका में जाकर समृद्ध हुए हैं। इन लोगों ने कमाया तो अंग्रेजी से मगर हिस्सा मिला मैथिली को भी। हिन्दी को भी। इसी तरह से हिन्दुस्तान के भीतर अवसरों की तलाश में जो विस्थापन हुआ है उसने भी अंग्रेजी के अलावा दूसरी भाषाओं को संजीवनी दी है। दिल्ली के कई इलाकों में भोजपुरी,बुंदेलखंडी और मैथिली,कुमाऊंनी के म्यूजिक वीडियो घरों में देखे जाते हैं। चुपचाप इनका एक बाज़ार बन गया है। दिल्ली में ही मैथिली भाषा में एक न्यूज़ चैनल चलता है। दिल्ली में लाखों की संख्या में आए मज़दूर अपने मोबाइल फोन पर अपनी भाषा के म्यूजिक वीडियो डाउनलोड कर सुनते रहते हैं और जैसे ही कोई ग्राहक आता है दो चार लाइन अंग्रेजी के बोलकर सामान्य हो जाते हैं।

कहने का मतलब है कि भाषा का विकास अकादमी और व्याकरण से नहीं होता है। व्याकरण का अपना महत्वपूर्ण स्थान है लेकिन व्याकरण कोई ज़ड़ चीज़ नहीं है। अगर यह जड़ होता तो आज लाखों लोग अंग्रेजी बोलने का साहस नहीं कर पाते और इसी प्रकार से हिन्दी बोलने का भी साहस नहीं कर पाते। सिर्फ इतना ही नहीं इससे भाषाओं की राजनीतिक पहचान भी बदली है। हिन्दी अब राष्ट्रवादी आकांक्षाओं को व्यक्त करने वाली एकमात्र भाषा नहीं रही। वो हमेशा गरीबों की आवाज़ वाली भाषा नहीं रही। हिन्दी अब मध्यमवर्गीय आकांक्षाओं की भी भाषा है। अंग्रेजी भी औपनिवेशिक संस्कारों वाले तबके की भाषा नहीं रही। अंग्रेजी भी मध्यमवर्गीय आकांक्षाओं की भाषा है। इन दोनों का राजनीतिक मिलन देखना हो तो आप अन्ना आंदोलन और दिल्ली गैंगरेप के बाद रायसीना हिल्स पर आ धमके हज़ारों से लेकर लाखों युवाओं के स्लोगन को देखिये। उनमें हिन्दी भी है और अंग्रेजी भी है। जिसकी चिन्ता में वो देश आ गया है जो अब तक सिर्फ हिन्दी की चिन्ताओं में थी। हिन्दी की चिन्ताओं में नागरिकता को वो बोध आ गया है जो अब तक अंग्रेजी की चिन्ताओं में ही थी। इस बदलाव में सोशल मीडिया का एक बड़ा रोल है। जिसके एक ही पन्ने पर हिन्दी भी सरकती है और अंग्रेजी भी। दोनों लड़ते नहीं,साथ-साथ जीना सीख गए हैं।
(यह लेख जनवरी में राजस्थान पत्रिका में छप चुका है)

फांसी पर एक पुराना प्रकाशित लेख


फांसी की सज़ा कौन तय करे? अदालत या सियासत? इंसाफ की परिभाषा कानून से तय हो या उस समाज की भावनाओं से जो राजनीति तय करती है। राजनीति तय करेगी तो कहां तक करेगी और किस किस मामले में करेगी। इसका इम्तहान राजनीति देगी। बलवंत सिंह राजोआना के मसले ने फांसी की राजनीति को बदल दिया है। बीजेपी की पुरानी सहयोगी अकाली दल ने बीजेपी और कांग्रेस के शुरूआती विरोध और चुप्पी के बाद भी जिस तरह से माफी के लिए पहल की उसे आने वाले वक्त में सियासी कसौटी पर परखा जाता रहेगा। अव्वल तो पंजाब में ही यह सवाल लंबे समय तक गूंजेगा कि प्रकाश सिंह बादल ने समझदारी का परिचय दिया या गर्म ख्याली संगठनों के आगे घुटने टेक दिये। बहुत गहराई से देखें तो कांग्रेस और बीजेपी ने चुप रह कर फांसी पर होने वाले फैसलों को सख्त या नरम राज्य की परिभाषा से मुक्त कर दिया है। अब फांसी पर राजनीतिक निर्णय लेना आसान हो जाएगा। ध्यान रखना होगा कि केंद्र में कांग्रेस की सरकार थी जिसने अकाली दल की मांग को तुरंत स्वीकार कर लिया। राजोआना की फांसी टल गई।

