कुछ दिल ने कहा....कुछ दिल ने सुना

आज कुछ साझा करना चाहता हूँ । बस कुछ अच्छा लगा इसलिए वर्ना व्यक्तिगत और काम करने की जगह को लेकर मैं नहीं बोलता । आज मेरे ह्रदयेश और उमा के लिए एनडीटीवी इंडिया की टीम ने सरप्राइज़ पार्टी रखी थी । रामनाथ गोयंका अवार्ड के उपलक्ष्य में । प्रोडक्शन टीम ने इतनी मेहनत की थी कि इंतज़ाम देख कर आज सचमुच स्पेशल फ़ील हुआ । लगा कि ये बेइंतहा मोहब्बत सिर्फ मेरे लिए है । पिघल गया मैं तो । जहाँ हम लोग की रिकार्डिंग करता हूँ वहाँ पर एनडीटीवी इंडिया की टीम बैठी हुई थी । हमारे पुराने सहयोगी, नए सहयोगी, कैमरापर्सन, इनपुट, आउटपुट,गेस्ट, प्रोडक्शन और पीसीआर की टीम सब । जैसे ही हम तीनों हाल में आये हाल जगमगा उठा और सबने तालियों से इस्तक़बाल किया । सामने बड़ा सा केक रखा था । कुछ लोगों ने काफी मेहनत से हमारी प्रोफ़ाइल तैयार की थी । सबके सामने उसे चलाया गया । खुद को अपने सहयोगियों के साथ देखकर अजीब सा अच्छा लगा । आप जिस जगह पर काम करते हैं उसे लेकर कई तरह की शिकायतों और संभावनाओं से भरे रहते हैं । वो जगह कभी अच्छी लगती है तो कभी ख़राब भी । लेकिन आज जैसे लगा कि ग़ुब्बारे की तरह हल्का हो गया हूँ । एनडीटीवी के सोलह साल के अनगिनत दिनों में से आज का दिन जीवन भर याद रहेगा । मैंने कहीं और नौकरी नहीं की है । हो सकता है कि दूसरी जगह भी अच्छी होगी लेकिन मैंने इस जगह पर दिन रात गुज़ारे हैं । कई सारे सपने पूरे हुए तो कई अधूरे भी रह गए । पर मिलाजुलाकर हिसाब अच्छा है । बहुत अच्छा है । काफी कुछ मिला भी । आज का दिन उन दिनों में से है जब आप काम करने की जगह को लेकर श्रद्धा से भरे होते हैं । सबकी आँखों में खुद को देखकर सितारा महसूस कर रहा था । दफ्तर का दुख और सुख आज बहुत खुशी दे रहा था । इतना प्यार आया कि सबको गले लगा लेने का मन कर रहा था । हम तो रो ही दिये । कभी कुछ माँगा नहीं लेकिन आज जो मिला है उसे बाँटने का बहुत मन किया इसलिए लिख दिया । आप सबकी बधाइयाँ भी इसमें शामिल हैं । सबका शुक्रिया । 

लघु प्रेम कथा लप्रेक

घुड़सवार काले रंग के लिबास में केसरिया हुआ जा रहा है । रा़यसीना का सीना चीर रहा है । घोड़े के टाप से जंतर मंतर उड़ गया है । इंडिया गेट पर बरस रही बूँदों के बीच दोनों ने एक दूसरे को जकड़ लिया है । हम सत्ता के इस बँटवारे में नहीं बँटेंगे । घुड़सवार हो या पैदल सेना दोनों में भर्ती नहीं होंगे । तुम कहती हो तो आसान होगा । मगर अब जब हर कहना एक झूठ है, सत्य भी एक झूठ है । तुम्हारा सत्य भी घुड़सवार रौंद चुका है । उसे दिल्ली चाहिए । क्या तुम कुछ भी नहीं कर सकते । नहीं । इसलिए नहीं कि असहाय हूँ । इसलिए कि मैं यही चाहता हूँ । देखना चाहता हूँ कि घोड़ा कब तक हिनहिनाता है । कितनों को रौंदता है । उसकी थकान का इंतज़ार कर रहा हूँ । जैसे मैंने तुम्हें जकड़ने के लिए बारिश की बूँदों का इंतज़ार किया है । चलो हमारा करावल नगर ही अच्छा है । वहाँ कम से कम घोड़े नहीं हिनहिनाते हैं । रा़यसीना की तरह गलियों का सीना फटा नहीं है । दलदल है वहाँ । वहाँ ख़ून का पता चलता है न पसीने का । चलो यहाँ से । हम इंडिया गेट कहीं और बना लेंगे ।

(२) 
उसने एलान करवा दिया है आज अपने सोशल रेडियो पर । मुझे सत्ता दो । मुझे सत्ता दो । चिल्लाते रेडियो का वोल्यूम तेज़ कर वो गलियों की तरफ़ भागी । रात टीवी की चिल्लाहट ने उसे थका दिया था । बिस्तर के नीचे रखी उसकी डायरी का एक पन्ना हाथ में रह गया । प्रिय प्यारे, तुम्हारे प्रेम में ऐसा क्यों होता है िक दूसरे को देख मेरा ख़ून खेलने लगता है । तुम कौन सा ज़हर घोल देते हो । मैं नफ़रत से भरती जा रही हूँ । क्यों चाहिए किसी का क़त्ल तुम्हारी निष्ठा के लिए । ये हक़ की कौन सी अदा है जो तुम्हारे साथ साथ मुझे भी अहंकारों से लैस करती है । क्या तुम्हें बिल्कुल किसी की मौत का अफ़सोस नहीं होता ? क्या तुम्हें मेरी मौत का भी नहीं होगा ? खत हाथ में लिये वो भागी जा रही थी । हर घर से सोशल रेडियो चिल्ला रहा था । इसे सत्ता दे दो । इसे सत्ता दे दो । यह भूखा है । इसकी आंत में आँच है । सोलर आँच । ख़त का जवाब कैसे मिलेगा । वो तो जल चुका है । मैं क्यों जल रही हूँ तब । 

राजनीति का पनटकिया काल

प्रिय पाँच रुपये,

खाते पीते कांग्रेस के प्रवक्ताओं ने आज पाँच रुपये का जो सम्मान किया है उससे मैं बहुत ख़ुश हूँ । पाँच रुपये को कोई कुछ समझ ही नहीं रहा था । जब से सिक्का चरन्नी हो गया है सारा भार पाँच रुपया पर आ गया था । बारातों में पाँच रुपये की गड्डी उड़ते देखी है । बैंड मास्टर को नवाज़ कर हवा में उछालते हुए । पनटकिया का क्या जलवा होता था । पांच का नोट मिला नहीं कि मिठाई की दुकान पर । देहातों में तीन पत्ती में पांच रुपये को पांचाली की तरह दांव पर लगते देखा है । रेड लाइट पर देखा है लोग अब कार के डैश बोर्ड से पाँच का सिक्का ही देते हैं । जिसे देखो वही पाँच रुपया दान दिये जा रहा है । इतने कम में दानवीर बनने का सुख प्राप्त किये जा रहे हैं सब । यही वो पाँच रुपया है जिसे मोदी के लिए प्रति श्रोता वसूला जा रहा था । जो लाख से मिलकर पाँच लाख होकर उत्तराखंड में रौनक़ बहाल करने वाला है । पाँच रूपये के कितने ही चिप्स के पैकेट सड़कों पर मिल जायेंगे । जिन्हें खाकर ग़रीबों के ललना पेट जलाते हैं । अमीरों के बच्चे ज़िद में पाकर ख़ुश हो जाते हैं । पाँच रुपया चौराहों पर शनिदेव की टँकी में खूब टपकाया जाता है । पाँच रूपये में कुछ मिलता तो लोग ऐसे बाँटते न चलते । सबकुछ शांति से चल रहा था । रशीद मसूद साहब ने पाँच रुपये की औकात लगा दी । एक टाइम का खाना मिलता है पाँच रुपये में । पाँच रुपये का ऐसा टाइम आ गया सुनकर चकरा गया । रशीद साहब भी खाते हैं । बीमारी की वजह से । हवा और पानी फ़्री का हो तो शायद बाक़ी दाल पानी आ जाता होगा । पता ऐसा बताया जैसे लंदन का हो । जामा मस्जिद के लोग भी भटक रहे हैं । पाँच का खाना खाने के लिए । फटे पुराने नोट बदले जाने की दुकानों के आगे लाइन लगी है । पाँच नया कर रहे हैं । जिसे देख वही पाँच का सिक्का उछाल रहा है । फ़िज़ा में पाँच ही पाँच है । रिक्शा भी पाँच है ठेला भी पाँच है । खुशी के मारे सब पागल हो रहे हैं । खाना खोज रहे हैं । पाँच रुपये को देखकर ही पेट भर रहे हैं । कोई अपना पाँच रुपया किसी को दान में नहीं दे रहा है । दो टकिया की नौकरी में तेरा लाखों का सावन जाए टाइप माहौल है । झंडू पंचारिष्ठ टाइप शक्तिशाली फ़ील कर रहे हैं । आज पाँच का पंचनामा टीवी पर आयेगा । रशीद आयेंगे,नकवी आयेंगे । एक ग़रीब के पेट पर लात मारेंगे एक सहला़येंगे । रशीद साहब की कल किताब आयेगी । पाँच रुपये में कामयाब भोजन कैसे करें । नकवी साहब की किताब आएगी कि पाँच रुपये में कैसे रशीद साहब को खिला आएं । कुतर्कों का कुचक्र चलेगा । फिर खंडन आयेगा । फिर नया बयान आएगा । बीजेपी आरोप लगाएगी सरकार ने पैमाना घटाकर ग़रीबी घटा दी है । अपनी राज्य सरकारों में घटी ग़रीबी के पैमाने नहीं बताएगी । अगर पैमाना बढ़ जाए तो देश में ग़रीबी भी बढ़ जाए । उनके राज्यों में भी बढ़ जाएगी । फिर सबके ग्रोथ की पोल खुलेगी । आंकड़ों के हेरफेर के खेल का भांडा फूट जाएगा । भारत की ग़रीबी पाँच रुपये में इतरायेगी । रशीद साहब वित्त मंत्री बन जायेंगे और चिदंबरम उनके खजांची । टीवी पर ग़रीबी की हर थाली का सैंपल सजा मिलेगा । पाँच रुपये को भारत का राष्ट्रीय रुपया घोषित कर दिया जाएगा । पाँच रुपये के सम्मान में एक दिन मसूद दिवस मनाया जाएगा । लोगों को बुला बुलाकर पंतुआ वग़ैरह खिलाया जाएगा । छुट्टी घोषित होगी । लोग उस दिन सिर्फ पाँच रुपये का ही खाना खा़येंगे । जो जो खा लेगा रईस घोषित कर दिया जाएगा । राजनीति में मूर्ख होते हैं । मूर्ख रहेंगे । पनटकिया काल है कांग्रेस का ये । कपार पीटते रहिए । इसलिए हे पाँच रुपये तुम दुखी मत होना । शान से कहो मैं पाँच हूँ पाँच । अब कोई तुम्हें नहीं फेंकेगा । बस ज़रा देखना बारह रुपया बाज़ी न मार ले जाए । सरकार बारह का बब्बर नोट न छाप दे । बब्बर करेंसी । 

तुम्हारा 
गैर पनटकिया पत्रकार
रवीश कुमार 

हुज़ूर आपका एहतराम करता चलूँ

आप सबका शुक्रिया । वा़यरल प्रकोप के बीच आप सबकी शुभकामनायें पढ़ रहा था । भावुक हूँ तो हो जाता हूँ । जीवन की अच्छी यादें हैं आप लोग । दर्शक एक दिन चला जाता है क्योंकि जिसे वो देखता है वो वैसा का वैसा ही रह जाता है । फिर जितने भी समय के लिए आप आये, आप रहेंगे, हमारी यादों का हिस्सा बनेंगे । बुखार तो उतर गया है पर बुख़ैरियत बाक़ी है । बुख़ैरियत मतलब कमज़ोरी । मिलेंगे सोमवार से । 

