मदीना ढाबा संग संग शिवा ढाबा


शाकाहारी हैं तो क्या हुआ बाज़ार के सेकुलर स्पेस पर सबका दावा होता है। मुरादाबाद हापुड़ के बीच किसी जगह पर आपको यह अद्भुत नज़ारा दिखेगा। शिव ढाबा नाम के कई ढाबे आपस में असली होने की होड़ करते हुए भी सेकुलर बने हुए हैं। कोई बीस साल पुराना है तो किसी की जगह बदल गई है। शायद शिव नाम के किसी मुखिया का परिवार बंट गया होगा या फिर भगवान शिव इतने बड़े शाकाहारी ढाबे के ब्रांड बन गए होंगे कि तीन तीन ढाबे वालों ने थोड़ा थोड़ा शिव का अंश लेकर असली शिव होने का दावा ठोंक दिया होगा।


लेकिन इस सड़क की ख़ास स्थिति ने ढाबे के बाज़ार को अनोखी मंज़िल दे दी है। यह सड़क सीधा आपको दिल्ली ले जाती है और मामूली दायें बायें होते हुए अंतर्राष्ट्रीय हवाई अड़्डा। पूरे रास्ते में आपको हज मुबारक की स्ट्रीकर वाली गाड़ियां दिखेंगी। टवेरा,इनोवा और वैगन आर टाइप की कारें हाजियों को विदा करने जा रहे रिश्तेदारों से भरी होती हैं। अब ये रास्ते में कहीं न कहीं रूकेंगे तो सही। चाय पानी के लिए। तो शिव ढाबा वाले कैसे इतने बड़े बाज़ार को हाथ से जाने दें। इसलिए मामा यादव जो किसी एक शिव ढाबा के मालिक हैं नमाज़ी टोपी और कंधे पर किफ़ाया रखे नज़र आ रहे हैं। मामा यादव ने नमाज़ पढ़ने के सुविधा भी उपलब्ध करा दी है। और आपको विश्वसनीय सेकुलर लगें इसलिए समाजवादी पार्टी के नेता आज़म ख़ान भी होर्डिंग पर नामूदार हैं। शिवा ढाबा की तमाम होर्डिंग पर हज यात्रियों को तहेदिल से मुबारकबाद दिया जा रहा है। शाकाहारी ढाबा है लेकिन हज यात्रियों को ये न लगे कि यहां नहीं रुका जा सकता है इसलिए पुराने हिन्दू होटलों की तरह ठसक नहीं है। सब पर हज मुबारक लिखा हुआ है। बस इतना ज़्यादा सेकुलर हो गए हैं कि हज में एक नुक़्ता ज़्यादा लगा दिया है। हज की जगह हज़ लिख दिया है।


लेकिन इस प्रेम के पीछे प्रतियोगिता का गहरा भाव है। अस्तित्व की लड़ाई भी है क्योंकि इस मार्ग पर कई ऐसे ढाबे खुल गए हैं जो मुस्लिम पहचान लिये हुए हैं। इतना ज़्यादा कि एक ढाबे का नाम लिखा था चौधरी मूस्लिम(मुस्लिम नहीं) ढाबा। मुरादाबाद और अन्य मुस्लिम इलाकों से गुज़रने वाली यह सड़क कई मुस्लिम पहचान वाले ढाबों को ख़ूब मौका दे रही है। आप इसे मुस्लिम समाज के कारोबारियों में आ रहे नए आत्मविश्वास की तरह देखिये। जैसे शिव ढाबे वालों का आत्मविश्वास है कि वे हज यात्रियों को भी अपना ही ग्राहक समझ रहे हैं। नमाज़ की सुविधा दे रहे हैं। लेकिन अल शमीम ढाबा और शादाब ढाबा को अलग से नहीं लिखना पड़ रहा है कि हमारे यहां नमाज़ की भी सुविधा उपलब्ध है। हो सकता है कि गाड़ी चलाते वक्त मेरी निगाह से यह लाइन ओझल हो गई हो मगर दिल्ली मुरादाबाद मार्ग पर कई मुस्लिम ढाबों की उपस्थिति पहचान के नए आत्मविश्वास के दौर का भी प्रतीक है । कम से कम वे इस नाम के साथ शिव ढाबा की ग्राहक खींचने की क्षमता को चुनौती देने आ गए हैं। बिस्मिल्लाह ढाबा भी है। लेकिन शिव ढाबा की तरह मदीना ढाबा का नाम खूब उभर कर सामने आ रहा है। मदीना ढाबा पंजाबी ढाबा की तरह नया ब्रांड हो गया है। कई जगहों पर मदीना ढाबा दिखा। कोरमा,नेहारी और इश्टू की लज़ीज़ तस्वीरें शान से होर्डिंग पर प्रदर्शित की गई हैं जैसे कई जगहों पर गणेश ढाबे वाले अपनी खीर और पनीर का प्रदर्शन करते हैं। मदीना ढाबा किसका है मालूम नहीं लेकिन होर्डिंग पर राजीव चौधरी का भी नाम है और मोहम्मद आलम का भी।