जिस वक्त पंजाब के लोग सड़कों पर उतर रहे थे उसी दौरान दिल्ली में कहा जा रहा था कि यह पंजाब में गर्म ख्याली संगठनों का उभार है। कोई लोगों की भावना को राजनीतिक तौर पर नहीं पढ़ पा रहा था। आतंकवाद के दौर के बाद कई चुनावों में पंजाब ने अलगाववादी मुद्दों को छोड़ दिया है। इसी चुनाव में किसी भी ऐसे संगठन को जीत हासिल नहीं हुई जिन्हें कट्टरपंथी बताया जाता है। और फिर जिस वक्त लोग सड़कों पर उतरे उस वक्त सूबे में कोई चुनाव भी नहीं हो रहा था। ज़ाहिर है इस जनाक्रोश को आशंका के अलावा इस तरह से भी देखा जाना चाहिए कि पंजाब चौरासी के दंगों और आंतकवाद के दौर में हुई नाइंसाफियों पर बराबर का हिसाब चाहता है। उनकी बात को सुना जाना चाहिए जिन्होने कहा कि अगर चौरासी के दंगों के दोषियों को फांसी हुई होती तो कोई राजोआना के लिए सड़क पर नहीं उतरता। कहना मुश्किल है कि क्या होता मगर यह सवाल महत्वपूर्ण है। उतना ही जितना कि यह सवाल भी जो लोग आतंकवाद के शिकार हुए उनके हिसाब से इंसाफ कब और कैसे होगा। हमारी जांच और न्यायिक प्रक्रिया पर सबको भरोसा होता तो ये सवाल अदालत के हर फैसले के साथ शांत होते जाते। भड़कते नहीं।

ऐसी बात नहीं है कि पंजाब में राजनीतिक दलों ने किसी अदम्य साहस का परिचय दिया है। एक फौरी समझदारी ज़रूरी दिखाई है। अगर साहस से सामना करना होता तो सरकारें बताती कि आतंकवाद के दौर में आम लोगों के साथ कैसी ज्यादातियां हुई, उनमें शामिल लोगों को सज़ा देती। तब इंसाफ उन्हें भी मिलता जिनके लोग आतंकवादियों के निशाने पर आए और जिनके लोग सिर्फ शक के आधार पर आतंकवादी बताकर मार दिये गए। लेकिन यह एक जटिल सवाल है। आसान सवाल यह है कि फांसी के सवाल पर लाइन ले ली जाए। इससे भावनाओं के तरफ होने में सहूलियत हो जाती है।यह कहना आसान है कि मुख्यमंत्री प्रकाश सिंह बादल ने पहल कर इस मसले को कट्टरपंथी ताकतों के हाथ में जाने से बचा लिया। जो सवाल है उससे प्रकाश सिंह बादल भी नहीं टकराते।
बलवंत सिंह राजोआना ने कभी रहम की मांग नहीं की। वो फांसी पर चढ़ना चाहता है। लेकिन उसके उठाये सवाल जवाब मांगेंगे। यही कि दंगों में मारे गए निर्दोष सिखों के कातिल कहां हैं? पंजाब की धरती पर मारे गए नौजवानों की पहचान क्यों नहीं हुई? मानवाधिकार कार्यकर्ताओं की रिपोर्टों और धरने प्रदर्शनों में धूल खा रहे इन सवालों को राजोआना ने आवाज़ दे दी है। उसने भी इस मौके का फायदा उठाया है ताकि लोग चौरासी के दंगों के ऊपर बात कर सके। जिसे बीजेपी ने भी छोड़ दिया है। राजोआना के मसले पर कांग्रेस और बीजेपी ने चुप रहकर अहसान नहीं किया है। अपनी मजबूरी स्वीकार की है। इसका एक फायदा ज़रूर हुआ कि पंजाब में इस मसले पर राजनीतिक टकराव नहीं हुआ। लोगों का सड़कों पर उतरना राज्य सरकार की नज़र में कानून और व्यवस्था का ही सवाल बना रहा है।