ओबामा जी वीज़ा वाले

आ. ओबामा जी , 

मुझे पता नहीं था आप वीज़ा का भी काम देखते हैं । वर्ना कब का कहता कि मोदी जी का छोड़ो मेरा लगवा दो जी । मोदी जी वैसे भी प्रधानमंत्री बनने के लिए अगले मई जून तक भारत में बिज़ी हैं । अब उनके पास टाइम ना है जी । वीज़ा का टाइम लैप्स हो जाएगा । आपको पता है कि राजनाथ जी भी आपके उधर जाकर हिन्दी में वीज़ा मांग रहे हैं ।ऐसी ख़बर छपी है  ( राजनाथ ने खंडन किया है )  वैसे मोदी कभी कुछ मांगते नहीं हैं । पद न सत्ता । सिर्फ सेवा देना चाहते हैं । पता नहीं वे वीज़ा क्यों मंगवा रहे हैं । आपने जो काम किया है वही अगर पाकिस्तान ने किया होता तो हमारे मोदी जी उनके राष्ट्रपति से लेकर मेयर तक की इतनी ज़ुबानी धुनाई करते कि पाकिस्तान में रेडियोवेव और ब्रांडबैंड बंद करना पड़ जाता । पाकिस्तान और रेगिस्तान का इतना जुमला बनाते हैं कि पूछो मत । वो भी तब जब पाकिस्तान ने मोदी जी की वीजा पर रोक नहीं लगाई है । ओबामा जी हमारे मोदी जी ने आपके किसी बंदे की आलोचना नहीं करी है । एक बार भी आपको या आपके किसी सांसद को वीजा न देने पर नहीं धमकाया है । आप भारत में अमरीकी दूतावास से चेक कर लो जी । मोदी जी या नेट पर उनके कुछ समर्थकों की 'गाली सेना'(Abuse Army) ने ट्विटर पर एक गाली तक नहीं दी है । क्या मोदी जी ने इक वार भी तैश में बोला कि वीजा नहीं चाहिंदा । नेभर जी नेभर । मोदी जी ने एक बार भी नहीं कहा कि वीजा न देना छह करोड़ गुजरातियों का अपमान है । मेरे गुजरातियों भारत आ जाओ । ओबामा जी, गांधी जी होते न आपकी एक ही अनशन में हालत खराब कर देते । मोदी जी सदभावना मिशन वाले हैं अनशन वाले नहीं । वीज़ा मांग रहे हैं करेक्टर सर्टिफिकेट नई जी । क्या अमरीका के प्रति इतने आदरशील और सहनशील मोदी जी को वीज़ा नहीं दोगे । ना ओबामा जी ना । ऐसा न करना । वीज़ा लगवा दो मोदी जी की । कोई पूछे तो मेरा नाम ले लेना । आप डरो नहीं । मोदी जी आपका वीज़ा लेकर सिलिकन वैली में नौकरी थोड़ो न करेंगे । अरे स्टैच्यू आफ़ लिबर्टी देखेंगे । वो स्टैच्यू आफ़ लिबर्टी को इतना मिस करते हैं कि वैसी और उससे भी ऊँची मूर्ति बना रहे हैं । सरदार पटेल जी की । कल को अमदावाद में पेंटागन की जगह हेक्सागन बनवा दिया न समझना । 

देखो जी एक बात साफ़ साफ़ भी कह दूँ । जी आप दुनिया के मालिक हो । पता है न ये लोग इंडिया को सुपर पावर बनाना चाहते हैं । मतलब समझो । ये हालत कर देंगे कि आपके यहाँ की हिलेरी से लेकर बिदेन तक भारत घूमने आयेंगे और कहेंगे एक्स सुपर पावर के एक्स प्रेसिडेंट को वीज़ा दो, वीज़ा दो । राजनाथ जी को मामूली मत समझ लेना । भारत के सुपर पावर होते ही आपको इनसे विनती करनी पड़ेगी । अच्छा लगता है क्या जी । जो भी यहां से जाता है मोदी जी के लिए वीजा मांगता है । सारा अरब आपको फ़सादी कहता है आपकी किसी ने वीज़ा रोकी ? जापान में बम किसने गिराया था । जापान ने आपकी वीज़ा रोकी ? आपके सांसद गुजरात जाते हैं । मिलते हैं । आपने उनको मना किया कि मोदी जी से मत मिलना  हमने इनकी वीज़ा रोक रखी है । मेरी बात मानो तो उन साठ सांसदों की वीज़ा रोक दो । जो मोदी जी की वीजा नहीं चाहते । ओबामा जी ये आपकी भी प्रैस्टीज का सवाल है । देखो जी ठीक गल दस्सो । गुजरात के एम एल ए, मंत्री, सिपाही, अफ़सर, लोग सब वीज़ा लेकर अमरीका घूम रहे हैं । मोदी जी जायेंगे तो आपका और नाम होगा । खूब सारे रीट्विट होंगे । मोदी जी अमरीका को चाहते हैं । आपने कई साल वीज़ा नहीं दिया उन्होंने बर्दाश्त किया कि नहीं ।  समझो बात को । भारत को सुपर पावर बनाने से पहले मोदी जी अमरीका का वीज़ा माँगा करते थे । ये हिस्ट्री लिखवाना चाहते हो जी । मत करो । अमरीका वीज़ा देने वाला एक महान देश है । पता नहीं मोदी जी को पहली बार अमरीका जाने की ललक है या कभी जा भी चुके हैं । कितना सर्च करूँ जी । लो जी ये क्या सुन रहा हूँ । मोदी वीज़ा के लिए अप्लाई करेंगे तो विचार करेंगे । अच्छा जी । वीज़ा के लिए अप्लाई नहीं किया मोदी जी ने । लो कल्लो बात । फारम तो भर पहले भाई । 

आपका, 
ग़ैर ल्युटियन पत्रकार
रवीश कुमार 

ज्वर

दो दिन से चुप हूँ । गले में भयानक संक्रमण के कारण शरीर का तापमान कम होने का नाम नहीं ले रहा । होमियोपैथी में यक़ीन रखने के कारण सब्र की ज़रूरत है । हर गोली के बाद लगता है कि अब उतर गया मगर ऐसा हो नहीं रहा है । इससे पहले तो हद से हद दो ही डोज़ में ठीक हो जाता था । बदन दर्द चरम पर है । छुटंकी का सब्र जा रहा है । दीन में पाँच सौ बार पापा पापा करती रहती रहती है और मैं बेटा बेटा । किसी और को पुकारती भी नहीं । उसे संक्रमण न हो इसलिए दूसरी तरफ़ देखते हुए गुज़र जाता हूँ । वो समझ गई है कि मोटू इग्नोर मार रहा है । घुटने के बल चलती हुई बंद दरवाज़े तक आ जाती है और मद्धिम स्वर में पापा पापा पापा पापा पापा पुकारने लगती है । मुझसे भी रहा नहीं जा रहा है । लगता है एक बार पकड़ लूँ और कलेजे से लगा लूँ । जल्दी बुखार जाओ भाई तुम । छुटंकी को साथ खेलना जो है । किसी तरह शनिवार को हमलोग रिकार्ड कर पाया था । राम जाने कैसे एडिट हुआ होगा । छुंटकी की आवाज़ आने लगी है । पाअपा, पप्पा, पाप्पा, पाआपा, पापाअ । 

कबड्डी कबड्डी कमेटी कमेटी

कमेटी कमेटी कमेटी कमेटी कमेटी कमेटी कमेटी कबड्डी कबड्डी कबड्डी कबड्डी कबड्डी कबड्डी कबड्डी कमेटी कमेटी कमेटी कमेटी कमेटी कमेटी कमेटी ये कमेटी वो कमेटी तीन कमेटी तेरह कमेटी चमेटी उमेठी प्रचार कमेटी आचार कमेटी पीएम कमेटी सीएम कमेटी बाॅस कमेटी रिपोर्टिंग कमेटी दिल्ली कमेटी भोपाल कमेटी वीज़न कमेटी गींजन कमेटी हाय कमेटी ओय कमेटी कबड्डी कबड्डी कबड्डी कबड्डी गद्दी कमेटी रद्दी कमेटी सेटिंग कमेटी गेटिंग कमेटी बड़का कमेटी छोटका कमेटी कमेटी कमेटी कमेटी चमेटी चमेटी चमेटी कमेटी कमेटी कबड्डी कबड्डी मोदी कमेटी गोयल कमेटी जोशी कमेटी गडकरी कमेटी कमेटी कमेटी कमेटी कमेटी कबड्डी कबड्डी कबड्डी कबड्डी । 

ल्युटियन डे मील

मिड डे मील की रिपोर्टिंग बताती है कि हमारे नज़रिये का ल्युटियनीकरण हो चुका है । ख़ासकर हिन्दी के पत्रकारों का । ल्युटियन ज़ोन हिन्दुस्तान की सत्ता का गर्भ गृह है । सांसद, पत्रकार, जनसेवक सब इस ल्युटियन दिल्ली का चश्मा पहने स्मार्ट नज़र आने लगे हैं । जिस तरह ये कैमरे सरकारी स्कूलों में घुस रहे हैं ऐसा लगता है कि पत्रकारों ने भी पहली बार सरकारी स्कूल देखा है । पहले इलाक़े की गंदगी, फिर स्कूल का टूटा फ़र्श,चटकती दीवारें, नदारद बेंच देखकर कलेजा फाड़ आँसू बहा रहे हैं । ऐसी गंदगी में खाते ये बच्चे । ज़मीन पर क़तार में खाते बच्चे, भोजन पर भिनभिनाती मक्खियाँ आदि आदि । पत्रकार हैरान, दर्शक शर्मसार । साठ साल के हिन्दुस्तान की उपलब्धि को ख़ारिज करती निराशा का जयकारा लगने लगता है । आख़िर ये सरकारी स्कूल तो हमेशा से ऐसे ही रहे हैं । पिछले नवंबर में अहमदाबाद के सरकारी स्कूल में गया था । एक नहीं चार चार । हर जगह पहली से तीसरी क्लास की लड़कियाँ फ़र्श पर पोछा लगा रही थीं । मिड डे मील उसी गंदगी में परोसा जा रहा था और पानी के नलके के नीचे गंदगी पसरी हुई थी । तब मैंने एक बात कही थी कि ऐसा क्यों होता है कि हर राज्य के सरकारी स्कूल की तस्वीर एक जैसी होती है । यह कैसा सिस्टम है जो हर राज्य में एक सा है । दिल्ली के एक सरकारी स्कूल में पाँच सौ लड़कियों पर एक ही बाथरूम । जलेबी की तरह लाइन लगी थी लंच की घंटी में । इतनी शर्म आई कि कैमरे को रोक दिया । कई लड़कियाँ उसी क़तार की ओट में फ़ारिग़ हो रही थीं । हरियाणा, बिहार और यूपी के सरकारी स्कूलों की यही हालत हैं । हम कब जाते हैं इन स्कूलों में । ज़िलों के अस्पतालों में ।