यह नया हिन्दुस्तान है जो पुराने हिन्दुस्तान के बीच किसी किसी कोने से निकलता रहता है। इनके बीच हरियाणा के मुरथल वाले भी मुरथल नाम का ढाबा खोल रहे हैं। मुरथल के साथ बड़ा अन्याय हो गया है। दिल्ली चंडीगढ़ मार्ग पर कई फ्लाईओवर बन जाने के कारण मुरथल पराठे वालों का ढाबा मुख्य मार्ग से कट गया है। इसलिए वे मुरथल ब्रांड के साथ फरीदाबाद मथुरा मार्ग और दिल्ली मुरादाबाद मार्ग पर अपना वजूद खोज रहे हैं। बीकानेरवाला और मोगा वालों ने अपना एसी ढाबा भी खोल रखा है। ढाबों को अपना अस्तित्व बचाने के लिए पहचान का सहारा लेना बिल्कुल जायज़ है। पहचान भी एक ब्रांड है जैसे कोई ब्रांड पहचान। मुस्लिम ढाबा और शिवा ढाबा का स्वागत। एक ही स्पेस में मदीना और शिवा की होड़। वाह। अति सुन्दर।

जब मंजू ने पहली बार हाल में सिनेमा देखा

अरे मंजू आई नहीं आज शाम, क्या हुआ ? आज आई नहीं तुम । रात के साढ़े आठ बज रहे हैं। नयना ने जब मंजू को फोन किया तो लगा कि वो बीमार हो गई है। क्यों मंजू तबीयत तो ठीक हैं न। नहीं दीदी। घबराहट बढ़ गई है।   कुछ लौउकिये नहीं रहा है । क्या हो गया तुमको। दीदी हाल में सिनेमा देखने चले गए थे। उहें अंधेरा हो गया,आ जब बाहर निकसे न अउर अंधेरा लगने लगा। कुछ बुझा नहीं रहा था । घबराहट बढ़ गई त हम घर चले गए । सोसायटी की गुप्ताइन आंटी है न उहे सिनेमा ले गई थी । हम पहीलका बार हाल में सिनेमा देखे । अंधेरा हो गया था । पर्दा पर सब बड़का बड़का लउक(दिख) रहा था । बाप रे दीदी एतना ठंडा था कि क्या कहे ।

अगले दिन जब मंजू मिली तो मैं पूछने लगा । गोरखपुर की मंजू गाँव से लेकर इस महानगर तक के सफ़र में, बचपन से लेकर पचास की होने के सफ़र में कभी सिनेमा हाल ही नहीं गई थी । रसोई में खड़ा पूछने लगा कि फिर मंजू क्या हुआ । अरे बाबू का बतायें । ओ माई गॉड बोल के सिनेमा रहल (था), जानते है बाबू, हीरो एकदम्मे से ताड़ लेखा बड़ा हो ग़या । हम त घबराहट में अंखवे बंद कर लिये । टीवीया पर त सब ननकी ननकी(छोटा छोटा) लगता है न, लेकिन हालवा में हउ बड़का बड़का। मंजू अपने रौं में आ गई थी। बोले जा रही थी कि छह गो मेमसाहब थीं आ हमनी तीन जाना नौकरानी । लेकिन उ दुन्नो नौकरानी लोग सिनेमा देख चुकी थी । गुप्ताइने आंटी और एक सौ पांच वाली मैडम बोलने लगी कि मंजू चलो सिनेमा देख के आते हैं। सब बुढ़ी बुढ़ी हैं न त हमनी नौकरानी सबन को ले गईं थी। लेकिन हम त बाबू अन्हार (अंधेरा) से ही घबरा गए। पसीना होने लगा, बाकी ठंडा बड़ी था। एसी चल रहा था का तो। बताते बताते मंजू शर्माने लगी , पहले मुँह पर आँचल रखा फिर हंसी को दबाते हुए दीवार की तरफ मुड़ कर लजाने लगी। उसके ज़हन में सिनेमा हाल का अनुभव फिर चलने लगा । शायद किसी अपराध की तरह कि मैंने हाल में सिनेमा देख लिया है। अच्छा तो इसलिए नहीं आई तुम। नहीं बाबू जब हॉलवा से निकले न त अन्हार (अंधेरा) हो गया । कुछ लउक नहीं रहा था । हमको लगा कि रस्तवे भुला जाएंगे त एहि से हम सोझा (सीधे) घर चले गए । लाजे किसी को बताए नहीं ।