राजनीतिक दलों ने इन सवालों को सांप्रदायिक चश्मों से नहीं देखा। इसीलिए पूछा जा रहा है कि यह चश्मा तब भी पहनेंगे जब अफज़ल गुरू की फांसी को दया याचिका में बदलने की मांग जोर पकड़ेगी। हम अफज़ल के मसले पर कांग्रेस और बीजेपी का खेल देख चुके हैं। कांग्रेस चुप हो जाती है। बीजेपी उग्र हो जाती है। अकाली दल के इस फैसले ने आगे से बीजेपी को भी नई लाइन तय करने के लिए मजबूर किया है। अब बीजेपी को सफाई देनी पड़ेगी कि बलवंत सिंह राजोआना की फांसी पर वह चुप हो जाती है और अफज़ल गुरु को लेकर आक्रामक। क्या उसका विरोध धर्म आधारित है? अकाली दल के सांसद नरेश गुजराल कह रहे हैं कि वक्त आ गया है कि राजनीतिक दल मिलकर एक सख्त फैसला करें। फांसी की सज़ा के प्रावधान को हटा दें और हमेशा के लिए इस मजबूरी से आजा़द हो जाएं। शायद यही बेहतर ही होगा वर्ना बादल की यह लाइन बीजेपी के किसी भी लाइन को बहुत परेशान करेगी।


राजोआना के सवाल पर राजनीति को इतनी जगह नहीं मिलती अगर दंगों के सवाल पर हमारी राज्य संस्थाएं निष्पक्ष नज़र आती। पूछा तो जाएगा ही कि गुजरात दंगों का इंसाफ नहीं मिलता है, सिख दंगों का इंसाफ नहीं मिलता है लेकिन इनसे पैदा हुए हालातों से भटके कुछ लोगों को फांसी पर ज़रूर लटका दिया जाता है। यह कानून की निष्पक्षता के लिए भी ज़रूरी है कि हर सवाल के जवाब उससे मिले। इस सवाल का जवाब भी कि बलवंत सिंह राजोआना आतंकवादी क्यों बना? जिसके पिता को आतंकवादियों ने मार दिया वो लड़का आतंकवादी क्यों बना? क्यों उसके मुंहबोले डैडी के परिवार के साथ पुलिस ने ज्यादतियां की? क्यों उसकी मुंहबोली बहन और मां को भी मार दिया गया। बलवंत सिंह राजोआना शायद इसीलिए फांसी पर चढ़ जाना चाहता है ताकि वो हम सबकी बुज़दिली को आइना दिखा सके। पूछ सके जिन्हें शक या संबंध के आधार पर आतंकवादी बताकर मारा गया उनका क्या कसूर था? अगर उनका बलिदान ही था तो इतिहास कैसे दर्ज करेगा।

उन आंकड़ों का कोई फायदा नहीं कि आज़ादी के बाद साल में एक से भी कम लोगों को फांसी हुई। उन बातों का भी मतलब नहीं कि राष्ट्रपति को यह प्रावधान दिया गया है कि वो फांसी को रहम में बदलने से पहले जनहित की परिस्थितियों पर भी विचार करें। यह सवाल उन बातों से भी हल नहीं होंगे कि दुनिया भर में फांसी की सज़ा के खिलाफ जनमत है। यह सवाल उन बातों से भी हल नहीं होंगे कि अमेरिका के कई राज्यों में फांसी की सज़ा फिर से शुरू हो रही है। राजनीति से मिलेगी। भागलपुर के दंगों , गुजरात के दंगों और सिख विरोधी दंगों का इंसाफ सिर्फ अदालती फैसलों से नहीं निकलेगा।