हिन्दुस्तान के एक छोटे से तबके ने डायनिंग टेबल पर खाना सीख लिया है । इसी तबके से अब पत्रकार भी आते हैं । नहीं आते हैं तो साल भर के भीतर हो जाते हैं । अपनी इसी जीवन शैली को लेकर पत्रकार स्कूलों पर धावा बोल रहे हैं । क्या हम नहीं जानते कि इन स्कूलों को ऐसे ही मारा गया है । बिना किसी गुणवत्ता के टीचरों को नियुक्त किया जाता रहा है । टीचरों से जनगणना और चुनाव कराया जाने लगा है । इन स्कूलों में बिजली कभी होती नहीं । पढ़ाई के स्तर की हालत आपको हर साल प्रथम की रिपोर्ट में मिल जाती है । ग्रोथ रेट की राजनीति में स्कूल सिर्फ एनरालमेंट के आँकड़े बताने के काम आ रहे हैं । ड्राप आउट रेट कम होने की कामयाबी के आँकड़े बनकर रह गए हैं । कब और कहाँ की सरकारों ने स्कूलों को बेहतर करने का अभियान चलाया है । सब खानापूर्ति । हमको पता है ये सब । सरकारी स्कूल सरकार और लोगों से ख़ारिज हो चुके हैं । निर्धनतम तबक़ा ही वहाँ जाने को मजबूर है । सरकारी स्कूलों के मोहल्ले में इंग्लिस मीडियम स्कूल खुल गए हैं । सरकारी स्कूल ग़रीबी रेखा से नीचे के बच्चों के स्कूल बन कर रह गए हैं । ग़रीबी मिटेगी न ये स्कूल । जैसी ग़रीबी होगी वैसे ही ये स्कूल दिखेंगे । 

इन सबके बीच मिड डे मील योजना ही थी जो चल रही थी उसी तरह से जैसे ये स्कूल चले आ रहे हैं । हमें शर्मसार होने की नौटंकी के लिए छपरा के बच्चों की मौत से भावुक होने की ज़रूरत नहीं है । हमारी सोच से ये स्कूल कबके गायब हो चुके हैं । हमने कभी चिंता भी नहीं की कि इनकी हालत ऐसी क्यों हैं । न हमने फेंकू से पूछा न पप्पू से । अब यही कैमरे हमारी ल्युटियन मानसिकता से इन स्कूलों को देख रहे हैं । मिड डे मील को पखाने की तरह दिखा रहे हैं । कैसे खा रहे हैं ये बच्चे । कौन बनेगा प्रधानमंत्री पर बहस करने वाले एंकर रोने की नौटंकी कर रहे हैं । अरे कैसे नहीं खा़येंगे ये बच्चे । किसी रिपोर्टर ने एक थाली लेकर खाते हुए क्यों नहीं बताया कि खाने लायक है या नहीं । क्यों नहीं खाया ।  छपरा के बहाने हर राज्य के स्कूलों में दिये जा रहे इन भोजनों के प्रति एक सोच गढ़ी जा रही है जैसे ये खाने न हो गए ज़हर हैं । इन्हें गंदा बताया जा रहा है । मीड डे मील को ऐसे दिखाने लगे हैं जैसे बच्चे ज़हर ही खा रहे हैं । एक रिपोर्ट में एक बच्चा कहता भी है कि माँ पूछती रहती है कि आज स्कूल में खाना क्यों नहीं मिला । रिपोर्टर इसे पकड़ ही नहीं पाया क्योंकि वो गंदगी और अव्यवस्था रिपोर्ट करने के ब्रीफ़ से गया था । माँ ने क्यों कहा, बच्चे ने क्यों कहा कि नहीं मिला । वो क्यों चाहता है । किसी बच्चे ने क्यों नहीं कहा कि ये गंदगी से बदतर खाना है हम थूकते हैं इस पर । जबकि कैमरा और ल्युटियन पत्रकार इसे गंदगी की निगाह से ही देख रहे थे । मिड डे मील ने क्या असर डाला है इस पर तो शायद ही किसी ने एक लाइन लिखी हो । क्या किसी ने लिखा कि जिस थाली में मक्खी बैठी है, कहीं मेंढक निकला है, कहीं कुछ निकला है उसे बच्चे किस भूख या मजबूरी के तहत खा रहे हैं । क्या किसी ने दिखाया कि रसोई की हालत कैसी है जहाँ जब भी खाना बनेगा मक्खी मेंढक आयेंगे ही । किसी ने जाकर नगरपालिका से पूछा कि ऐसा क्यों हैं । किसी शिक्षा मंत्री से बाइट ली । नहीं । ये हमारे पेशे की सामूहिक नाकामी की तस्वीर है । 


ल्युटियन की सफ़ाई हिन्दुस्तान की हक़ीक़त नहीं है । ऐसा भी नहीं कि हिन्दुस्तान रोज़ अपनी इस गैर-सफ़ाई को कोस कोस कर जी रहा हो । हर शहर की साठ फ़ीसदी आबादी ऐसे हालात में रहती और जीती है । क्या हम आहत होते हैं ? क्या तब हम उनके हालात की गंदगी को दिखाते हुए भारत को शर्मसार करते हैं ? इस मसले को भी सोशल मीडिया पर लोग फेंकू,नीकू और पप्पू की पार्टी के बीच फ़ुटबॉल बना कर खेल रहे हैं । जबकि सबको पता है िक हर राज्य में सरकारी स्कूलों की यही हालत है । घटना दुखद है मगर इस बहाने मिड डे मील को खलनायक  नहीं बनाया जाना चाहिए । बाक़ी फेंकू के लोगों की अपनी राय और पप्पू के लोगों की अपनी राय । ( राहुल गांधी के समर्थकों ने नरेंद्र मोदी को फेंकू नाम दिया है तो नरेंद्र मोदी के समर्थकों ने पप्पू ) जब ये कैमरे लौट जायेंगे तब चुपके से किसी सरकारी स्कूल में जाकर देखियेगा । दोपहर का खाना और खाने वाले बच्चों को । सिस्टम नीचे सुधरेगा नहीं और हालात बदलेंगे नहीं । 

हमारे कानपुर में....लेकिन ख़ैर रवीश जी...

अंग्रेज़ी के 'सी'नुमा अक्षर में ढल से गए हैं । उनके भीतर की सीधी तनी हुई 'आई' जब भी खड़ी होती है वे सरक कर 'सी' की तरह हो जाते हैं । कभी कभी 'सी' होते होते 'ई' हो जाते हैं । उनका सर भीतर की तरफ़ मुड़कर 'ई' हो जाता है । रोज़ इसी तरह दिखते हैं । रेलिंग पर बैठे हुए । जबसे कानपुर से आये हैं तब से कानपुर को रो रहे हैं । ढो रहे हैं । बदले हुए ज़माने में किसी पुराने के चले आने की तकलीफ़ रोज़ उनकी गर्दन के पीछे लटकी दिखाई देती है । कानपुर उनका 'आई' है । जहाँ मैं रहता था । जहाँ मैंने एक मकान बनाया था । जिसके एक मोहल्ले में सब मुझे जानते थे । मेरी पहचान थी कानपुर में । कानपुर में ऐसा नहीं था । अब तो ....ख़ैर क्या बतायें रवीश जी । कोई पास आता दिखता है तो अपना सारा कानपुर लिये दौड़ पड़ते हैं । सामने वाला चला न जाए इसलिए कम उम्र वाले को भी हाथ जोड़कर नमस्ते कर लेते हैं । अगला सिर्फ सर हिलाकर आगे बढ़ जाता है । वे अपना कानपुर लिये खड़े रह जाते हैं । 

अब उनके भीतर का कानपुर पुराना पड़ने लगा है । थोड़ा ठंडा हो रहा है । जितना ठंडा हो रहा है उतना ही वे मुरझा जाते हैं । जीवन भर की कहानी,अनुभव, ओहदा किसी काम का ही नहीं । सुनाने लायक तो बिल्कुल नहीं । उनके चेहरे की पीड़ा रोज़ दिखाई देती हैं । यूँ तो वे स्वस्थ्य हैं मगर बीमार हैं । बेटे की नौकरी के कारण बाप का बुढ़ापा भी शहर बदल रहा है । शहर का फ़्लैट उनके कानपुर वाले मकान के सामने कितना छोटा है । अपार्टमेंट के भीतर बिना पता के लिफ़ाफ़े की तरह भटकते दिखते हैं । एक दरवाज़े से दूसरे दरवाज़े की तरफ़ जाते नज़र आ जाते हैं । 

सुबह फ़्लैट से निकलना पड़ता है । शायद बेटे और बहू को स्पेस देने के लिए । दोनों बहुत अच्छे हैं मगर दोनों कानपुर नहीं हैं । सोसायटी की गेट पर लगी बेंच पर बैठे किसी और 'रिटायरी' का इंतज़ार करने लगते हैं । आते जाते लोगों की नमस्कारी में उन्हें अपना कानपुर दिखता होगा जहाँ सालों से लोग उन्हें नमस्कार करते होंगे । यहाँ वे महीनों से वही काम कर रहे हैं । किसी और को नमस्कार कर रहे हैं । उन्हें कोई नमस्कार नहीं करता । घर का सामान लाने ले जाने के वक्त अचानक उनका सर तन जाता है । जैसे कहीं से कानपुर आकर खड़ा हो गया हो । "हमारे कानपुर में तो ऐसा होता था", सुनते ही एक मुस्की छूट जाती है । जैसे ही मुस्की छूटती है उनका कानपुर ज़ुबान पर ठिठक जाता है । गोया कानपुर न हुआ  दिल्ली की गोबर मंडी हो गई । एक दिन उनके भीतर का कानपुर फट जाएगा । किसी के भीतर कोई शहर इस कदर बचा हुआ हो और उसके पास अपने ओहदे और पहचान के सीमित संदर्भों के अलावा अभिव्यक्त करने का कोई ज़रिया न हो वो ' आई' से 'सी' और सी से 'ई' बन ही जाएगा । ' ई' से ' आई' बनने की आह से मरता रहेगा । 

रिटायर होने के बाद की ज़िंदगी उम्र से खोखला हो जाने की नहीं है । उस बोझ से भर जाने की भी है जो   सीलबंद फ़ाइलों की तरह दिमाग़ की आलमारियों में धूल खा रही है । ट्रांसफ़र और प्रमोशन की फ़ाइलों को कौन खोल कर देखना चाहेगा । सोसायटी की गेट पर आती जाती कारों के मिरर से ऐसे कई चेहरे झलक जाते हैं । इनकी लाइफ़ 'ओ' बन गई है । ये सोसायटी के गोल गोल चक्कर लगाते रहते हैं । कोई कानपुर को पकड़ने के लिए चक्कर लगा रहा होता है तो कोई मुज़फ़्फ़रपुर को । 'हाय, और 'बाय' के  बीच इनका नमस्कार उस पेंशन की तरह आधा रह जाता है जिसके सहारे वे सिर्फ आधा शहर जी पाते हैं । आधा शहर तो कहीं और छोड़ आए होते हैं । सुबह शाम इनके चेहरे पर कानपुर झुर्रियाता रहता है । अतीत के ऐसे चलते फिरते खंडहर अपार्टमेंट की सीढ़ियों,लिफ़्टों, बरामदों और गलियारों में दिख जाते हैं । पोतों को स्कूल ले जाते, दूध ब्रेड लाते और फिर अकेले भटकते हुए । हम इनसे नए ज़माने की तरह टकराते हैं । कानपुर का शाप लगेगा । जब हम भी दिल्ली को छोड़ किसी और शहर के अपार्टमेंट में ऐसे ही भटकेंगे । किसी सोसायटी की रेलिंग पर ' सी' बनकर बैठेंगे और अपने ' आई' को कोसते हुए ' ई' हो जायेंगे । । 