मंजू हंसे जा रही थी । कभी लजाती तो कभी मुस्कुराती । अंत में मैंने कह दिेया कि मंजू टिकट जानती हो कितने का था, सौ रुपये का । बस पीछे पीछे कमरे तक चली आई, दीदी बाबू सही कह रहे हैं कि सौ रुपये का टिकस था । अब वो सिनेमा से ज़्यादा अवाक हो गई थी । बोलती बंद हो गई मंजू की । ताड़ जैसे हीरो । हम गाँव के लोगों के लिए ऊंचाई लंबाई का स्थानीय पैमाना ताड़ ही है । तड़कूल का गाछ । अपार्टमेंट यानी घरों की ऊंचाई ने ताड़ को छोटा कर दिया है लेकिन अब भी ताड़ किसी मंजू के  जीवन में ऊँचाई का सबसे बड़ा पैमाना है । इस बात के बावजूद कि दसवीं मंज़िल पर वो यह अनुभव मुझे बता रही थी । शुक्रिया उन बूढ़ी होती मेमसाहबों का जिन्होंने अपनी नौकरानियों को सिनेमा ले जाने का फैसला किया। सपोर्ट के लिए ही सही ।

अंग्रेज़ आ गया है।

खोड़ा से मीनू रोज़ बिना नागा काम करने आती हैं। गंगा की समय प्रतिबद्धता लाजवाब है। मैं सत्याग्रह और अहिंसा पर स्क्रिप्ट लिखने में व्यस्त था। अचानक मीनू अंदर आई और खुशी से लबालब नयना से बोलने लगीं। अरे भाभी मेरी बेटी को बेटा हो गया है। पता है सास ने एक हज़ार एक रुपये नर्स को दे दिये। उसकी सास बहुत ख़ुश है। तो अब सब ठीक हो गया मीनू घर में, हां भाभी, पोता होते ही बेटी से सबका व्यवहार बदल गया है। तभी तो हज़ार रुपये दिये नर्स को। क्या बताऊं, एक दम अंग्रेज़ जैसा है। उनकी फैमिली में तो सब कट हैं। ये एकदम कट नहीं है। तब मुझे मुड़ना पड़ा और पूछना पड़ा कि कट क्या होता है। कट मतलब किसी की शक्ल अच्छी नहीं है। सब के सब सांवले भी हैं। लेकिन मेरे नाती की शक्ल भैया बहुत अच्छी है। सही कह रही हूं लगता है अंग्रेज़ ही आ गया है। तो अब ठीक है न। सास तंग तो नहीं करेगी बेटी को। नहीं अब नहीं करेगी।

यही मीनू दो महीने पहले भी आई थी। दहाड़ मार कर रोने लगी कि भैया कुछ करो। मेरी बेटी को पति और ससुराल वाले बहुत मारते हैं। दहेज़ में तीन लाख रुपये दे चुकी हूं। घर घर जाकर काम कर अपनी आजीविका चलाने वाली मीनू ने तीन लाख रुपये दहेज़ के कहां से लाए। जितना कमाती हूं सब ससुराल वालों को दे आती हूं। वे लोग और मांग रहे हैं। आप पुलिस वाले से बोल कर कुछ करा दो। बहुत तक़लीफ़ होती है जब बेटी को मारते हैं तो। देखा नहीं जाता है भैया। कभी यह काम किया तो नहीं है लेकिन उस दिन बोल ही दिया मीनू तुम दोनों को घर ले आना। पहले बात करूंगा और तुमको लगता है कि पुलिस से बात करने से कुछ हो सकता है तो चलूंगा। करोलबाग के एस एच ओ से मिलकर बात करते हैं। मीनू रोज़ आती रही मगर फिर कभी इस बात को नहीं छेड़ा।
मीनू आज भी खुश ही थी तो फिर मैंने पूछ लिया कि अब बेटी के साथ सब ठीक है। नहीं भइया। फिर से वही हो गया। पोता मिल गया न तो सास को लगता है कि मेरी बेटी चली भी जाए तो क्या फर्क पड़ता है। उसको आपरेशन हुआ है और ज़ोर कर रही है कि नहा ले। सोच रहा हूं कि समाज में व्याप्त हिंसा कैसे जाएगी। कब जाएगी। आम ज़िंदगी में कितनी तक़लीफ़ है। इन मर्दों का कुछ करो भाई।
(मैंने नाम बदल दिया है। मीनू असली नाम नहीं है)