इस सवाल का सामना करने का साहस अभी राजनीतिक दलों में नहीं आया है। जनता में आया है। इसीलिए वो कई दलों और सरकारों को माफ कर देती है और आगे बढ़ जाती है। मगर अधूरे सवाल जवाब मांगते हैं। उन सवालों का जवाब आप विधानसभाओं से फांसी के खिलाफ प्रस्ताव पास कर नहीं दे सकते। मेनिफेस्टों के किसी कोने में लिख कर नहीं दे सकते। बलंवत सिंह राजोआना के उठाये सवालों को फिर किसी मोड़ और मुद्दे के लिए अधूरा छोड़ दिया गया है। जिसका जवाब हम पुराने हथकंडों से नहीं दे सकते कि पंजाब में कट्टरपंथी ताकतें पांव पसार रही हैं। एक बार फिर से पंजाब के चुनावों में जनता की भागीदारी और पसंद को सामने रख लीजिएगा।



एक अरब औरतों की आवाज़


समय और स्थान के बंटवारे में भी औरतों के साथ नाइंसाफी हुई है। किस वक्त और किस रास्ते से अकेली गुज़रना है या किसी के साथ गुज़रना है ये हर शहर और हर घर के औरतों के लिए लगभग तय होता है। दुनिया को उनके लिए बराबर बांट तो देते हैं मगर देते नहीं। दिन और रात का हर पहर उनका नहीं है। अक्सर पूछा जाता है या टोका जाता है कि वो इतनी रात को उस रास्ते से क्यों जा रही थी। घर में ही बालकनी में क्यों खड़ी है से लेकर क्या पहन कर निकल रही है और घर में रह रही है। यह सब कानून व्यवस्था की खराबी के कारण ही नहीं हुआ है। इस तथाकथित संस्कार के कायदे को रचा गया है पितृसत्तात्मक सोच के आधार पर । औरतों की आज़ादी भी अपने आप कई बंदिशों के बीच की वो जगह है जहां वो थोड़ी देर के लिए आज़ाद लगती है।

इन्हीं सब जगहों पर अपना हक जताने के लिए और हमारे सोच के भरम को तोड़ने के लिए गुरुवार के दिन दुनिया के दो सौ से अधिक देशो में सौ करोड़ औरतें बाहर निकल आईँ। शहर की गलियों से लेकर गांवों तक में औरतों ने रैली निकाली, नाटक किये और डांस किया। ताकि हर एक औरत की आवाज़ पूरी दुनिया के औरतों की आवाज़ बन जाए। इतनी बड़ी संख्या में बाहर आने का मकसद यह भी था कि उनके खिलाफ जो सोच है उसे अल्पमत में दिखाया जा सके। यह संख्या यह बताने के लिए थी कि शहर के हर कोने की जगह औरतों की भी है जहां किसी हिंसा की आशंका में उसे जाने नहीं दिया जाता। जाने दिया भी जाता है तो कई तरह के पहनावों और पहरों की शर्तों के साथ। यह अपने आप में एक अद्भुत दृश्य रचना थी ।