मुद्दा

प्रिय मुद्दा 

जब से तुम कभी राष्ट्रीय बनकर तो कभी क्षेत्रीय बनकर रोज़ रात न्यूज़ चैनलों पर आने लगे हो तब से तुममें कोई माद्दा नहीं बचा है । मुद्दा तुम कभी कभार ही ठीक लगते थे । मार धाड़ से भरपूर लव स्टोरी हो गए हो । चार लोग आते हैं । कुर्सी जमाते हैं । फिर तुमको टेबल पर लिटाते हैं फिर तुम्हारी चीड़फाड़ कर देते हैं । पट्टी वट्टी बाँध कर तुम्हारी टट्टी निकाल देते हैं । तुम मुख्य रूप से सरकार के ख़िलाफ़ होते हो और विपक्ष के साथ । तुम बनते भी हो और बनाए भी जाते हो । मुद्दा तुम न होते तो चैनलों के प्राइम टाइम अनाथ लगने लगें । इसलिए तुम रोज़ होना । लंगोट से लेकर रेनकोट तक हो जाना ताकि तुम पर लोग चर्चा कर सकें । मुद्दा तुम एक पुरानी रज़ाई हो जिसे हर सर्दी से पहले धुना जाता है । काता जाता है और फुलाया जाता है । तुम उस लुंगी की तरह हो जिसे एक वक़्ता मुरेठा बना लेता है तो दूसरा फेटा बाँध कर कच्छा तो तीसरा न्यूट्रल  गमछा बनाकर कंधे पर रख लेता है । चैनलों की अदालत में तुम्हारा निपटारा फ़ास्ट ट्रैक कोर्ट की तरह हो जाता है । मैगी बनी नहीं कि मुद्दा निपट गया । मुद्दा तुम समझते नहीं । तुम्हीं तो हो जो प्रवक्ता बनाते हो । तुम्हीं तो हो जो श्रोता बनाते हो । मुद्दा तू क्या चीज़ है बे । इत्ती देर से तमीज़ से बोल रहा था स्साले दिमाग़ ख़राब हो गया तुम्हारा । तू बोर नहीं होता रोज़ रात को लात खा खा कर । मुद्दा तुम जूत्ता हो । जिसे मर्ज़ी पहनकर चला जा रहा है । मुद्दा तुम कब तक इस स्टुडियो से उस स्टुडियो में घूमते रहोगे । पत्र लिख रहा हूँ । मित्र का समझ कर पढ़ लेना । मुद्दा तुम ख़त्म हो रहे हो । दोहरावन में कम पड़ रहे हो । जहाँ हो वो कमी है जहाँ नहीं हो वहाँ और भी कमी है । मुद्दा तुम टीवी छोड़ दो । गाँव धर लो । मरे तो हुए ही थे अब पिटे पिटे से लग रहे हो । नाशपिटे कहीं के ।

तुम्हारा
रवीश 

फेंकू पप्पू फ़ार थेथरोक्रेसी

फेंकू पप्पू । पप्पू फेंकू । पप्पू फेंकू । फेंकू पप्पू ।  फेंकू फेंकू । पप्पू पप्पू । फेंकू फेंका । पप्पू रोका । फेंका फेंका । रोका रोका । पप्पू फेंका । फेंकू रोका । फेंकू टीवी पप्पू टीवी । टीवी फेंकू टीवी पप्पू । फेंकू युवा पप्पू युवा । फेंकू देश पप्पू देश । फेंकू पीएम पप्पू पीएम । फेंकू दिल्ली फेंकू पुणे । पप्पू जयपुर पप्पू नोएडा । फेंकू बैकवर्ड पप्पू फार्वर्ड । फेंकू फेंकू फेंकू फेंकू । पप्पू पप्पू पप्पू पप्पू । फेंकू फेंका छक्का । पप्पू मारा छक्का । फेंकू माडल पप्पू माडल । यक रहैन फेंकू । यक रहैन पप्पू । यक रहैन हम । य्य । फेंकू कहैन चलो लकड़ी काट आइब । पप्पू कहैन चलो लकड़ी काट आइब । फेंकू काटे एक लकड़ी । पप्पू काटे तीन लकड़ी । हम काटा टीवी । फेंकू कहैन चलो गुलेल बनाइब । पप्पू कहैन चलो गुलेल बनाइब । हम कहा चलो हमहू गुलेल बनाइब । फेंकू बनाइन फेंकू गुलेल । पप्पू बनाइन पप्पू गुलेल । हमार ? कट कूट गए । यक रहैन इर यक रहैन बीर यक रहैन फत्ते । इय्या । फेंकू फेंका तीन बयान । पप्पू फेंका पाँच बयान । म्यान म्यान । बयान बयान । सरकार सरकार । फेंकू लबरा पप्पू झबरा । लबरा झबरा झबरा लबरा । मार तोरी इ पोलटिक्स के । 

कुत्ता कुत्ता होता है

आदरणीय कुत्ता जी 

आजकल मैं पत्र लिखने में व्यस्त हो गया हूँ । जब से लोग तार के बंद होने पर लोग नानी को याद करने की तरह नोस्ताल्जिया का उत्सव मना रहे हैं तब से पत्र लेखन के बंद होने की आशंका में लिखने लगा हूँ । तो प्यारे कुत्ता जी तुम भारतीय राजनीति के भी वफ़ादार हो । तुम हिन्दू हो कि मुसलमान हो ये नहीं मालूम लेकिन तुम कुत्ता हो यह पता है । तुम मुस्लिम राष्ट्रवादी हो या हिन्दू राष्ट्रवादी यह नहीं मालूम पर तुम एक कुत्ता हो यह पता है । टीवी के एंकर और प्रवक्ता बेवजह तुम्हारी तुलना इंसानों की ज़ात से कर रहे हैं । कुत्ता सिर्फ कुत्ता होता है । कुत्ते का बच्चा भी कुत्ता होता है ।कुत्ते का पापा भी कुत्ता होता है । कुत्ते की मम्मी भी कुत्ता होती है । कुत्ता कार के नीचे आ जाता है । जब आता है कार का ड्राइवर ब्रेक भी नहीं मारता । कुचलता हुआ चला जाता है । पीछे से आती गाड़ी भी मरे कुत्ते को कुचलती चली जाती है । कुत्ता कुचलता रहता है । सड़क पर भी और राजनीति में भी । सड़क का ड्राइवर कुचलकर भाग जाता है । कभी किसी ड्राइवर को कुत्ते की मौत के ग़म में रोते नहीं देखा । कुचलने के बाद भागता नहीं है वो बस अपनी रफ़्तार में चलता रहता है । रोज़ कुत्ते कुचले जा रहे हैं । क़ानून भी तुम कुत्तों के कुचल देने पर सज़ा नहीं देता । एक नहीं सौ कुत्ते कुचल जायें किसी आदमी को सज़ा नहीं मिलेगी  । तुम कुत्तों को कुचल देना किसी क़ानून में अपराध नहीं है । जितना मैं जानता हूँ । कम से कम राजनीति में तुम्हारे कुचले जाने का दुख है । बहुत है । कुचले तो तुम मम्मी पापा भी जाते हो मगर जब तुम्हारा पप्पी कुचला जाता है तब दुख होता है । भारतीय संस्कृति में जीवन का सम्मान न होता तो यह दुख ज़ाहिर भी न होता । बल्कि सवाल ही न होता । तुम आए दिन कुचले जाते हो क्या ये कुचलने वाले भूटान संस्कृति से आते होंगे । टीवी को कोई काम नहीं है । दुख दुख होता है । दुख कुत्ता नहीं होता । कुत्ता हिन्दू मुसलमान नहीं होता । बात का बतंगड़ है ।  चारों तरफ़ अंधड़ है । रायटर टाइम्स के लोग कुत्ते का मर्म समझते हैं । भारतीय और मीडिया तुम कुत्तों को हिक़ारत की निगाह से देखते हैं । देसी कहते हैं । गली का कुत्ता कहते है । कुत्ता कुत्ता गाली देते हैं । कुत्ते को लात मारते हैं । सारे भारतीय जैकी श्राफ नहीं होते । तेरी मेहरबानियां नहीं देखते हैं । फिर भी कहते हैं कि भारतीय संस्कृति में जीवन का सम्मान है । शायद कुत्ते का नहीं है । तुम युधिष्ठिर जी के साथ स्वर्ग चले गए थे । काहे आ गए । वहीं रहना था । तभी कहता हूँ पैराग्राफ़ मत बदलो । एक साँस में बोलो और लिखो । व्याकरण प्राधिकरण है । मत डरो । तो सुनो हिन्दुस्तान के कुत्तों, तुम कुत्ता हो । तुम भाजपा हो न कांग्रेस हो । टीवी मत देखो । वहाँ कुत्तों के नाम पर भेड़ों की लड़ाई हो रही है । तुमको इंसान बनाकर भी लतियाया जा रहा है । गरियाया जा रहा है । सड़क पर सँभल कर चलो । कुचले जाने से बचो । भारत के लोग देसी कुत्ता नहीं पालते हैं । विदेशी पालते हैं क्योंकि विदेशी कुत्ते सड़कों पर नहीं कुचले जाते । घरों में पाले जाते हैं । विदेशी मीडिया और विदेशी कुत्तों की बात ही कुछ और है । देश में कुछ और बचा नहीं । कुछ हुआ नहीं । कुत्ता तुम नेशनल न्यूज़ हो । फिर भी तुम टीवी मत देखना । आदमी तुम्हारे कुचले जाने पर दुखी होने का स्वाँग कर रहा है । तुम आज भी कहीं न कहीं कुचले गए होगे । रायटर को बताना कि कौन दुखी हुआ है । सिर्फ और सिर्फ कुत्ते के लिए । इंडियन मीडिया को मत बताना । बहस बकवास है । राजनीति में सब हगवास है । बाक़ी सब बदहवास हैं । कुत्ता कुत्ता है । देसी तो और भी कुत्ता है । 

तुम्हारा 
रवीश कुमार 
कुत्ताभीरू पत्रकार 

भाग मिल्खा भाग

भाग मिल्खा भाग देख कर निकला तो आख़िरी सीन ने कुछ ऐसा असर डाला कि राकयेश मेहरा को संदेश भेज दिया कि शानदार सिनेमा है । तीन घंटे से ज़्यादा की यह फ़िल्म उसके देखने के बहुत देर के बाद जब ज़हन में दोबारा चलने लगती है तो बहुत सारी छवियाँ सवाल बनने लगती हैं । फ़िल्म शानदार से अच्छी के स्तर पर आने लगती है । मिल्खा सिंह की अपनी कहानी किसी गाथा से कम नहीं । महज़ उनकी व्यक्तिगत कहानी नहीं है बल्कि उसमें एक ऐसा रक्तरंजित अतीत है जो बँटवारे की बुनियाद पर बनी छत पर हमेशा बैठी रहती है । मिल्खा का अतीत हिन्दुस्तान का भी अतीत है । विभाजन और हत्याओं के सिलसिले को राकयेश मेहरा ने एडिटिंग से पैदा किये जाने वाले प्रभावो से ज्यादा ही सिनेमाई और नाटकीय बनाया है । एक ऐसा स्केच खींचा है जो दर्शक के पूर्वाग्रहों को पुनरस्थापित करता है । मिल्खा के पिता के सर कटने का प्रसंग सही है मगर इस हकीकत को स्टीरियोटाइप फ्रेम में फिल्माया गया है । फिल्म के कई भावुक क्षण अभिनय से असरदार हो सकते थे मगर एडिटिंग के खेल के कारण ज़्यादा असर नहीं छोड़ पाते । गानों का इस्तमाल उस पंजाबियत का असर लिये है जो आजकल की फ़िल्मों में बेज़रूरी मौज मस्ती के लिए किया जाता है । कोई गाना यादगार नहीं है । सब औसत है और झनझनाहट के बाद बेअसर हो जाता है । भाग मिल्खा भाग काल्पनिक कब होती है और हक़ीक़त कब होती है समझना मुश्किल हो जाता है । इन सब चक्करों में राकयेश न पड़े होते तो थोड़े कम समय में ज़्यादा प्रभावशाली फिल्म बनती, जिसमें कैमरे का कमाल कम कथा का असर ज़्यादा होता है । शरणार्थी शिविरों के बचपन में मर्दानापन पनपने के स्वाभाविक माहौल को बेहतर तरीके से फ़िल्माया है । तंबू में सेक्स का सीन और मिल्खा का चादरों की दीवार को गिरा देना अलग से समझ की मांग करती है । हिंसा के शिकार लोग हैं, सब कुछ गंवा दिया है ऐसे में यह नितांत निजी प्रसंग मिल्खा के ज़हन को और विचलित करता है । फिल्म अच्छी है और ऊब के चंद अंतरालों से गुज़रते हुए देखी भी जा सकती है । दोनों मुल्कों का आधुनिक इतिहास रक्तपात से शुरू होता है । इतनी हिंसा है कि उसे लगातार समझना पड़ता है । सदियों और पीढ़ियों तक समझना पड़ता है । इस संवाद से ज़्यादा कि हालात बुरे होते हैं इंसान नहीं ।  । फिल्म आख़िर में एडिटिंग के असर से महान लगने लगती है जब मिल्खा की जीत के क्षणों में उसका बचपन साथ साथ दौड़ता है । मिल्खा की जीत हिंसा के निजी और राष्ट्रीय अतीत को भविष्य का रास्ता देती है । मिल्खा उस देश की ज़मीन पर जीत हासिल करते हैं जो उनका ही था मगर तलवार ने अलग कर दिया । अपनी पैदाइश की ज़मीन पर एक दूसरे देश की पहचान का तमग़ा लिये विजय हासिल करने की विडम्बना और पीड़ा को समझना सबके बस की बात नहीं ।  मिल्खा का नया नया राष्ट्रवाद सिर्फ एक ब्लेज़र की चाहत में सिमट जाता है । वो अपने ही अतीत से भाग रहा होता है । जिसे परास्त करने के लिए वो ब्लेज़र की भावुकता से कहीं ज़्यादा अतीत की क्रूरता से धधकता है । ये वो हिंसा है जो लौटती रहेगी । दोनों मुल्कों के वर्तमान और भविष्य में । हम सबके भीतर मिल्खा भागता रहेगा । राष्ट्रवाद धर्म की पहचान लेकर बंदूक दागेगा । मिल्खा का अपने गांव लौटना और पुराने मित्र से मिलने का प्रसंग रूला देने वाला है । अब भी यहां वहां कितना कुछ बचा हुआ है । फ़िल्म देख कर लौटा तो डीडी न्यूज़ पर पाकिस्तान की मलाला का भाषण आ रहा था । वो कह रही थी एक टीचर, एक बच्चा, एक किताब और एक क़लम चाहिए आवाज़ उठाने के लिए, हर तरह की हिंसा और आतंक के ख़िलाफ़ । प्राइवेट चैनलों पर बहस चल रही थी क्या मोदी ने दंगों में मरे मुसलमानों की तुलना कुत्ते के बच्चे से की है । तभी देखा कि एक ईमेल आया हुआ है कि हम ऐसे ही अपना बेड़ागर्क करेंगे । खै़र । भाग मिल्खा सिंह भाग एक अच्छी फिल्म है । उससे अच्छी चक दे इंडिया थी । दोनों की तुलना पान सिंह तोमर से नहीं कर सकते क्योंकि पान सिंह तोमर फिल्म नहीं महागाथा थी । मिल्खा जैसी साधारण से थोड़ी बेहतर फिल्म को चार और पाँच स्टार मिले हैं । मिल्खा सिंह को हम तब से दस में दस स्टार देते रहे हैं जब किसी ने उन पर फिल्म बनाने की सोची भी नहीं थी । देखियेगा ज़रूर । फ़रहान का शरीर ग़ज़ब का है और अभिनय भी अच्छा है । बस उस हिंसा और जीत के जज़्बे को उतार पाते तो इतिहास में उनका यह अभिनय अमर हो जाता । 

बस यूँ हीं नज़र पड़ गई

ग़रीबी दूर करने का जादू

मेरे प्यारे ग़रीबों

जो तुम हो वो मैं नहीं हूँ । इस स्वीकृति के बाद जो तुम हो वो तुम ही हो सकते हो । तुम्हारा होना ही किसी और का कहीं होना है । किसी और का होना तुम्हारा होना नहीं है । बचपन में दीवारों पर एक नारा लिखा देखा था । ग़रीबी दूर करने का एक ही जादू- कड़ी मेहनत, पक्का इरादा । तब से तुम जादू का खेल देख रहे हों । नेता तुम्हारी कान में सिक्का डालता है और पीछे कनस्तर लगाकर निकाल लेता है । लोग खूब तालियाँ बजाते हैं और तुम ग़रीब के ग़रीब रह जाते हो । जादू का खेल ऐसा ही होता है । आस्तीन से कबूतर निकाल कर रूमाल बनाना और उस रूमाल को ग़ायब कर देना । यह सिलसिला आज तक तुम्हारे साथ चला आ रहा है । तुम जादू का खेल खूब पसंद करते हो । कोई पाँच रुपये का पचास हज़ार बनाने का जादू दिखाता है । तुम अपना सब दे देते हो । जादूगर भाग जाता है । फिर दूसरा जादूगर आता है जो तुम्हारे लिए मुआवज़े की लड़ाई लड़ता है । दरअसल वो लड़ाई नहीं लड़ता तुमको जादू दिखा रहा होता है । तुमको जितना दूर किया गया उतना ही क़रीब आ गए । गाँव में दूर नहीं हुए तो दूर होने के लिए दिल्ली आ गए । जिन हज़ारों कालोनियों में बस गए उनका पहला नाम अवैध-अनियमित कालोनी पड़ा । फिर इनके नियमित करने के लिए जादूगर आए । तुम्हारी कालोनियों को वैध करने लगे । तुम्हें लगा कि तुम अब दूर हो जाओगे मगर जादूगर ने पानी बिजली सड़क का इंतज़ाम नहीं किया । राशन का क़ार्ड नहीं बना और स्कूल खुला तो अच्छा वाला मास्टर नहीं आया । तुम्हारे बच्चे भी दूर होने वाले उत्पाद में बदलते रहे । तुम दूर होते होते क़रीब आ गए हो । इतने क़रीब कि दिखने लगे हो । भारत के ग़रीबों को शहर में ही रहना चाहिए ताकि वे दिखे । अब तुम दिखने लगे हो तो तुम्हें दूर करने के प्रयास भी दिखने ही चाहिए । भारत की केंद्र सरकार और देश की कई राज्य सरकारें तुमको खाना खिलायेंगी । क्योंकि तुम कुपोषण के शिकार हो । जीडीपी ग्रोथ वाले मर्दाना भारत में कमज़ोर शरीर वाले ग़रीब ठीक नहीं लगते हैं । कांग्रेस बीजेपी अकाली अन्ना द्रमुक सब तुमको खिला रहे हैं । खुद ही बता रहे हैं कि उनकी योजना में अस्सी फ़ीसदी आबादी है तो इनकी में पैंसठ । अब तो तुम्हें पता चल ही गया होगा कि तुम कितने हों । इन योजनाओं ने तुम्हें दूर करने के एजेंट नियुक्त किये हैं । ये एजेंट नेताओं के कार्यकर्ता हैं । भात और रोटी खिलाते हैं । इतना ही कि तुम खा लो मगर दूर न हो सको । बीमार पड़ो तो अस्पताल जाने के रास्ते में ही दम तोड़ दो । ग्रोथ रेट वाले नेताओं से पूछो कि जब पाँच से ग्यारह का रेट चल रहा है तो हमारी ग़रीबी कैसे बढ़ रही है । मूर्खों तुम्हारी ग़रीबी नहीं बढ़ेगी तो ग्यारह प्रतिशत का ग्रोथ रेट कैसे मिलेगा । कोई तुम्हें दूर नहीं करना चाहता है । तुम्हीं बहुसंख्यक हो । तुम्हीं लोकतंत्र हो । तुम्हीं वोट हो । तुम्हीं हिन्दू मुसलमान हो । तुम्हीं राहुल नरेंद्र हो । तुम्हीं गारंटी योजना हो । क्योंकि तुम इनका दिया खा कर इनके लिए सत्ता हगते हो । फिर ये तुमको मारते हैं । उजाड़ते हैं । ट्रेन से भगा देते हैं । ताकि तुम दूर न हो सको । तुम जितना बढ़ोगे उतना ही हगोगे । राजनीतिक दलों के लिए सत्ता हगोगे । ये सब आयेंगे । तुमको दूर करने का जादू बतायेंगे । मगर तुम दूर मत होना । कान में सिक्का डलवा कर पीछे से निकलवा देना । फिर जब तुम फैक्ट्री में काम करने जाओगे ये तुमको लतियायेंगे । हिन्दू मुस्लिम बनाकर भिड़ा देंगे । गुड़गाँव में मारुति की फैक्ट्री है । पूरे इलाक़े में प्रदर्शन करने की मनाही है । वहां राहुल नरेंद्र कोई नहीं जाता है । कोई उनके बीच जाकर सपने नहीं बेचता है । दोनों तुम्हारी जात का पता लगवा रहे हैं । ट्विटर पर सबको लड़ा रहे हैं । मेरे प्यारे ग़रीबों तुम्हीं भारत हो । तुम्हीं शासित हो । तुम्हीं शापित हो । तुम न रहोगे तो ये नेता किसे दूर करेगा । तुम सूरत मुंबई और दिल्ली की बस्तियों में इसलिए ठेले जाते हो कि तुम दूर न रह सको । तुम एक जगह रह सको । तुम भारत की वो योजना हो जिसे हर दल के नेता बनाते हैं । व्याकरण भाषा का चीरहरण है । पैराग्राफ़ मत बदलो । ग़रीबों तुम्हारी ग़रीबी सवा लाख की । खुल गई जो मुट्ठी तो किस काम की । तुम टीवी पर ज्योतिष के प्रोग्राम देखो । अपना गुडलक निकालो । हगो हगो कि तुमने योजनायें खाईं हैं । वोट हगो वोट । नरेंद्र राहुल के लिए । अख़बार पढ़ के उसी से पोंछ देना । राहुल नरेंद्र के फिक्स डिपाज़िट तुम नहीं बढ़ोगे तो और कौन बढ़ेगा । 