हालांकि टीवी ने इसके शहरी दृश्यों को ही दिखाया जिससे लगा कि यह अभियान चंद महानगरों की हाई क्लास टाइप की औरतों का है। गौर से देखें तो इस हाई क्लास की अवधारणा में भी मर्दवादी सोच होती है जो औरतों को हाई क्लास की आजादी से दूर रखना चाहती है। अफ्रीका हो या टोक्यो या बैतूल या जयपुर। हर जाति धर्म की औरतों का यह चेन बता रहा था कि दुनिया के हर कोने में औरतों के खिलाफ होने वाली हिंसा के किस्से एक जैसे हैं । फिर क्यों न एक जैसी हिंसा की शिकार औरतों को एक साथ आवाज़ उठानी चाहिए ताकि दुनिया देख लें कि ये औरतों कम नहीं हैं। अब ये अपनी हिंसा के खिलाफ बाहर आ सकती हैं। इनमें यह ताकत हैं कि वे अपनी अकेली की लड़ाई को ग्लोबल लड़ाई में बदल सकें।

इसी का असर है कि कमला भसीन जैसी नारीवादी कार्यकर्ता टीवी पर आती हैं और पूरी दुनिया के सामने बोलने का साहस करती हैं कि उनके बचपन में कैसे चार से आठ साल की उम्र के बीच तेरह अलग अलग मर्दों ने गलत से तरीके से छूने की कोशिश की। वो अपने आप से सवाल करती हैं कि तब क्यों नहीं बोल पाई आज तक नहीं जवाब नहीं मिला है। जबकि मेरे घर में मां बाप सब बराबरी से बर्ताव करते थे। फिर तेरह मर्दों ने मेरे बचपन की यादों को ज़ख्म दे दिया। अनुष्का शंकर को पब्लिक में यह कहना पड़ा कि उनके पिता के मित्रों ने किस तरह से उनका यौन शोषण किया। फिल्म निर्देशक पूजा भट्ट को लेख लिखना पड़ता है कि उनके साथ शादी के भीतर हिंसा हो सकती है ये कभी सपने में भी नहीं सोचा था। उनके पति ने शराब के नशे में मारपीट की। सबसे सामने इस तरह की बातें बताने का एक मतलब है। वो यह कि वो न सिर्फ अपनी बल्कि तमाम औरतों की चुप्पी को आवाज़ दे रही थीं। वो यह हौसला दे रही थीं कि अब कम से कम इस हिंसा पर बात की जा सकती है । बिना लोकलाज औऱ इज्जत गंवाने के भय के। यह एक बहुत बड़ा बदलाव है। जब समाज के एक तबके को पता चल जाए कि कोई लड़की आज न सही मगर बीस साल बाद भी यह बोल सकती है तो एक बार सोचेगा। आप जानते हैं कि स्त्रियों के साथ सबसे अधिक यौन हिंसा घर के भीतर होती है और पहचान वाले करते हैं।

ये औरतें संसद में आरक्षण के सवाल पर नहीं निकली थीं । व्यवस्था में जगह देने के बाद भी समाज और सरकार की सोच में औरतों के प्रति जो हिंसा है उसकी लड़ाई कुछ अलग है। कई लोग कहते हैं कि औरतें भी बुरी होती हैं। यह पुराना तर्क है। मर्द भी तो अच्छे होते हैं। सही है कि कई औरतों ने दहेज के झूठे आरोपों में मर्दों को फंसाया है। यह भी ठीक है कि कुछ औरतों ने बलात्कार से लेकर छेड़खानी तक के झूठे आरोप लगाये हैं। यह पूरी तस्वीर नहीं है बल्कि औरतों के साथ होने वाली हिंसा की व्यापक तस्वीर का एक कोना भर ही हैं । क्या यह सही नहीं है कि कोई रिश्तेदार बच्चियों को गलत तरीके से छूता है, कोई पति अपनी पत्नी को मारता है, किसी राह चलती लड़की को अपनी संपत्ति समझ कर हिंसा करता है, प्रेम न करने पर तेजाब फेंक देता है। औरतों के खिलाफ हिंसा को गिनाने की ज़रूरत नहीं है। इसकी लड़ाई कैसे लड़ी जाएगी। जब तक घर की बात सड़क पर नहीं होगी यह लड़ाई न तो लड़ी जा सकती है न जीती जा सकती है। यही लड़ाई लड़ने के लिए हज़ारों की संख्या में लोग दिल्ली के रायसीना हिल्स में पहुंच गए थे।