तुम्हारा
रवीश कुमार
लुग्दी पत्रकारिता का अभिन्न सहचर । 

राघवजी के नाम रवीश का पत्र

आदरणीय राघवजी,
पूर्व वित्त मंत्री, मप्र,

इस घड़ी में जब आप उपहास के पात्र हैं मैं अकेला साहसिक व्यक्ति हूँ जो आदरणीय संबोधन के साथ आपका आह्वान कर रहा है । राघव जी आपने अपने मददगार( नौकर शब्द अप्रिय है मुझे) सहचर राजकुमार के साथ जो 'राजकुमारीपन'( प्रेम या ज़बरन प्रेम के क्षणों में आप शायद राजकुमारी पुकारते थे ) किया है वो स्वाभाविक है । इस पर शोध हो चुका है । यह आपकी स्वाभाविक प्रवृत्ति थी । हाँ अगर उसमें सहमति का तत्व नहीं था तो यह क़ानूनन अपराध है । आप जेल जायेंगे । मगर सहमति का तत्व रहा है तो यह आपका सच्चा प्यार है । कबूल कीजिये । आपकी चुप्पी आपके प्यार को अपराधी बनाती है । समलैंगिकता के समर्थन में अगर आप खुल कर आये होते तो आज ये नौबत नहीं आती । देखिये जो कांग्रेस दिल्ली में समलैंगिकता का मूक रूप से समर्थन( बहुत निश्चित नहीं हूँ ) करती है वही आप पर चरित्रहीनता का आरोप लगा रही है । संघ और भाजपा के लोग इसे लेकर शर्मसार हैं तो आश्चर्य नहीं । ये उनकी अनुदारता है । आप कैसे समलैंगिकता विरोधी विचारधारा में जीवन गुज़ार पाये । मैं ग़ैर समलैंगिक होते हुए भी आपकी पीड़ा को समझना चाहता हूँ । क्या आपने कभी संघ या बीजेपी के नेताओं से नहीं कहा कि मैं समलैंगिक हूँ और यह स्वाभाविक है । हमें इसका समर्थन करना चाहिए । भारत सहित पूरी दुनिया में समलैंगिक अधिकारों के लिए लड़ाई चल रही है । हमने भी टीवी पर जब इसके समर्थन में बहस की तो खूब गाली पड़ी । उनमें संघ और बीजेपी की विचारधारा को मानने वाले भी थे । यह भी हो सकता है कि संघ ने नहीं भड़काया हो और वे निजी तौर पर मुझे गरिया रहे हों । मेरे उन शो की टीआरपी भी नहीं आई । फिर भी मैं करता रहा । दिल्ली में समलैंगिक अधिकारों को लेकर हुए परेड को जब मैंने दिखाया होगा तब आपने कैसे टीवी देखा होगा । क्या सबकी नज़रों से बच कर या बाहर से मुख़ालफ़त करते हुए भीतर भीतर गदगद होते हुए देखा । चूँकि आप फ़रार हैं इसलिए गेस कर रहा हूँ कि आपने ज़रूर उस भारतीय संस्कृतिवाद को गरियाया होगा जिसके नाम पर आपके सह-नेताओं ने समलैंगिकता का विरोध किया ।  अगर इसे अपराध मानने वाली क़ानून की धारा समाप्त होने की लड़ाई मे आप भी शामिल होते तो आज कितने ख़ुश होते न । इसके डर से न जाने आपने कितनी राजकुमारियों के साथ अपने प्यार का गला घोटा होगा । अपराध की तरह प्यार किया होगा । जिस कार्यकर्ता ने आपकी सीडी बनाई वो मूर्ख है । वो उस विचारधारा का है जो समलैंगिकता को भारतीय संस्कृति के ख़िलाफ़ मानता है । आपने ठीक किया जो विचारधारा को व्यक्तिगत से दूर रखा । आप कैसे इतने साल तक अपने प्यार को दबाये रहे । कहीं आप भी तो आँखों पर वो रंगीन चश्मा लगाकर दिल्ली के समलैंगिक परेड में शामिल नहीं थे जिसे हम सब नहीं पहचान पाये । आदरणीय राघवजी अपनी इस प्राकृतिक ज़रूरत के अधिकार की लड़ाई लड़नी चाहिए थी । किस बात के सीनियर थे । भागिये मत । स्वीकार कीजिये । अगर आपकी राजकुमारियों में कुछ नेता भी हों तो नाम ज़ाहिर मत कीजियेगा । वर्ना आप भी वही करेंगे जो उस मूर्ख ने सीडी बनाकर किया है । बताइये बीजेपी ने आपको वित्त मंत्री पद से हटा दिया । आपने कहा नहीं कि इससे बड़ा गुनाह तो अभिषेक मनु सिंघवी का था जब वो लालच या दबाव देकर ग़ैरक़ानूनी रूप से इच्छा की पूर्ति करते हुए सीडी में पकड़े गए थे । फिर भी उनकी पार्टी ने साथ दिया । थोड़े दिनों बाद दोबरा प्रवक्ता बना दिया । आपकी पार्टी के सभी बड़े नेता उनके साथ टीवी में अंग्रेजी में बराबरी से डिबेट भी करते हैं । वे हिन्दी में डिबेट करने नहीं जाते हैं जबकि अच्छी हिन्दी बोलते हैं । कहीं ये तो नहीं लगता कि हिन्दी वाले ऐसे मसलों को नहीं समझने के लायक नहीं है । जो भी हो आपकी पार्टी के नेता ने सिंघवी को स्वीकार किया है और आपको कहते हैं भाग राघवजी भाग । न राघव जी न । मत भाग । पलट और संघर्ष कर । लड़का लड़का शादी कर रहे हैं । लड़की लड़की शादी कर रहे हैं । इंडिया में भी हो रहा है और इंग्लैंड में भी । विदिशा में भी आप कर ही रहे थे लिव इन टाइप । संघ बीजेपी ने अपने भीतर समलैंगिकता के एक बड़े चेहरे को गँवा दिया है । उन्हें आपका साथ देना चाहिए । आज बीजेपी कह सकती थी कि उनके पास भारत का पहला समलैंगिक मंत्री है । राघवजी आप खुलकर समलैंगिकता की वकालत करो । लोगों के मन में कुत्सित मानसिकता घर कर गई है उसमें आपकी चुप्पी का भी योगदान होगा । आप इतने दिनों से चुप न होते तो आज पूरी दुनिया के गे एक्टिविस्ट आपका पोस्टर लेकर प्रदर्शन कर रहे होते बल्कि उन्हें अब भी करना चाहिए । ये सीडी ग़लत है । किसी के बेडरूम में झाँकने से उसका प्यार या अभिसार कैसे ग़लत हो सकता है प्यारे राघव । जिसने झाँका वो ग़लत किया । हमारे गाँव में लोग कहते थे कि जब दो साँप आपस में प्यार कर रहे हों तो मत देखना वर्ना साँप ने देख लिया तो ज़िंदगी भर पीछा करेगा और काट लेगा । नहीं देखा तब भी आँख में फोड़ा हो जाएगा । हम नज़र फेर लेते थे । आप भागो मत राघव जी । लौट कर आओ और खुल्ले में बताओ कि कैसे हमारे राजनीतिक दल सड़ गए हैं । उनकी पोल खोलो । अगर आपने ज़बरन राजकुमार को राजकुमारी बनाया है तब मत आना । पुलिस पकड़ लेगी । अगर वो प्यार था तो लौट आओ । फ़ेसबुक और ट्वीटर की चिंता मत करो मैं देख लूँगा । जीवन की इस सांध्य बेला में पैराग्राफ़ मत बदलो । राघवजी और राजकुमारी का प्यार अमर रहे । बलात्कार है तो जेल में रहे । इसी के साथ पत्र समाप्त करता हूँ । हाँ अपने इन भगोड़ा दिनों में समलैंगिकता पर कुछ अच्छी किताबें पढ़ सकते हैं । सेम सेक्स लव इन इंडिया नाम की किताब अपनी लाइब्रेरी से दे सकता हूँ जिसे सलीम किदवई ने सम्पादित किया है मगर कैसे दूँ । आप तो इनदिनों लुकाइल हैं । 

रवीश कुमार
लुग्दी पत्रकारिता का एक अभिन्न सहचर 

लूटेरा का चितेरा

कहानी हमेशा कहानी नहीं होती । जैसे ज़िंदगी कभी वैसी ज़िंदगी नहीं होती । इश्क़ निरपेक्ष भी हो सकता है । तमाम तरह की बंदिशों और दलीलों के निरपेक्ष । लूटेरा कहानी है न कविता । कभी कहानी है तो कभी 
कविता है । कविता में भी छंद नहीं है । नागार्जुन है । कहानी में भी सुखांत दुखांत नहीं है । ओ हेनरी की लास्ट लीफ़ ( पढ़ी है न पढ़ूँगा ) का आख़िरी पत्ता है । मगर वैसा नहीं जैसा वो पत्ता था । किसी कहानी से बाहर आकर पेंटिंग का वो टुकड़ा है जिसे पेड़ पर धागे से बाँध दिया जाता है । हेनरी की कहानी का यह पत्ता किसी कविता के अधूरे छंद की तरह लटकाया जाता है । वरुण और पाखी के इश्क़ को समझने के लिए पाखी को उसकी बुद्धि या परिपक्वता के चश्मे से देखने की लत होगी तो उसका किरदार समझ से परे लगेगा । कैसे पाखी एक लूटेरा पर दिल लुटा सकती है । कैसे पाखी में लूटेरा के प्रति इश्क़ तब भी बचा रह जाता है जब वो जानती है कि उसके बाबा की मौत का कारण ही वरुण है । दरअसल यही पाखी है । उसका इश्क़ उसके भीतर लगातार सूख रहा है । सूखा नहीं है अभी । जब तक उसका आख़िरी क़तरा बचा है वो वरुण की याद में जागती है । वो बदला लेने से पहले उस आख़िरी क़तरे को अपने भीतर पूरा होने देती है । वरुण एक शातिर लूटेरा है । वो जानता है । पर हो जाने देता है । एक क़तरा पाखी का अपने भीतर पनप जाने देता है । जानता है कि वो कहीं से भी आता हो जाना उसे उसी सुरंग से है जहाँ उसके चाचा और दोस्त इंतज़ार कर रहे होते हैं । भगोड़ा । गिरोह छोड़ कर आ जाता तो क्या कहानी हमारी आपकी तरह हो जाती जो आए दिन सिनेमा के पर्दे पर उतरती रहती है । क्या यह कथाकार निर्देशक की हिम्मत की बात नहीं कि पाखी का लूटेरा लूटेरा लौटता है । डलहौज़ी में वो सन्यासी या कुछ और बनकर लौट सकता था । दरअसल वो पाखी की आहट को भांप गया था । इसलिए कि उसके भीतर वो कशिश रह गई थी जिसे वो माणिकपुर में छोड़ आया था । मगर वो सब कुछ तर्कों से देखता है । जैसे हम सिनेमा को तर्कों से देखना चाहते हैं । पाखी देखना ही नहीं चाहती । वो बाहर से भले मरती लग रही हो मगर भीतर से अपने वरुण को जी रही है । जैसे बर्फ से ढंक जाने और पत्तों के झड़ जाने के बाद भी पेड़ ज़िंदा रह जाते हैं । मरते नहीं हैं । हम अब इश्क़ कहाँ करते हैं । मैच मेकिंग करते हैं । दिलचस्पियों की अदला बदली करते हैं । हैसियत का हिसाब लगाते हैं । क़द और रंग का मिलान करते हैं । सब जोड़ने घटाने के बाद इश्क़ करते हैं । लूटेरा की कहानी इन्हीं सब तय यक़ीनों के दायरे के बाहर घट रही है । जिसे देखने के लिए ग़ैर यकीनी की ज़िद छोड़नी पड़ती है । जैसे आप एक लड़की का उसकी जान लेने की हद तक पीछा करने वाले रांझणा के नायक के चित्रण पर अपने यक़ीन को दरकिनार कर देते हैं । रांझणा का नायक 'स्टाकर' है । आपराधिक प्रवृत्ति वाला । लूटेरा का नायक अपराधी ही है । दोनों में ख़ास अंतर नहीं मगर हम एक को स्वीकार कर लेते है और दूसरे को ख़ारिज । क्यों ? लूटेरा की कहानी वरुण की नहीं पाखी की है । पर्दे और दरवाज़े के पीछे वो कितनी बार छिपती है और निकलती है । पाखी इश्क़ में उड़ नहीं रही । दरवाज़े से बार बार झांकती निकलती है । आगे बढ़ती है पीछे हटती है । जलती है । सुलगती है । लूटेरा एक अलग फ़िल्म है । हर सीन एक स्केच है । दूसरे से अलग । कहानी दोनों के बनते इश्क़ के निजी प्रसंगों में घट रही है । कहानी का कोई 'ग्रैंड नैरेटिव' महावृतांत नहीं है । पर्दे पर बोलने के एक नए लहज़े की खोज है । या कहीं भुला दी गई शैली की पुनरावृत्ति । सरगोशियों का कविता की तरह इस्तमाल है । पाखी और वरुण की बातों की सरसराहट आपको उस स्पेस में ले जाती है जहाँ पहले से सारी कहानियाँ मौजूद नहीं हैं । हैं भी तो वो उनसे बच बचाकर आहिस्ता आहिस्ता बात कर रहे हैं । लाजवाब लगा । दोनों के कपड़े किसी पेंटिंग से कम नहीं । सोनाक्षी का अभिनय संतुलित है बल्कि शुरू से लेकर अंत तक एक ही मीटर पर है । लूटेरा कई लोगों को अच्छी नहीं लगी । यह फ़िल्म अच्छी या बुरी के पैमाने पर शायद ही खरी उतर पाये । उसी के दिल में उतरेगी जिसने कभी किसी को चाहा है । किसी का कोई स्पर्श उसके भीतर बचा रह गया है । ज़ुबिश की आहट जिसने महसूस की है । जिसने किसी के लिए खत भी लिखा मगर पुरानी पढ़ी गई कहानियों के अनुभव से घबरा कर फेंक दिया । जैसे पाखी लिख ही नहीं पाती । वो भी उन कहानियों से बाहर निकल कर रचने का स्पेस नहीं खोज पाती या बना पाती । वरुण घर से बाहर पत्तों से ख़ाली पेड़ पर एक रंगीन पत्ता टाँग कर स्पेस बना देता है । और तमाम तय कहानियों की तरह अंत में गोली खाने चला जाता है । पाखी एक अनकही कहानी के इस नए स्पेस को देख मुस्कुराती है । वरुण उसे घर के बाहर ले आता है । नए स्पेस में । हवा तेज़ है । लास्ट लीफ़ की फड़फड़ाहच बेचैन करती है । पैराग्राफ़ मत बदलो जीवन में । वाक्यों का बदल जाना ही पैराग्राफ़ का बदलना है । हर नई पंक्ति को पिछली पंक्ति से अलग लिखो और जीने की आदत डालो । हम इस कहानी को अपनी ज़िंदगी के मानकों से कभी स्वीकार नहीं करेंगे मगर पर्दे पर इश्क़ की ख़ूबसूरत चित्रकारी को देख तो सकते ही हैं । क्या किसी कहानी पर आह या वाह कहना हमेशा ज़रूरी ही है । क्या यह भी तय है ? जैसे क्या यह ज़रूरी है कि हम हमेशा लुटेरा ही लिखें, लूटेरा नहीं । जब नाम में व्याकरण नहीं तो कहानी में कैसे हो सकता था । 

मालिनी अवस्थी की पाठशाला

कोई भी काम तनाव पैदा करता है । उसके अच्छा होने की चाहत से या न हो पाने की झुँझलाहट से ।ऐसी आशंकाएं रात भर घेरे रहती है । सुबह जब आप काम के क़रीब होते हैं तो घबराहट और बढ़ने लगती हैं । क्यों कर रहा हूँ आज । फिर कब करूँगा । वैसा बन पाएगा जैसा सोचा था । ख़ुद से भागने लगता हूँ ।   सामने जाने पर सवाल लड़खड़ाते लगते हैं । धड़कने  तेज़ हो जाती हैं कि सबकुछ मुकम्मल तो है न । देखने वाले की आँख में जँचेगा कि नहीं । नया क्या है । जो देखेगा वो कुछ जान पायेगा कि नहीं । सौ तरह के सवाल खोखला किये रहते हैं । आज मालिनी अवस्थी के साथ 'हमलोग' रिकार्ड कर रहा था । टीवी के चालीस मिनट में कजरी के चार सौ साल समेटने की ज़िद से । क्यों कोई कजरी के बारे मे देखना सुनना चाहेगा । अच्छा तो कर रहा हूँ । कजरी के बारे में शो कर । तीन साल से मालिनी और मेरी बात हो रही थी । रवीश की रिपोर्ट करने की योजना बनी थी । नहीं कर पाया । आषाढ़ की गर्मी में रिपोर्ट जल गई । पिछले साल हमलोग में ही यह शो करना चाहता था नहीं कर पाया । आज कर लिया है । मालिनी की आवाज़ पहाड़ से उतरती नदी की तरह है । चंचल । गाने के बोल उनके चेहरे पर अभिनय कर रहे होते हैं । वो उस दुनिया का खाका खींचने लगीं जिससे हम दूर चले आए हैं । कितना तनाव होता है । अभी तो दर्शकों का फ़ैसला बाक़ी है । टीवी स्वांत: सुखा़य नहीं है । फिर भी आज अपनी मुराद पूरी कर ली । रात आठ बजे देखियेगा । बहुत कुछ छूट गया है । जो आया है वो बेहद कम है पर मालिनी ने बेहतर करने का पूरा प्रयास किया । दिल अब भी धड़क रहा है । अच्छा लगेगा कि नहीं । पसीने छूट रहे हैं । मैं नहीं देख पाऊँगा । आप बता दीजियेगा । ऐसा क्यूँ लग रहा है जैसे किसी से नज़र बचाकर मैंने फ़्रीज़ की मिठाई खा ली हो और डर लग रहा हो । मुझसे पहले कई लोगों ने मालिनी का शो रिकार्ड किया होगा । आख़िर में वो ट्रांस में चली गईं । रूक नहीं रही थी । संगीत की आत्मा जब उतरती है तो परा हो जाती है ।  लगा कि इतना कम वक्त है तो कमबख्त तूने किया क्यूँ । उनकी प्रतिभा के लायक बन पाया या नहीं आप जानिये । हम इस तनाव से गुज़रते हुए ख़ुश हो रहे हैं कि मालिनी अवस्थी के साथ रिकार्ड कर लिये । एक ज़िंदादिल कलाकार के साथ आज का दिन बेहतर गुज़रा । आपकी शाम अच्छी गुज़रेगी । 

पागलनामा पार्ट इलेभन

कांग्रेस बीजेपी जब एक दूसरे के भीतरी सत्य को छेड़ते हैं तो सत्य का कूड़ा हो जाता है । दोनों तरफ़ के नेता और सोशल समर्थक इनके उनके तथ्य और दलीलें गढ़ने में लग जाते हैं । दोनों पहले से मान लेते हैं कि सामने वाला ही ग़लत है । विचित्र स्थिति है । कुछ सोशल समर्थक कांग्रेस बीजेपी का सिपाही बनकर हर सवाल और जवाब को उसी नज़र से देखते रहते हैं । बीजेपी से ज़्यादा पूछ दो तो कांग्रेस के प्रवक्ता और कांग्रेस से पूछ दो तो बीजेपी का । इसी का फ़ायदा उठा कर दोनों खेमों के नेता जब फँसते हैं तो खेल को भंडोल( मतलब बिखेर देना ) करने में लग जाते हैं । ऐसी बेतुकी दलीलों पर आ जाते हैं जिनका ओर छोर नहीं होता । पर दोनों के बीच और दोनों से पार इस देश में ऐसा विशाल स्पेस अब भी बचा है जो इस तमाशे को देख रहा है । इस स्पेस की राजनीतिक संभावना तो क्षीण है पर देख तो रहा ही होगा । समझ रहा होगा और समझने के बाद भी इन्हीं दोनों में भरोसा करता होगा । अलग अलग आस्थाओं को कारण से राजनीतिक निष्ठा बनती है । इशरत जहाँ का मामला भी फँस कर रह जाएगा । बेहतर है अदालत पर छोड़ दिया जाए । राजनीति और सोशल मीडिया के इस 'गलथेथर काल' में थेथराॅलजी ही सच है । झांव झांव कर दो कि सारे सवाल उड़ जायें । मूल सवाल का यही जवाब है कि पचासों एनकाउंटर हुए हैं उन पर बात नहीं,इन पर क्यों नहीं । ये क्या दलील है । महाराष्ट्र के दया नायकों का हाल आप देख चुके हैं । किसी एनकाउंटर मामले की चुप्पी का मतलब ये है कि जिस पर बोला जा रहा है उस पर भी चुप्पी ? एक कंपाउंडर ने दो सौ करोड़ कमा लिये उस पर चर्चा कम ही हुई बनिस्बत के एक मंत्री का भांजा दो या दस करोड़ कमाने के फ़िराक़ में था । तो क्या यह दलील दी जाए कि मंत्री क्यों कंपाउंडर क्यों नहीं । हद है । मंत्री ही क्यों नहीं । क्या इस दलील के सहारे मंत्री को ढाल दी जा रही है । छह छह आईपीएस अफ़सर फ़र्ज़ी एनकाउंटर में फँसे हैं । किसी नेता का नाम नहीं आया है । फिर भी बौखलाहट ऐसी है कि नेता का ही नाम आने वाला है । फर्ज़ी एनकाउंटर हुए हैं यह बात तीन तीन रिपोर्ट में आ चुकी है ।  राजनीतिक पार्टी इस बात का श्रेय क्यों नहीं लेती कि गुजरात पुलिस के अफ़सर रजनीश राय जैसों की जाँच से पुलिस महानिदेशक डी जी वंझारा जेल में हैं । राज्य पुलिस के पचीस पुलिस अधिकारी जेल में हैं । ज़मानत तक नहीं मिल पा रही है । पी पी पांडे जी भागे भागे लुकाये फिर रहे हैं । कमाल है न । एक अन्य आई पी एस जी एल सिंघला टूट चुके हैं । गवाह बन गए । उनके एकमात्र बेटे ने किन्हीं कारणों से आत्महत्या कर ली है । ये सब पुलिस वाले हैं । जिनके लिए किसी को फ़र्ज़ी मामलों में फँसाना मुश्किल नहीं । आज छह आई पी एस और दो दर्जन से ज़्यादा राज्य पुलिस के अधिकारी अलग अलग फ़र्ज़ी एनकाउंटर में फँसे हैं । महाराष्ट्र में किसी बड़े अफ़सर का नाम तो नहीं आया है मगर वहाँ भी यही तादाद है । पंजाब में भी आरोप लगा कि गिल ने फ़र्ज़ी एनकाउंटर कराये । न तो वहाँ की पुलिस न वहाँ की सरकार ने कभी इसका ठोस जवाब दिया । जब पुलिस अपने अफ़सरों को फँसा सकती है ( अगर गुजरात में यही हुआ है तो ) तो आम आदमी की हालत सोच लीजिये । कांग्रेस बीजेपी कूदे पड़े हैं । 
बात अफ़सरों की है तब भी ये कांग्रेस बीजेपी कर रहे हैं । क्यों ? आप इस मसले पर चुप ही रहिये । वर्ना इन दोनों दलों के सोशल समर्थक या कार्यकर्ता तमाम दलीलें ले आयेंगे जिनसे अगला ग़लत लगेगा और पिछला सही और आप दोनों में से किसी के प्रवक्ता । दोनों तरफ़ लाजवाब नाइंसाफियों की इतनी दास्तानें भरी पड़ी हैं कि चुन चुन कर निकालेंगे और एक दूसरे पर फेकेंगे । भगदड़ मची हुई है । दिलचस्प मामला है । चलने दीजिये । इशरत तो मर चुकी है । इसके नाम पर राजनीतिक दलों के दलीलकर्ताओं को रोज़ मरते मारते देखिये । दलाल दूसरे को दलाल कह रहे हैं । जो पूछ रहे हैं उनसे कहा जाता है कि आपने उनसे पूछा जो हमसे पूछ रहे हैं । ग़लत को सही कह रहे हैं । कितना गूगल करेंगे । जात और धर्म की निष्ठा इतनी बड़ी है कि नया विकल्प,नई विचारधारा और नई राजनीति की जगह कम बची है । सत्ता का हिंसक चरित्र राजनीतिक दलों को अपने क़ब्ज़े में ले चुका है । दोनों में कोई अंतर तो है नहीं । इसलिए पैराग्राफ़ मत बदलिये । चलते रहिये । सोशल मीडिया पर छोटी सी सेना बना लीजिये । पाँच सौ आईडी खोल लीजिये । कमरे में बैठकर धावा बोल कीजिये । ठेके पर । गलथेथरई करते रहिए । कांग्रेस बीजेपी करते रहिए । मैनेज होकर दूसरे को मैनेज बताते रहिए । क़व्वाली चल रही है पोलिटिक्स में । सत्ता की भूख इतनी है कि उसे अभी और रक्त चाहिए । हमारी समझ इतनी ही है कि हम इस कांव कांव में पड़ जाते हैं । श्राद्ध में बना आटे का गोला खाते हैं । सारे धमाके की थ्योरी पलट गई है । आतंक को इस्लाम कहो भगवा मत कहो । मत कहो पर आतंक को आतंक तो कहो । कौन हैं जो मालेगांव से लेकर समझौता तक में धमाके कर रहे थे । आरोप पत्र ही घूमता रह जाएगा या साबित भी होगा । लेकिन इस पर बात मत करो वर्ना दूसरा क़व्वाली गाने लगेगा । जूता चप्पल चलने लगेगा । सारी दलीलों का रास्ता प्रधानमंत्री के पद तक जा रहा है । जो बैठा है उसके अपने झूठ और जो बैठना चाहता है उसके अपने झूठ । 