पूरी दुनिया के नारीवादी आंदोलन को दिल्ली गैंगरेप के बाद हुए ज़ोरदार प्रदर्शनों ने हौसला दिया है। बलात्कार सिर्फ भारत में नहीं होते लेकिन इस तरह के जनदबाव की मिसाल पिछले बीस साल की दुनिया में कम है। मणिपुर की मनोरमा सालों से अनशन पर हैं। उनके साथ भी बलात्कार हुआ मगर उन्हें लेकर कभी जनसैलाब नहीं उमड़ा। पिछले बीस सालों मे जिस तरह लड़कियों ने हर क्षेत्र में खुद को साबित किया है, अपने लिए जगह बनाई है उसका राजनीतिक नतीजा तो निकलना ही था। अभी भी हमारे राजनीतिक दल यह समझ रहे हैं कि हमारी लड़कियां और औरतें भाइयों और पतियों के कहने पर ही वोट कर रही हैं। वो यह देख नहीं पा रहे हैं कि औरतों का सबसे अधिक राजनीतिकरण हुआ है। शायद इसी बात ने नारीवादी संगठनों को उम्मीद से भर दिया है कि वे जिनके लिए वे सालों से काम करते करते हाशिये पर चली गईं थीं वो अब मुख्यधारा में अपनी आवाज़ को गूंजा देने की ताकत रखने लगी हैं। इस काम में फेसबुक और ट्विटर ने औरतों के राजनीतिकरण में बड़ी मुख्य भूमिका निभाई है। हो सकता है कि वे नारीवादी सिद्धांतों के अनुसार बराबरी के मसलों को न समझती हैं मगर वो अपने खिलाफ हिंसा और उसकी सोच को समझने लगी हैं। यह एक क्रांतिकारी बदलाव है और ये भारत में हुआ है जिसे दुनिया भर के नारीवादी संगठनों को एक रौशनी मिली है और उसी का नतीजा है एक अरब औरतों का यह अभियान।
(यह लेख आज के राजस्थान पत्रिका में छप चुका है)


भारतीय मुसलमान ही विश्वरूप है।

यह फिल्म सबको आहत की क्षमता रखती है। एक फिल्म के लिए इससे बड़ी कामयाबी क्या होगी कि उसने आहत करने के बहाने सबको झकझोरा। जब मैं यह बात कह रहा हूं तब यह बिल्कुल मान कर नहीं चल रहा है कि मैंने कोई गाथा देखी है। लेकिन मैंने सामान्य रूप से एक अच्छी फिल्म ज़रूर देखी है। अफगानिस्तान के यथार्थ को हिन्दुस्तान दर्शकों के करीब लाने की कोशिश में विश्वरूप हिन्दुस्तान के मुसलमान नायक के ज़रिये एक ऐसे सिनेमाई समाधान को पेश करने की कोशिश करती है जो यहां की साझा संस्कृति में पला बढ़ा हुआ है। जब कमल हासन को लात पड़ती है तो चीख में कृष्णा निकल जाता है। तालिबानी सरगना हैरान होता है कि जो खुद को मुसलमान बता रहा है वो कृष्णा कैसे पुकारता है। उसका एक नाम विश्वनाथ कैसे हो सकता है। कमल हासन के किरदार का जवाब दिलचस्प है। कहता है कि हूं तो मुसलमान लेकिन कलाकार भी तो हूं । कृष्णा के कैरेक्टर में बह गया था। उसे लात पड़ती है लेकिन एक अच्छी फिल्म अपने पर्दे पर हर छोटी बात का वृतांत रचते चलती है। फिल्म शुरू होती है कमल हासन के कृष्ण रूप से। कृष्ण लीला में मगन एक कलाकार किरदार उस लीला में विलीन हो जाता है जिसे कोई और रच रहा है। कृष्ण का सारथी बना यह विश्वरूप अर्जुन की भूमिका में अफगानिस्तान की गुफाओं में पहुंचता है।