फ़ेसबुक नहीं ये फेसकुक ही है ।


यह तस्वीर अजमेर की है । मनोरंजन भारती अजमेर गए थे । वहाँ से इस ढाबे की तस्वीर उठा लाये । हमने आपके सामने पेश कर दी । 

मालिनी और रघुवीर यादव का यह गाना ज़रूर सुनें, इशक्क का

कोई गाना पहली बार अच्छा लगता है तो लगता है इसे मैंने क्यों नहीं लिखा, इसे मैंने क्यों नहीं रचा, इसके धुन मुझे ही तैयार करने थे पर मैं था कहां। आज सुबह सुबह एक ऐसा ही गाना कानों के हाथ लग गया। ज़ुबान पर चढ़ गया। इशक्क नाम की कोई फिल्म है। आने वाली है। गाने की शुरूआत कुछ यूं होती है...

"भागन के रेखन की बहंगिया, बहंगी लचकत जाए, भेजो रे काहे बाबा, हमका पीहर से, बिटिया से बन्नी बन कर कहां पहुंचाये, सहा भी न जाए, का करे हाय, कहां खातिर चले रे कहरिया, बहंगी कहां पहुंचाये, "

मालिनी अवस्थी और रघुवीर यादव इस गाने में क्या कर रहे हैं। हैरानी से सुनता चला गया। मालिनी अपनी आवाज़ की बेहतरीन मोड़ पर गाती सुनाई दे रही हैं। जैसे ही बहंगी लचकत जाए सुनाई पड़ता है मन भावुक होने लगता है। ये छठ के गीत गात रही हैं। वाह छठ के गीत को कोई नया मोड़ देने वाली हैं। बिहार और उत्तर प्रदेश का जो तबका छठ से गुज़रा है वो उसके संगीत से भी रगड़ खाया हुआ है। आज भी शारदा सिन्हा का सुगवा के मरले धनुख से...बजा दीजिए,गा दीजिए, जुलाई हो या जनवरी आपके भीतर नवंबर नाचने लगता है। छठ का महीना। हम इस पर्व और इसके गीतों को अपने बिहारीपन में जाने कब से ढोते आ रहे हैं। कैसे आ गया कंधे पर पता नहीं। पर इसी कारण इस गाने की पहली दूसरी लाइन भावुक करने लगी है। आंख डबडबा गया था जी। फिर हैरानी बढ़ती है। ये तो छठ नहीं है। ये तो शादी का गीत है। बन्नी और बिटिया क्या कर रही हैं इसमें। अपने मां बाप से क्यों वेदना प्रकट कर रही है कि मेरी लिए क्यों डोली मगंवाई, क्यों बारात आई है। कितने जतन से बांहों के पलने में तुमने हमको झुलाया था। रघुवीर मालिनी की जगह लेते हैं और म्यूज़िक नेपथ्य में। एक आवाज़ गूंजती है...

"काहे डोली बनवाये अम्मा मड़वा छवाये "

मालिनी की आवाज़ किस कदर निखरती है बता नहीं सकता। लोक गीत के भाव को ऐसे थामे रखती है उनकी आवाज़ कि ऐसा लगता है कि गाज़ीपुर के किसी गांव से टांगा चला आ रहा है। बेटी की विदाई की वेदना को लादे। क्या संतुलन साधा है मालिनी ने। मुझसे रहा नहीं गया। बार बार सुना। मालिनी को संदेश भेजा और फोन आ गया। लेकिन जादू कम ही नहीं हो रहा है। लोकगीत को वो भी एक खास धार्मिक गीत को किस तरह से शादी के गीत में ढाला गया है लाजवाब है। लोक संगीत के एक प्रसंग को दूसरे प्रसंग में ढालना आसान नहीं होता। दोनों प्रसंगों की आत्मा बरकरार है। मालिनी ने बताया कि आरा के हैं निदेशक मनीष तिवारी। स्टीफंस के पढ़े हैं। कस्बा और कास्मोपोलिटन का संतुलन शायद मनीष ने इन्हीं दो दुनिया से सीखा होगा।

"मामा को लूटेगा चाचा खीसीआयेगा। बहनों को ठुमका लगाता लाएगा। काला पीला टेढ़ा मेढ़ा बन्ना ऐसा बाराती लाया रे। का करे हाय । कहां चली जाए। बन्नो शरम से मर मर जाए। "

रघुवीर गा रहे हैं। पीछे से मालिनी चली आ रही हैं अपनी आवाज़ में छठ लिये। कृष्णा ने संगीत दिया है। दक्षिण भारतीय हैं । तीस साल से कम उम्र का यह संगीतकार बिहार के लोकपर्व के धुन को इतने सम्मान और बारीकि से उतारता है कि दिल भारतीय हुआ जाता है। हमीं समझ सकते हैं अपने दक्षिण को और दक्षिण ही समझ सकता है अपने उत्तर को । यह गाना बिल्कुल नया संस्कार रच रहा है। आप शादी के ऐसे धुन और गाने से साक्षात्कर कर रहे हैं जो बिल्कुल नया है। इस गाने को बार बार सुनियेगा। एक बार गाने के बोल के लिए। एक बार मालिनी और रघुवीर की आवाज़ के अंतर्मन को समझने के लिए और एक बार सिर्फ संगीत के लिए। कैसे शहनाई और गिटार संगत करते हैं।

मैं गाने का समीक्षक नहीं हूं। पर गानों को इसी भावुकता से सुनता हूं। हिन्दुस्तान में फिल्म समीक्षक मिलते हैं जो शुक्रवार को आते हैं और शुक्रवार को ही चले जाते हैं। गानों की समीक्षा कोई नहीं करता। प्रकाश के रे और अविनाश ने अपने फेसबुक पर इस गाने को साझा किया था। हमने कई बार सुन लिया है। सबका शुक्रिया। मनीष तिवारी के इस हौसले का और मालिनी की आवाज़ का। शुक्रिया शारदा सिन्हा जी का भी। वो अगर इस बहंगी को नहीं ले आई होती तो मालिनी और मनीष कैसे उसे उठाते। कैसे हमारे पास नए अंदाज़ में लाते।

पागलनामा- पार्ट टेन

करवट करवट । मरघट मरघट । दफ्तर दफ्तर । गड़बड़ गड़बड़ । लदफद लदफद । हजबज हजबज । दलदल दलदल । पार्टी पार्टी । खांग्रेस खांग्रेस । खाजपा खाजपा । लाज बचा लाज बचा ।  पप्पू पप्पू । फेंकू फेंकू । झूठ झूठ । सत्ता सत्ता । लत्ता लत्ता । जूत्ता जूत्ता ।सूट्टा सूट्टा ।  उल्टा उल्टा । सीधा सीधा । चुनाव चुनाव । कांव कांव । कुर्सी कुर्सी । पुर्सी पुर्सी । मर्सी मर्सी । मंत्री मंत्री । पत्री पत्री । गीदड़ गीदड़ । ट्वीटर ट्वीटर । स्कूटर स्कूटर । लफंदर लफंदर । भगंदर भगंदर । बावासीर बावासीर । तासीर तासीर । मंदिर मंदिर । मस्जिद मस्जिद । मुसलमान मुसलमान । ब्राह्मण ब्राह्मण । आक्रमण आक्रमण । अतिक्रमण अतिक्रमण । प्राधिकरण प्राधिकरण । आमरण आमरण । अनावरण अनावरण । मचान मचान । बयान बयान । तान तान । मैं पीयम मैं प्रीयम । मैं सीयम मैं कुर्सीयम । मैं लालसा मैं सालसा । हुर्र हुर्र । हिप्प हिप्प । मुर्दाबाद मुर्दाबाद । कुर्सी दो कुर्सी दो । पुर्ज़ी दो पुर्ज़ी दो । भिंडी लो भिंडी लो । अहंकार अहंकार । ज़िंदाबाद ज़िंदाबाद । सेवा सेवा । ढेला ढेला । केला केला । ठेला ठेला । रेला रेला । जात जात । डाल डाल । पाँत पाँत । वोट वोट । नोट नोट । लो लो । दो दो । रैली रैली । पी बी शैली  पी बी शैली । थ्री चीयर थ्री चीयर । शेक्सपीयर शेक्सपीयर । हार्न हार्न । साइड साइड । भाई रे भाई रे । माई रे माई रे । दाई रे दाई रे । हाई वे हाई वे । बच्चन बच्चन । बतकुच्चन बतकुच्च्न । गठबंधन गठबंधन । दुर्जन दुर्जन । प्रलय प्रलय । विलय विलय । जुलाब जुलाब । गुलाब गुलाब । जुलाई जुलाई । सगाई सगाई । महँगाई महँगाई । सिलाई सिलाई । विदाई विदाई । लबरा लबरा । झबरा झबरा । रैंबो रैंबो । टैम्पो टैम्पो । जम्बो जम्बो । शंभो शंभो । राम राम । मरा मरा । ज़रा ज़रा । धरा धरा । धाम धाम ।  चैनल चैनल । पैनल पैनल । पैदल पैदल ।  बैंगन बैंगन । कद्दू कद्दू । पप्पू पप्पू । फेंकू फेंकू । ढेंचू ढेंचू । ढेंचू ढेंचू । ढेंचू ढेंचू । स्वाहा स्वाहा । ग्वाला ग्वाला । आहा आहा । मारा मारा । अहं पप्पूआस्मी अहं पप्पूआस्मी । अहं फेंकूआस्मी अहं फेंकूआस्मी । ढन्न ढन्न । सन्न सन्न । मत देख मत देख । टीवी टीवी । सीवी सीवी । कम देख कम देख । हवन कर हवन कर । बंद कर बंद कर । टीवी टीवी । टीबी टीबी । दम्मा दम्मा । रम्भा रम्भा । स्वाहा स्वाहा । लोकतंत्र लोकतंत्र । मल मूत्र मल मूत्र । सूत्र सूत्र । भूत भूत । भाग भाग । आई आई । आँधी आई आँधी आई । 

( इसे ज़ोर ज़ोर से बंद कमरे में गाते रहें । लोकतंत्र के खाज का मवाद बाहर आ जाएगा और घाव सूख जाएगा । बाबा नागार्जुन की जय लास्ट में बोले । )