पहले हिस्से की कहानी उस अफगानिस्तान को हमारे नज़दीक लाती है जिसके रहस्यों को हम कुछ जानकारों और विदेश सचिवों की बपौती समझते हैं। यहीं पर मज़हब सिसायत की बिछाई बिसात के बीच कितना लाचार नज़र आता है, जिसके नाम पर ख़ून ख़राबा है,जिसके नाम पर बेगुनाहों की हिंसा है और जिसके नाम पर एक वाजिब लड़ाई भी जो पेट्रोल के लिए अमेरिका उसकी धरती पर खेल रहा है। इस पूरे ख़ून ख़राबे में इस्लाम भी फंसा हुआ नज़र आता है। कमल हासन उस फंसे होने की पीड़ा को सामने लाने की कोशिश करते हैं। जहां बच्चों बीबीयों को ऐसे भून दिया जाता है जैसे वो किसी मज़हब के बिना ही पैदा हो गए हों। मज़हब भी अपने आप में एक ऐसा वहशी मुल्क है जो अपने ही नागरिकों को मज़हब-बदर कर मार देता है। मुल्क की सरहद भी ऐसी ही होती है। वो कब दूसरे मुल्क को दूसरे मज़हब की सीमा समझ घुस जाता है और अपने हिसाब से हिंसा को अंजाम देता है। कमल हासन का किरदार वहां फंसा हुआ है। उसकी हिंसा पीड़ा को समझ रहा है। अपने ज़रिये हिंदुस्तान के आम दर्शकों के सामने परोस रहा है।

फिल्म पूरी तरह व्यावसायिक है। पैसे कमाने के लिए बनी है इसलिए गाथा बनते बनते अंत में जाकर सीआईडी सीरीयल की तरह खत्म होती है । क्लाइमेक्स हिन्दुस्तान के निर्देशकों की भयंकर कमज़ोरी रही है। मगर इस एक कमज़ोरी को छोड़ दें, प्रधानमंत्री के फोन को छोड़ दें तो फिल्म हमेशा हमारे भीतर की हिंसा की तमाम मंज़ूरियों को व्यावसायिक सिनेमा के स्तर पर बेहतरीन तरीके से उभारती रहती है। तभी कमल हासन का किरदार कहता हैं –“ to answer your question I am both-good or bad, hero or villain”  यह कोई सामान्य संवाद नहीं है। इस संवाद के बाद तस्वीरों का जो वृतांत रचा जाता है उसके ज़रिये कमल हासन हर कहानी को नायक और खलनायक, अच्छे और बुरे के महिमागान और हिसाब किताब के दायरे से बाहर निकाल कर उसकी बारीकियों से बने यथार्थ को दिखाने की कोशिश करते हैं।

फिल्म कहीं से भी मुसलमान की छवि ख़राब नहीं करती है। बल्कि फिल्म बताती है कि बात नायक खलनायक की नहीं है। देखिये कि मज़हब और मुल्कों की सियासत में अच्छाई बुराई कैसे फंसी हुई है जहां इंसान आलू प्याज की तरह कट छंट रहा है। बल्कि यह फिल्म बहुत चालाकी से हिन्दुस्तान के मुसलमान को इस्लामी मिल्लत से अलग कर देती है। अगर आप इस नज़रिये से कमल हासन के मुसलमान को देखना चाहते हैं तो देख सकते हैं कि यह वो मुसलमान है जो अल कायदा के गढ़ में तटस्थ भाव से देख रहा है। उसके आंखों में आंसू है। वो देश के लिए एक दूसरे मुल्क की ज़मीन पर वो तबाही देख रहा है जिससे जुड़ने का ज़रिये उसके पास एक ही है और वो है इस्लाम। बल्कि कमल हासन ने दुनिया भर इस्लाम के नाम पर फैलाये और पैदा किये गए अमरीकी आतंक का जवाब हिन्दुस्तान के इस्लाम और मुसलमान से दिया है। यह फिल्म अपने व्यावसायिक हदों में जिरह करती हैं कि हिन्दुस्तान मुसलमान ही समाधान है। नज़ीर है। फिल्म दावा करती है कि भारतीय मुसलमान ही विश्वरूप हो सकता है।

यहीं पर फिल्म उस व्यापक कूटनीतिक दुनिया में दखल देने लगती है जिसे ओबामा अफगानिस्तान की ज़मीन पर भारत और पाकिस्तान के साथ खेल रहे हैं। अफगानिस्तान में भारत की भूमिका उसकी बेजान पहाड़ियों और खून से सनी मिट्टियों को हरा भरा करने की सियासत चल रही है। पाकिस्तान यहां आईएसआई के पिछलग्गू से ज्यादा कुछ नहीं है। इसलिए चेन्नई के जिन चौबीस मुस्लिम संगठनों ने इस फिल्म को देखने के बाद भी विरोध किया उन्होंने हिन्दुस्तान के मुसलमानों को बदनाम करने का काम किया है। अखिलेश यादव ने सही दिमाग लगाया और मुस्लिम वोट बैंक के दबाव में न आते हुए इस फिल्म को उत्तर प्रदेश में रीलीज होने दिया जिसके एक सिनेमा हाल में यह फिल्म देखकर मैं लिख रहा हूं। जयललिता चूक गईं और चेन्नई के मुस्लिम संगठन उनकी इस सियासी चूक के चारा बन कर रह गए।

चलते चलते- हां इस फिल्म ने ब्रा जैसे वर्जित वस्त्र को आम संवाद में लाने का भी प्रयास किया है। सफीना उबेराय की डाक्यूमेट्री याद आ गई जिसमें वो अपनी मां के विदेशीपन को पेश करने के लिए बालकनी में पैंटी और ब्रा को लहराते हुए दिखातीं हैं। मगर फिल्मों के स्तर पर ब्रा एक सामान्य वस्त्र कभी नहीं रहा। हमेशा नायिका की साड़ी या ब्लाउज के किनारे से सरक कर उन निगाहों का खुराक बनाकर पेश किया जाता रहा है जो औरत को भोग बनाती है। इस फिल्म के आखिर में कई बार बोला जाता है। कमल हासन की पत्नी से कि तुम्हारे कपबर्ड में ब्रा के पास वो सामान रखा हुआ है। कमल हासन की पत्नी हैरान है। उसकी हैरानी दो स्तर पर है। ब्रा के बोले जाने से और उसके निजी स्पेस में घुस आने से। हर कोई उसे याद दिलाता है कि जल्दी करो तुम्हारे ब्रा के पास वो चीज़ रखी हुई है ले आओ। निर्देशक चाहता तो यह भी कह सकता था कि तुम्हारे दुपट्टे के बगल में वो चीज़ रखी है। इस एक बात के लिए फिल्म का विशेष रूप से शुक्रिया। ब्रा को सामान्य बनाने के लिए। उस पर बात करने के लिए। वर्ना हिन्दुस्तान में उसे कभी खुली जगह नहीं मिली। बालकनी में भी नहीं। जहां वो या तो साड़ी के नीचे या कई कपड़ों के बीच में दुबका होता है। मुझे नहीं मालूम की ब्रा का जेंडर क्या है। ब्रा रखा गया है या ब्रा रखी गई है। मैं इस चक्कर में नहीं पड़ना चाहता वर्ना आपसे यह पूछना पड़ेगा कि मूंछ स्त्री लिंग कैसे है और पेटिकोट पुल्लिंग कैसे हैं।

(मेरी समीक्षा से प्रभावित होकर फिल्म न देखें। क्योंकि आपकी शिकायत से मिज़ाज भड़क जाएगा। आइटम सांग देखने वाले दर्शकों की जमात की शिकायत को ज्यादा गंभीरता से नहीं लेना चाहिए। बाकी जो सिनेमा के दर्शक हैं उनकी पसंद नापंसद सर आंखों पर)